आप वो नहीं कह सकते जो उन्हें पसंद नहीं. या फिर वो जिस से इस बात का शक हो कि आरोप शायद उनपर है, फिर भले ही आप ने शायद अपने आप पर ही ग़लत होने का शक किया हो या अपनों पर. मुझे मेरे समाज की समीक्षा करने का अधिकार है. मेरा समाज है, वो मुझ से है और मैं उस से. और सारी असहिष्णुता राजनीतिक नहीं है, व्यक्तिगत भी है, सामाजिक भी है.
सुबह साढ़े सात बजे या रात के दो बजे ट्रैफिक लाइट पर रुक जाओ तो लोग हॉर्न मारने लगते हैं, ये असहिष्णुता है. फ्लाइट लैंड होने पर पायलट की अनुमति के पहले अगर सारे यात्री खड़े होकर अपना सामान निकलने लगते हैं तो ये भी असहिष्णुता है. असहिष्णुता कोई राजनीतिक शब्द नहीं है. ये बीजेपी विरोधी शब्द नहीं है. ये मोदी विरोधी शब्द नहीं है.
कभी सोच के देखिये हवाई जहाज़ से सब साथ निकलेंगे, एक ही बस में अपने अपने सामान तक साथ जाएंगे, कमाल ये है कि बस में से निकलने तक एक दूसरे को धकियाने का प्रयास चलता रहता है, फिर भले सामान की बेल्ट पर साथ खड़े रहेंगे. ये सब असहिष्णुता है और इसे बीजेपी ले कर नहीं आई है.
मेरी थोड़ी बहुत समझदारी से इस असहिष्णुता का गर्भ सामाजिक असमानता में है. होने और न होने के बीच की कई सतहों के बीच मुसलसल भागते लोग जो पाने और न पा लेने की रोज़ की लड़ाई में अक्सर ये भूलते रहते हैं कि पड़ोस में भी कोई खड़ा है जिसकी ज़रूरत मेरी ज़रूरत से भिन्न हो सकती है. ये भूलते रहते हैं कि हम सब एक समाज का हिस्सा हैं जो एक शहर का हिस्सा है जो एक देश का हिस्सा है और जो एक दुनिया का हिस्सा है.
ये भूल जाना कि मेरे साथ और भी कोई सफर में है, और वो भी वहीं जा रहा है जहां मैं जा रहा हूँ. उसका घर हरा हो सकता है और मेरा गेरुआ पर हैं दोनों घर ही और थोड़ा शांति से सोचें तो दोनों घर पड़ोस में ही हैं. ये भूल जाना असहिष्णुता है. ये भूल जाना कि उसका सफर भी मेरे सफर जितना ही महत्वपूर्ण है, ये असहिष्णुता है. आमिर या शाह रुख़ के पीछे खड़े हो जाइये या उन के सामने ये आपका फैसला है.
असहिष्णुता की बहस में हम ग़लत सहिष्णुता सीख गए हैं. उस सड़क से अपनी गाड़ी में बैठ के गुज़र जाना जिसके फुटपाथ पर बच्चे सोते हैं ये ग़लत सहिष्णुता है. अपने समाज से और अपनी सरकार से ये न पूछना कि इस इस देश के 40 प्रतिशत लोगों को खाना क्यों नहीं मिलता ये ग़लत सहिष्णुता है. जय जवान जय किसान वाले इस देश में लाखों किसान हर साल आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ये न जानना ग़लत सहिष्णुता है, सिर्फ इसलिए कि आपका बच्चा स्कूल जाता है इस सवाल को भूल जाना कि मेरी गाड़ी के शीशे पर दस्तक देता बच्चा स्कूल क्यों नहीं गया ये ग़लत सहिष्णुता है. हम ग़लत चीज़ें सह कर असहिष्णुता की बहस में व्यस्त हैं. असहिष्णुता व्यक्तिगत बीमारी है, सामाजिक बीमारी है. राजनीति में इसका सिर्फ इस्तेमाल होता है.
अखलाक़ के घर में गोमांस नहीं था ये बात साबित हो चुकी है. चलिए माना कि उस रात भीड़ से ग़लती हो गयी. एक बेटा जो हिंदुस्तानी वायुसेना के लिए काम करता था उसके बाप को इस शक में मार दिया गया कि उसके फ्रिज में गोमांस था. कृपया मेरी इस बात में कोई तंज़ न पढ़ें क्यूंकि नहीं है. भीड़ का कोई किरदार नहीं होता, एक जूनून होता है एक कोलाहल होता है. अचानक एक आवाज़ आई होगी कि 'मारो साले को' और एक हत्या हो गयी. पर आज सबको पता है कि गोहत्या नहीं हुयी थी, शायद उस परिवार को उसके पुश्तैनी घर से हटा कर कहीं और भेज दिया गया. कितने हिन्दुओं ने खड़े होकर कहा कि ये ग़लत हुआ? सरकार के किन नुमाइंदों ने कहा कि ये ग़लत हुआ?
हमने माना कि याकूब मेमन को टीवी स्टार बना दिया गया था और उसके जनाज़े की अथाह भीड़ में ज़्यादातर लोग कौतूहल के कारण थे सम्मान के कारण नहीं. पर सच ये है की उसके जनाज़े में हज़ारों मुसलमानों ने शिरकत की. कितने मुसलामानों ने कह दिया कि ये ग़लत था? हमसफ़र हैं हम और हमें ख्याल रखना पड़ेगा कि हमारे साथ कौन खड़ा है और उसकी ज़रूरतें क्या हैं. दादरी के बाद मुसलमानों को अच्छा लगता अगर सब हिन्दू मिल के कहते कि ग़लती हुयी. याकूब के जनाज़े के बाद हिन्दुओं को अच्छा लगता अगर मुसलमान खड़े होकर मानते की ग़लती हुयी. याकूब को बम्बई बम धमाकों के लिए अदालत ने मौत की सजा दी. अदालत ने फांसी की सुबह चार बजे तक बहस की पर फिर भी माना कि वो दोषी था, इतना दोषी कि उसे फांसी दे दी जाय तो फिर हमें उस फैसले का सम्मान करना होगा. वो अदालत हमारे समाज में न्याय करने की व्यवस्था है. ऐसे और कई मौके हैं जब हिन्दू और मुसलमान दोनों ने अपने अपने फ़र्ज़ नहीं निभाए. दोनों ने अपने पड़ोसियों का ख्याल नहीं रखा. ये अलग बहस है कि क्यों नहीं रखा. और यहाँ से राजनीति का अपना किरदार शुरू होता है.
ये हमेशा याद रखने वाली बात है कि जो मुसलमान हिन्दुस्तान में रहते हैं वो वो मुसलमान हैं जिन्होंने 1947 में इस देश को अपना वतन माना था. उनके पास मौक़ा था कि वो एक 'मुसलमान देश' चले जाते. वो नहीं गए क्योंकि वो एक धर्मनिरपेक्ष देश में अल्पसंख्यक बन के रहने को तैयार थे बनिस्बत इस के कि वो एक बहुसंख्यक मुसलमान समाज में पाकिस्तान में रहते. इस बात का सम्मान होना चाहिए. कम से कम ये तो तय है कि देश के लिए उनका प्यार हमारे प्यार से कम नहीं है. हाँ खराब लोग हर धर्म में हैं, हिन्दुओं में भी और मुसलमानों में भी. असल अल्पसंख्यक दरअसल वो हैं. 1984 ग़लत था, 1992 ग़लत था, गोधरा, मुज़फ्फरनगर, अयोध्या, कश्मीर सब ग़लत था और अलग अलग वक़्त अलग अलग लोगों ने इन सभी हत्याओं का विरोध किया और अगर नहीं किया तो वो भी ग़लत है, करना चाहिए था. पर ये भी सही नहीं है कि जो आज पहली बार बोल रहे हैं, अगर पहली बार बोल रहे हैं तो उनको इस वजह से खामोश कर दिया जाय क्योंकि वो पहली बार बोल रहे हैं.
प्रभुत्व इंसान की कमज़ोरी है और इंसान से ही समाज है, लिहाज़ा ये सामाजिक कमज़ोरी भी है. समाज ग़लतियाँ करते रहे हैं करते रहेंगे, इस यूटोपियन ख़याली पुलाव से बच निकलना चाहिए कि असहिष्णुता खत्म हो जायेगी. ये बहुरंगी समाज की समस्या है. पर इस से भी बड़ी समस्या राजनीतिक है.
इस से भी बड़ी समस्या ये है क्या राजनीति सामाजिक असहिष्णुता का प्रयोग अपने लाभ के लिए करेगी. अगर आप 1992, गोधरा, कश्मीर याद रखते हैं तो आपसे ये अपेक्षा है कि आपको याद हो कि सामाजिक असहिष्णुता का राजनीति ने हमेशा इस्तेमाल किया है. 47 के पहले से, अब भी कर रही है, लड़ाई इस बात से होनी चाहिए और शायद है भी कि सरकारी तंत्र में असहिष्णुता कैसे हो सकती है.
वो लोग जो संसद में बहुसंख्यक सरकार का हिस्सा हैं वो कैसे असहिष्णुता का प्रचार कर सकते हैं. वो लोग कैसे बच के निकल जाते हैं अमानवीय और असंवेदनशील बयानों और तकरीरों के बाद. क्यों आये दिन हिन्दू राष्ट्र का तस्करा होता रहता है, ये असंवैधानिक बहस है और सरकार की ज़िम्मेदारी है की इस बहस को बंद किया जाय, या कम से कम किसी एक तक़रीर में स्पष्टतः कह दिया जाय कि सरकार इस बहस में किस तरफ है.
Good Cop, Bad Cop का खेल अब बेहद पारदर्शी हो चुका है. कैसे बनेगा हिन्दू राष्ट्र? क्या सारे मुसलमान, सिख, ईसाई सब हिन्दू बन जाएंगे? या फिर वो सब अपने अपने धर्मों को मानते हुए हिंदुत्व के प्रभुत्व को स्वीकार कर लेंगे? या फिर कुछ और छोटे छोटे पाकिस्तान, खालिस्तान और एंग्लोस्तान बनेंगें? ये बात समझ नहीं आती है. समझ में आती है तो सिर्फ ये बात कि असहिष्णुता समाज में है, सिर्फ समाज में और अगर हम इस से निजात पा लें तो कोई भी राजनीति कभी भी इसका इस्तेमाल नहीं कर सकेगी.
ज़रूरत है कि हम अपनी सरकारों से सही सवाल पूछें. सिर्फ बीजेपी से सिर्फ मोदी मोदी (टाइपिंग एरर नहीं है, उनका नाम मुझे हमेशा दो बार ही सुनाई देता है) जी से नहीं, नहीं अखिलेश, नीतीश, केजरीवाल, जयललिता, ममता सबसे कि मेरे बच्चे का स्कूल कहाँ है और मेरे पडोसी की माँ का अस्पताल कहाँ है? रोटी कमाने अपने परिवार को छोड़ के बम्बई क्यों जाना पड़ता है? मेरे खेतों में पानी क्यों नहीं आता?
सही सवाल पूछो उनसे ताकि वो तुम्हें तुम्हारे ग़लत सवालों में न उलझाये रखें. असहिष्णुता तुम में है, उन में नहीं वो तो उनका हथियार मात्र है. उनसे कह दो कि बाक़ी हम आपस में संभाल लेंगे. पड़ोसी दिन में पांच बार लाउडस्पीकर पर शोर मचाते हैं तो हम भी साल में आठ दस बार सड़कें जाम कर देते हैं. हम उनसे बात करके मामले सुलझा लेंगे. आखिर वो पडोसी हैं हमारे, फिर क्या हुआ कि हमारे घरों के रंग अलग हैं.
ग़ालिब मेरे कज़न थे शायद पिछले जनम में, जब भी समझदारी की कोई भी बात करता हूँ वो याद आ जाते हैं,
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई.
सुबह साढ़े सात बजे या रात के दो बजे ट्रैफिक लाइट पर रुक जाओ तो लोग हॉर्न मारने लगते हैं, ये असहिष्णुता है. फ्लाइट लैंड होने पर पायलट की अनुमति के पहले अगर सारे यात्री खड़े होकर अपना सामान निकलने लगते हैं तो ये भी असहिष्णुता है. असहिष्णुता कोई राजनीतिक शब्द नहीं है. ये बीजेपी विरोधी शब्द नहीं है. ये मोदी विरोधी शब्द नहीं है.
कभी सोच के देखिये हवाई जहाज़ से सब साथ निकलेंगे, एक ही बस में अपने अपने सामान तक साथ जाएंगे, कमाल ये है कि बस में से निकलने तक एक दूसरे को धकियाने का प्रयास चलता रहता है, फिर भले सामान की बेल्ट पर साथ खड़े रहेंगे. ये सब असहिष्णुता है और इसे बीजेपी ले कर नहीं आई है.
मेरी थोड़ी बहुत समझदारी से इस असहिष्णुता का गर्भ सामाजिक असमानता में है. होने और न होने के बीच की कई सतहों के बीच मुसलसल भागते लोग जो पाने और न पा लेने की रोज़ की लड़ाई में अक्सर ये भूलते रहते हैं कि पड़ोस में भी कोई खड़ा है जिसकी ज़रूरत मेरी ज़रूरत से भिन्न हो सकती है. ये भूलते रहते हैं कि हम सब एक समाज का हिस्सा हैं जो एक शहर का हिस्सा है जो एक देश का हिस्सा है और जो एक दुनिया का हिस्सा है.
ये भूल जाना कि मेरे साथ और भी कोई सफर में है, और वो भी वहीं जा रहा है जहां मैं जा रहा हूँ. उसका घर हरा हो सकता है और मेरा गेरुआ पर हैं दोनों घर ही और थोड़ा शांति से सोचें तो दोनों घर पड़ोस में ही हैं. ये भूल जाना असहिष्णुता है. ये भूल जाना कि उसका सफर भी मेरे सफर जितना ही महत्वपूर्ण है, ये असहिष्णुता है. आमिर या शाह रुख़ के पीछे खड़े हो जाइये या उन के सामने ये आपका फैसला है.
असहिष्णुता की बहस में हम ग़लत सहिष्णुता सीख गए हैं. उस सड़क से अपनी गाड़ी में बैठ के गुज़र जाना जिसके फुटपाथ पर बच्चे सोते हैं ये ग़लत सहिष्णुता है. अपने समाज से और अपनी सरकार से ये न पूछना कि इस इस देश के 40 प्रतिशत लोगों को खाना क्यों नहीं मिलता ये ग़लत सहिष्णुता है. जय जवान जय किसान वाले इस देश में लाखों किसान हर साल आत्महत्या क्यों कर रहे हैं ये न जानना ग़लत सहिष्णुता है, सिर्फ इसलिए कि आपका बच्चा स्कूल जाता है इस सवाल को भूल जाना कि मेरी गाड़ी के शीशे पर दस्तक देता बच्चा स्कूल क्यों नहीं गया ये ग़लत सहिष्णुता है. हम ग़लत चीज़ें सह कर असहिष्णुता की बहस में व्यस्त हैं. असहिष्णुता व्यक्तिगत बीमारी है, सामाजिक बीमारी है. राजनीति में इसका सिर्फ इस्तेमाल होता है.
अखलाक़ के घर में गोमांस नहीं था ये बात साबित हो चुकी है. चलिए माना कि उस रात भीड़ से ग़लती हो गयी. एक बेटा जो हिंदुस्तानी वायुसेना के लिए काम करता था उसके बाप को इस शक में मार दिया गया कि उसके फ्रिज में गोमांस था. कृपया मेरी इस बात में कोई तंज़ न पढ़ें क्यूंकि नहीं है. भीड़ का कोई किरदार नहीं होता, एक जूनून होता है एक कोलाहल होता है. अचानक एक आवाज़ आई होगी कि 'मारो साले को' और एक हत्या हो गयी. पर आज सबको पता है कि गोहत्या नहीं हुयी थी, शायद उस परिवार को उसके पुश्तैनी घर से हटा कर कहीं और भेज दिया गया. कितने हिन्दुओं ने खड़े होकर कहा कि ये ग़लत हुआ? सरकार के किन नुमाइंदों ने कहा कि ये ग़लत हुआ?
हमने माना कि याकूब मेमन को टीवी स्टार बना दिया गया था और उसके जनाज़े की अथाह भीड़ में ज़्यादातर लोग कौतूहल के कारण थे सम्मान के कारण नहीं. पर सच ये है की उसके जनाज़े में हज़ारों मुसलमानों ने शिरकत की. कितने मुसलामानों ने कह दिया कि ये ग़लत था? हमसफ़र हैं हम और हमें ख्याल रखना पड़ेगा कि हमारे साथ कौन खड़ा है और उसकी ज़रूरतें क्या हैं. दादरी के बाद मुसलमानों को अच्छा लगता अगर सब हिन्दू मिल के कहते कि ग़लती हुयी. याकूब के जनाज़े के बाद हिन्दुओं को अच्छा लगता अगर मुसलमान खड़े होकर मानते की ग़लती हुयी. याकूब को बम्बई बम धमाकों के लिए अदालत ने मौत की सजा दी. अदालत ने फांसी की सुबह चार बजे तक बहस की पर फिर भी माना कि वो दोषी था, इतना दोषी कि उसे फांसी दे दी जाय तो फिर हमें उस फैसले का सम्मान करना होगा. वो अदालत हमारे समाज में न्याय करने की व्यवस्था है. ऐसे और कई मौके हैं जब हिन्दू और मुसलमान दोनों ने अपने अपने फ़र्ज़ नहीं निभाए. दोनों ने अपने पड़ोसियों का ख्याल नहीं रखा. ये अलग बहस है कि क्यों नहीं रखा. और यहाँ से राजनीति का अपना किरदार शुरू होता है.
ये हमेशा याद रखने वाली बात है कि जो मुसलमान हिन्दुस्तान में रहते हैं वो वो मुसलमान हैं जिन्होंने 1947 में इस देश को अपना वतन माना था. उनके पास मौक़ा था कि वो एक 'मुसलमान देश' चले जाते. वो नहीं गए क्योंकि वो एक धर्मनिरपेक्ष देश में अल्पसंख्यक बन के रहने को तैयार थे बनिस्बत इस के कि वो एक बहुसंख्यक मुसलमान समाज में पाकिस्तान में रहते. इस बात का सम्मान होना चाहिए. कम से कम ये तो तय है कि देश के लिए उनका प्यार हमारे प्यार से कम नहीं है. हाँ खराब लोग हर धर्म में हैं, हिन्दुओं में भी और मुसलमानों में भी. असल अल्पसंख्यक दरअसल वो हैं. 1984 ग़लत था, 1992 ग़लत था, गोधरा, मुज़फ्फरनगर, अयोध्या, कश्मीर सब ग़लत था और अलग अलग वक़्त अलग अलग लोगों ने इन सभी हत्याओं का विरोध किया और अगर नहीं किया तो वो भी ग़लत है, करना चाहिए था. पर ये भी सही नहीं है कि जो आज पहली बार बोल रहे हैं, अगर पहली बार बोल रहे हैं तो उनको इस वजह से खामोश कर दिया जाय क्योंकि वो पहली बार बोल रहे हैं.
प्रभुत्व इंसान की कमज़ोरी है और इंसान से ही समाज है, लिहाज़ा ये सामाजिक कमज़ोरी भी है. समाज ग़लतियाँ करते रहे हैं करते रहेंगे, इस यूटोपियन ख़याली पुलाव से बच निकलना चाहिए कि असहिष्णुता खत्म हो जायेगी. ये बहुरंगी समाज की समस्या है. पर इस से भी बड़ी समस्या राजनीतिक है.
इस से भी बड़ी समस्या ये है क्या राजनीति सामाजिक असहिष्णुता का प्रयोग अपने लाभ के लिए करेगी. अगर आप 1992, गोधरा, कश्मीर याद रखते हैं तो आपसे ये अपेक्षा है कि आपको याद हो कि सामाजिक असहिष्णुता का राजनीति ने हमेशा इस्तेमाल किया है. 47 के पहले से, अब भी कर रही है, लड़ाई इस बात से होनी चाहिए और शायद है भी कि सरकारी तंत्र में असहिष्णुता कैसे हो सकती है.
वो लोग जो संसद में बहुसंख्यक सरकार का हिस्सा हैं वो कैसे असहिष्णुता का प्रचार कर सकते हैं. वो लोग कैसे बच के निकल जाते हैं अमानवीय और असंवेदनशील बयानों और तकरीरों के बाद. क्यों आये दिन हिन्दू राष्ट्र का तस्करा होता रहता है, ये असंवैधानिक बहस है और सरकार की ज़िम्मेदारी है की इस बहस को बंद किया जाय, या कम से कम किसी एक तक़रीर में स्पष्टतः कह दिया जाय कि सरकार इस बहस में किस तरफ है.
Good Cop, Bad Cop का खेल अब बेहद पारदर्शी हो चुका है. कैसे बनेगा हिन्दू राष्ट्र? क्या सारे मुसलमान, सिख, ईसाई सब हिन्दू बन जाएंगे? या फिर वो सब अपने अपने धर्मों को मानते हुए हिंदुत्व के प्रभुत्व को स्वीकार कर लेंगे? या फिर कुछ और छोटे छोटे पाकिस्तान, खालिस्तान और एंग्लोस्तान बनेंगें? ये बात समझ नहीं आती है. समझ में आती है तो सिर्फ ये बात कि असहिष्णुता समाज में है, सिर्फ समाज में और अगर हम इस से निजात पा लें तो कोई भी राजनीति कभी भी इसका इस्तेमाल नहीं कर सकेगी.
ज़रूरत है कि हम अपनी सरकारों से सही सवाल पूछें. सिर्फ बीजेपी से सिर्फ मोदी मोदी (टाइपिंग एरर नहीं है, उनका नाम मुझे हमेशा दो बार ही सुनाई देता है) जी से नहीं, नहीं अखिलेश, नीतीश, केजरीवाल, जयललिता, ममता सबसे कि मेरे बच्चे का स्कूल कहाँ है और मेरे पडोसी की माँ का अस्पताल कहाँ है? रोटी कमाने अपने परिवार को छोड़ के बम्बई क्यों जाना पड़ता है? मेरे खेतों में पानी क्यों नहीं आता?
सही सवाल पूछो उनसे ताकि वो तुम्हें तुम्हारे ग़लत सवालों में न उलझाये रखें. असहिष्णुता तुम में है, उन में नहीं वो तो उनका हथियार मात्र है. उनसे कह दो कि बाक़ी हम आपस में संभाल लेंगे. पड़ोसी दिन में पांच बार लाउडस्पीकर पर शोर मचाते हैं तो हम भी साल में आठ दस बार सड़कें जाम कर देते हैं. हम उनसे बात करके मामले सुलझा लेंगे. आखिर वो पडोसी हैं हमारे, फिर क्या हुआ कि हमारे घरों के रंग अलग हैं.
ग़ालिब मेरे कज़न थे शायद पिछले जनम में, जब भी समझदारी की कोई भी बात करता हूँ वो याद आ जाते हैं,
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई.