Wednesday, April 5, 2017

tyagpatra

अलविदा ‘888888888’… बीते 7 अगस्त को हमने पटना से प्रकाशित दैनिक ‘**************’ में स्थानीय संपादक के रुप में अपना योगदान दिया था। पर चार माह की अल्पाअवधि में मुझे लगातार यह महसूस होने लगा कि इस अखबार को कोई योग्य संपादक या संवाददाता नहीं बल्कि संवाददाता के नाम पर ब्लैकमेलर, ब्यूरो व ब्लैकमेलर संपादक चाहिए जो सत्ता या विपक्षी दल के बड़े नेताओं की चाटुकारिता या दलाली कर विज्ञापन जुटा सके, पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों को हड़का कर नाजायज पैरवी करवा सके। मै यह मानता हूं कि किसी भी समाचार पत्र के लिए विज्ञापन एक मुख्य आधार होता है पर उसके लिए अखबार का सर्कुलेशन, सभी सरकारी कार्यालयों, और अधिकारियों और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के यहां अखबार का पहुंचना या अखबार के बारे में उनके दिलो दिमाग में संज्ञान जरूरी है। पर मेरे लाख प्रयास के बाद ऐसा नहीं हो सका।
आप मित्रो को यह जानकर हैरानी होगी कि इस अखबार के पटना स्थित कार्यालय मेंरे अलावा एक अपराध संवाददाता रविश कुमार मणि एवं एक ब्यूरो चीफ सह सम्न्वय संपादक नवल किशोर कुमार ही हैं। मैं इस अखबार में ज्वाइन करने के बाद से ही यह मान कर चल रहा था कि कम मैन पावर, कम सहुलियत और कई अन्य असुविधा के कारण इस अखबार को पटना से प्रकाशित किसी अन्य अखबारों की श्रेणी में तो मैं नहीं ला सकता पर प्रतिदिन कुछ ऐसी खबरें अवश्य दिया सकता है कि अखबार बहुत तो नहीं पर चर्चा में आ जाए। मैंने अखबार के लिए ‘फेसबुक उवाच’ कॉलम सहित कई प्रयोग किए जो काफी चर्चित और प्रशंसनीय रहे।
मैं अपने मकसद में सफल भी हो रहा था पर इसी बीच कुछ ऐसे कारण आ गए कि हमारा इस अखबार से मोहभंग हो गया। अखबार के प्रधान संपादक श्री योगेन्द्र विश्वकर्मा जी से हमारी कोई शिकायत नही, शिकायत है तो मात्र एक दो वैसे लोगो से जिनपर उन्होंने विश्वास कर पटना एडीशन का मेरे आने से प्ूर्व ही प्रभार सौंप दिया। ये ऐसे ही लोग है जिन्हे अखबार के प्रथम पृष्ठ का लीड और बॉटम के स्पेस की महत्ता के बारे में पता नहीं है। महज तीन-तीन सौ के तीन या चार विज्ञापन के लिए ये अखबार का फ्रंट पेज लगातार बर्बाद कर रहें है। इस अखबार में अपने चार माह के कार्यकाल में मैं मात्र दो जिला संवाददाताओं से परिचित हो पाया जिनमे एक जहानाबाद व दूसरा बेगूसराय ब्यूरो है। मैंने कई बार यह इच्छा जाहिर की कि बिहार में जहां-जहां हमारे संवाददाता हैं सबको एक दिन पटना कार्यालय बुलाकर उनकी एक बैठक की जाए और कौन काम के काबिल है और कौन नहीं इसकी समीक्षा कर योग्य लोगों को ही रखा जाए तो इसपर टालमटोल होता रहा।
यहां तक कि जब भी कोई संवाददाता पटना कार्यालय में आता भी था तो सीधे उसे प्रबंधक अपने कमरे में बुलाते थे और बंद कमरे में क्या बात होती है ये मैं कभी नहीं जान सका और न ज्यादा जाानने की कभी चेष्टा की। बड़ा अखबार तो नहीं पर किसी छोटे ही अखबार के संपादक के लिए भी इससे बड़ी अपमानजनक बातें क्या हो सकती है कि किसी जिले में संपादक के आदेशनुसार या उसकी इच्छानुसार कोई योग्य संवाददाता या ब्यूरो नहीं रखा जा सकता। संवाददाताओं को भी परिचय पत्र न तो प्रधान संपादक या न ही स्थानीय संपादक के हस्ताक्षर से निर्गत होता है बल्कि प्रबंधक के द्वारा। उस दिन तो मैं और व्यथित हो गया जब कई दिनो से प्रथम पृष्ठ पर आरा के छप रहे एक 300 रुपये के विज्ञापन के बारे में इस अखबार के प्रबंधक ने आरा के रिपोर्टर को यह कहा कि पटना और आरा से बाहर जहां कहीं भी आपके परिचित हो तो उनसे टैटू वाले को फोन करवा कर कहिए कि ‘तरूणमित्र’ में आपका विज्ञापन देखकर फोन कर रहा हूं कि टैटू बनाने का क्या रेट है ताकि उसे यह लगे कि ‘तरुणमित्र’ काफी लोग पढ़ रहे हैं। फिर भी मैं यह कोशिश में था कि अखबार को मै अपने दम पर पटना में बहुत तो नहीं पर तो स्थापित कर सकूं चाहे इसके लिए मझे खुद भी कुछ आर्थिक घाटा क्यो ना सहना पड़े। पर एक कथित मैनेजर और उनके सलाहकार के कारण मैंने अखबार छोड़ने का निश्चय कर लिया है। अखबार में मैन पावर की कमी के बावजूद हमारी यह कोशिश रही थी कि हम कुछ नया करे पर ‘क्या अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है।’
जिस अखबार को पटना से प्रकाशित अन्य प्रमुख अखबारों के आन लाइन खबरों की कॉपी और पेस्ट कर अपने अखबार का पेज भरना ही मकसद रह गया है वैसे अखबार का संपादक रहना मुझे गंवारा नहीं। बीते मंगलवार से मैं इस अखबार की बेहतरी के कुछ कार्य के लिए पटना से बाहर हूं इसी बीच कुछ ऐसा वाक्या हुआ कि मैंने अखबार छोड़ने का मन बना लिया। इस संदर्भ में मैंने अपने प्रधान संपादक योगेन्द्र विश्वकर्मा जी से बात की पर शायद उनकी भी कुछ मजबूरियां हों। उन्होने मुझसे कहा कि मैं एक सप्ताह के अंदर पटना आ रहा हूं बैठ कर बात करता हूं पर मेरा स्वाभिमान, मेरा आत्मसम्मान और मेरा विवेक मुझे इस तरह के अखबार में काम करने की इजाजत नहीं दे रहा। इसलिए मैंने इस अखबार को छोड़ने का मन बना लिया है। मेरा अपना परिवार क्या, शायद हमारे कुछ मित्रों को यह लगे कि मैं हर जगह झगड़ा कर अखबार छोड़ देता हूं पर सत्य यह है कि मैंने कभी अपने सम्मान और स्वाभिमान से समझौता नहीं किया है। ‘तरूणमित्र’ में अपने चार माह के कार्यकाल में ही जिन मित्रो, बड़े बुजुर्गों व अभिभावकों का स्नेह, आर्शीवाद, मार्गदर्शन, सहायता, आलेख व मुझे प्रोत्साहन मिला उन सभी का आभार!

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