Tuesday, November 8, 2016

साम्प्रदायिक सदभाव से होगा भारत का विकास

मो. आफताब आलम

"मैं प्रतिज्ञा करता/करती हूं कि मैं जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, धर्म अथवा भाषा का भेदभाव किए बिना सभी भारतवासियों की भावनात्मक एकता और सदभावना के लिए कार्य करूंगा/करूंगी। मैं पुनः प्रतिज्ञा करता/करती हूं कि मैं हिंसा का सहारा लिए बिना सभी प्रकार के मतभेद बातचीत और संवैधानिक माध्यमों से सुलझाऊंगा/सुलझाऊंगी।"

उपर्युक्त वाक्य "सद्भावना दिवस" के दिन लिए जाने वाले "प्रतिज्ञा" के हैं जो हर वर्ष 20 अगस्त को देशभर में मनाया जाता है। सद्भावना का अर्थ होता है सच्ची भावना। ऐसी भावना जो जाति-धर्म से ऊपर उठकर राष्ट्रविकास के लिए निष्पक्ष भाव से काम करने की हो। छोटी-छोटी बातों और विवादों को लेकर समुदायों और समूहों के बीच टकराव व मतभेद को दूर कर एकता के सूत्र में बांधना और राष्ट्रहित, समाजहित में कार्य करना ही इसका मुख्य उद्देश्य है। केंद्र सरकार और राज्यों की सरकार भी सांप्रदायिक सदभाव और शांति बनाए रखने के लिए वचनबद्ध है। सरकार ने देश में शांति व सौहार्द बनाए रखने के लिए जातीय हिंसा, आतंकवाद, आदि से निपटने के लिए अपनी खुफिया नेटवर्क को मजबूत करने, विशेष बल तैयार करने, आधुनिक हथियार अधिग्रहित करने, बेहतर प्रशिक्षण देने, आदि के ठोस उपाय भी किए हैं।

दरअसल, 20 अगस्त पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री राजीव गांधी का जन्मदिवस है और उन्हीं की याद में यह दिवस मनाया जाता है जिसमें सभी धर्म, भाषाओं और क्षेत्रों के लोगों के बीच राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना उत्पन्न करने हेतु विविध कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। सभी सरकारी कार्यालयों में सद्भावना की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है और 20 अगस्त से 5 सितम्बर तक की अवधि को साम्प्रदायिक सौहार्द पखवाड़ा के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष 20 अगस्त को तृतीय शनिवार का अवकाश होने के कारण यह दिवस 19 अगस्त, 2011 को मनाया गया।

भारत विभिन्न धर्म और संप्रदाय के मानने वालों का देश है। यह अनेकता में एकता का एक प्रतीक है। यहां हिंदू, मुस्लिम, सीख, ईसाई, सभी धर्म के लोग निवास करते हैं। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो यह पता चलता है कि देश में सभी जाति, धर्म के लोग एक दूसरे के दुख-दर्द में शामिल होते हैं। हिंदू धर्म के गणोशोत्सव, होली, दीपावली में जहां मुसलमान भाई भी शामिल होते हैं वहीं मुसलमान के ईद, बकरीद, मुहर्रम, आदि त्यौहारों में हिंदू भाई बढ़चढ़र हिस्सा लेते हैं और एक दूसरे से गले मिलते हैं। समाज के कुछ अपराधिक तत्वों और असामाजिक तत्वों के कारण हुए दंगों में भी समाज के बुद्धिजीवि वर्ग के लोगों ने संयम से काम लिया है और दोनों धर्म के लोगों ने एक - दूसरे को शरण देकर उनकी जान बचाई है। ऐसे कई उदाहरण हमें आए दिन देखने को मिलते हैं जिससे पता चलता है कि देश के लोग हिंसा, लड़ाई, झगड़ा के बदले शांति व सदभाव चाहते हैं और एक दूसरे के लिए मर मिटने को हमेशा तैयार रहते हैं।

सांप्रदायिक सदभाव का पर्व है कृष्ण जन्माष्टमी
कृष्ण जन्माष्टमी पर झांकिया तैयार करने वाले अधिकांश कारीगर मुस्लिम समाज के होते हैं। झांकिया बनाने वाले कुर्ला के अंजीम खान का कहना है कि उसकी टीम में पचास से अधिक कारीगर है। जो मुंबई, ठाणे व देश के अन्य मंदिरों में कृष्ण जन्माष्टमी की झांकी बनाने का काम करते हैं। हर साल वह इस त्यौहार का बेसब्री से इंतजार करते हैं। इससे कई परिवारों की ठीक-ठीक कमाई हो जाती है। इस बार कई मंदिर कमेटी ने आतंकवाद, पर्यावरण व भ्रष्टाचार के विरोध में आंदोलन करने वाले अन्ना हजारे को झांकी में शामिल करने की बात कही थी जिसे उन्होंने पूरा किया है।

सांप्रदायिक सदभाव की मिसाल गुलशन बानो
हिंसा किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे बड़ा कलंक हैं, और जब यह दंगों के रूप में सामने आती है तो इसका रूप और भी भयंकर हो जाता है। दंगे सिर्फ जान और माल का ही नुक़सान नहीं करते, बल्कि इससे लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं और उनके सपने बिखर जाते हैं। दंगे अपने पीछे दुख-दर्द, तकलीफें और कड़वाहटें छोड़ जाते हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं।

ऐसी ही एक महिला हैं गुजरात के अहमदबाद की गुलशन बानो, जिन्होंने एक हिन्दू लड़के को गोद लिया है। करीब 47 साल की गुलशन बानो केलिको कारखाने के पास अपने बच्चों के साथ रहती हैं। वर्ष 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों में जब लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे, उस समय उनके बेटे आसिफ ने एक हिन्दू लड़के रमन को आसरा दिया था। बेटे के इस काम ने गुलशन बानो का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। रमन के आगे-पीछे कोई नहीं था। इसलिए उन्होंने उसे गोद लेने का फैसला कर लिया। इस वाकिये को करीब छह साल बीत चुके हैं। रमन गुलशन बानो के परिवार में एक सदस्य की तरह रहता है। उसका कहना है कि गुलशन बानो उसके लिए मां से भी बढ़कर हैं। उन्होंने कभी उसे मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी। बारहवीं कक्षा तक पढ़ी गुलशन बानो कहती हैं कि उनका जीवन संघर्षों से भरा हुआ है। उन्होंने अपने आठ बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया है। जब उन्होंने बिन मां-बाप का बच्चा देखा तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने उसे अपना लिया। उनके घर ईद के साथ-साथ दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है। अलग-अलग धर्मों से ताल्लुक रखने के बावजूद एक ही थाली में भोजन करने वाले मां-बेटे का प्यार इंसानियत का सबक सिखाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 में 16 लाख लोग हिंसा के कारण मौत के मुंह में समा गए थे। इनमें से करीब तीन लाख लोग युध्द या सामूहिक हिंसा में मारे गए, पांच लाख की हत्या हुई और आठ लाख लोगों ने खुदकुशी की। युध्द, गृहयुध्द या दंगे-फसाद बहुत विनाशकारी होते हैं, लेकिन इससे भी कई गुना ज्यादा लोग हत्या या आत्महत्या की वजह से मारे जाते हैं। हिंसा में लोग अपंग भी होते हैं। इनकी तादाद मरने वाले लोगों से करीब 25 गुना ज्यादा होती है। हर साल करीब 40 करोड़ लोग हिंसा की चपेट में आते हैं और हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के नजदीकी रिश्तेदारों में कम से कम 10 लोग इससे प्रभावित होते हैं।

इसके अलावा ऐसे भी छोटे-छोटे झगड़े होते हैं, जिनसें जान व माल का नुकसान तो नहीं होता, लेकिन उसकी वजह से तनाव की स्थिति जरूर पैदा हो जाती है। कई बार यह हालत देश और समाज की एकता, अखंडता और चैन व अमन के लिए भी खतरा बन जाती है। भारत भी हिंसा से अछूता नहीं है। आजादी के बाद से ही भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं। इनमें 1961 में अलीगढ़, जबलपुर, दमोह और नरसिंहगढ़, 1967 में रांची, हटिया, सुचेतपुर-गोरखपुर, अहमदनगर, शोलापुर, मालेगांव, 1969 में अहमदाबाद, 1970 में भिवंडी, 1971 में तेलीचेरी (केरल), 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1989 में भागलपुर में दंगा, 1992-1993 में मुंबई में भड़के मुस्लिम विरोधी दंगे से लेकर 1999 में उड़ीसा में ग्राहम स्टेन्स की हत्या, 2001 में मालेगांव और 2002 में गुजरात में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों सहित करीब 30 ऐसे नरसंहार शामिल हैं, जिनकी कल्पना मात्र से ही रूह कांप जाती है।

दंगों में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, सुहागिनों का सुहाग छिन गया, मांओं की गोदें सूनी हो गईं। बसे-बसाए खुशहाल घर उजड़ गए और लोग बेघर होकर खानाबदोश जिन्दगी जीने को मजबूर हो गए। हालांकि पीड़ितों को राहत देने के लिए सरकारों ने अनेक घोषणाएं कीं और जांच आयोग भी गठित किए, लेकिन नतीजा वही ‘वही ढाक के तीन पात’ रहा। सांप्रदायिक दंगों के बाद इनकी पुनरावृत्ति रोकने और देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के मकसद से कई सामाजिक संगठन अस्तित्व में आ गए जो देश में सांप्रदायिक सद्भाव की अलख जगाने का काम कर रहे हैं।

गौरतलब है कि हिंसा के मुख्य कारणों में अन्याय, विषमता, स्वार्थ और आधिपत्य स्थापित करने की भावना शामिल है। हिंसा को रोकने के लिए इसके बुनियादी कारणों को दूर करना होगा। इसके लिए गंभीर रूप से प्रयास होने चाहिएं। इससे जहां रोजमर्रा के जीवन में हिंसा कम होगी, वही युध्द, गृहयुध्द और दंगे-फसाद जैसी सामूहिक हिंसा की आशंका भी कम हो जाएगी। अहिंसक जीवन जीने के लिए यह जरूरी है कि ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ की प्रवृत्ति को अपनाया जाए। अहिंसक समाज की बुनियाद बनाने में परिवार के अलावा, स्कूल और कॉलेज भी अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसके साथ ही विभिन्न धर्मों के धर्म गुरु भी लोगों को धर्म की मूल भावना मानवता का संदेश देकर अहिंसक समाज के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इन सबके बल पर ही भारत विकासशील देश से विकसति देशों की श्रेणी में आ सकता है।

आफताब आलम
मुंबई, aftaby2k@hotmail.com
mob. 09224169416

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