काश नेपाल में भी कोई अन्ना हजारे सरीखे गांधीवादी व्यक्तित्व होता, जो देश में शांति स्थापना तथा संविधान निर्माण के लिए आमरण अनशन करता और जिसके साथ देश की संपर्ूण्ा जनता खडÞी होती तथा जिनकी सभाओं से राजनीति की रोटी सेंकने वाले नेताओं को जनता बैरन वापस कर देती । लेकिन अफसोस नेपाल में ऐसा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है, जिस पर देश अभिमान करे या फिर हमारी छाती उत्तान हो । आज देश में त्याग और बलिदान लुप्त हो गया है । आज लोगों में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे सच को सच और झूठ को झूठ कह सके । चतुर चालाक लोग अपनी धर्ूतता के बदौलत अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं । सही बात को गलत और गलत बात को सही बताया जा रहा है । इस शहर में रहने का दस्तूर यही है, बिक जाये जो बाजार मेर्ंर् इमान वही है । महाभारत काल में दुर्योधन के दरबार में जो कुछ घटा था, आज देश में भी वही घट रहा है, जब भीष्म और द्रोण जैसे धर्म पुरुष भी द्रौपदी चीरहण के समय अपना मूँह नहीं खोले थे । इस दर्ुघटना का जो दुष्परिणाम समाज और राष्ट्र को भुगतना पडÞा था, वह सब जानते हैं । देश की वर्तमान राजनीति हमें उसी विनाश की तरफ धकेल रही है ।
सवाल व्यक्ति का नहीं, व्यवस्था का भी नहीं, बल्कि व्यवस्था संचालन का है । हम लोग भाग्यवादी हैं, इसलिए सोंचते हैं कि इतने सारे उथलपुथल के बाद भी एक दिन ऐसा आएगा, जब सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा । चेहरे और दल सभी एक से हैं, फिर भी सरकार बनाने-बिगाडÞने का खेल अनवरत रुप से जारी है । आज कोई भी व्यक्ति जनता, समाज या राष्ट्र के लिए नहीं सोच रहा है । बस सिर्फकर्ुर्सर्ीीकर्ुर्सर्ीीौर सिर्फकर्ुर्सर्ीी स्वाभाविक है कि राजनीतिक संकर्ीण्ाता व्यवस्था में विकृतियाँ उत्पन्न करेंगी । आाकडÞो की हेरा फेरी कर सरकार बनाने और बिगाडÞने के लिए धडÞल्ले से सांसदों की खरीद बिक्री गाजर मूली की तरह की जाती है । जनता अपने को सुरक्षित महशूश नहीं कर रही है और सबों से उसका भरोसा उठ गया है । यह बात नहीं है कि देश के प्रजातान्त्रिकरण से लाभ नहीं हुआ है लेकिन इसका विकृति स्वरुप हमारी नैतिकता को लील रहा है । बडेÞ-बडÞे उद्योगपति अपराधकर्मियों से अपनी सुरक्षा खरीदने में लगे हैं । पुलिस प्रशासन स्वयं भी रक्षा नहीं कर पा रही तो दूसरों की क्या करेगी । आज देश की शांति और सुरक्षा व्यवस्था इतनी बिगडÞ गयी है कि लगता है हम अगर जीवत हैं तो हमारी स्थिति मारे गए लोगों से भी बदतर है । हम घुट-घुट कर मरने को मजबुर हैं । अपार वेदना सह कर जीने से अच्छा तो मौत है । हमारी आत्मा कराह रही है । प्रसिद्ध इतिहासकार विंसेट स्मिथ के अनुसार मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण कुशल नेतृत्व की कमी थी । लगता है हमारा देश सपूतों को पैदा करना ही बंद कर दिया है । देश के किसी भी राजनीतिक दल में अब इतना दम खम नहीं है कि वह किसी भी चुनाव में अकेले बहुमत प्राप्त कर सके । अतः निकट भविष्य में भी गठबंधन की सरकारें बनने के ही आसार हैं । कोई अल्पमत की एक दलीय सरकार बने भी तो वह उलझनों में ही घिरी रहेगी । सबसे चिन्ता का विषय है राष्ट्रीय राजनीति के विखंडन तथा उससे निर्मित होने वाली पंगु सरकार की । अगर केन्द्रीय सत्ता पंगु हो और सामाजिक सत्ता अस्त-व्यस्त हो तो जनता को पनाह कहां मिलेगी –
साम्राज्य चाहे जैसा भी हो, निरंकुश या लोकतांत्रिक, सभी के पतन की एक ही कहानी है । पतन की प्रक्रिया मानवी तत्व से प्रारंभ होती है और समाज के सभी अंगों को प्रदूषित करती है । पतनशील शासक यथार्थ से आाखें फेरकर मिथकों और भ्रांतियों के आरामगाह में बंद रहते हैं और साम्राज्य के विनाश के अंतिम क्षणों तक उसकी वैधता का सपना देखते रहते हैं । आज केन्द्रीय सत्ता पूरी तरह खोखली हो गयी है । गठबंधन सरकारें मृतप्राय व्यक्ति की तरह वेन्टिलेटर के सहारे किसी भी तरह मात्र जिन्दा रह सकती है । वे अपने दायित्वों का निर्वाह करने में असक्षम होती हैं । सांसदों को संसद के विघटन का भय होता है । लगभग बीस सालों में हम न तो कोई सुदृढÞ संसद, न कोइ सुदृढÞ सरकार बना सके । जाति और क्षेत्र के आधार पर विखंडित मतदाताओं से त्रिशंकु संसद से अधिक की उम्मीद नहीं की जा सकती है । शिक्षा क्षेत्र में जो ह्रास हो रहा है, वह देश के लिए बहुत बडÞी चिन्ता की बात है । अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार इतना अधिक बढÞ गया है कि इसने देश की आत्मा को ही कुंठित कर दिया है । इन सभी बुराइयों के अंत के लिए नए संस्कार पैदा करने होेंग । शिक्षानीति, अर्थनीति तथा राजनीति सभी क्षेत्रों में व्यापक सुधार की जरुरत है । इसके बिना पुनर्निर्माण तथा पुनर्जागरण की कल्पना नहीं की जा सकती । एक सशक्त राष्ट्रीय सरकार के द्वारा ही इन दायित्वों को पूरा किया जा सकता है ।
अब प्रश्न उठता है कि इन सभी बातों के लिए जिम्मेदार कौन है । सतही तौर पर तो हम कह सकते हैं किन सब बातों के लिए हम सभी जिम्मेवार हैं । आज देश में स्वीकृत नीतियों का पालन नहीं हो रहा है । निर्धारित लक्ष्यों की पर्ूर्ति नहीं हो रही है । स्वच्छ प्रशासन नहीं मिल रहा है । शिक्षा में लगातार गिरावट आ रही है । कानून और व्यवस्था की स्थिति दिनों दिन बिगडÞती जा रही है । इन बातों के लिए प्रत्यक्ष रुप में वे जिम्मेदार हैं, जो राजकाज चलाने के लिए जनता द्वारा नियुक्त किए गए हैं लेकिन अप्रत्यक्ष रुप में देश के राजनीतिक दल भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । जब राज काज चलाने वालों का स्खलन होता है तो समाज को धारण करने वाली शाक्तियाँ क्षीण होती हैं । विनाशक शक्तियों की प्रबलता होती है । जन जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है । राजनीति में अधर्म व्याप्त हो जाता है । आज देश में यही सब कुछ हो रहा है । रामायण में भी राजा के आचरण पर बहुत जोर दिया गया है क्योंकि कहा जाता है कि जैसी राजा, वैसी प्रजा । राजा या सत्तारुढÞ दल के अतिरिक्त सम्पर्ूण्ा राजनीति या राजनीतिक पर्यावरण भी कम महत्वपर्ूण्ा नहीं होता है क्योंकि बहुदलीय राजनीति में कभी-कभी अल्पमत के आधार पर भी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने में सफल हो जाते है । अधिकांशतः देखा गया है कि ३०-४० प्रतिशत मत प्राप्त कर राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है और ६०-७० प्रतिशत मत प्राप्त करने वाले एक या एक से अधिक दल सत्ता से बाहर हो जाते हैं । निश्चय ही इसका अच्छा प्रभाव हमारी संस्थाओं पर नहीं पडÞता है ।
वैसे तो इन सारी कुव्यवस्थाओं के लिए हम सभी कुछ न कुछ हद तक जिम्मेवार हैं लेकिन अंतिम जिम्मेदारी सर्वोच्च नेतृत्व की ही होती है । लार्ँड ब्राउन ने ठीक ही कहा है कि अगर कोई गलती दिखायी पडेÞ तो मंत्री को गोली मारो । अगर यह मान लिया जाये कि गलती मुख्य रुप से अफसरों से हर्ुइ है और मंत्री का कोई व्यक्तिगत दोष नहीं हैं, तब भी मंत्री को ही सारी जिम्मेदारी अपने सर लेनी चाहिए । या आवाम की नजर में मंत्री ही मुजरिम माना जाना चाहिए । सामान्यतया यह देखा जाता है कि हम मंत्री को छोडÞकर उसके कर्मचारी के पीछे पडÞ जाते हैं । इस सम्बन्ध में हमें यह विचार करना होगा कि अगर हम कर्मचारी पर प्रहार करेंगे, उने बलि का बकरा बनाएँगे, तो इसके दुष्परिणाम हमें भुगतने होंगे, जिससे व्यवस्था और भी क्षीण हो जाएगी । मंत्री के व्यक्तित्व का मंत्रालय और उसके परिवेश पर र्सवाधिक प्रभाव पडÞता है । अगर मंत्री योग्य, निष्ठावान तथार् इमान्दार होगा तो इसका प्रभाव मंत्रालय पर भी दिखेगा । विपरीत स्थिति होने पर कार्यालय में सौदेबाजी होगी, भ्रष्टाचार बढेÞगा तथा अन्य प्रकार के व्यभिचार भी उत्पन्न होंगे । दूसरे थोडÞा किस गति से चलेगा यह सवार पर निर्भर है । कहा जाता है कि घोडÞा सवार की जंघा से ही समझ जाता है कि सवार कैसा है – हल्का या दबंग । हल्के सवार को घोडÞा जमीन पर पटक मारता है और दबंग सवार के इशारे पर नाचता है । सबसे चिन्ताजनक बात यह है कि आजकल राजनीतिक तंत्र में योग्यता-क्षमता का ह्रास तेजी से हो रहा है और यदि यही स्थिति रही तो व्यवस्था इसे अधिक दिनों तक बर्दाश्त न कर पायेगी, ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर का तापमान एक खास रेखा से नीचे गिरने पर मनुष्य दम तोडÞ देता है । आज सडÞक से लेकर संसद तक कहीं भी सरकार नहीं है । दल ही संसदीय लोकतंत्र की रीढÞ होती हैं लेकिन आज दल नाम मात्र के रह गए हैं, जो संविधान और नियम का भी पालन नहीं कर रहे हैं । बिना अनुशासित दल के अराजकता की स्थिति लाजिम है- सरकार में, समाज में और देश में । उल्टी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया । देखा इस बिमारिए दिल ने, आखिर काम तमाम किया ।
सवाल व्यक्ति का नहीं, व्यवस्था का भी नहीं, बल्कि व्यवस्था संचालन का है । हम लोग भाग्यवादी हैं, इसलिए सोंचते हैं कि इतने सारे उथलपुथल के बाद भी एक दिन ऐसा आएगा, जब सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा । चेहरे और दल सभी एक से हैं, फिर भी सरकार बनाने-बिगाडÞने का खेल अनवरत रुप से जारी है । आज कोई भी व्यक्ति जनता, समाज या राष्ट्र के लिए नहीं सोच रहा है । बस सिर्फकर्ुर्सर्ीीकर्ुर्सर्ीीौर सिर्फकर्ुर्सर्ीी स्वाभाविक है कि राजनीतिक संकर्ीण्ाता व्यवस्था में विकृतियाँ उत्पन्न करेंगी । आाकडÞो की हेरा फेरी कर सरकार बनाने और बिगाडÞने के लिए धडÞल्ले से सांसदों की खरीद बिक्री गाजर मूली की तरह की जाती है । जनता अपने को सुरक्षित महशूश नहीं कर रही है और सबों से उसका भरोसा उठ गया है । यह बात नहीं है कि देश के प्रजातान्त्रिकरण से लाभ नहीं हुआ है लेकिन इसका विकृति स्वरुप हमारी नैतिकता को लील रहा है । बडेÞ-बडÞे उद्योगपति अपराधकर्मियों से अपनी सुरक्षा खरीदने में लगे हैं । पुलिस प्रशासन स्वयं भी रक्षा नहीं कर पा रही तो दूसरों की क्या करेगी । आज देश की शांति और सुरक्षा व्यवस्था इतनी बिगडÞ गयी है कि लगता है हम अगर जीवत हैं तो हमारी स्थिति मारे गए लोगों से भी बदतर है । हम घुट-घुट कर मरने को मजबुर हैं । अपार वेदना सह कर जीने से अच्छा तो मौत है । हमारी आत्मा कराह रही है । प्रसिद्ध इतिहासकार विंसेट स्मिथ के अनुसार मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण कुशल नेतृत्व की कमी थी । लगता है हमारा देश सपूतों को पैदा करना ही बंद कर दिया है । देश के किसी भी राजनीतिक दल में अब इतना दम खम नहीं है कि वह किसी भी चुनाव में अकेले बहुमत प्राप्त कर सके । अतः निकट भविष्य में भी गठबंधन की सरकारें बनने के ही आसार हैं । कोई अल्पमत की एक दलीय सरकार बने भी तो वह उलझनों में ही घिरी रहेगी । सबसे चिन्ता का विषय है राष्ट्रीय राजनीति के विखंडन तथा उससे निर्मित होने वाली पंगु सरकार की । अगर केन्द्रीय सत्ता पंगु हो और सामाजिक सत्ता अस्त-व्यस्त हो तो जनता को पनाह कहां मिलेगी –
साम्राज्य चाहे जैसा भी हो, निरंकुश या लोकतांत्रिक, सभी के पतन की एक ही कहानी है । पतन की प्रक्रिया मानवी तत्व से प्रारंभ होती है और समाज के सभी अंगों को प्रदूषित करती है । पतनशील शासक यथार्थ से आाखें फेरकर मिथकों और भ्रांतियों के आरामगाह में बंद रहते हैं और साम्राज्य के विनाश के अंतिम क्षणों तक उसकी वैधता का सपना देखते रहते हैं । आज केन्द्रीय सत्ता पूरी तरह खोखली हो गयी है । गठबंधन सरकारें मृतप्राय व्यक्ति की तरह वेन्टिलेटर के सहारे किसी भी तरह मात्र जिन्दा रह सकती है । वे अपने दायित्वों का निर्वाह करने में असक्षम होती हैं । सांसदों को संसद के विघटन का भय होता है । लगभग बीस सालों में हम न तो कोई सुदृढÞ संसद, न कोइ सुदृढÞ सरकार बना सके । जाति और क्षेत्र के आधार पर विखंडित मतदाताओं से त्रिशंकु संसद से अधिक की उम्मीद नहीं की जा सकती है । शिक्षा क्षेत्र में जो ह्रास हो रहा है, वह देश के लिए बहुत बडÞी चिन्ता की बात है । अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार इतना अधिक बढÞ गया है कि इसने देश की आत्मा को ही कुंठित कर दिया है । इन सभी बुराइयों के अंत के लिए नए संस्कार पैदा करने होेंग । शिक्षानीति, अर्थनीति तथा राजनीति सभी क्षेत्रों में व्यापक सुधार की जरुरत है । इसके बिना पुनर्निर्माण तथा पुनर्जागरण की कल्पना नहीं की जा सकती । एक सशक्त राष्ट्रीय सरकार के द्वारा ही इन दायित्वों को पूरा किया जा सकता है ।
अब प्रश्न उठता है कि इन सभी बातों के लिए जिम्मेदार कौन है । सतही तौर पर तो हम कह सकते हैं किन सब बातों के लिए हम सभी जिम्मेवार हैं । आज देश में स्वीकृत नीतियों का पालन नहीं हो रहा है । निर्धारित लक्ष्यों की पर्ूर्ति नहीं हो रही है । स्वच्छ प्रशासन नहीं मिल रहा है । शिक्षा में लगातार गिरावट आ रही है । कानून और व्यवस्था की स्थिति दिनों दिन बिगडÞती जा रही है । इन बातों के लिए प्रत्यक्ष रुप में वे जिम्मेदार हैं, जो राजकाज चलाने के लिए जनता द्वारा नियुक्त किए गए हैं लेकिन अप्रत्यक्ष रुप में देश के राजनीतिक दल भी इसके लिए जिम्मेदार हैं । जब राज काज चलाने वालों का स्खलन होता है तो समाज को धारण करने वाली शाक्तियाँ क्षीण होती हैं । विनाशक शक्तियों की प्रबलता होती है । जन जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है । राजनीति में अधर्म व्याप्त हो जाता है । आज देश में यही सब कुछ हो रहा है । रामायण में भी राजा के आचरण पर बहुत जोर दिया गया है क्योंकि कहा जाता है कि जैसी राजा, वैसी प्रजा । राजा या सत्तारुढÞ दल के अतिरिक्त सम्पर्ूण्ा राजनीति या राजनीतिक पर्यावरण भी कम महत्वपर्ूण्ा नहीं होता है क्योंकि बहुदलीय राजनीति में कभी-कभी अल्पमत के आधार पर भी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने में सफल हो जाते है । अधिकांशतः देखा गया है कि ३०-४० प्रतिशत मत प्राप्त कर राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है और ६०-७० प्रतिशत मत प्राप्त करने वाले एक या एक से अधिक दल सत्ता से बाहर हो जाते हैं । निश्चय ही इसका अच्छा प्रभाव हमारी संस्थाओं पर नहीं पडÞता है ।
वैसे तो इन सारी कुव्यवस्थाओं के लिए हम सभी कुछ न कुछ हद तक जिम्मेवार हैं लेकिन अंतिम जिम्मेदारी सर्वोच्च नेतृत्व की ही होती है । लार्ँड ब्राउन ने ठीक ही कहा है कि अगर कोई गलती दिखायी पडेÞ तो मंत्री को गोली मारो । अगर यह मान लिया जाये कि गलती मुख्य रुप से अफसरों से हर्ुइ है और मंत्री का कोई व्यक्तिगत दोष नहीं हैं, तब भी मंत्री को ही सारी जिम्मेदारी अपने सर लेनी चाहिए । या आवाम की नजर में मंत्री ही मुजरिम माना जाना चाहिए । सामान्यतया यह देखा जाता है कि हम मंत्री को छोडÞकर उसके कर्मचारी के पीछे पडÞ जाते हैं । इस सम्बन्ध में हमें यह विचार करना होगा कि अगर हम कर्मचारी पर प्रहार करेंगे, उने बलि का बकरा बनाएँगे, तो इसके दुष्परिणाम हमें भुगतने होंगे, जिससे व्यवस्था और भी क्षीण हो जाएगी । मंत्री के व्यक्तित्व का मंत्रालय और उसके परिवेश पर र्सवाधिक प्रभाव पडÞता है । अगर मंत्री योग्य, निष्ठावान तथार् इमान्दार होगा तो इसका प्रभाव मंत्रालय पर भी दिखेगा । विपरीत स्थिति होने पर कार्यालय में सौदेबाजी होगी, भ्रष्टाचार बढेÞगा तथा अन्य प्रकार के व्यभिचार भी उत्पन्न होंगे । दूसरे थोडÞा किस गति से चलेगा यह सवार पर निर्भर है । कहा जाता है कि घोडÞा सवार की जंघा से ही समझ जाता है कि सवार कैसा है – हल्का या दबंग । हल्के सवार को घोडÞा जमीन पर पटक मारता है और दबंग सवार के इशारे पर नाचता है । सबसे चिन्ताजनक बात यह है कि आजकल राजनीतिक तंत्र में योग्यता-क्षमता का ह्रास तेजी से हो रहा है और यदि यही स्थिति रही तो व्यवस्था इसे अधिक दिनों तक बर्दाश्त न कर पायेगी, ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर का तापमान एक खास रेखा से नीचे गिरने पर मनुष्य दम तोडÞ देता है । आज सडÞक से लेकर संसद तक कहीं भी सरकार नहीं है । दल ही संसदीय लोकतंत्र की रीढÞ होती हैं लेकिन आज दल नाम मात्र के रह गए हैं, जो संविधान और नियम का भी पालन नहीं कर रहे हैं । बिना अनुशासित दल के अराजकता की स्थिति लाजिम है- सरकार में, समाज में और देश में । उल्टी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया । देखा इस बिमारिए दिल ने, आखिर काम तमाम किया ।
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