Tuesday, November 8, 2016

सामाजिक परिवर्तन

सामाजिक परिवर्तन समाज के आधारभूत परिवर्तनों पर प्रकाश डालने वाला एक विस्तृत एवं कठिन विषय है। इस प्रक्रिया में समाज की संरचना एवं कार्यप्रणाली का एक नया जन्म होता है। इसके अन्तर्गत मूलतः प्रस्थिति, वर्ग, स्तर तथा व्यवहार के अनेकानेक प्रतिमान बनते एवं बिगड़ते हैं। समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है।
आधुनिक संसार में प्रत्ये क क्षेत्र में विकास हुआ है तथा विभिन्न समाजों ने अपने तरीके से इन विकासों को समाहित किया है, उनका उत्तर दिया है, जो कि सामाजिक परिवर्तनों में परिलक्षित होता है। इन परिवर्तनों की गति कभी तीव्र रही है कभी मन्द। कभी-कभी ये परिवर्तन अति महत्वपूर्ण रहे हैं तो कभी बिल्कुल महत्वहीन। कुछ परिवर्तन आकस्मिक होते हैं, हमारी कल्पना से परे और कुछ ऐसे होते हैं जिसकी भविष्यवाणी संभव थी। कुछ से तालमेल बिठाना सरल है जब कि कुछ को सहज ही स्वीकारना कठिन है। कुछ सामाजिक परिवर्तन स्पष्ट है एवं दृष्टिगत हैं जब कि कुछ देखे नहीं जा सकते, उनका केवल अनुभव किया जा सकता है। हम अधिकतर परिवर्तनों की प्रक्रिया और परिणामों को जाने समझे बिना अवचेतन रूप से इनमें शामिल रहे हैं। जब कि कई बार इन परिवर्तनों को हमारी इच्छा के विरुद्ध हम पर थोपा गया है। कई बार हम परिवर्तनों के मूक साक्षी भी बने हैं। व्यवस्था के प्रति लगाव के कारण मानव मस्तिष्क इन परिवर्तनों के प्रति प्रारंभ में शंकालु रहता है परन्तु शनैः उन्हें स्वीकार कर लेता है।
विशेषतायें निम्नलिखित हैं।
  • (1) सामाजिक परिवर्तन एक विश्वव्यापी प्रक्रिया (Universal Process) है। अर्थात् सामाजिक परिवर्तन दुनिया के हर समाज में घटित होता है। दुनिया में ऐसा कोई भी समाज नजर नहीं आता, जो लम्बे समय तक स्थिर रहा हो या स्थिर है। यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है।
  • (2) सामुदायिक परिवर्तन ही वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन है। इस कथन का मतलब यह है कि सामाजिक परिवर्तन का नाता किसी विशेष व्यक्ति या समूह के विशेष भाग तक नहीं होता है। वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है।
  • (3) सामाजिक परिवर्तन के विविध स्वरूप होते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग, समायोजन, संघर्ष या प्रतियोगिता की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं जिनसे सामाजिक परिवर्तन विभिन्न रूपों में प्रकट होता है। परिवर्तन कभी एकरेखीय (Unilinear) तो कभी बहुरेखीय (Multilinear) होता है। उसी तरह परिवर्तन कभी समस्यामूलक होता है तो कभी कल्याणकारी। परिवर्तन कभी चक्रीय होता है तो कभी उद्विकासीय। कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन क्रांतिकारी भी हो सकता है। परिवर्तन कभी अल्प अवधि के लिए होता है तो कभी दीर्घकालीन।
  • (4) सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा सापेक्षिक (Irregular and Relative) होती है। समाज की विभिन्न इकाइयों के बीच परिवर्तन की गति समान नहीं होती है।
  • (5) सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं। समाजशास्त्री मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय (Demographic), प्रौद्योगिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारकों की चर्चा करते हैं। इसके अलावा सामाजिक परिवर्तन के अन्य कारक भी होते हैं, क्योंकि मानव-समूह की भौतिक (Material) एवं अभौतिक (Non-material) आवश्यकताएँ अनन्त हैं और वे बदलती रहती हैं।
  • (6) सामाजिक परिवर्तन की कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अनेक आकस्मिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन की स्थिति पैदा करते हैं।
विलबर्ट इ॰ मोर (Wilbert E. Moore, 1974) ने आधुनिक समाज को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवर्तन की विशेषताओं की चर्चा अपने ढंग से की है, वे हैं-
  • (1) सामाजिक परिवर्तन निश्चित रूप से घटित होते रहते हैं। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है।
  • (2) बीते समय की अपेक्षा वर्तमान में परिवर्तन की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र होती है। आज परिवर्तनों का अवलोकन हम अधिक स्पष्ट रूप में कर सकते हैं।
  • (3) परिवर्तन का विस्तार सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं के क्षेत्र में, विचारों एवं संस्थाओं की तुलना में, परिवर्तन अधिक तीव्र गति से होता है।
  • (4) हमारे विचारों एवं सामाजिक संरचना पर स्वाभाविक ढंग और सामान्य गति के परिवर्तन का प्रभाव अधिक पड़ता है।
  • (5) सामाजिक परिवर्तन का अनुमान तो हम लगा सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से हम इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं।
  • (6) सामाजिक परिवर्तन गुणात्मक (Qualitative) होता है। समाज की एक इकाई दूसरी इकाई को परिवर्तित करती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक पूरा समाज उसके अच्छे या बुरे प्रभावों से परिचित नहीं हो जाता।
  • (7) आधुनिक समाज में सामाजिक परिवर्तन न तो मनचाहे ढंग से किया जा सकता है और न ही इसे पूर्णतः स्वतंत्र और असंगठित छोड़ दिया जा सकता है। आज हर समाज में नियोजन (Planning) के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को नियंत्रित कर वांछित लक्ष्यों की दिशा में क्रियाशील किया जा सकता है।

परिवर्तन जब अच्छाई की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की एक निश्चित दिशा को दर्शाता है। प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने बताया है कि प्रगति का अर्थ अच्छाई के निमित्त परिवर्तन है। इसलिए प्रगति इच्छित परिवर्तन है। इसके माध्यम से हम पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को पाना चाहते हैं। मकीवर एवं पेज आगाह करते हुए कहा है कि हम लोगों को उद्विकास और प्रगति को एक ही अर्थ में प्रयोग नहीं करना चाहिए। दोनों बिल्कुल अलग-अलग अवधारणाएँ हैं।

सामाजिक आन्दोलन सामाजिक परिवर्तन का एक बहुत प्रमुख कारक रहा है। विशेषकर दकियानूसी समाज में सामाजिक आन्दोलनों के द्वारा काफी परिवर्तन आए हैं। गिडेन्स के अनुसार सामूहिक आन्दोलन व्यक्तियों का ऐसा प्रयास है जिसका एक सामान्य उद्देश्य होता है और उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थागत सामाजिक नियमों का सहारा न लेकर लोग अपने ढंग से व्यवस्थित होकर किसी परम्परागत व्यवस्था को बदलने का प्रयास करते हैं।
गिडेन्स ने कहा है कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि सामाजिक आन्दोलन और औपचारिक संगठन (Formal Organization) एक ही तरह की चीजें हैं, पर दोनों बिल्कुल भिन्न हैं। सामाजिक आन्दोलन के अन्तर्गत नौकरशाही व्यवस्था जैसे नियम नहीं होते, जबकि औपचारिक व्यवस्था के अन्तर्गत नौकरशाही नियम-कानून की अधिकता होती है। इतना ही नहीं दोनों के बीच उद्देश्यों का भी फर्क होता है। उसी तरह से कबीर पंथआर्य समाजबह्मो समाज या हाल का पिछड़ा वर्ग आन्दोलन (Backward Class Movement) को सामाजिक आन्दोलन कहा जा सकता है। औपचारिक व्यवस्था नहीं।
सामाजिक आन्दोलन से भी ज्यादा सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम क्रांति (Revolution) है। क्रांति के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं। लेकिन पिछली दो-तीन शताब्दियों में मानव इतिहास में काफी, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ आई हैं, जिससे कुछ राष्ट्रों में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हुए हैं। इस संदर्भ में 1775-83 की अमेरिकी क्रांति एवं 1789 की फ्रांसीसी क्रांतिविशेष रूप से उललेखनीय हैं। इन क्रांतियों के चलते आज समस्त विश्व में स्वतंत्रता (Liberty), सामाजिक समानता और प्रजातंत्र की बात की जाती है। उसी तरह से रूसी क्रांति और चीनी क्रांति का विश्व स्तर पर अपना ही महत्व है। अब्राम्स (Abrams, 1982) ने बताया है कि विश्व में अधिकांश क्रांतियाँ मौलिक सामाजिक पुनर्निमाण के लिए हुई हैं। अरेंड (Nannah Arendt, 1963) के अनुसार क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य परम्परागत व्यवस्था से अपने-आपको अलग करना एवं नये समाज का निर्माण करना है। इतिहास में कभी-कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है। कुछ ऐसी भी क्रांतियाँ हुई हैं, जिनके द्वारा हम समाज को और भी पुरातन समय में ले जाने की कोशिश करते हैं।
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समाज का वैसा भाग जो कि अपने आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम नहीं हैं और निर्धनता यह सिद्ध करती हैं की समाज का चौतरफा विकास अभी भी बाकी हैं, चाहे वो गरीबी की दर ३० % हो या २० % और भारत सरकार की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार लगभग २२% लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे है। एक विकसित व खुशहाल समाज के निर्माण के लिए यह जरूरी है की वो आर्थिक व सामाजिक आधार पर पिछड़े लोगो को सार्वजनिक तौर पर सुविधाएँ उपलब्ध कराये।
सामाजिक सुरक्षा तो हर नागरिक के लिए जरूरी है लेकिन विशेषतः आवश्यक है वैसे जनमानस के लिए जो असमाजिक खतरों के दायरे में हैं और वो हैं हमारे समाज के ३० % गरीब नागरिक। सरकार इनकी सुरक्षा अथवा विकास के लिए आज़ादी के बाद से ही कार्यरत हैं क्यूँकि आधुनिक भारत के निर्माता डॉ. अम्बेडकर के अनुसार – “एक कल्याणकारी समाज के गठन के लिए सबका विकास होना जरूरी हैं” तो फिर ३० % गरीबों को असामाजिक – सुरक्षा देना तो अति आवश्यक हैं और इस संदर्भ में कुछ पैनी व विश्लेषित बातें निम्नलिखित हैं :-
1. सामाजिक – समानता – “समाज में हर व्यक्ति का समान अधिकार हैं और जिस समाज में समानता नहीं हैं, उसका मूल रूप से विकास सम्भव नहीं हैं।” डॉ. अम्बेडकर का यह कथन अनुभविक स्तर से देखा जाये तो सही हैं क्यूंकि आज हम समानता के अधिकार के वजह से ही एक लोकतंत्रात्मक देश में हैं और लोकतंत्र में जन – जन की भागीदारी महत्वपूर्ण हैं। जॉन हॉब्स के सिद्धांत – “राज्य की उत्पति व सामाजिक समझौते का सिद्धांत यह कहता हैं कि सामाजिक तौर से राज्य का निर्माण हो और एक सफल राज्य के निर्माण के लिए यह चुनौती होती हैं की वो अपने नागरिकों को कैसे संतुष्ट रखेगा।” गरीबी के वजह से लोगो का आस्था व संतोष, सरकार के प्रति टूटता हैं, इसलिए लोकतंत्र यह कहता हैं की सबको सामाजिक तौर से समानता दी जानी चाहिए।
2. संविधान – सुरक्षा – लोकतंत्र को बचाने व अर्थकारी बनाने के लिए संविधान बनाया गया है। संविधान ही तो राष्ट्र की सुन्दरता को बढाती है। संविधान के द्वारा ही हम किसी राज्य या राष्ट्र को सुचारू व अनुशासित रूप से चलते हैं। संविधान हमें सामाजिक-सुरक्षा की गारण्टी भी देता हैं। राज्य के नीति निदेशक तत्व भी सभी कॉम निर्वाह मजदूरी, प्रसूति सहायता इत्यादि प्रदान कराता हैं। संवैधानिक सुंदरता को बरकरार रखने के लिए गरीबो को सामाजिक – सुरक्षा देना जरूरी हैं क्यूंकि डॉ. प्रेम सिंह की किताब “उदारवाद की कट्टरता” यह कहती है कि समाज में समरसता बनाये रखने के लिए सामाजिक – सुरक्षा मुहैया करवाना सरकार का दायित्व हैं।
3. आर्थिक – विकास – किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए अर्थव्यवस्था का मजबूतीकरण अनिवार्य हैं। आर्थिक-विकास के लिए यह आवश्यक है कि गरीबी को मिटाया जाये क्यूँकि यह विकास कि सबसे बड़ी बाधा हैं। आर्थिक तंगी के कारण व्यक्ति अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में सफल नहीं हो पता हैं, चाहें भोजन हो या शिक्षा। आर्थिक स्तर से विकास करने के लिए रोजगार का होना आवश्यक हैं और जबतक बेरोजगारी रहेगी, हम सामाजिक तौर से आर्थिक विकास नहीं कस पाएंगे और भारत सरकार ने इसको दूर करने करने के लिए ‘रोजगार गारंटी योजना’ को लागू कर के बेरोजगार ग्रामीणों को रोजगार देने में सफल रही हैं। अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए यह भी जरूरी हैं की राष्ट्रीय आय को बढ़ाया जाये और राष्ट्रीय आय को बढ़ने के लिए हमें ३० % गरीबी की खाई को भरना होगा ताकि सकल घरेलू उत्पाद और सकल राष्ट्रीय उत्पाद को बढ़ावा मिले। सबका साथ ही हमारे विकास के मार्ग को मंजिल तक पंहुचा सकता हैं।
4. स्वस्थ्य व संगठित समाज निर्माण – जिस तरह कोई बीमारी मानव शरीर को कमजोर और खोखला बना देती हैं, ठीक उसी तरह से गरीबी भी समाज के लिए बीमारी की तरह ही हैं, जोम की विकास के राह में बाधा बनती हैं। गरीबी की वजह से आम लोग सही शिक्षा दवा – ईलाज, भोजन, आवास इत्यादि भौतिक जरूरतों को भलीभांति रूप से पूरा नहीं कर पति हैं। जिस समाज में भौतिक जरूरतों का अभाव रहेगा उस समाज का सर्वांगीण विकास तो कतई सम्भव नहीं हैं। भले ही हम युवा भारत का नारा लगा ले लेकिन वास्तव में तो हम, एक स्वस्थ्य व सुसंगठित समाज का निर्माण कभी कर नहीं सकते हैं। गरीबी यह साबित करती हैं की हम आज भी असामाजिक – तत्वों से ग्रसित हैं और जब से सरकार ने सरकारी योजनाओं जैसे की इंदिरा आवास योजना, राशन – वितरण, सर्व – शिक्षा अभियान, सरकारी अस्पताल व अन्य स्वास्थ्य सम्बंधित योजना, जन – धन योजना, अटल पेंशन योजना इत्यादी योजनाओं को लागू किया और समाज में फलकारी परिवर्तन भी दिखे।
“सोने की चिड़ियाँ” कहा जाने वाला भारत के लिए गरीबी एक दाग के जैसा है और यह हमारे लिए चुनौती बन चूका हैं। आज भी हम सामाजिक तौर पर आज़ाद नहीं हैं क्यूंकि बेरोजगारी व भूख की जंजीरों ने हमारे पैरों को जकड कर रखा है। गरीबी यह बता रही है की हम आज भी मोहताज हैं रोटी, कपड़ा और माकन के लिए। गरीबी की गुलामी ने हमे असुरक्षा के दायरे में खड़ा कर रखा हैं, तभी तो आज हम सामाजिक सुरक्षा के लिए चिंतित हैं, लेकिन सच तो यह भी हैं की संघर्ष, मानव सभ्यता के साथ ही चला आ रहा हैं और हम सामाजिक-सुरक्षा के माध्यम से आज गरीबी की दर को ७३ % से घटा कर आज ३०% तक ला दिए हैं लेकिन सवाल तो यह भी उठता है की योजनाएं तो ४० – ५० वर्षों से चलाई जा रही हैं और हम आज भी गरीबी की गिरफ्त में हैं तो हम इस बात से कतई इंकार नहीं कर सकते है की इसके लिए हम खुद ही जिम्मेवार है क्यूंकि हमने अपने सामाजिक दायित्व को निः स्वार्थ भाव से निभाया नहीं हैं।
महात्मा गांधी का “न्यायसिता का सिद्धांत” यह कहता हैं की समाज के उच्चवर्गीय लोगों का यह दायित्व बनता हैं की वो पिछड़े – वर्ग को भी अपने साथ ले कर चले और गाँधीजी हृदय परिवर्तन की बात करते हैं तभी तो आज गैर – सरकारी संग़ठन भी समाज के उठान के लिए काम कर रहे हैं ताकि समाज में आर्थिक व सामाजिक तौर से समानता आये और हम भी विकसित देशों में शामिल हो जाये। गांधीजी की किताब “मेरे सपनों का भारत” में भी सामाजिक उत्थान के लिए गरीबों को सामाजिक स्तर से उठाने की बात की पुष्टि करते हैं। सचमुच में हमे फिर से भारत को “सपनों का भारत” बनाना हैं तो गरीबों की गिनती को शून्य करना होगा। लोकतंत्र यह कहता है की समाज में सबका समान अधिकार हैं और इस समानता की समरसता को बनाये रखने के लिए हमें जन – जन को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक रूप से मजबूत बनाना ही होगा।

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