Thursday, April 6, 2017

घर

मैं बोल नहीं सकता। पर मैं संवेदनहीन नहीं हूं। जिसमें तुम सब और तुम्हारी विगत पीढि़यों ने जिंदगी गुजारी है, हां मैं ही तो हूं….. तुम्हारा घर । तुम्हारे बाप दादा ने मुझे खून पसीने की कमाई से एक एक रूपया जोड़कर बनाया। जिस दिन मेरी नींव पड़ी थी, उसी दिन मुझमें आत्मा का संचार हुआ। एक एक ईंट जुड़कर मैं बनने लगा। जितना मैं खुश था, उससे अधिक उत्साह में परिवार के लोग थे। सभी की निगरानी में मैं बनने लगा। मुझे नजर नहीं लगे, इसके लिए एक नजरा भी लगा दिया गया।
जिस दिन मैं बन कर तैयार हुआ, विधि विधान और उत्सव के साथ गृह प्रवेश हुआ। सभी सगे संबंधी परिचित आए थे। उन सब के बीच मेरा नामकरण हुआ – घर। इस घर में कई पीढि़यों का जन्म हुआ। सब मेरे ही आंगन में पले बढ़े। मेरा बरामदा, आंगन, छत तुम बच्चों की हँसी में झूमने लगा। जब तुम ठोकर खाकर गिरते थे आंगन में तो चोट मुझे भी लगती, दर्द होता। पर वह दर्द तुम्हारे चोट का होता था, अपना ख्याल भी कहां आता था? तुम्हारे मां बाप की तरह मैंने भी तुम लोगों के नाज नखरे उठाए हैं। याद है, आंगन में वो जो अमरूद का पेड़ था, उसमें तुम सब बच्चे कपड़े का झूला लगाकर झूलते रहते थे, तो मुझे लगता कि मेरे आंगन सावन और बसंत एक साथ झूल रहे हैं।
जब घर में बेटियों का जन्म होता तो लगता कि वो घर आंगन की सुंदरता होती हैं। मैं और सुंदर हो जाता। और जब बेटों का जन्म होता तो मुझे नयी शक्ति मिल जाती। जब बेटी की शादी तय होती तो मैं शादी के गीत गाने लगता। विवाह में मेरी भी रंगाई पुताई की जाती, मुझे भी सजाया जाता। मुझे भी लगता कि मैं जितना सुंदर होउंगा, घरवालों के सम्मान में उतनी वृद्धि होगी। जब बारात आती तो खुशी से मैं भी नाचने लगता। मेरी ही गोद में खेली बेटी, माँ-बाप और परिवार को छोड़  विदा होती तो मेरा आंगन सूना हो जाता, मैं रोता, खूब रोता। तुम्हारी मां इस बात को समझती तभी देहरी पर बैठकर मेरे साथ वह भी रोती।
जब कोई अच्छी खबर मिलती तब दरवाजे पर अपनों के बीच ठहाकों मैं भी झूमता। जब कोई नाम कमाता तो सबके साथ मेरी भी छाती चौड़ी हो जाती। और जब कभी तुममें से कोई ऐसा काम कर जाता जो तुम किसी से नहीं कह पाते तो मैं समझ जाता तब मैं अपना कोई कोना अंधेरा कर देता और तुम उस कोने में अपना मन हल्का कर लेते।
कोई नवब्याहता बहू जब घर आंगन में चलती तो मैं उसकी पायल की रूनझुन और कंगन की खनखन में गुनगुनाता। इस घर की बेटियों की तरह मैंने उन्हें भी अपनाया। जैसे जैसे परिवार बढ़ता, मैं समृद्ध होता गया।
पर बरतनों के टकराने की आवाज से मैं डर जाता। मुझे अपना और पूरे परिवार का अस्तित्व खतरे में नजर आता। कुछ बहुएं तो यहां आकर ऐसे रच बस जातीं, लगता कि वे हमेशा से यहीं की हों। पर जब कुछ बहुएं हमसे अलग होकर      “मैं” बनना चाहतीं तो मुझे लगता कि पूरा परिवार उसे समझा पाएगा। वो समझ जाएगी कि यह हमारा घर है। हम सभी साथ साथ रहेंगे। पर नहीं, धीरे धीरे माहौल विषाक्त होने लगा। मैं घुटने लगा। घर के सभी बड़े समझ रहे थे पर वे विवश थे। वे एक दूसरे को अलग होने से रोक नहीं पाए।
तुम सब ने मेरे हाथ पैर हृदय, गला को काट काट कर अपना अपना हिस्सा अलग कर लिया। जहां मैं ठहाका लगाता था, उस पर तुमने दीवार खड़ी कर दी। जिस दिन दीवार खड़ी होने वाली थी, उस दिन अंतिम बार सूरज की किरणें और चांदनी मुझसे मिलने आयी थी। हम सब खूब रोए थे कि अब हम कभी नहीं मिल पाएंगे। हरे भरे पेड़ पौधे जो मेरा श्रृंगार थे, उसे उखाड़ फेंका। अब तो सुंदरता के स्थान पर भयावहता बसने लगी।
घर की औरतें बच्चों की सुख समृद्धि के लिए व्रत उपवास करतीं, उनके साथ मैं भी भूखा रहता ताकि उनके आशीर्वाद के साथ मेरी भी मंगलकामना से तुम सब खूब तरक्की करो। आज तुम इतने समृद्ध हो गए कि मुझे ही श्रीहीन कर दिया। तुमने मुझे यहां तोड़ा, वहां तोड़ा, मैं बेबस लाचार, अपने आंसुओ को आंखों में ही थाम लिया क्योंकि मेरे आंसुओं में तुम्हारे बुजुर्गों के भी आंसू मिल जाते। तुम्ही बताओ, जिसे पाला हो, उसके आंसू कैसे देखे जाएंगे। सुबह जब मेरे टुकड़े टुकड़े होने वाले थे, उस रात वो बूढ़ी आंखें और कांपते हाथ जिनके बस में अब कुछ भी नहीं था, उठ उठकर कांपते पैरों से मेरे घर आंगन में यहां वहां बेचैन से घूमते। मुझे चूमते और कहते – आज मेरी ही तरह तुम भी बंट गए। तुम लोगों में बंटवारे का जश्न था, चेहरे पर विजयी भाव था। पर मेरे लिए वह दिन मृत्युतुल्य था।
 जब तुम कमाने घर से बाहर जा रहे होते थे, तुम्हारी मां रात भर नहीं सोती थी। वो चाहती कि सवेरा नहीं हो, तुम उससे दूर नहीं जा पाओ। अपने आंचल में वो सूरज को छुपा लेना चाहती। चाहता तो मैं भी यही था पर तुम्हारे स्वर्णिम भविष्य के लिए तुम्हारा जाना जरूरी था। मेरी देहरी लांघ, सबका आशीर्वाद लिए जब तुम जाते मैं चुपचाप कहता, सकुशल फिर घर आ जाना। मैं और तुम्हारे घर वाले तुम्हारा इंतजार करेंगे। तुम्हारी मां छत पर जाकर तुम्हें दूर तक जाते हुए देखती रहती।
तुम हम सब के साथ अपना रोना हंसना जीना मरना कैसे भूल गए। क्या समृद्धि इतनी संवेदनशून्य होती है? शायद इस बदलाव को समय का परिवर्तन कहोगे। मान लेता अगर इस परिवर्तन की जरूरत होती तो मैं स्वयं चाहता, घर वाले खुद सोचते क्योंकि जरूरत से अधिक भार न मैं उठा पाता और न परिवार…. पर ये समय की मांग नहीं…. बहाना था…. जो भी हो, अब तो मेरा पूरा शरीर ही बंट गया। इसलिए आशीर्वाद के लिए हाथ तो नहीं उठ पाएंगे…… फिर भी जहां रहो, खुश रहो। जिसे दुआएं दी हैं, उसे बददुआ तो नहीं दे सकता

जीवन

‘आत्मा में उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और सज्जनोचित व्यवहार का समावेश होता है। यह जिनके साथ रहा हो वे शरीर न रहने पर भी अविनाशी आत्मा हैं। अन्य सड़ाँध में दिन काटने वाले और दूसरों को कष्ट देने वाले प्राणी भी ऐसे होते हैं, जिन्हें कोई चाहे तो जीवन धारियों में गिन सकता है।’
आत्मा के संबंध में अब तक बहुत कुछ कहा सुना, सोचा और खोजा जाता रहा है, पर इस क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करने पर आत्मा के स्वरूप और लक्ष्य के संबंध में जो निष्कर्ष निकाले जा सके हैं, उसे एक शब्द में ‘मानवी गरिमा’ कहा जा सकता है। अब तक उसकी अनेकों व्याख्याएँ हो चुकी है और अनेक रूप समझाये गये हैं। पर उनमें अधिक उपयुक्त और गौरवशाली अर्थ यही है। जब मानवी गरिमा मर गई और वह दुष्ट, भ्रष्ट और निकृष्ट बन गयी तो समझा जाना चाहिए कि आत्म हनन हो गया, चाहे व्यक्ति की साँस भले ही चलती हो। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती-छोड़ती रहती है और जीवित तो सड़े तालाब में पाये जाने वाले कीड़े भी होते है। पर उनके जीवित रहने या मृतक कहलाने में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
सड़कों पर वाहनों के नीचे कुचल कर असंख्यों मरते रहते है। बीमारियों के मुँह में आये दिन अगणित लोग चले जाते है, पर इनकी कोई महत्वपूर्ण चर्चा नहीं होती। शरीर में हलचल रहने और अन्न को टट्टी बनाने वाले लोगों को जीवित मृतक कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी। क्रूर और नृशंस लोगों में आत्मा का अस्तित्व माना जाय या नहीं यह विवाद का विषय है।
आत्मा-जिसे सच्चे अर्थों में ‘आत्मा’ कहा जाय, आदर्शों के साथ जुड़ती है। उसमें संयम का भाव होता है और साथ ही उदारता एवं सेवा का भी। जिन्हें यह ध्यान रहता है कि मानवी गरिमा को गिरने न दिया जाय, दुष्ट या भ्रष्ट समझे जाने का अवसर न आये वही मानवी काया को सार्थक करते हैं, अन्यथा प्रेत-पिशाच भी ऐसे ही मिलते जुलते काय कलेवर में छिपे स्वयं जलते और दूसरों को जलाते रहते है। स्वयं डरते और दूसरों को डराते रहते है।
पवित्रता और प्रखरता मनुष्य के गुण हैं। जो निजी जीवन में सज्जनोचित सदाशयता भरे रहते है। और जो आदर्शों की रक्षा के लिए साहस दिखाते एवं बलिदान स्तर तक का शौर्य-प्रकट करने को तैयार रहते हैं उनके संबंध में कहा जा सकता है कि वे प्राणवान और जीवन्त मनुष्य हैं। अन्यथा ऐसी ही आकृति वाले खिलौने कुम्हारों के अवों में आये दिन पकते और काले पीले रंगों में रंगे जाते रहते है। आत्मा हलचल का नाम है, पर वह तो मशीनों के पहिये भी करते रहते है। हांडी में भी खिचड़ी की उछल कूद देखने को मिलती रहती है। हवा के साथ पत्ते भी उड़ते रहते है। इन्हें न तो जीवित कहा जा सकता है, न मनुष्य, न आत्मा।
आत्मा में उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और सज्जनोचित व्यवहार का समावेश होता है। यह जिनके साथ रहा हो वे शरीर न रहने पर भी अविनाशी आत्मा हैं। अन्य सड़ाँध में दिन काटने वाले और दूसरों को कष्ट देने वाले प्राणी भी ऐसे होते हैं, जिन्हें कोई चाहे तो जीवन धारियों में गिन सकता है।
आततायी सोचता है कि किसी प्रकार अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए अपनी वासना और तृष्णा की जिस सीमा तक संभव हो, हविस पूरी होनी चाहिए। इसके लिए उसे दूसरों को किसी भी सीमा तक उत्पीड़न देने में संकोच नहीं होता। अपने अतिरिक्त और सब माटी या मोम के बने प्रतीत होते है, जिन्हें पीड़ा पहुँचाते हुए अपने ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता न दया आती है न उचित-अनुचित का भाव जगता है। अनर्थ और कुकर्म करते हुए अपने अहंकार का अनुभव करते हैं और नृशंसता का पराक्रम के रूप में सिर ऊँचा करके बखान करते है। उन्हें अपने को कोल्हू के सदृश मानते हुए गर्व होता है, जिसका एक ही काम है-तल निचोड़ लेना और खली को पशुओं के सामने बखेर देना। जो ध्वंस और विनाश की ही योजनाएँ बनाते और इसी स्तर के कुकर्म करते हुए अपने शौर्य को बखानते हैं, उन्हें इसी स्तर का गतिशील, किन्तु जघन्य कहना चाहिये। नर पशु और नर पिशाच अलग आकृति के नहीं होते हैं। उनकी चमड़ी भी इसी स्तर की होती है। किन्तु प्रकृति ऐसी मिली होती है, जिसे नर पशु या नर पिशाच से भी गया-बीता कहा जा सके।
इसी समुदाय में एक कायर वर्ग भी होता है, जो विनाश का दुस्साहस तो इसलिये नहीं कर पाता कि बदले में उलट कर अपनी भी हानि हो सकती है, कायरता दूसरों का शोषण भी कर सकती है, पर उनमें इतना साहस नहीं होता कि प्रतिकार को सहन करने के लिये दूसरे की चुनौती स्वीकार कर सकें। उचक्के और लफंगे इसी प्रकार की ठगी और विडम्बनायें रचते रहते हैं। सामना पड़ने पर शेर का चमड़ा उतार कर उन्हें बकरी के असली रूप में भी प्रकट होते देर नहीं लगती। ऐसे ही लोगों को नर पामर कहा गया है। उन्हें कृमि कीटकों से भी गयी गुजरी स्थिति में गिना जाता है। हमें देखना है कि हम क्या है, क्या बनना चाहते हैं व औरों से भिन्न जीवन की रीति-नीति किस प्रकार बनायें?

Wednesday, April 5, 2017

भेंटवार्ता

साक्षात्कार / इंटरव्यू

साक्षात्कार 
साक्षात्कार जनसंचार का अनिवार्य अंग है। प्रत्येक जनसंचारकर्मी को समाचार से संबद्ध व्यक्तियों का साक्षात्कार लेना आना चाहिए, चाहे वह टेलीविजन-रेडियो का प्रतिनिधि हो, किसी पत्र-पत्रिका का संपादक, उपसंपादक, संवाददाता। साक्षात्कार लेना एक कला है। इस विधा को जनसंचारकर्मियों के अतिरिक्त साहित्यकारों ने भी अपनाया है। विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में, हर भाषा में साक्षात्कार लिए जाते हैं। पत्र-पत्रिका, आकाशवाणी, दूरदर्शन, टेलीविजन के अन्य चैनलों में साक्षात्कार देखे जा सकते हैं। फोन, ई-मेल, इंटरनेट और फैक्स के माध्यम से विश्व के किसी भी स्थान से साक्षात्कार लिया जा सकता है।

मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। एक तो यह कि वह दूसरों के विषय में सब कुछ जान लेना चाहता है और दूसरी यह कि वह अपने विषय में या अपने विचार दूसरों को बता देना चाहता है। अपने अनुभवों से दूसरों को लाभ पहुँचाना और दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाना यह मनुष्य का स्वभाव है। अपने विचारों को प्रकट करने के लिए अनेक लिखित, अलिखित रूप अपनाए हैं। साक्षात्कार भी मानवीय अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। इसे भेंटवार्ता, इंटरव्यू, मुलाकात, बातचीत, भेंट आदि भी कहते हैं।

साक्षात्कार की परिभाषा साक्षात्कार या भेंटवार्ता किसे कहते हैं, इस संबंध में कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, विषय-विशेषज्ञों ने इसे अलग-अलग परिभाषित किया है-

‘‘इंटरव्यू से अभिप्राय उस रचना से है, जिसमें लेखक व्यक्ति-विशेष के साथ साक्षात्कार करने के बाद प्रायः किसी निश्चित प्रश्नमाला के आधार पर उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के संबंध में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करता है और फिर अपने मन पर पड़े प्रभाव को लिपिबद्ध कर डालता है।'' (डॉ. नगेन्द्र)

‘‘साक्षात्कार में किसी व्यक्ति से मिलकर किसी विशेष दृष्टि से प्रश्न पूछे जाते हैं।'' (डॉ. सत्येन्द्र)

‘मानक अंग्रेजी हिन्दी कोष' में भी इंटरव्यू शब्द कुछ इसी प्रकार से स्पष्ट किया गया है - विचार-विनिमय के उद्देश्य से प्रत्यक्ष दर्शन या मिलन, समाचार पत्र के संवाददाता और किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट या मुलाकात, जिससे वह वक्तव्य प्राप्त करने के लिए मिलता है। इसमें प्रत्यक्ष लाभ, अभिमुख-संवाद, किसी से उसके वक्तव्यों को प्रकाशित करने के विचार से मिलने को ‘इंटरव्यू' की संज्ञा दी गई है।' प्रमुख कोषकार डॉ० रघुवीर ने इंटरव्यू से तात्पर्य समक्षकार, समक्ष भेंट, वार्तालाप, आपस में मिलना बताया है।

ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (लंदन) में किसी बिन्दु विशेष को औपचारिक विचार-विनिमय हेतु प्रत्यक्ष भेंट करने, परस्पर मिलने या विमर्श करने, किसी समाचार पत्र प्रतिनिधि द्वारा प्रकाशन हेतु वक्तव्य लेने के लिए, किसी से भेंट करने को साक्षात्कार कहा गया है। वास्तव में, साक्षात्कार पत्रकारिता और साहित्य की मिली-जुली विधा है। इसकी सफलता साक्षात्कार की कुशलता, साक्षात्कार पात्र के सहयोग तथा दोनों के सामंजस्य पर निर्भर करती है। टेलीविजन के लिए साक्षात्कार टेलीविजन-केन्द्र पर अथवा अन्यत्र उसके विशेष कैमरे के सामने आयोजित किये जाते हैं। रेडियो के लिए साक्षात्कार आकाशवाणी की ओर से रिकार्ड किये जाते हैं। अन्य साक्षात्कार समाचार पत्रों के लिए संवाददाता लेता है और उसे किसी समाचार पत्र-पत्रिका, पुस्तक में प्रकाशित किया जाता है।

साक्षात्कार के प्रकार साक्षात्कार किसे कहते हैं? इसका क्या महत्त्व है और इसका क्या स्वरूप है? इन बातों को जान लेने के बाद यह जानना जरूरी है कि साक्षात्कार कितने प्रकार के होते हैं। यही इसका वर्गीकरण कहलाता है। साक्षात्कार अनेक प्रकार से लिए गए हैं। कोई साक्षात्कार छोटा होता है, कोई बड़ा। किसी में बहुत सारी बातें पूछी जाती हैं, किसी में सीमित। कोई साक्षात्कार बड़े व्यक्ति का होता है तो कोई साधारण या गरीब अथवा पिछड़ा समझे जाने वाले व्यक्ति का। किसी में केवल सवाल-जवाब होते हैं, तो किसी में बहस होती है। किसी साक्षात्कार में हंसी-मजाक होता है तो कोई गंभीर चर्चा के लिए होता है। कुछ साक्षात्कार पत्रया फोन द्वारा भी आयोजित किए जाते हैं। कुछ विशेष उद्देश्य से पूर्णतः काल्पनिक ही लिखे जाते हैं। कोई साक्षात्कार पत्र-पत्रिका के लिए लिया जाता है तो कोई रेडियो या टेलीविजन के लिए।

 डॉ. विष्णु पंकज ने विभिन्न आधारों को लेकर साक्षात्कार को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा है - 
१. स्वरूप के आधार पर 
(क) व्यक्तिनिष्ठ
(ख) विषयनिष्ठ

२. विषय के आधार पर 
(क) साहित्यिक
(ख) साहित्येतर

३. शैली के आधार पर 
(क) विवरणात्मक
(ख) वर्णनात्मक
(ग) विचारात्मक
(घ) प्रभावात्मक
(च) हास्य-व्यंग्यात्मक
(छ) भावात्मक
(ज) प्रश्नोत्तरात्मक

‘व्यक्तिनिष्ठ' साक्षात्कार में व्यक्तित्व को अधिक महत्त्व दिया जाता है। उसके बचपन, शिक्षा, रुचियों, योजनाओं आदि पर विशेष रूप से चर्चा की जाती है। ‘विषयनिष्ठ साक्षात्कार में व्यक्ति के जीवन-परिचय के बजाय विषय पर अधिक ध्यान दिया जाता है। ‘विवरणात्मक' साक्षात्कार में विवरण की प्रधानता होती है। ‘वर्णनात्मक' में निबंधात्मक वर्णन अधिक होते हैं। ‘विचारात्मक' साक्षात्कार बहसनुमा होते हैं। इनमें साक्षात्कार लेने देने वाले दोनों जमकर बहस करते हैं। ये साक्षात्कार नुकीले यानी तेजतर्रार होते है।

‘प्रभावात्मक' साक्षात्कार में साक्षात्कार लेने वाला साक्षात्कार-पात्र का जो प्रभाव अपने ऊपर महसूस करता है, उसका खासतौर पर जिक्र करता है। ‘हास्य-व्यंग्यात्मक' में हास्य-व्यंग्य का पुट या प्रधानता रहती है। ‘भावात्मक' साक्षात्कार भावपूर्ण होते हैं। ‘प्रश्नोत्तरात्मक' साक्षात्कार प्रश्नोत्तर-प्रधान अथवा मात्रप्रश्नोत्तर होते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में आजकल समाचार या संवाद के साथ जाने-माने व्यक्तियों के छोटे-बड़े साक्षात्कार प्रश्नोत्तर रूप में अधिक सामने आ रहे हैं। इनमें साक्षात्कार देने वाले का विस्तृत परिचय, साक्षात्कार लेने की परिस्थिति, परिवेश, साक्षात्कार-पात्रके कृतित्व की सूची, उसके हावभाव और साक्षात्कारकर्ता की प्रतिक्रियाओं आदि का समावेश नहीं होता या बहुत कम होता है।

४. वार्ताकारों के आधार पर 
(क) पत्रा-पत्रिका-प्रतिनिधि द्वारा
(ख) आकाशवाणी-प्रतिनिधि द्वारा
(ग) दूरदर्शन-प्रतिनिधि द्वारा
(घ) लेखकों द्वारा
(च) अन्य द्वारा

५. औपचारिकता के आधार पर 
(क) औपचारिक
 (ख) अनौपचारिक

‘औपचारिक' साक्षात्कार उसके पात्र से समय लेकर विधिवत्‌ लिए जाते हैं। ‘अनौपचारिक' साक्षात्कार अनौपचारिक बातचीत के आधार पर तैयार किए जाते हैं।

 ६. वार्ता-पात्रों के आधार पर 
क) विशिष्ट अथवा उच्चवर्गीय पात्रों के
(ख) साधारण अथवा निम्नवर्गीय पात्रों के
(ग) आत्म-साक्षात्कार

७. संपर्क के आधार पर 

(क) प्रत्यक्ष साक्षात्कार
(ख) पत्रव्यवहार द्वारा (पत्र-इंटरव्यू)
(ग) फोन वार्ता
(घ) काल्पनिक

 ‘प्रत्यक्ष भेंटात्मक' साक्षात्कार उसके पात्र के सामने बैठकर लिए जाते हैं। पत्र-व्यवहार द्वारा भी साक्षात्कार आयोजित किए जाते हैं। पत्र में प्रश्न लिखकर उसके पात्र के पास भेज दिए जाते हैं। उनका उत्तर आने पर साक्षात्कार तैयार कर लिया जाता है। ये ‘पत्र-इंटरव्यू' कहलाते हैं। ‘फोनवार्ता' में टेलीफोन पर बातचीत करके किसी खबर के खंडन-मंडन के लिए इंटरव्यू लिया जाता है। ‘काल्पनिक' साक्षात्कार में साक्षात्कार लेने वाला कल्पना के आधार पर या स्वप्न में उसके पात्र से मिलकर बातचीत करता है और प्रश्न व उत्तर दोनों स्वयं ही तैयार करता है। इसमें साक्षात्कार-पत्र द्वारा दिए गए उत्तर पूर्णतः काल्पनिक भी हो सकते हैं और उसकी रचनाओं, विचारों आदि के आधार पर भी।

८. प्रस्तुति के आधार पर 
(क) पत्र-पत्रिका में प्रकाशित
ख) रेडियो पर प्रसारित
(ग) टेलीविजन पर प्रसारित

९. आकार के आधार पर 
(क) लघु
(ख) दीर्घ

१०. अन्य आधारों पर 
(क) योजनाबद्ध
(ख) आकस्मिक
(ग) अन्य

साक्षात्कार लेते समय यह भी तय करना होता है कि साक्षात्कार-पत्रों से उसके जीवन, कृतित्व, प्रेरणास्रोतों, दिनचर्या, रुचियों, विचारों आदि सभी पर बात करनी है या विषय को ही केन्द्र में रखकर चलना है।
साक्षात्कार की अनुमति और समय पात्र और विषय निश्चित हो जाने पर आप साक्षात्कार-पात्र से भेंटवार्ता की अनुमति और समय माँगेंगे, साक्षात्कार का स्थान तय करेंगे, पूछे जाने वाले प्रश्नों की सूची बनाएँगे। कई बार साक्षात्कार अचानक लेने पड़ जाते हैं।

हवाई अड्डा, समारोह स्थल, रेलवे प्लेटफार्म आदि पर लिखित प्रश्नावली बनाने का अवकाश नहीं होता। पहले से सोचे हुए या अपने मन से तत्काल प्रश्न पूछे जाते हैं। संबंधित पूरक प्रश्न भी पूछे जाते हैं, जिससे बात साफ हो सके, आगे बढ़ सके। ऐसी स्थिति में भी एक रूपरेखा तो दिमाग में रखनी ही पड़ती है। प्रस्तावित प्रश्न एवं पूरक प्रश्न योजना या रूपरेखा बन जाने पर साक्षात्कार के पात्रसे प्रश्न पूछे जाते हैं। प्रस्तावित प्रश्नों व पूरक प्रश्नों से वांछित सूचना, तथ्य, विचार निकलवाने का प्रयास किया जाता है।
कटुता उत्पन्न न हो और साक्षात्कार-पात्र का मान-भंग न हो, इस बात का ध्यान रखना जरूरी है।

टेपरिकार्डर का उपयोग 
पत्रकार शीघ्रलिपि (शॉर्टहैंड) जानता हो, यह जरूरी नहीं। इसलिए साक्षात्कार-पात्रद्वारा प्रकट किए गए विचार, उसके द्वारा दिए गए उत्तर उसी रूप में साथ ही साथ नहीं लिखे जा सकते। आशु-लिपिक की व्यवस्था भी कोई सहज नहीं है। यदि आप पात्रके कथन श्रुतिलेख की भाँति लिखते रहेंगे तो वह उसे अखरेगा और उसकी विचार-श्रृंखला भंग हो सकती है। समय भी अधिक लगेगा। फिर भी तेज गति से कुछ वाक्यांश और मुख्य बातें अंकित की जा सकती हैं, जिन्हें साक्षात्कार समाप्त होने पर अपने घर या कार्यालय में बैठकर विकसित किया जा सकता है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई महत्त्वपूर्ण बात लिखने से न रह जाए। तिथियों, व्यक्तियों-संस्थाओं के नाम, रचनाओं की सूची, स्थानों के नाम, उद्धरण, घटनाएँ, सिद्धांत-वाक्य आदि ठीक तरह लिख लेने चाहिए। जल्दी लिखने का अभ्यास अच्छा रहता है। पात्र के व्यक्तित्व, परिवेश, उसके हावभाव, अपनी प्रतिक्रिया आदि को भी यथासंभव संक्षेप में या संकेत रूप में लिख लेना चाहिए। इन्हीं बिन्दुओं और अपनी स्मृति की मदद से साक्षात्कार लिख लिया जाता है।

साक्षात्कार के समय यदि आपके साथ टेपरिकॉर्डर हो तो आपको बड़ी सुविधा रहेगी। टेप सुनकर साक्षात्कार लिख सकते हैं। इस साक्षात्कार में प्रामाणिकता भी अधिक रहती है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के साक्षात्कार में रिकार्डिंग की अच्छी व्यवस्था रहती है। साक्षात्कार लेकर साक्षात्कारकर्ता लौट आता है। वह दर्ज की गई बातों और बातचीत की स्मृति के आधार पर साक्षात्कार लिखता है। यदि बातचीत टेप की गई है तो उसे पुनः सुनकर साक्षात्कार लिख लिया जाता है। साक्षात्कार लिखते समय उन बातों को छोड़ देना चाहिए जिनके बारे में साक्षात्कार-पात्र ने अनुरोध किया हो (ऑफ द रिकॉर्ड बताया हो) अथवा उनका लिखा जाना समाज व देश के हित में न हो।

संक्षिप्त परिचय 
साक्षात्कार के आरम्भ में पात्र का आवश्यकतानुसार संक्षिप्त या बड़ा परिचय भी दिया जा सकता है। परिचय, टिप्पणी आदि का आकार इस बात पर निर्भर करता है कि साक्षात्कार का क्या उपयोग किया जा रहा है। अगर समाचार के साथ बॉक्स में भेंटवार्ता प्रकाशित की जा रही है तो विषय से संबंधित प्रश्न और उत्तर एक के बाद एक जमा दिए जाते हैं। इनमें पात्र के हावभाव, वातावरण-चित्राण, अपनी प्रतिक्रियाएँ, पात्र के कृतित्व की सूची आदि का साक्षात्कार में समावेश होता भी है तो नहीं के बराबर। इसके विपरीत दूसरे अवसरों पर कुछ साक्षात्कारकर्ता इन सब बातों का भी साक्षात्कार में समावेश करते हैं। साक्षात्कार तैयार होने पर उसे पत्रया पत्रिका में प्रकाशन के लिए भेज दिया जाता है। कुछ साक्षात्कार बाद में पुस्तकाकार भी प्रकाशित होते हैं। कुछ साक्षात्कारकर्ता साक्षात्कार तैयार करके उसे पात्र को दिखा देते हैं और उससे स्वीकृति प्राप्त कर लेते हैं। इस समय पात्र साक्षात्कार में कुछ संशोधन भी सुझा सकता है। साधारणतः साक्षात्कार तैयार होने के बाद उसे पात्र को दिखाने और उसकी स्वीकृति लेने की जरूरत नहीं है। यदि पात्र का आग्रह हो तो उसे जरूर दिखाया जाना चाहिए।

साक्षात्कार में ध्यान रखने योग्य बातें 

साक्षात्कार के समय अन्य बहुत-सी बातों का ध्यान रखना जरूरी है। यद्यपि यह संभव नहीं है कि प्रत्येक साक्षात्कार लेने वाले में वांछित विशिष्ट योग्यताएँ हों, फिर भी कुछ बातों का ध्यान रखकर साक्षात्कार को सफल बनाया जा सकता है। 

१. यदि साक्षात्कार लेने से पहले उसके पात्र और विषय से संबंधित कुछ जानकारी प्राप्त कर ली जाए तो काफी सुविधा रहेगी। अचानक लिए जाने वाले साक्षात्कार में यह संभव नहीं होता। यदि संगीत के विषय में साक्षात्कारकर्ता शून्य है तो संगीतज्ञ से साक्षात्कार को आगे बढ़ाने में उसे कठिनाई आएगी। हर साक्षात्कारकर्ता सभी विषयों में पारंगत हो, यह संभव नहीं; फिर भी आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। पुस्तकालयों और विषय से संबंधित अन्य व्यक्तियों से मदद ली जा सकती है।

२. साक्षात्कार का पात्र चाहे साधारण सामाजिक हैसियत का ही क्यों न हो, उसके सम्मान की रक्षा हो और उसकी अभिव्यक्ति को महत्त्व मिले, यह जरूरी है। उसके व्यक्तित्व, परिधान, भाषा की कमजोरी, शिक्षा की कमी, गरीबी आदि के कारण उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। किसी क्षेत्र विशेष का विशिष्ट व्यक्ति तो आदर का पात्र है ही।

३. साक्षात्कार करने वाले में घमंड, रूखापन, अपनी बात थोपना, वाचालता, कटुता, सुस्ती जैसी चीजें नहीं होनी चाहिए।

४. उसमें जिज्ञासा, बोलने की शक्ति, भाषा पर अधिकार, बातें निकालने की कला, पात्र की बात सुनने का धैर्य, तटस्थता, मनोविज्ञान की जानकारी, नम्रता, लेखन-शक्ति, बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार बातचीत को अवसरानुकूल मोड़ देना जैसे गुण होने चाहिए। कई बार पात्र किसी प्रश्न को टाल देता है, कोई बात छिपा लेता है, तब घुमा-फिराकर वह बात बाद में निकलवाने की कोशिश होती है। यदि पात्र किसी बात को न बताने के लिए अडिग है तो ज्यादा जिद या बहस करके कटुता पैदा नहीं करनी चाहिए।

५. साक्षात्कार के समय, हो सकता है कि आपके विचार किसी मामले में पात्र से न मिलते हों, तब अपनी विचारधारा उस पर मत थोपिए।

६. साक्षात्कार में पात्रके विचार, उसकी जानकारी निकलवाने का मुख्य उद्देश्य होता है। साक्षात्कारकर्ता उसमें सहायक होता है। यदि वह स्वयं भाषण देने लगेगा और पात्र के कथन को महत्त्व नहीं देगा तो साक्षात्कार सफल नहीं होगा। साक्षात्कार में प्रश्न पूछने का बड़ा महत्त्व है। यदि दो व्यक्ति किसी मुद्दे पर बराबर के विचार प्रकट करने लगते हैं तो वह साक्षात्कार नहीं रह जाता, परिचर्चा बन जाती है। साक्षात्कारकर्ता को अपने पूर्वाग्रह छोड़कर पात्र के पास जाना चाहिए। साक्षात्कार मित्र-शत्रु-भाव से न लिया जाए, बल्कि तटस्थ होकर लिया जाए।

७. साक्षात्कार में सच्चाई होनी चाहिए। पात्र के कथन और उसके द्वारा दी गई जानकारी को तोड़-मरोड़कर पेश नहीं किया जाना चाहिए, यह हर तरह से अनैतिक है। कई पात्रों की यह शिकायत रही है कि उनकी बातों को तोड़-मरोड़कर साक्षात्कार तैयार कर लिया गया है। कई बार ऐसा भी होता है कि राजनेता साक्षात्कार के समय कोई बात कह जाता है मगर बाद में एतराज होने पर मुकर जाता है और कहता है कि मैंने यह बात इस तरह नहीं कही थी। कई बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें साक्षात्कारकर्ता जानता है, फिर भी उन्हें साक्षात्कार में पूछता है, क्योंकि वे बातें पात्रके मुँह से कहलवाकर जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करनी होती हैं। साक्षात्कार कोई व्यक्तिगत चीज नहीं है, वह जनता की जानकारी के लिए लिया जाता है। निजी रूप से लिए गए साक्षात्कार, यदि उनका प्रकाशन प्रसारण नहीं होता, फाइलों में सिमटकर रह जाते हैं।

८. साक्षात्कार में ऐसे मामलों को तूल न दें, जिनसे देश-हित पर विपरीत असर पड़े, सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़े, किसी का चरित्र-हनन हो, वर्ग-विशेष में कटुता फैले या पात्रका अपमान हो। साक्षात्कार के आरम्भ और अन्त में हल्के तथा मध्य में मुख्य प्रश्न पूछे जाने चाहिए। प्रश्न और उत्तर दोनों स्पष्ट हों। यदि उत्तर स्पष्ट नहीं है तो पुनः प्रश्न पूछकर उत्तर को स्पष्ट करा लेना चाहिए।

९. साक्षात्कार यथासंभव निर्धारित समय में पूरा किया जाना चाहिए। साक्षात्कार पूरा होने पर पात्र को धन्यवाद देना न भूलिए। साक्षात्कार स्वतंत्रविधा साक्षात्कार में निबंध, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, आलोचना, नाटक (संवाद) आदि विधाओं के तत्त्व शामिल हो सकते हैं, पर सीमित और सहायक रूप में ही ऐसा हो सकता है। साक्षात्कार पत्रकारिता और साहित्य दोनों क्षेत्रों की प्रमुख स्वतंत्रऔर महत्त्वपूर्ण विधा है। साक्षात्कार में नाटक का ‘संवाद' तत्त्व बातचीत या प्रश्नोत्तर के रूप में खासतौर पर होता है। इसमें साक्षात्कार लेने-देने वाले दोनों व्यक्तियों के संवादों का महत्त्व है, पर देने वाले को ही प्रधानता दी जाती है और साक्षात्कार लेने वाले के संवाद देने वाले से बात निकलवाने के निमित्त होते हैं, यद्यपि वह उससे बहस भी कर सकता है। जब साक्षात्कारकर्ता साक्षात्कार की परिस्थिति, पात्र का परिचय या वातावरण का वर्णन करता है तो वह निबंधात्मक हो जाता है। साक्षात्कार में यह निबंध-तत्त्व होता है। साक्षात्कार में कहीं-कहीं संस्मरण के तत्त्व भी होते हैं, जब साक्षात्कार-पात्र अपने जीवन के प्रसंग या घटना सुनाने लगता है। जब साक्षात्कारकर्ता पात्रके व्यक्तित्व का, वेशभूषा का चित्रण करने लगता है तो वह रेखाचित्रात्मक होता है। कोई-कोई साक्षात्कारकर्ता साक्षात्कार के आरम्भ में पात्र का संक्षिप्त जीवन-परिचय जोड़ देता है। यह जीवनी का ही तत्त्व है। कभी पात्र स्वयं अपने जीवन के विषय में बताने लगता है, जो आत्मकथा का संक्षिप्त रूप होता है।

साक्षात्कार रिपोर्ताज, फैंटेसी, सर्वेक्षण, पत्र, केरीकेचर आदि विधाओं से एक अलग विधा है। ‘परिचर्चा' एक स्वतंत्र विधा के रूप में विकसित हो रही है। इसे ‘समूह-साक्षात्कार' (ग्रुप-इंटरव्यू) कहा जा सकता है। इसमें सभी विचार प्रकट करने वालों का पूरा महत्त्व होता है। कुछ लोगों ने ‘साक्षात्कार' के लिए चर्चा, विशेष परिचर्चा आदि शब्दों का प्रयोग किया है। परिचर्चा को साक्षात्कार से एक अलग विधा माना जाना चाहिए।

संवाददाता-सम्मेलन भी साक्षात्कार की तरह ही होता है। कोई विशिष्ट व्यक्ति अपनी निजी या संस्थागत नीतियों, उपलब्धियों, योजनाओं, विचारों आदि की जानकारी देने के लिए संवाददाताओं को बुलाता है। वह आरम्भ में अपने विचार प्रकट करता है अथवा मुद्रित सामग्री वितरित करता है। उसके आधार पर संवाददाता उससे प्रश्न पूछते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति के आगमन पर विभिन्न संवाददाता उसे जा घेरते हैं और उससे प्रश्न पूछने लगते हैं। किसी विशिष्ट व्यक्ति के विदेश-गमन पर भी उससे इस प्रकार प्रश्न पूछे जाते हैं। संवाददाता-सम्मेलन आयोजित और अनौपचारिक दोनों प्रकार के होते हैं। साक्षात्कार का मुख्य उद्देश्य तो साक्षात्कार के पात्रकी अभिव्यक्ति को जनता के सामने लाना होता है, लेकिन इसमें साक्षात्कारकर्ता का भी काफी महत्त्व होता है। यदि साक्षात्कारकर्ता सूत्राधार है तो सामने वाला व्यक्ति साक्षात्कार-नायक होता है।

tyagpatra

अलविदा ‘888888888’… बीते 7 अगस्त को हमने पटना से प्रकाशित दैनिक ‘**************’ में स्थानीय संपादक के रुप में अपना योगदान दिया था। पर चार माह की अल्पाअवधि में मुझे लगातार यह महसूस होने लगा कि इस अखबार को कोई योग्य संपादक या संवाददाता नहीं बल्कि संवाददाता के नाम पर ब्लैकमेलर, ब्यूरो व ब्लैकमेलर संपादक चाहिए जो सत्ता या विपक्षी दल के बड़े नेताओं की चाटुकारिता या दलाली कर विज्ञापन जुटा सके, पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों को हड़का कर नाजायज पैरवी करवा सके। मै यह मानता हूं कि किसी भी समाचार पत्र के लिए विज्ञापन एक मुख्य आधार होता है पर उसके लिए अखबार का सर्कुलेशन, सभी सरकारी कार्यालयों, और अधिकारियों और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के यहां अखबार का पहुंचना या अखबार के बारे में उनके दिलो दिमाग में संज्ञान जरूरी है। पर मेरे लाख प्रयास के बाद ऐसा नहीं हो सका।
आप मित्रो को यह जानकर हैरानी होगी कि इस अखबार के पटना स्थित कार्यालय मेंरे अलावा एक अपराध संवाददाता रविश कुमार मणि एवं एक ब्यूरो चीफ सह सम्न्वय संपादक नवल किशोर कुमार ही हैं। मैं इस अखबार में ज्वाइन करने के बाद से ही यह मान कर चल रहा था कि कम मैन पावर, कम सहुलियत और कई अन्य असुविधा के कारण इस अखबार को पटना से प्रकाशित किसी अन्य अखबारों की श्रेणी में तो मैं नहीं ला सकता पर प्रतिदिन कुछ ऐसी खबरें अवश्य दिया सकता है कि अखबार बहुत तो नहीं पर चर्चा में आ जाए। मैंने अखबार के लिए ‘फेसबुक उवाच’ कॉलम सहित कई प्रयोग किए जो काफी चर्चित और प्रशंसनीय रहे।
मैं अपने मकसद में सफल भी हो रहा था पर इसी बीच कुछ ऐसे कारण आ गए कि हमारा इस अखबार से मोहभंग हो गया। अखबार के प्रधान संपादक श्री योगेन्द्र विश्वकर्मा जी से हमारी कोई शिकायत नही, शिकायत है तो मात्र एक दो वैसे लोगो से जिनपर उन्होंने विश्वास कर पटना एडीशन का मेरे आने से प्ूर्व ही प्रभार सौंप दिया। ये ऐसे ही लोग है जिन्हे अखबार के प्रथम पृष्ठ का लीड और बॉटम के स्पेस की महत्ता के बारे में पता नहीं है। महज तीन-तीन सौ के तीन या चार विज्ञापन के लिए ये अखबार का फ्रंट पेज लगातार बर्बाद कर रहें है। इस अखबार में अपने चार माह के कार्यकाल में मैं मात्र दो जिला संवाददाताओं से परिचित हो पाया जिनमे एक जहानाबाद व दूसरा बेगूसराय ब्यूरो है। मैंने कई बार यह इच्छा जाहिर की कि बिहार में जहां-जहां हमारे संवाददाता हैं सबको एक दिन पटना कार्यालय बुलाकर उनकी एक बैठक की जाए और कौन काम के काबिल है और कौन नहीं इसकी समीक्षा कर योग्य लोगों को ही रखा जाए तो इसपर टालमटोल होता रहा।
यहां तक कि जब भी कोई संवाददाता पटना कार्यालय में आता भी था तो सीधे उसे प्रबंधक अपने कमरे में बुलाते थे और बंद कमरे में क्या बात होती है ये मैं कभी नहीं जान सका और न ज्यादा जाानने की कभी चेष्टा की। बड़ा अखबार तो नहीं पर किसी छोटे ही अखबार के संपादक के लिए भी इससे बड़ी अपमानजनक बातें क्या हो सकती है कि किसी जिले में संपादक के आदेशनुसार या उसकी इच्छानुसार कोई योग्य संवाददाता या ब्यूरो नहीं रखा जा सकता। संवाददाताओं को भी परिचय पत्र न तो प्रधान संपादक या न ही स्थानीय संपादक के हस्ताक्षर से निर्गत होता है बल्कि प्रबंधक के द्वारा। उस दिन तो मैं और व्यथित हो गया जब कई दिनो से प्रथम पृष्ठ पर आरा के छप रहे एक 300 रुपये के विज्ञापन के बारे में इस अखबार के प्रबंधक ने आरा के रिपोर्टर को यह कहा कि पटना और आरा से बाहर जहां कहीं भी आपके परिचित हो तो उनसे टैटू वाले को फोन करवा कर कहिए कि ‘तरूणमित्र’ में आपका विज्ञापन देखकर फोन कर रहा हूं कि टैटू बनाने का क्या रेट है ताकि उसे यह लगे कि ‘तरुणमित्र’ काफी लोग पढ़ रहे हैं। फिर भी मैं यह कोशिश में था कि अखबार को मै अपने दम पर पटना में बहुत तो नहीं पर तो स्थापित कर सकूं चाहे इसके लिए मझे खुद भी कुछ आर्थिक घाटा क्यो ना सहना पड़े। पर एक कथित मैनेजर और उनके सलाहकार के कारण मैंने अखबार छोड़ने का निश्चय कर लिया है। अखबार में मैन पावर की कमी के बावजूद हमारी यह कोशिश रही थी कि हम कुछ नया करे पर ‘क्या अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है।’
जिस अखबार को पटना से प्रकाशित अन्य प्रमुख अखबारों के आन लाइन खबरों की कॉपी और पेस्ट कर अपने अखबार का पेज भरना ही मकसद रह गया है वैसे अखबार का संपादक रहना मुझे गंवारा नहीं। बीते मंगलवार से मैं इस अखबार की बेहतरी के कुछ कार्य के लिए पटना से बाहर हूं इसी बीच कुछ ऐसा वाक्या हुआ कि मैंने अखबार छोड़ने का मन बना लिया। इस संदर्भ में मैंने अपने प्रधान संपादक योगेन्द्र विश्वकर्मा जी से बात की पर शायद उनकी भी कुछ मजबूरियां हों। उन्होने मुझसे कहा कि मैं एक सप्ताह के अंदर पटना आ रहा हूं बैठ कर बात करता हूं पर मेरा स्वाभिमान, मेरा आत्मसम्मान और मेरा विवेक मुझे इस तरह के अखबार में काम करने की इजाजत नहीं दे रहा। इसलिए मैंने इस अखबार को छोड़ने का मन बना लिया है। मेरा अपना परिवार क्या, शायद हमारे कुछ मित्रों को यह लगे कि मैं हर जगह झगड़ा कर अखबार छोड़ देता हूं पर सत्य यह है कि मैंने कभी अपने सम्मान और स्वाभिमान से समझौता नहीं किया है। ‘तरूणमित्र’ में अपने चार माह के कार्यकाल में ही जिन मित्रो, बड़े बुजुर्गों व अभिभावकों का स्नेह, आर्शीवाद, मार्गदर्शन, सहायता, आलेख व मुझे प्रोत्साहन मिला उन सभी का आभार!