Tuesday, January 31, 2017

इंटरव्यू

आप मीडिया से लगातार जुड़े रहे हैं. मीडिया में दलितों को लेकर जो एक भेदभाव है. उसे आप कैसे देखते हैं?
- मैं आपसे पहले भी कह चुका हूं कि यह पूरा मामला स्ट्रक्चर का है. बहुत सारे लोग कहते हैं कि दलित मीडिया खड़ा हो. लेकिन ये हो नहीं पाया है. (मैं बीच में टोकता हूं)
तो क्या दलित मीडिया खड़ा होना चाहिए. आप इसके पक्ष में हैं?या फिर इसी सिस्टम में दलितों को जगह मिलनी चाहिए?
मैं इतने सपाट तरीके से चीजों को देखता नहीं हूं. मान लिजिए की अगर दलित मीडिया है तो वो फिर दलित मीडिया हो गया. हम कह रहे हैं कि एक मीडिया ऐसा हो जो समाज की गैरबराबरी को दिखाए. दलित मीडिया का क्या मतलब हुआ, केवल दलितों की बात करने वाला. तो मान लिजिए की ऐसा कोई मीडिया खड़ा हो भी गया तो मुझे नहीं लगता कि वो ज्यादा कामयाब होगा. हां, दलित समाज के भीतर एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन पूरे समाज को एडजस्ट करने के लिए वो काम नहीं करेगा. तो मैं ये मानता हूं कि केवल दलित मीडिया से काम नहीं चलेगा. क्योंकि पूरे समाज को संबोधित करने के लिए, उसकी वस्तुस्थिति जाहिर करने के लिए उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
जैसे यूपी में इन दिनों एक भाषा इस्तेमाल की जा रही है. दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न. आप इसकी बारीकी को समझिए कि कैसे वो दलित के उत्पीड़न के लिए दलित को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है. आप इसको सोचिए. मायावती दलित नहीं भी हैं और हैं भी. वह सरकार की मुख्यमंत्री हैं. प्रदेश चला रही हैं तो वो पूरे समाज की हैं. लेकिन आप उनको संबोधित कर रहे हैं केवल दलित. और खासतौर पर वहां कर रहे हैं जहां दलित उत्पीड़न की शिकायत है. तो आप क्या कर रहे हैं कि आप वहां सरकार को बचा रहे हैं. सरकार के ढ़ांचे को बचा रहे हैं और दलित को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यानि की उनका दलित होना इस विफलता का परिचायक है. बहुत सूक्ष्म तरीके से ऐसी सांस्कृतिक लड़ाई होती है. बड़ी बारीक लड़ाई है. और अगर हम इस बारीकी को समझने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं तो हम क्या करते हैं कि जो भी चीजें (नारा) आती हैं, हम उसमें बह जाते हैं. तो मुझे लगता है कि हमें उस बहने वाली स्थिति से निकलना होगा.
मीडिया में तमाम बड़े नाम हुए हैं. जैसे प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, एसपी सिंह. उन्हें काफी अच्छा माना जाता है. उनके जमाने में क्या दलित मुद्दों को जगह मिल पाती थी. उन्होंने इस ओर ध्यान दिया था.
- नहीं, कोई ध्यान नहीं दिया था. इन लोगों का कभी भी इससे कंसर्न विषय नहीं रहा. मैं मानता हूं कि भारतीय मीडिया में अभी तक कोई भी ऐसा मीडिया लीडर नहीं निकला है जो इस सवाल को बहुत गंभीरता से लेता हो. मीडिया मे दलितों के खिलाफ खबरों के आने का जो ट्रेंड है, वो जो शुरू में था वही अब है. दलितों के बारे में जो खबर आती है वो तब आती है जब दलित उत्पीड़न की बड़ी घटना हो जाती है. वह इसलिए आती है क्योंकि आप उसे इग्नोर नहीं कर सकते हैं. मैं नहीं समझता हूं कि किसी ने बहुत सचेत होकर कोई कोशिश की है कि मीडिया में जो दलितों के खिलाफ या तमाम तरह की गैरबराबरी के खिलाफ खबरों को ज्यादा से ज्यादा जगह मिल पाए. और इस गैरबराबरी से निकलने की अवस्था बने. ऐसा भी नहीं है कि दलित समाज के जिन बच्चों की पत्रकारिता में रुचि है और जो इसमें आना चाहते हों, इनलोगों ने उनकी मदद की हो.
संविधान में हमें आरक्षण का लाभ मिला है लेकिन कई जगहों पर यह नहीं दिया जाता. जैसे आपने ही एक आरटीआई डाली थी, जिसमें निकल कर आया था कि लोकसभा चैनल में दलित नहीं हैं. जबकि वो भी सरकारी चैनल है. क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं है?
- बिल्कुल है. जब से यह चैनल शुरू हुआ उसके पहले ही यह नियम बन गया कि हम कन्सलटेंट के रूप मे किसी को भी भर्ती कर सकते हैं. उसमें आरक्षण का कोई लेना-देना नहीं है. अब उन्होंने एक रास्ता निकाला कि आरक्षण के सिद्धांत को कैसे दरकिनार कर दें. तो इसके लिए एक अलग रास्ता निकाला गया. लोकसभा में देश का सारा कानून बनता है. यहीं यह नियम बना कि दलितों के लिए नौकरियों में शिक्षा में आरक्षण होगा और उसी के संस्थान में आरक्षण लागू नहीं है. संपादकीय के 107 लोगों के ढ़ांचे में मेरी जानकारी में एक भी लोग नहीं हैं. और अगर वो यह सोचते हैं कि बिना आरक्षण लागू किए इस व्यवस्था में कोई आदिवासी आ जाएगा, कोई दलित आ जाएगा तो यह ऐसे ही हैं, जैसे कोई यह कहता है कि बिना आरक्षण के कोई लोकसभा में पहुंच जाएगा. इतने सालों बाद भी इसके बारे में नहीं सोचा जा सकता. आप सोचिए कि इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. ठीक इसी तरह मैने प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल उठाया था. वहां पूरी वर्ण व्यवस्था को प्रदर्शित करने वाली तस्वीरें लगी हैं. कि किसको ब्राह्मण कहते हैं, किसको क्षत्रिय कहते हैं, किसको वैश्व और किसको शूद्र कहते हैं. हमने इस बारे में आरटीआई डाला, संसद में सवाल करवाया लेकिन यह जवाब नहीं आया कि वो क्यो?
यह 1932 से लगी है. जब से अंग्रेज थे तब से. उस आफिस में हर दल के लोग जाते हैं. कई दलों की सरकार रह चुकी है. उसमें तमाम दलित लोग रह चुके हैं. मुझे हैरानी होती है कि किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाया. आपने खुद को एकोमोडेट करने की जो मानसिकता बना रखी है इसमें यही होगा. ऐसे में आप रिलेक्स हो जाते हैं. जो अकोमोडेट हो जाते हैं उनको फिर समाज में परिवर्तन की लड़ाई से कोई मतलब नहीं रहता.
आज जो लोकसभा की स्पीकर हैं वो दलित परिवार से आती हैं. बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं लेकिन उनके राज में भी यह व्यवस्था चलती जा रही है. मेरा यह मानना है कि अगर स्ट्रक्चर में आप केवल अपनी जगह बनाएंगे और स्ट्रक्चर गैरबराबरी का है. तो आप मान कर चलिए कि गैरबराबरी किसी ना किसी रूप में बनी रहेगी. उसका रूप बदल जाएगा.
यही चीजें शिक्षण संस्थाओं में भी देखने को आ रही हैं. पिछले दिनों मे तमाम आरटीआई में यह निकल कर आया है कि दलितों और पिछड़ों के लिए निर्धारित सीटों को भरने में तमाम तरह की धांधली हो रही है?
- मैं तो कह रहा हूं कि आपके हाथ से आरक्षण जा रहा है. अब जो राजनीतिक नेतृत्व तैयार किया गया है वो आरक्षण के मुद्दे को उठाकर जोखिम लेने की स्थिति मे नहीं है. आप सोचिए ना कि आरक्षण को लागू हुए देश में कितने साल हो गए. मैने तो आरटीआई के माध्यम से कई जानकारियां निकाली थीं. इसमें सामने आया था कि भारत सरकार में एक भी सेक्रेट्री दलित नहीं था. ग्रुप‘ए’के अधिकारी भी रेयर ही थे. शिक्षण संस्थाओं मे भी यही हाल है. एम्स में भी लड़ाई लड़ी गई है. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि आरक्षण की स्थिति को खत्म करने के जो प्रयास हो रहे हैं वो दलित और पिछड़े के नेतृत्व में किया जा रहा है. यह ज्यादा खतरनाक बात है.
आप पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाते रहे हैं, वहां के अनुभवों को बताइए?
- आईआईएमसी के हिंदी विभाग में 3 साल तक पढ़ाया. 2-3 साल दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा. वर्धा में कई वर्षों से जाता रहा हूं. फिर वहां प्रोफेसर के रूप मे नियुक्त भी हुआ था. अब भी कई संस्थानों से जुड़ा हूं. लेकिन पढ़ाने के बीच में दुविधा की स्थिति भी होती है कि हम छात्रों को किसके लिए तैयार कर रहे हैं? क्या हम मीडिया आर्गनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार कर रह हैं, या फिर समाज के लिए पत्रकार तैयार कर रहे हैं. आखिर हम मीडिया आर्गेनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार क्यों करें? यह दुविधा है.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहने के दौरान वहां के कुलपति वीएन राय से आपका विवाद काफी सुर्खियों मे रहा था. विवाद की वजह क्या थी. क्या अब वो सारा विवाद खत्म हो गया?
- व्यक्तिगत विवाद नहीं था. हर संस्थान का लीडर चाहता है कि संस्थान उसके मुताबिक चले. कोई आजादी देता है, कोई नहीं देता. झगड़ा यहीं होता है. वर्धा में जो कुलपति हैं, वो पुलिस बैकग्राउंड के हैं. उनका जीवन आदेश देने-लेने में गुजरा है. मेरा जीवन स्वतंत्र रहा है. तो मूलतः यही अंतरविरोध था. फिर धीरे-धीरे विवाद का विषय बनता चला गया. उन्होंने ही आमंत्रित किया था. अप्वाइंट किया था. इंटरव्यूह के वक्त ही मैने साफ कहा था कि मैं दिल्ली छोड़कर आ रहा हूं तो मेरी एक योजना है. मैने उसे सामने रखा था. लेकिन जब उसे लागू करने लगा तो दिक्कत आने लगी. फिर ईसी (एक्जीक्यूटिव काउंसिल) ने फैसला किया कि मुझे हटाना है. एकतरफा फैसला था. फिलहाल नागपुर हाई कोर्ट में केस चल रहा है.
लोकसभा में दलित-आदिवासी समुदाय से 120 सांसद हैं. लेकिन मिर्चपुर जैसा बड़ा कांड होने के बावजूद संसद में वह प्रमुखता से नहीं उठ पाया. इसकी क्या वजह है?
- संसद ही क्यों, जितना शोर-शराबा संसद के बाहर होना चाहिए था, वहां भी नहीं हो पाया. इस पर अध्ययन होना चाहिए कि मिर्चपुर जैसे बड़े कांड के बावजूद भी आंदोलन की शक्लक्यों नहीं बन पाई. इस घटना के बाद पूरा सरकारी तंत्र जागरूक हो गया था. भावी प्रधानमंत्री कहा जाने वाला शख्स भी वहां पहुंच गया था. मुआवजे की घोषणा हुई. अधिकारी गिरफ्तार किए गए. मेरा सवाल है कि क्या आंदोलन इसी तरह की मांगों के लिए होते हैं? आंदोलन का उद्देश्य क्या बस ऐसी मांगों को पूरा करवाना होता है? या फिर आंदोलन का उद्देश्य इस तरह की घटनाओं को रोकना होता है. तो आंदोलन का उद्देश्य उस उद्देश्य तक नहीं पहुंचा है, जहां इसे पहुंचना चाहिए था.
दलित समाज का बड़ा हिस्सा सत्ता में है. लाखों लोग अच्छी नौकरी में है. सबकुछ है लेकिन आप एक बड़ा आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर पा रहे हैं. खैरलांजी, मोहाना, दुलीना जैसे आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर सके. दलित उत्पीड़न विरोधी जो राजनीतिक धारा है, उस पूरी धारा का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए.
क्या आप दलित आंदोलन के वर्तमान रुख और तेजी से संतुष्ट हैं?
- बिल्कुल नहीं हूं. संतुष्ट तब होते, जब सब ठीक होता, दुरुस्त होता. आंदोलन का विस्तार होता रहता है. अभी जड़ता की स्थिति है. अगर इसे तोड़ा नहीं गया तो लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी.
वर्तमान में दलित आंदोलन में किन नई बातों को शामिल किए जाने की और पुरानी बातों को छोड़ने की जरूरत है?
- आंदोलन में जो एक बात दिखाई दे रही है कि यह शहरी हिस्से, मध्यवर्ग और शिक्षित लोगों तक ही सिमटती जा रही है. यह बड़ा खतरा है. हम कभी यह नहीं सुनते कि जो आरक्षण नहीं मिलने की शिकायत करते हैं वो देश के खेत मजदूरों की भी बात करते हैं. खेत मजदूरों की सर्वाधिक आबादी दलितों की ही है. आंकड़ें उपलब्ध है कि 20 रुपये रोज पर 76 फीसदी लोग गुजारा करते हैं, आप उनमें दलितों की संख्या का अंदाजा लगा लिजिए. इसके मुकाबले इनकी चिंता कितनी होती है, उसे साफ तौर पर देख सकते हैं. आंदोलन की भाषा को सबसे पहले चेक करने की जरूरत है. आरक्षण समाज को मिलता है, व्यक्ति को नहीं. आरक्षण के जरिए व्यक्ति सरकारी संस्थाओं में समाज का प्रतिनिधित्व करता है. जब तक वह इस स्थिति को महसूस नहीं करेगा कि वह अकेला व्यक्ति नहीं बल्कि अपने समाज का प्रतिनिधि है, वह अपने आप को जिम्मेदार नहीं बना सकता है.
उत्तर प्रदेश के अलावा और कहीं सशक्त नेतृत्व उभर कर क्यों नहीं आ पाया?
- उत्तर प्रदेश में जो आंदोलन की स्थिति बनी है, उसमें कांशी राम जी का आंदोलन लंबे समय तक चला. उसी की वजह से दलित चेतना जागी. कांशी राम जी का आंदोलन पूरे प्रदेश में दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करता था. यूपी ब्राह्मणवाद का केंद्र रहा है. लोगों की चेतना में यह लंबे समय से था. इसमें इतनी आक्रमकता थी कि‘इनको मारो जूते चार’की बात कही गई. कांशीराम जी ने इस बात को समझा की जब तक इस आवाज में अभिव्यक्त नहीं करेंगे, गुस्से को उभार नहीं पाएंगे. कांशी राम ने लोगों की सोच के साथ तालमेल बैठा लिया. इसलिए यूपी में सफलता मिली. यह बिहार में नहीं मिलती. पंजाब में नहीं मिल सकती थी, जहां के कांशीराम खुद थे.
मायावती, रामविलास पासवान, प्रकाश आंबेडकर, उदित राज और रामदास अठावले जैसे प्रमुख दलित नेताओं की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? इनका भविष्य क्या है?
- ये सारे लोग सत्ता से जुड़े लोग हैं. अब अगर आप मायावती से आंदोलन करने की उम्मीद करेंगे तो यह मुश्किल है. कांशी राम ने कभी भी मुख्यमंत्री बनने की नहीं सोची. आप (मेरी ओर इशारा करते हुए) जिन तमाम लोगों के नाम ले रहे हैं, उन्हें सत्ता सुख मिल गया है. ये आंदोलन नहीं कर सकते. हां, यह सत्ता के अंतरविरोधों को उभार कर जातीय गठबंधन के अनुरूप सत्ता में जगह बना लेंगे. ये कोई बदलाव, कोई आंदोलन नहीं कर सकते.
दलित-आदिवासी हित के लिए तमाम एनजीओ काम कर रहे हैं. क्या आप उनकी कार्यप्रणाली को ठीक मानते हैं, क्या वो ईमानदार हैं?
- हमेशा विकल्प का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया जाना चाहिए. तात्कालिक हित और दूरगामी हित के बीच के फर्क को समझना चाहिए. जो एनजीओ हैं, वो राजनीतिक तौर पर बुनियादी परिवर्तन का हथियार नहीं हो सकता है. इसलिए किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ के काम से यह दिखता तो है कि वह आपके हित की बात कर रहा है, लेकिनउससे कोई बुनियादी फर्क नहीं आ पाता है. जैसे वह शिक्षा की बात तो करेगा लेकिन जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के कारण से शिक्षा नहीं मिल पा रही है, उसकी बात नहीं करेगा. तो जो एनजीओ काम कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने बहुत उल्लेखनीय काम कर दिया है. या फिर जो दलितों के ऐसे आंदोलन को मजबूत कर रहा हो जो बुनियादी ढ़ांचे को तोड़ने की बात करता है.
अगर आपको दलितों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा सुधारने की छूट दी जाए तो आप क्या करेंगे?
- मुझे काम करने की छूट मिली हुई है. जो कारण मेरी समझ में आता है उसे लोगों के सामने रखता हूं. और भी बहुत सारी चीजें जो उनपर थोपी गई है, उसे सामने लाता हूं.
चंद्रभान प्रसाद, प्रो. तुलसी राम, डा. विवेक कुमार और श्योराज सिंह बेचैन जैसे तमाम दलित चिंतक, लेखक और विचारक दलितों की आवाज को हर मोर्चे पर उठाते रहते हैं. इनके विचारों से आप कितने सहमत हैं?
- सबके अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना नजरिया है. सब महत्वपूर्ण लोग हैं और सबका योगदान हैं. बराबरी के चिंतन और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ाई को इन तमाम लोगों के विचारों ने नया आयाम दिया है.
आप दलित हित की बात करते हैं, आप बाबा साहेब को कैसे देखते हैं?
- उनके विचारो से मेरी बिल्कुल सहमति हैं. दरअसल बाबा साहेब की जो पूरी चिंतन प्रणाली है, उसकी तमाम लोग अपने तरीके से व्याख्या करते हैं. जैसे बाबा साहब कहते हैं किशिक्षित बनों, संगठित बनों, संघर्ष करो. हर कोई यह नारा लगाता है. मैं इसमें बाबा साहब की एक बात जोड़ता हूं कि बाबा साहेब जैसे ही यह कहते हैं कि मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, तो उनका यह कथन, पहले वाले कथन के मायने बदल देता है. उनके लिए शिक्षित होने का मतलब खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए शिक्षित होना नहीं है. या फिर बस स्कूली शिक्षा भर नहीं है. शिक्षा का मतलब यहां बदल जाता है.
जैसे मेरे एक मित्र हैं- अनंत तिलतुमरे. बाबा साहेब के परिवार के हैं. जिस तरह से वो बाबा साहेब के विचारों को प्रस्तुत करते हैं, आप बाबा साहेब के विचारों के अलावा किसी और के विचारों से सहमत नहीं हो सकते. तो महत्वपूर्ण यह है कि आप उन्हें कैसे प्रस्तुत करते हैं. मैं बाबा साहब का दिया संदेश पसंद करता हूं. उनका प्रभाव महसूस करता हूं और उनका सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का जो कारण है, वो हमें सोचने की गति देता है.
आपके जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव किसका रहा?
- आपके जीवन पर किसी एक व्यक्ति का प्रभाव नहीं होता. मैं इसका पक्षधर भी नहीं हूं. परिवर्तन की हर धारा को, बराबरी का समाज बनाने की सभी धाराओं को करीब से देखने की कोशिश करता हूं. जिसका साकारात्मक पक्ष महसूस करता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं. तो किसी व्यक्ति से प्रभावित हूं, ऐसा नहीं कह सकता. खुद को आधुनिकतम राजनीतिक विचारधारा से जोड़ पाता हूं. लोकतंत्र और बराबरी से जोड़ पाता हूं.
अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में बताइए?
- कोई दुश्मन नहीं है. व्यक्ति के रूप में किसी को दुश्मन नहीं मानता हूं. जिन्होंने मेरे ऊपर गोली चलाई, अपहरण करने की कोशिश की, उन्हें भी नहीं. हां, विचारधारा को दुश्मन मानता हूं. जो प्रतिक्रियावादी धारा है वह मेरे दुश्मन की तरह है.
गोली चलाई, अपहरण की कोशिश? कब की घटना है यह? जरा विस्तार से बताइए.
- सब कॉलेज के दिनों की बात है. उन दिनों आरक्षण समर्थक थे तो क्लास रूम की बजाए बाहर होते थे. उस दौरान कुछ लड़कों के साथ झगड़ा हुआ था. मेरे ऊपर गोली चलाई गई, मेरे अपहरण की कोशिश हुई.
क्या कोई ऐसी घटना है जिसने आपके जीवन को प्रभावित किया?
- दो लोगों की बातों ने काफी प्रभावित किया. एक केशव शास्त्री थे. लीडर थे. लोहियावादी थे. उनका एक किस्सा बड़ी प्रभावित करता था. एक दिन उन्होंने पूछा कि कभी किसी नदी के किनारे गए हो? मैने कहा- हां, गया हूं. उन्होंने कहा कि क्या कभी गौर किया है कि पहाड़ से नदी की ओर जो धारा निकलती है, वह कई बड़े पेड़ों को उस धारा में बहाकर ले आती है. लेकिन उस नदीं में जो छोटी मछली होती है वह धारा के विपरीत चलती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित है. उसमें चेतना है. तो वह प्रदर्शित करती है कि धारा बहाकर नहीं ले जा सकती. उनके इस किस्से ने काफी प्रभावित किया.
एक दूसरी घटना जिसने मेरे विश्वास को बढ़ाया, वो घटना नौवीं कक्षा में घटी. मेरे सामने संकट था कि क्या करें. तब एक टीचर मिले. कुशवाहा जाति के थे. हम उन्हें मुंशी मास्टरकहते थे. (आज की बदलती बोली की ओर ध्यान दिलाकर कहते हैं, सर नहीं मास्टर कहते थे) उन्होंने नौंवी पास करने के बाद मुझसे कहा कि तुम 11वीं (तब बोर्ड) की परीक्षा दो. मैने कहा- मास्टर साहब यह कैसे होगा. उन्होंने भरोसा दिलाते हुए कहा कि अगर मैं आने वाले 4-6 महीने तक पढ़ाई करूंगा तो टॉप-10 में आ जाऊंगा. हालांकि ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन उन्होंने मुझपर जो भरोसा दिखाया उसने मेरे भीतर आत्मविश्वास का एक ढ़ांचा खड़ा कर दिया.
आपके आत्मविश्वास को तोड़ना और बनाए रखना, यही पूरी लड़ाई है. खासकर एक दलित के भीतर यह मायने रखता है. अगर एक दलित को बार-बार यह कहा जाता है कि वह कुछ नहीं कर सकता तो उसके आत्मविश्वास का ढ़ांचा टूट जाता है. शासक यही काम करते हैं. तो सारी लड़ाई आत्मविश्वास को बनाए रखनी की है. तो ऐसे कई पात्र मेरे जीवन में आए हैं. वो सभी सामान्य थे. मेरे भीतर उन सभी का कंट्रीब्यूशन है. मुझे गढ़ने में उनकी बड़ी भूमिका है.
सर आपने इतना वक्त दिया, हमसे बात की धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी।

अप्रैल, 2010 में हरियाणा के हिसार जिले में मिर्चपुर गांव में बाल्मीकी बस्ती के एक कुत्ते के भौंक देने के बाद बाल्मीकि बस्ती पर वहां के जाटों ने हमला कर दिया था और कई घर फूंक डाले थे। उसमें एक विकलांग लड़की सुमन को जिंदा जला दिया गया और उसके पिता को भी। उस घटना के बाद कुछ आरोपियों को पकड़ा गया और मुकदमा चल रहा है। लेकिन उन्हें रिहा करने के लिए वहां जो "आंदोलन" चल रहा है और उसके प्रति जो सरकारी रुख है, एक निचली अदालत की जज ने जो टिप्पणी की थी, वह अपने आप में इस बात का सबूत है कि हमारी व्यवस्था किसके लिए और किस तरह काम करती है। यह कड़ी रुक नहीं रही है। क्या हम एक आजाद देश में रह रहे हैं और क्या हम आज भी यह कहने की हालत में हैं कि हम एक गौरवशाली परंपरा वाले समाज और देश में रहते हैं?
जब यह घटना हुई थी, तब मैं, दिलीप मंडल, राकेश कुमार सिंह, चंद्रा और विनीत कुमार के साथ वहां गया था। तभी यह लेख लिखा था, जो जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था।
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मिर्चपुर की कड़ियां...
जब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था को नस्लीय भेदभाव की तरह वंचित वर्गों के खिलाफ दमन-शोषण के एक मानक के रूप में स्वीकार करने की बात आती है, तो देश की सरकार इस मुद्दे को खारिज करने के लिए अतिरिक्त उत्साह का प्रदर्शन करती दिखती है। इससे दुनिया में यही संदेश जाता है कि यह मांग कुछ असंतुष्ट वर्गों की गैरजरूरी ‘खुराफात’ होगी और जाति-व्यवस्था एक प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के साथ सामरिक-आर्थिक समझौते करते और भावी महाशक्ति के रूप में प्रचारित हमारे देश के सामाजिक हालात क्या इतने ही सुखद हैं?

दरअसल, सामाजिक वर्णक्रम का मनोविज्ञान इतना आसान नहीं है कि उसकी गुत्थियां अर्थव्यवस्था के विकास दर के जुमलों से सुलझायी जा सकें। दूसरे कई राज्यों के मुकाबले हरियाणा एक समृद्ध या और ज्यादा समृद्ध होता राज्य है। ‘जिंदल प्रभाव’ से आच्छादित राज्य के एक जिले हिसार का सफर करते हुए कोई भी यह अंदाजा लगा सकता है कि रास्ते में पड़ने वाले घरों की बनावट और वहां की बहुत अच्छी सड़कें शायद ‘ईमानदार और समग्र’ विकास नीतियों का नतीजा होंगी। मिर्चपुर गांव भी बाहर से ऐसा ही दिखता है। लेकिन पिछले महीने इस गांव की एक घटना ने फिर से इस वहम को तोड़ा है कि आर्थिक विकास सामाजिक शोषण और दमन की स्थितियों से निपटने का एक आखिरी जरिया है।
एक कुत्ते के भौंकने के बाद हुई नोक-झोंक क्या इतना बड़ी वजह हो सकती है कि गांव की समूची बाल्मीकि बस्ती पर हमला करके घरों को फूंक डाला जाए? लेकिन इस बहाने ने ऐसा रूप लिया कि दबंग माने जाने वाले जाट समुदाय के लोगों ने ‘अपनी’ सत्ता और पुलिस प्रशासन में अपने लोगों के साये में बाल्मीकि बस्ती को घेर कर करीब बीस घरों को इत्मीनान से जलाया। खासतौर पर उन घरों को निशाना बनाया गया जो किसी तरह थोड़ी अच्छी हालत में आ चुके थे।
घृणा के उस पैमाने का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है जो एक विकलांग लड़की के ऊपर पेट्रोल डालने के बाद घर में बंद कर देने और बाहर से आग लगा देने को मजबूर करता है। शारीरिक रूप से लाचार अठारह साल की सुमन बारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी। नफरत की इस आग में सुमन के साथ उसके पिता ताराचंद भी जला दिये गये।
सुव्यवस्थित विकास की दिख सकने वाली तस्वीरों के बीच इस स्थिति की कल्पना भी शायद मुमकिन नहीं कि अपने जलते घरों और खुद को बचाने की कोशिश करते पुरुषों और महिलाओं के सामने हमलावर निर्वस्त्र होकर नाचने लगें! यह किसी भी तरह के विकास के तमाम दावों को खारिज करने के लिए काफी है। यह हजारों साल की ‘महान’ सांस्कृतिक परंपराओं पर शर्म करने के लिए काफी है। यह एक ऐसे कबीले की कल्पना लगती है जिसे अपनी सड़ांधों पर गर्व करना सुहाता है और वह इसी में जीना चाहता है। नहीं तो क्या कारण है कि अपनी प्रकृति में समान गोहाना, दुलीना या मिर्चपुर कांड शृंखला की कड़ियों की तरह आगे बढ़ते जा रहे हैं।
इस तरह की घटनाओं के बावजूद अक्सर खाप पंचायतों में अपनी तीन हजार साल की परंपरा पर गर्व की घोषणा की जाती है। इन पंचायतों में वे लोग भी बैठे होते हैं, जिनके घरों में आधुनिकतम सुख-सुविधाओं के सभी साधन मौजूद होंगे और संभव है कि उनमें से बहुत सारे डॉक्टर-इंजीनियर या स्कूल-कॉलेज में पढ़ाने वाले शिक्षक हों। जिस मिर्चपुर गांव में बाल्मीकि बस्ती को जलाया गया, वहां दूसरी सरकारी नौकरियों के अलावा शिक्षण के पेशे में चार सौ लोग हैं। इन चार सौ में से तीन सौ अस्सी शिक्षक अकेले जाट बिरादरी से हैं। लेकिन मिर्चपुर की घटना के बाद भी इनके बीच का कोई शिक्षक अगर बाल्मीकियों को बदमिजाज और सिरचढ़ा कहता हुआ मिल जाए तो समझा जा सकता है कि अपने समाज पर इन शिक्षकों का क्या असर होगा और अगर होगा तो वह किस तरह का होगा। कहते हैं कि शिक्षा सभी तरह की जड़ताओं और अंधेरों को दूर करती है। लेकिन हकीकत यह भी है कि सत्ता और सत्ता में बने रहने की चाहत शिक्षा को एक साजिश में तब्दील कर देती है। राजनीतिक सत्ताएं आमतौर पर सामाजिक सत्ताओं का ही प्रतिरूप होती हैं। और यह जगजाहिर है कि राजनीतिक सत्ताओं के लिए सामाजिक सत्ताओं के हित क्यों सर्वोपरि होते हैं।
यह अनायास नहीं है कि खाप पंचायतों को न केवल पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उनकी पार्टी का, बल्कि हरियाणा के औद्योगिक विकास में अपनी खास जगह रखने वाले कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल का भी खुला समर्थन मिलता है। राज्य सरकार की ओर से मुआवजे की रस्म अदायगी को खारिज करके मिर्चपुर के पीड़ित जब अपनी मांगों के साथ हिसार जिलाधिकारी कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे थे, तो उन्हें एक तरह से जबर्दस्ती वहां से हटा दिया गया। वे कौन-सी ताकतें हैं, जो राजनीतिक सत्ताओं को इस तरह के ‘खेल’ को जारी रखने के लिए मजबूर करती हैं? दरअसल, बदलती आर्थिक संरचनाओं का असर वंचित तबकों की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थितियों पर जरूर हुआ, जिसमें उन्हें सशक्तीकरण की एक प्रक्रिया में जाने का मौका मिला। नये दौर के संपर्कों के कारण बड़े पैमाने पर दलित अपने पारंपरिक पेशों से बाहर आये और मजदूरी से लेकर दूसरे कई तरह के काम-धंधों में उन्होंने दखल देना शुरू किया। पारंपरिक पेशे जहां उनकी सामाजिक हैसियत और आर्थिक बदहाली को बनाये रखने में ही अपनी भूमिका निभाते थे, वहां अब उन्होंने अपने घर की दीवारें अच्छी बनायीं, टीवी, फ्रिज या मोटरसाइकिल भी खरीदे। निजी स्कूलों का खर्च वे नहीं उठा सकते थे, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही सही, भेजना शुरू किया।
यह एक ऐसी स्थिति है जिससे समूची सामाजिक सत्ता-संरचना में टूट-फूट मच सकती है। और संस्कृति का ‘राग- उदार’ गाता हुआ हमारे देश या समाज का प्रभु वर्ग अभी इतना उदार नहीं हुआ है कि अपनी हैसियत की कुर्सी की ओर बढ़ते किसी कदम का वह स्वागत करे। जाहिर है, कमजोर वर्गों के लोगों का अपने अस्तित्व को लेकर जागरूक होना समाज पर पहले से काबिज प्रभु वर्गों को नागवार गुजरा है।
मुश्किल यह है कि सशक्तीकरण की इस प्रक्रिया ने दबंग समुदायों के बीच उदार या मानवीय होने की प्रेरणा भरने के बजाय अपनी परंपरागत हैसियत के छिन जाने का भय पैदा किया। जब तक समाज अपनी परंपराओं के हिसाब से चलता रहा और दलित-दमित तबके ‘अपनी सीमा’ में रहे, यह ‘गर्व’ करने का विषय रहा। और जब सामाजिक सत्ता के सूत्र बिखरने लगे तो इस श्रेष्ठता-बोध के मनोविज्ञान के सामने नयी चुनौतियां खड़ी हुईं। इसी यथास्थितिवाद को कायम रखने या इसे बचाने की कोशिशों के तहत प्रभु वर्ग ज्यादा आक्रामक हुए। गोहाना या मिर्चपुर जैसे कांड दरअसल उसी प्रतिक्रिया का नतीजा कहे जा सकते हैं, जिसकी मार्फत यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि समाज की लगाम किसके हाथों में है और किसे अपनी तय सामाजिक हैसियत से ऊपर आने का हक नहीं है।
मगर सामाजिक सत्ताओं और उसके प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र के सामने स्थितियां क्या पहले की तरह ही आसान रह गयी हैं?
पुलिस प्रशासन के साये में सुनियोजित तरीके से हुए मिर्चपुर कांड के बाद सिर्फ सार्वजनिक शर्म से बचने के लिए हरियाणा सरकार ने जो औपचारिक कार्रवाई की, उसकी असलियत का अंदाजा भी स्थानीय दलितों के इस आरोप से लगाया जा सकता है कि घटना को अंजाम देने वाले अब भी खुलेआम घूम रहे हैं और लोगों को धमका रहे हैं।
गौरतलब है कि मिर्चपुर में दलित उत्पीड़न का लंबा इतिहास रहा है और खासतौर पर दलित महिलाओं का यौन उत्पीड़न और उन्हें नंगा करके घुमाने जैसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं। अपनी मर्जी से वोट नहीं डाल पाने या गांव के मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित होने जैसी स्थितियां अगर आज भी बनी हुई है तो यह किसकी विफलता है? शायद यही वजह है कि हालिया घटना के बाद प्रशासन की ओर से दिये गये सुरक्षा के आश्वासन के बावजूद कुछ भुक्तभोगी गांव में लौटे, लेकिन उन्होंने अपने परिवार की युवतियों और लड़कियों को गांव से दूर अपने रिश्तेदारों के पास रखने का विकल्प चुना।
यह उस इलाके में दलित वर्गों के लिए सम्मान और सुरक्षा के माहौल और प्रशासन के आश्वासन की सच्चाई है। वे कौन-से हालात होंगे, जिनमें स्थानीय दलित परिवारों ने दावा किया कि अगर पुलिस ने चाल नहीं चली होती तो हमारे लड़के इतना बड़ा कांड नहीं होने देते, और कि अब लड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचा? साफ है कि अब दलित भी शायद खुद सामना करने के विकल्प की ओर बढ़ रहे हैं। क्या यह सरकारों के चेतने का समय है? यह बेवजह नहीं है कि घटना के लगभग तीन हफ्ते बाद मिर्चपुर में एक ओर सर्वखाप पंचायत में आठ-दस हजार लोगों की भीड़ के सामने दावा किया जा रहा था कि ‘बाल्मीकि भाइयों ने अब समझौता कर लिया है और वे भाईचारे के साथ गांव में रहने को तैयार हो गये हैं’ और दूसरी ओर, जलायी गयी बस्ती के भुक्तभोगी परिवारों का साफ कहना था कि किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता और दोषियों को हर हाल में सजा मिलनी चाहिए।
मगर राज्य की राजनीतिक ताकतों को दलित वर्गों की पीड़ा और उनके गुस्से की कोई परवाह नहीं है। दलितों पर अत्याचारों से लेकर इज्जत बचाने के नाम पर हत्या जैसे बर्बर फरमानों के बावजूद अगर राजनीतिक दल खाप पंचायतों के सामने सिर झुकाये नजर आते हैं तो इसके कारण क्या हो सकते हैं? या तो उनका मकसद सिर्फ वोट लेना है, या फिर वे खुद भी उसी मध्ययुगीन मानसिकता में कैद हैं! परंपरा को बचाने के नाम पर जातीय और राजनीतिक स्वार्थों का यह घालमेल संविधान तक को खारिज करने में नहीं हिचकता।
सामाजिक विकास नीतियों की इससे बड़ी विफलता और क्या हो सकती है कि शिक्षा और सभ्यता के तमाम दावे जाति की जड़ों के सामने हार जाते हैं! देश के सभी हिस्सों में लागू पाठ्यक्रमों में अपनी संस्कृति की उदारता पर गर्व करने का मनोविज्ञान तैयार किया जाता है। लेकिन अलग-अलग रूपों में देश के सभी हिस्सों में कमजोर तबकों के खिलाफ अक्सर होने वाली अत्याचार की घटनाएं व्यवहार में उस उदारता की हकीकत बयान करती हैं। इस सच्चाई को दुनिया के सामने नस्लीय भेदभाव के आईने में देखने से हमारी सरकारें क्या इसलिए कतराती रही हैं कि इससे गोहाना, दुलीना या मिर्चपुर जैसे कांडों पर पड़ा पर्दा उघड़ जाएगा?

संजय लीला भंसाली पर हमला

संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' को लेकर जो बवाल हो रहा है, उसकी जड़ें इतिहास में हैं. जो लोग संजय लीला भंसाली पर हाथ उठाकर ये दावा कर रहे हैं कि वो रानी पद्मिनी के सम्मान की रक्षा कर रहे हैं उनका इतिहास भी कुछ खंगाल लिया जाए.
यह किसी मध्ययुगीन सूफी शायर का काल्पनिक किस्सा नहीं है. बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है. राजस्थान में एक महान राजपूत नेता हुआ करते थे. उनका नाम था भैरो सिंह शेखावत, जो बाद में भारत के उपराष्ट्रपति भी बने. एक दिन, रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों राजपूत लोगों ने शेखावत को घेर लिया, उनके हाथों में तलवारें थीं और वो शेखावत पर हमले की धमकी दे रहे थे. वजह यह थी कि उन्होंने रूप कंवर के महिमामंडन की राजपूतों की मांग का समर्थन करने से इनकार कर दिया था.
रूप कंवर एक युवती थी, जिसे 1987 में देवराला नाम के गांव में उसके पति की चिता के साथ जला दिया गया था. खून की प्यासी भीड़ शेखावत के आसपास खड़ी थी, लेकिन शेखावत वहां से भागे नहीं. उन्होंने इस भीड़ के सामने खुलकर कहा कि वह रूप कंवर को जलाए जाने का समर्थन नहीं करेंगे. शेखावत ने दहाड़कर कहा 'मैं बहुत छोटा था जब मेरे पिता की मौत हो गई थी. अगर मेरी मां भी खुद को जला लेती, तो फिर मेरी परवरिश कौन करता. मैं सती जैसी प्रथाओं की निंदा करता हूं.
इस कहानी से राजस्थान के राजपूतों की मानसिकता के बारे में बहुत कुछ पता चलता है. ये वही लोग हैं जो कुछ समय पहले तक परंपरा के नाम पर एक औरत को नशीली दवाएं देने, उसे जंजीरों में जकड़ने और फिर उसे जिंदा जलाए जाने का महिमामंडन कर रहे थे और उस महिला को देवी बता रहे थे. दूसरा कारण, अब रानी पद्मिनी के सम्मान में राजपूत करणी सेना नाम का जो संगठन हाथ पैर मार रहा है, उसके तार भी 20वीं सदी में सती जैसी प्रथाओं को कानूनी बनाने की मांग करने वालों से जुड़े रहे हैं.
पश्चिमी राजस्थान के एक हट्टे कट्टे राजपूत लोकेंद्र कालवी भंसाली विरोधी मुहिम का नेतृत्व कर रहे हैं. वह कल्याण सिंह के बेटे और उनके राजनीतिक वारिस हैं. कल्याण सिंह वही व्यक्ति हैं जिन्होंने सती प्रथा के महिमामंडन और रूप कंवर को देवी बनाने के लिए मुहिम चलाई थी. और आज पद्मिनी की गरिमा की रक्षा के लिए उछल कूद कर रही राजपूत सभा सामंती और बर्बर प्रथाओं को जायज ठहराने वाली मुहिम की अगवा रही है.
दरअसल बात जब महिलाओं के अधिकारों की आती है तो राजस्थान के राजपूत संगठनों का इतिहास विरोधाभासों से भरा रहा है. अगस्त 1997 में जब जयपुर के पूर्व राजघराने की बेटी और स्वर्गीय महारानी गायत्री देवी की पोती दिया कुमारी ने जयपुर पैलेस के ही एक कैशियर नरेंद्र सिंह से शादी की तो राजपूतों के पेट में मरोड़ हो गई, जो लोग आज भंसाली के पीछे पड़े हैं, उन्हीं के नेतृत्व में राजपूत महासभा ने पूरे राज्य में विरोध प्रदर्शन किए और राजघराने को खूब बुरा भला कहा. सिर्फ इसलिए कि उसने अपनी अकेली संतान को समुदाय की इच्छाओं के विपरीत शादी करने की इजाजत दे दी. इन लोगों ने राजघराने का हुक्का पानी बंद करने और उन्हें दिए गए खिताब छीनने की भी धमकी दी.
इसी हंगामे के कारण, शाही परिवार को दिल्ली में एक सादे से समारोह में दोनों की शादी करानी पड़ी. इसके कुछ साल बाद, कालवी और उनके समर्थकों ने सामाजिक न्याय मंच बनाया और ऊंची जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई. और देखिए सामाजिक न्याय के लिए उन्होंने अपना अभियान किस तरह चलाया? तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की सभाओं में हिंसक प्रदर्शन करके. कालवी के नेतृत्व में राजपूत हुड़दंगियों ने कई जगहों पर पर हमले किए, उनकी सभाओं और रैलियों में बाधा डाली और राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री की नाक में खूब दम किया.
बड़ी हैरानी होती है कि अब वही लोग उस पद्मिनी के सम्मान में खड़े हैं, जिसका अस्तित्व इतिहास में कल्पना की दहलीज पर खड़ा है. मलिक मोहम्मद जायसी की बखान की गई कहानी में शायद एक महिला थी, जो सैकड़ों लोगों के साथ जलती चिता में भस्म होने के लिए भेजी गई थी. जरा सोचिए यही राजपूत जो सती को सही ठहराते हैं, उन्होंने एक महिला को सिर्फ इसलिए समाज से बाहर करने की धमकी दी थी कि उसने अपने परिवार के आशीर्वाद से, लेकिन समुदाय की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी की.
इन्हीं राजपूतों ने एक महिला मुख्यमंत्री को परेशान किया और यही अब एक फिल्म निर्देशक पर हमला कर रहे हैं क्योंकि वह चित्तौड़गढ़ के राजा और श्रीलंका की राजकुमारी की प्रेम कहानी को घुमाना चाहता है. कहा जाता है कि इन दोनों को एक तोते ने मिलाया था. राजस्थान में कभी राजपूतों का दबदबा था. विरोध का झंडा थामने वाले इन लोगों का मानना है कि भंसाली एक ऐसा गाना फिल्माने की सोच रहे, जिसमें रानी पद्मिनी को सपने में अलाउद्दीन खिलजी के साथ डांस करते हुए दिखाया जाएगा, इसी बात पर ये लोग भड़के हुए हैं.
इस मामले में भी समस्या वही है. हर समुदाय मिथकों और कहानियों को भी सच मान लेता है. कुछ विश्वास, मिथक और रूढ़ियां इतनी गहरी जड़ें जमा लेते हैं, फिर कल्पना को तथ्यों से और बयानबाजी को तर्कों से अलग करना असंभव हो जाता है. ठीक ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ वालों की तरह. मैंने जयपुर में रहने वाले डॉ ओमेंद्र रत्नु से बात की. वह एक सर्जन हैं और भंसाली की फिल्म के खिलाफ जारी अभियान में जोर शोर से शामिल हैं. मैंने उनसे पूछा कि राजपूत फिल्म का क्यों विरोध कर रहे हैं?
उनकी दलील थी: 'पद्मिनी हमारी मां और हमारी देवी है. पद्मिनी ने इसलिए जौहर किया ताकि कोई उसके शरीर को छू भी न पाए. अगर कोई उसका अपमान करता है, तो उसे चौराहे पर खड़ा करके सरेआम सजा दी जानी चाहिए.' 'इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसका अस्तित्व, उसके साहस की कहानी दस्तावेजों में दर्ज या नहीं. नालंदा में बहुत सारे हिंदू दास्तावेजों को जला दिया गया था. हमारे यहां तो मौखिक परंपरा रही है.. हम राजपूतों के लिए, हिंदुओं के लिए यह विश्वास, गर्व और सम्मान की बात है. किसी फिल्ममेकर ने अपनी मां का दूध पिया है तो जीजस और अल्लाह के अस्तित्व पर सवाल उठा कर दिखाए..ठीक है, भंसाली हमें अपने स्क्रिप्ट दिखाएं.'
साफतौर पर इस पूरे मामले का सियासी पहलू भी है. 14वीं सदी की कहानी, जो उसके तीन सौ साल बाद लिखी गई, उस पर अब बहस बहुत से राजपूतों के लिए कई मायनों में अहमियत रखती हैं. बयानों के इस युद्ध में, जहां ताकतवर ही सही समझा जा सकता है, वहां जीत सिर्फ एक की हो सकती है. फिल्म को राजनीतिक और भावुक मुद्दा बनाने से राजपूतों के हित सधते हैं. राजस्थान में कभी राजपूतों का दबदबा था, लेकिन अब वे राजनीति रूप से हाशिए पर चले गए हैं. जाटों और मीणाओं की पूछ कहीं ज्यादा बढ़ गई है. कालवी जैसे नेता अपनी खोई अहमियत को फिर से हासिल करना चाहते हैं और सियासी दमखम दिखाना चाहते हैं. अगर समुदाय के लिए न सही तो कम से कम अपने लिए ही सही.
इसलिए वो अकसर ऐसे मुद्दे उठाते हैं, जिन पर पूरे समुदाय को एकजुट किया जा सके, भले मुद्दा कितना भी बेतुका, मध्ययुगीन और बर्बरापूर्ण ही क्यों न हो. सती प्रथा को सही ठहराना या फिर समुदाय की मर्जी के खिलाफ जीवन साथी चुनने वाली महिला की शादी को खारिज करना ऐसे ही मुद्दे हैं. बेशक असली मुद्दों की कोई कमी नहीं है. ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जो राजस्थानी महिलाओं और खासकर राजपूत महिलाओं की जिंदगी को प्रभावित करते हैं और जिन पर समुदाय को ध्यान देना चाहिए, अपना गुस्सा जाहिर करना चाहिए.
राजपूतों को अपने समुदाय की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए बहुत काम करना होगा, खासकर उन महिलाओं के लिए जिन्होंने कड़ी चुनौतियों के बावजूद आगे बढ़ते जाने का फैसला किया है. बरसों से राजपूतों ने महिलाओं के अधिकारों की पूरी तरह अनदेखी की है. बहुत समय तक राजपूतों में विधवा विवाह पर कोई बात ही नहीं करता था, जबकि खेती बाड़ी करने वाले बहुत से समुदायों में इसे सामाजिक मान्यता मिल गई थी. लेकिन राजपूतों में इसे अच्छा नहीं माना जाता था.
जिन लोगों ने फरमान मानने से इनकार कर दिया, उन्हें समाज से बाहर कर दिया गया, उनसे अछूतों जैसा व्यवहार किया गया. कुछ साल पहले ही राजपूतों में विधवा विवाह को मौन सहमति मिली है. ज्यादातर राजपूत महिलाएं आज भी पर्दे में ही रहती हैं. शादी या अन्य सामाजिक आयोजनों में उनके लिए अलग से प्रबंध किया जाता है. आधुनिक जमाने में उनके यहां ऐसा चलन है. देश में सबसे कम सारक्षरता राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में है. बच्चों में अंतर, स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या, शिशु मृत्यु दर, लैंगिक अनुपात और शादी की उम्र जैसे मानकों पर भी राजस्थान की स्थिति खराब है.
1997 में जब राजपूत जयपुर राजघराने को समुदाय से बाहर करना चाहते थे, तो ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने आसमान सिर पर उठाने वाले इन लोगों से कहा कि वे राजपूतों की गरीबी और अशिक्षा पर ध्यान दें. भवानी सिंह नाम मात्र के ही सही, लेकिन उस कछ्छावा गोत्र के प्रमुख थे, जिसने जयपुर राजवंश की नींव रखी थी. 'बबल्स सिंह' के नाम से मशहूर रहे भवानी सिंह और राजस्थान के इकलौते शेर कहे जाने वाले उपराष्ट्रपति शेखावत अगर आज जिंदा होते तो उन्हें राजपूत नेताओं की इन चिंताओं के बारे में सोच कर बड़ा मजा आता कि कैसे वो महिलाओं के सम्मान में जमीन आसमान एक किए हुए हैं. क्या पता रूप कंवर भी इन्हें देखकर मुस्करा रही होती. (साभार- फर्स्टपोस्ट)

Sunday, January 29, 2017

शिक्षा

मैं आपके बीच उपस्थित होकर अत्यंत आनंदित हूं। निश्चय ही इस अवसर पर मैं अपने हृदय की कुछ बातें आपसे कहना चाहूंगा। शिक्षा की स्थिति देखकर हृदय में बहुत पीड़ा होती है। शिक्षा के नाम पर जिन परतंत्रताओं का पोषण किया जाता है उनसे एक स्वतंत्र और स्वस्थ मनुष्य का जन्म संभव नहीं है। मनुष्य जाति जैसी कुरूपता और अपंगता में फंसी है, उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं। शिक्षा ने प्रकृति से तो मनुष्य को तोड़ दिया है लेकिन संस्कृति उससे पैदा नहीं हो सकी है, उल्टे पैदा हुआ है-विकृति। इस विकृति को ही प्रत्येक पीढ़ी नयी पीढि़यों पर थोपी चली जाती है। और फिर जब विकृति ही संस्कृति समझी जाती हो तो स्वभावतः थोपने का कार्य पुण्य की आभा भी ले लेता हो तो आश्चर्य नहीं है। और जब पाप पुण्य के वेश में प्रगट होता है, तो अत्यंत घातक हो ही जाता है।

इसलिए ही तो शोषण सेवा की आड़ में खड़ा होता है, और हिंसा अहिंसा के वस्त्र ओढ़ती है, और विकृतियां संस्कृति के मुखौटे पहन लेती हैं। अधर्म का धर्म के मंदिरों में आवास अकारण नहीं है। अधर्म सीधा और नम्र तो कभी उपस्थित ही होता है। इसलिए यह सदा ही उचित है कि मात्र वस्त्रों में विश्वास न किया जाए। वस्त्रों को उघाड़कर देख लेना अत्यंत ही आवश्यक है।

मैं भी शिक्षा के वस्त्रों को उघाड़कर ही देखना चाहूंगा। इसमें आप बुरा तो न मानेंगे? विवशता है, इसलिए ऐसा करना आवश्यक है। शिक्षा की वास्तविक आत्मा को देखने के लिए उसके तथाकथित वस्त्रों को हटाना ही होगा। क्योंकि अत्याधिक सुंदर वस्त्रों में जरूर ही कोई अस्वस्थ और कुरूप आत्मा वास कर रही है; अन्यथा मनुष्य का जीवन इतनी घृणा, हिंसा और अधर्म का जीवन नहीं हो सका था। जीवन के वृक्ष पर कड़वे और विषाक्त फल देखकर क्या गलत बीजों के बोये जाने का स्मरण नहीं आता है? बीज गलत नहीं तो वृक्ष पर गलत फल कैसे आ सकते हैं? वृक्ष का विषाक्त फलों से भरा होना बीज में प्रच्छन्न विष के अतिरिक्त और किस बात की खबर है? मनुष्य गलत है तो निश्चय ही शिक्षा सम्यक नहीं है। यह हो सकता है कि आप इस भांति न सोचते रहे हों, और मेरी बात का आपकी विचारणा से कोई मेल न हो। लेकिन मैं माने जाने का नहीं, मात्र सुने जाने का निवेदन करता हूं। उतना ही पर्याप्त भी है। सत्य को शांति से सुन लेना ही काफी है। असत्य ही माने जाने का आग्रह करता है। सत्य तो मात्र सुन लिए जाने पर ही परिणाम ले आता है।

मनुष्य का विचार और आचार इतना भिन्न, स्वविरोधी क्यों है? शास्त्रों और सिद्धांतों के आधार पर जीवन पर थोपे गये समाधानों का ही यह परिणाम है। समाधान समस्याओं से नहीं जन्मे हैं, उन्हें समस्याओं के ऊपर थोपा गया है। समाधान ऊपर हैं, समस्यायें भीतर हैं। समाधान बुद्धि में हैं, समस्यायें जीवन में हैं। और यह अंतर्द्वंद आत्मघाती हो गया है। सभ्यता के भीतर इस भांति जो विक्षिप्तता चलती रही है वह अब विस्फोट की स्थिति में आ गयी है। उसके विस्फोट की संभावना से पूरी मनुष्यता भयाक्रांत है। लेकिन मात्र भयभीत होने से क्या होगा? भय की नहीं, वरन साहसपूर्वक पूरी स्थिति को जानने और पहचानने की जरूरत है।

मैं शास्त्रों को बीच में नहीं लूंगा, क्योंकि मैं समाधानों से अंधा नहीं होना चाहता। मैं तो आपसे कुछ ऐसी बातें करना चाहता हूं जो कि समस्याओं को सीधा देखने से पैदा होती हैं।

मनुष्य की परतंत्रता के लिए ही अनुशासन पर अत्याधिक बल दिया जाता है। विवेक के अभाव की पूर्ति अनुशासन से करने की कोशिश की जाती है। विवेक हो तो व्यक्ति में और उसके जीवन में एक स्वतः स्फूर्ति अनुशासन अपने आप ही पैदा होता है। उसे लाना नहीं पड़ता है। वह तो अपने आप ही आता है। लेकिन जहां विवेक सिखाया ही न जाता हो, वहां तो ऊपर से थोपे अनुशासन पर ही निर्भर होना पड़ता है। यह अनुशासन मिथ्या तो होगा ही। क्योंकि वह व्यक्ति के अंतस से नहीं जागता है और उसकी जड़ें उसके स्वयं के विवेक में नहीं होती हैं। व्यक्ति का अंतःकरण तो सदा भीतर ही भीतर उसके विरोध में सुलगता रहता है।

ऐसे अनुशासन की प्रतिक्रिया में ही स्वच्छंदता पैदा होती है। स्वच्छंदता सदा ही परतंत्रता की प्रतिक्रिया है। वह उसकी ही अनिवार्य प्रतिध्वनि है। स्वतंत्रता से भरी चेतना कभी भी स्वच्छंद नहीं होती है। मनुष्य को स्वच्छंदता के रोग से बचाना हो तो उसकी आत्मा को परिपूर्ण स्वतंत्रता का वायुमंडल मिलना चाहिए। लेकिन हम तो दो ही विकल्प जानते हैं-परतंत्रता या स्वच्छंदता। स्वतंत्रता के लिए तो हम अब तक तैयार ही नहीं हो सके हैं। अनुशासन-दूसरों से आया हुआ अनुशासन भी परतंत्रता है। ऐसा अनुशासन जगह-जगह टूट रहा है तो बहुत चिंता व्याप्त हो गई है। यह अनुशासन तो टूटेगा ही। यह तो टूटना ही चाहिए। उसके होने के कारण ही गलत हैं। उसकी मृत्यु तो उसमें ही छिपी हुई है। वह तो अराजकता को बलपूर्वक स्वयं में ही छिपाये हुए है। और बलपूर्वक जो भी दमन किया जाता है, एक न एक दिन उसका विस्फोट अवश्यंभावी है।

मनुष्य का इतिहास मूर्खताओं से भरा है। अंधविश्वासों और अज्ञानों ने सब कहीं डेरे डाले रखे हैं। लेकिन शिक्षक उस श्रृंखला से नयी पीढ़ियों को अलग नहीं होने देता है। वह उसी श्रृंखला से ये नये आगन्तुकों को बांधता चला जाता है। वह अतीत का चाकर है और इस भांति भविष्य का दुश्मन सिद्ध होता है। क्या यह उचित नहीं है कि अतीत का भार हमारे सिर पर न हो? वह पैरों के तले की भूमि बने यह तो ठीक, लेकिन सिर का बोझ बने यह तो ठीक नहीं है। भविष्य के निर्माण के लिए अतीत से मुक्त चित्त चाहिए।

शिक्षा भविष्योन्मुख होनी चाहिए, अतीतोन्मुख नहीं, तभी विकास हो सकता है। कोई भी सृजनात्मक प्रक्रिया भविष्योन्मुख ही हो सकती है। क्या यह उचित नहीं है कि हम भविष्य के लिए प्रेम और आदर सिखायें? अतीत की अर्थहीन पूजा बहुत हो चुकी। क्या अब यह उचित नहीं है कि हम भविष्य के सूर्योदयों के लिए हमारे हृदयों में प्राथनायें हों?

वस्तुतः कोई भी मनुष्य किसी दूसरे जैसा होने को पैदा नहीं हुआ है। प्रत्येक को स्वयं जैसा ही होना है। प्रत्येक को, उस बीज को ही वृक्ष तक पहुंचाना है जो कि उसमें ही छिपा है, और मौजूद है।

शिक्षा जिस दिन भी व्यक्ति की अद्वितीय और बेजोड़ निजता के सत्य को स्वीकार करेगी, उस दिन ही एक बड़ी क्रांति का सूत्रपात हो जाएगा।

क्या ऐसी शिक्षा नहीं हो सकती है जो कि महत्वाकांक्षा पर आधारित न हो? क्या गणित या संगीत इसलिए सीखा जा सकता है कि उन्हें सीखनेवाले दूसरे साथियों से आगे निकलना है? क्या गणित के प्रेम से ही गणित और संगीत के आनंद से ही संगीत नहीं सीखा जा सकता है? मैं तो देखता हूं कि वस्तुतः संगीत तभी सीखा जा सकता है और उसकी गहराइयां तभी स्पर्श की जा सकती हैं, जब संगीत से ही प्रेम हो और किसी अन्य से प्रतिस्पर्धा नहीं।
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टेड पर सर केन रॉबिन्सन के विचार सुन रहा था, शिक्षा पर। विचार सरल थे, सहज थे और सारगर्भित थे। अनुभव जैसे जैसे गाढ़ा होता जाता है, अभिव्यक्ति तरल होती जाती है, श्री रॉबिन्सन को सुनकर यह सिद्धान्त और भी दृढ़ हो चला। यही नहीं, जब कोई ज्ञान तत्व बिना किसी श्रांगारिक कोलाहल के सुनने को मिलता है, वह ग्रहणीयता के तार झंकृत कर देता है। एक स्थान पर खड़े हुये दिये गये २० मिनट के इस आख्यान में दशकों की अनुभव यात्रा का निचोड़ था।


शिक्षा पर विचारणीय दृष्टि
वार्ता का विषय था कि किस तरह शिक्षा की मृत्युघाटी से बाहर निकलें। वर्तमान शिक्षा पद्धति के लिये इतने कठोर शब्द का उपयोग ही उनके अवलोकनों और विश्लेषणों के निष्कर्ष को व्यक्त करता है। साथ ही साथ उस पीड़ा और छटपटाहट को भी दिखाता है जिससे होकर शिक्षा के प्रति संवेदनशील बौद्धिक समाज जी रहा है। उस मात्रा में भले ही न हो, पर शिक्षा पद्धति के विषय में हम सबके अन्दर भी उसी प्रकार की असंतुष्टि पनप रही है।

श्री रॉबिन्सन के अनुसार मानव की शिक्षा पद्धति मानव के मूलभूत गुणों के अनुरूप होनी चाहिये, पर वर्तमान शिक्षा पद्धति इनकी अनदेखी कर रही है। केवल अनदेखी ही नहीं कर रही है वरन उसके विपरीत जा रही है। यदि यही होता रहा तो मानव धीरे धीरे मशीन होता जायेगा, सभ्यता के विस्तृत प्राचीर में एक ईंट। यन्त्रवत से जीवन हो जायेंगे, तन्त्र मानवीय न रहेंगे।

मानव के तीन मूलभूत गुण हैं। पहला है उनकी भिन्नता और विविधता। दूसरा है उनमें निहित उत्सुकता। तीसरा है उनकी सृजनात्मकता। यही तीन गुण उसे मानसिक और बौद्धिक रूप से पूरी तरह से विकसित करते हैं। बिना इन तीन गुणों के मानव स्वयं को पूर्णता से व्यक्त नहीं कर सकता है। एक भी विमा यदि अनुपस्थिति रही तो विकास आंशिक होगा, सर्वपक्षीय नहीं होगा। आइये देखते हैं कि वर्तमान शिक्षा पद्धति किस प्रकार इन तीनों मूलभूत धारणाओं के विपरीत कार्य कर रही है।

कोई दो बच्चे एक जैसे नहीं होते हैं, जन्म से भी नहीं, परिवेश से भी नहीं, भले ही वे सगे भाई या सगी बहनें ही क्यों न हों? सबकी अपनी क्षमता होती है, सबकी अपनी विशिष्टता होती है। फिर भी हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी है कि हम सबको एक जैसा ही बनाना चाहते हैं। प्रारम्भ से एक ही विषय पढ़ाते हैं, एक सा ही समझते हैं, फैक्टरी के उत्पाद जैसा। एक जैसी शिक्षा सबके काम नहीं आती है, कुछ को रुचिकर लगती है, कुछ सामाजिक कारणों से लग कर पढ़ते हैं, कुछ माता पिता को दिखाने के लिये पढ़ते हैं, कुछ का मन तनिक भी नहीं लगता है, कुछ पढ़ाई छोड़ ही देते हैं। हमें लगता रहता है कि बच्चों का मन पढ़ाई में क्यों नहीं लग रहा है? उपाय भी सरल ही है, देखिये कि पढ़ाई छोड़ने के बाद किन किन क्षेत्रों में बच्चों का मन लगता, वे सारे विषय पढ़ाये जाये। हर एक के लिये अपनी रुचि के अनुसार पढ़ने को मिले तो समय के पहले पढ़ाई छोड़ देने वालों की संख्या न्यूनतम हो जायेगी।

क्या शिक्षा में यह उत्सुकता पल्लवित होती है?
बच्चे प्राकृतिक रूप से उत्सुक होते है, जिज्ञासु होते हैं। उनकी उत्सुकता को व्यापक आधार या निष्कर्ष देने के स्थान पर हम उसमें ठंडा जल डाल देते हैं। यदि हम उनको यह बता दें कि क्या पढ़ना है तो वे हमसे अच्छा पढ़ सकते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति उन्हें सब कुछ घोंट कर पिला देना चाहती है, वह सब कुछ जिसे जानकर हम स्वयं को विद्वान समझने का भ्रम पाले बैठे हैं। आप उन्हें बताये या न बतायें, उनकी उत्सुकता उन्हें वांछित ज्ञान तक ले आयेगी। कितनी ही ऐसी ज्ञान की बाते होती हैं जो बच्चे स्वयं ही सीख जाते हैं। कभी उनके प्रश्नों की दिशा और सृजनात्मकता पर ध्यान दिया है, आप आश्चर्य करने के अतिरिक्त कुछ और कर भी नहीं सकते हैं। उसकी उत्सुकता के लिये हमें उसे उकसाने की आवश्यकता है, उसे दिशा देने की आवश्यकता है, उसे प्रेरित करने की आवश्यकता है। हमें उसे पढ़ाना नहीं है, उसे सीखने के लिये उद्धत करना है, उत्सुकता का उपयोग करने के लिये तैयार करना है। इसके स्थान पर वर्तमान शिक्षा पद्धति ज्ञान ठूँसने में विश्वास रखती है और यह जानने के लिये परीक्षायें लेती रहती है कि ठूँसे हुये ज्ञान को समुचित उगलने का अभ्यास किया कि नहीं किया बच्चों ने?

सृजनात्मकता हमारा सर्वाधिक सशक्त गुण है। आप एक समस्या दस बच्चों को देकर देखिये, सब के सब अपने सृजनात्मक वैशिष्ट्य के अनुसार उसका समाधान ढूँढ़ लेगे। जीवन की समस्या है, ज्ञान की समस्या हो, विकास के सारे अध्याय इसी गुण ने लिखे हैं। इस गुण को उभारने के स्थान पर वर्तमान शिक्षापद्धति सबको समान रूप से उत्तर देने की अपेक्षा रखती है और जो सबसे भिन्न रहता है, वह दौड़ में पिछड़ जाता है। हम मानकीकरण को अपना मूलमन्त्र बनाये बैठे हैं, सबको एक ही तुला से तौलने चले हैं।

जब तक ये तीनों गुण पोषित रहते हैं, बच्चे को अपना महत्व पता चलता रहता है। उसे लगता है कि वह अपने प्रयास से सीख रहा है, न कि शिक्षा पद्धति से बौद्धिक अनुदान पा रहा है। उसे करने का भाव मिलता है, न कि कुछ पा जाने का। आन्तरिक क्रियाशीलता बच्चे को प्रेरित करती है, उकसाती है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो वह अपना रुझान खो देता है, ठंडा पड़ जाता है। थोपे हुये तत्व व्यक्तित्व को ठेस पहुँचाते हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं कर पाता है। विविधता बनी रहती है तो कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता है, उत्सुकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है, सृजनात्मकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है।

वर्तमान शिक्षा पद्धति को इस दिशा में सोचना होगा। फैक्टरी के स्वरूप में शिक्षा को उत्पाद नहीं बनाया जा सकता। शिक्षक और शिष्य के बीच वैयक्तिक और दीर्घकालिक संबंध और क्रियाशीलता आवश्यक है। एक के बाद एक सारे महान जनों को देख लें, उनके ऊपर किसी शिक्षक की कृपादृष्टि रही है, जिसने ये तीन गुण न केवल समझे, वरन व्यक्तित्व में विकसित कराये। बच्चे को पढ़ाने भर से शिक्षकीय कर्मों की इतिश्री नहीं हो सकती है। एक बच्चे को पढ़ना और तदानुसार गढ़ना, यही एक शिक्षक का मूल कार्य है, यही शिक्षा पद्धति की सार्थकता है। 

व्यक्ति जन्मतः शूद्र है।

- यस्क मुनि के अनुसार-



जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।

वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

अर्थात - व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।

- योग सूत्र व भाष्य के रचनाकार पतंजलि के अनुसार

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।

विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥

अर्थात- ''विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता'' (पतंजलि भाष्य 51-115)।

-महर्षि मनु के अनुसार

विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।
तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

अर्थात- शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं'' (मनु; 11-35)।

-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार
"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो"
(सन्दर्भ ग्रन्थ - महाभारत)

-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार
"जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे."
(सन्दर्भ ग्रन्थ - शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति)

-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार
"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे"

-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार
"ब्राह्मण वही हे जो "पुंस्त्व" से युक्त हे. जो "मुमुक्षु" हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे"
(सन्दर्भ ग्रन्थ - शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक)
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किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन शकता हे यह भी उतना ही सत्य हे.
इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे.....

(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
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मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी. वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.
"कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम" साकारित करे.
सर्वं खल्विदं ब्रह्मं. ओम.
1.फिर ये क्या है-पूजिंंह विप्र सकल गुण हीना,सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना,अर्थात सकल गुण हीन इंसान विप्र कैसे हो गया, और ग्यान प्रवीण सूद्र,

2.क्षत्रिय का नाम महिमा मय,ब्राह्मणों का गरिमा मय,बनियों का सुविधा मय,औऱ सूद्रों का निंदा मय नाम रखने का कारण बतायेंगे.क्योंकि जन्म के कुछ समय पश्चात ही नाम रखा जाता था