इस समय देश में पदोन्नति में आरक्षण को लेकर एक गंभीर बहस छिड़ी हुई है। कैबिनेट ने प्रस्ताव पास कर दिया कि अनुसूचित जाति/जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण दिया जाना चाहिए। बसपा ने इसका समर्थन किया और समाजवादी पार्टी ने विरोध। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने 21 अगस्त को सर्वदलीय बैठक बुलाई थी और उसमें भी तय हुआ कि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर संवैधानिक संशोधन की जरूरत है। संसद में 51 पार्टियां हैं, जिनमें सपा को छोड़कर सभी ने पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन किया है।
2006 में सुप्रीम कोर्ट ने एम. नागराज के मामले में फैसला दिया था कि तीन शर्तो को पूरा करने के बाद ही पदोन्नति में आरक्षण दिया जाए। सवर्णो में जलन है कि कम योग्यता पर अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग नौकरी में आ जाते हैं और साथ ही पदोन्नति में आरक्षण भी ले लेते हैं।
कई जगह पर भ्रम है कि आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए ही की गई थी। सच्चाई यह है कि राजनीति में आरक्षण 10 साल के लिए है, न कि सरकारी नौकरी में। आरक्षण पूरा ही नहीं हो पाया है तो यह कहना कि कब तक इन्हें आरक्षण मिलता रहेगा, भेदभाव की सोच है।
भारत सरकार में 149 सचिव हैं जिनमें एक भी अनुसूचित जाति का नहीं। 108 अतिरिक्त सचिव में केवल दो अनुसूचित जाति के हैं। 477 कनिष्ठ सचिव हैं, जिसमें केवल 31 अनुसूचित जाति के हैं। इस तरह से 590 निदेशकों में से 17 इस वर्ग से हैं। कौन नहीं जानता कि सारे नीतिगत फैसले सचिव एवं अतिरिक्त सचिव के हस्ताक्षर पर ही होते हैं। फिर प्रशासनिक क्षमता के लिए कौन जिम्मेदार है-दलित या जो उच्च पदों पर हैं?
आरक्षण विरोधी बताएं कि आजादी के बाद से लेकर अब तक 15 प्रतिशत आरक्षण पूरा क्यों नहीं हो पाया है? क्या कभी उन्होंने दलितों को अपना ही भाई समझकर मांग की कि आरक्षण अभी तक पूरा क्यों नहीं हो पाया? केवल चतुर्थ श्रेणी में कोटा पूरा ही नहीं, बल्कि थोड़ा ज्यादा ही है और उसका कारण है कि सफाई के काम में सवर्ण भर्ती नहीं होते।
शिक्षा जगत में स्थिति और भी खराब है। कुल 1864 प्रोफेसरों में से 14 अनुसूचित जाति और 11 जनजाति के हैं। इस तरह से रीडर के पद पर 38 अनुसूचित जाति के और 23 जनजाति के हैं, जबकि कुल संख्या है 3533। प्रवक्ता के पद पर भी स्थिति आरक्षण के अनुपात में दयनीय है। कुल 6688 प्रवक्ताओं में से 372 अनुसूचित जाति के और 223 जनजाति के हैं। जिस तरह से नौकरशाही में फैसला लेने के स्तर पर दलित-आदिवासी नहीं हैं उसी तरह से शिक्षा जगत में भी स्थिति है। फिर शिक्षा जगत में गिरावट के लिए कौन जिम्मेदार है? इसी वर्ष कार्मिक विभाग ने यह जानकारी दी कि उसे यह नहीं पता कि अनुसूचित जाति/जनजाति के कितने पद हैं।
जो आरक्षण का विरोध करते हैं उन्हें पूना पैक्ट के बारे में पता होना चाहिए। अंग्रेजी हुकूमत ने दलितों को पृथक मताधिकार अर्थात् दो वोट देने का अधिकार दिया था। एक सामान्य उम्मीदवार को और दूसरा दलित उम्मीदवार को। गांधीजी को यह नागवार गुजरा और उन्होंने पूना के यरवदा जेल में रहते हुए अनशन शुरू कर दिया। 22 दिन के लंबे उपवास के कारण डॉ. अंबेडकर के ऊपर दबाव बना कि वह पृथक मताधिकार की मांग ���ोड़ दें। देश में हाहाकार मच गया था। अंत में डॉ. अंबेडकर और गांधीजी के बीच में समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। जाहिर है, आरक्षण समझौते का प्रतिफल था। एक बार जब पृथक मताधिकार लागू हो जाता तो बहुत संभव था कि आजादी के समय देश के दो हिस्से ही नहीं, बल्कि तीन भी हो सकते थे। दलितों को अगर आरक्षण मिला है तो देश की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए।
अब जगह-जगह पर दलितों में आक्रोश पैदा हो रह��� है और वे कह रहे हैं कि आरक्षण भीख नहीं अधिकार है। सवर्णो और अन्य के साथ रहने के एवज में आरक्षण मिला है। निजीकरण एवं भूमंडलीकरण की वजह से सरकारी नौकरियां दिन-प्रतिदिन समाप्त हो रही हैं। अनुसूचित जाति/जनजाति की तरक्की जो भी हुई है वह राजनीति एवं सरकारी सेवाओं में आरक्षण की वजह से। निजी क्षेत्र अब बहुत बड़ा हो गया है, जिसमें इनकी भागीदारी नहीं के बराबर है। ऐसे में आरक्षण पर आपत्ति जताने वालों को देश के बारे में एक बार सोचना पड़ेगा। क्या इतनी बड़ी आबादी को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग करके अखंड और मजबूत देश बनाया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का नजरिया यहां उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जो तीन शर्ते उसने लगाई हैं उसकी जरूरत नहीं है। संवैधानिक संशोधनों ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए कहीं अगर-मगर नहीं लगाया गया, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने शर्ते लगा दीं। सुप्रीम कोर्ट की पहली शर्त है कि यह जांच की जाए कि ये पिछड़ हैं कि नहीं। दूसरी शर्त के अनुसार आरक्षण से दक्षता पर असर नहीं पड़ना चाहिए। अभी तक ऐसा प्रमाणित करने वाला उदाहरण देश में देखने को नहीं मिला। तमिलनाडु में आरक्षण 69 प्रतिशत तक है। शायद इसी वजह से वह कानून एवं व्यवस्था, शिक्षा एवं स्वास्थ्य, आदि के मामलों में आगे है। तीसरी शर्त के मुताबिक प्रतिनिधित्व की जांच करने के लिए कहा गया है। आंकड़े खुद बताते हैं कि आरक्षण पूरा हुआ ही नहीं तो सीमा लांघने की बात कहां पैदा होती है? सरकार को संवैधानिक संशोधन करके पदोन्नति में आरक्षण देना चाहिए। इससे देश की एकता और अखंडता मजबूत होगी, क्योंकि यह सबकी भागीदारी का मामला है।
अब सवाल उठता है कि आरक्षण कब तक? हजारों वर्ष की जाति व्यवस्था का अन्याय इतने कम सालों में खत्म नहीं होने वाला है। दलित, आदिवासी, पिछड़े आरक्षण छोड़ने के लिए तैयार हैं बशर्ते समान शिक्षा व्यवस्था हो जाए और जाति समाप्त कर दी जाए। वर्ना जब तक जाति रहे, आरक्षण मिलते रहना चाहिए।
- साभार: डा0 उदित राज (राष्ट्रीय दैनिक मे छपे सम्पादकीय से अवतरित)
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