Tuesday, November 8, 2016

या देवी सर्व भूतेषु संघ रूपेण संस्थिता ||

नवरात्री का उत्सव शक्ति की पूजा का उत्सव है। वैसे तो सारे देश में आजकल जगह जगह पर सार्वजनिक रुप से दूर्गा पूजा का उत्सव मनाया जाता है। उत्सवों का सामाजिक स्वरुप समाज को जोड़ने का कार्य करता है। कुछ नतद्रष्ट लोग अवश्य कहेंगे कि पूजा के नाम पर सारे असामाजिक तत्व चंदा इकट्ठा करते है और उत्सव के नाम पर केवल ध्वनिवर्द्धक यन्त्रोंपर जोर जोर से गाने लगाकर ध्वनि प्रदुषण के अतिरिक्त क्या होता है? समाज का सहभाग कहाँ है? कुछ मात्रा में बात में तथ्य भले ही हो किन्तु अपनी ऊर्जा को दूर्गा की पूजा में लगाने का कार्य युवाओं के लिये सराहनीय ही है। कम से कम दो बार आरती तो करते ही है। यदि को ठीक से मार्गदर्शन करे और साथ दे तो चमत्कार भी हो सकता है। कुछ साल पहले विवेकानन्द केन्द्र की ग्वालियर शाखा ने 129 दूर्गा पूजा समितियों का सर्वेक्षण कर दिवाली के बाद इन युवाओं का सम्मान किया। सम्मान में प्रत्येक पूजा समिति को भारतमाता का चित्र प्रदान कर आहवान किया गया कि 31 दिसम्बर को उसी स्थान पर भारतमाता पूजन करें। 88 पूजा समितियों ने ना केवल यह किया आगामी वर्षों में बिना किसी प्रोत्साहन के उसे निरन्तर परम्परा बना दिया। अतः किसी भी पृष्ठभूमि से आयोजन किया हो युवा ऊर्जा के इस उदात्तीकरण का खुले मन से स्वागत ही होना चाहिये।
माता दूर्गा का अवतरण धर्म की संस्थापना के लिये हुआ। सभी देवताओं की शक्ति का वह संगठित परिणाम है। सबने अपने अपने शक्ति के अंश के साथ ही आयुध भी प्रदान किये। इस देवाताओं की संगठित शुभशक्ति ने महिषासुर का संहार किया। इसलिये यह शारदीय नवरात्री पर्व शक्ति के साथ ही संगठन के तत्व की पूजा का भी पर्व है। माता दूर्गा संगठन की देवता है। अतः उनकी पूजा के इस महाव्रत में हम 9 दिन संगठन के भिन्न भिन्न तत्वों की चर्चा कर उत्तरापथ की ओर से नवरात्री का अनुष्ठान करेंगे।
जन्म के पीछे निश्चित उद्देश्य होता है। वही अवतरण को मूल्य प्रदान करता है। धर्म की जब ग्लानी होती है तब असूर सशक्त होने साथ ही प्रभावी भी हो जाते है। शासन की धुरा अधर्मियों के हाथ चली जाती है। शासन में आसुरिक तत्वों का बोलबाला हो जाता है। ऐसे में सुरतत्वों को सम्बल प्रदान करने, आत्मविश्वास के साथ संगठित करने के लिये अवतार प्रगट होते है। महाविष्णु के दशावतारों ने यही कार्य किया। वर्तमान समय में संगठन ही ईश्वरीय तत्व का अवतार है। भागवत महापुराण के अनुसार ‘संघे शक्ति कलैयुगे।’ इस वचन में संघ के दो अर्थ है। एक है संख्याबल और दूसरा है संगठन। नवरात्री पूजन में पहला पुष्प है संगठन का उद्देश्य।
संगठन का उद्देश्य उदात्त होना अनिवार्य है। अन्यथा संकुचित स्वार्थों के लिये तो गुट बाजी व अपराध करनेवाले गिरोह ही एकत्रित आते है। भारत में प्रत्येक राष्ट्रीय संगठन की भूमिका भले ही भिन्न भिन्न हो सबका सामान्य उद्देश्य धर्म संस्थापना ही होता है। वर्तमान में जब नकारात्मक और विनाशकारी तत्व आपसी तालमेल से षड़यन्त्र कर रहे है तब शुभशक्तियों का संगठन अत्यधिक आवश्यक है। उदात्तता का अर्थ है विस्तारित, ऊँचा व सर्वजनहिताय; संगठन का हेतु अथवा केन्द्रीय विचार इन तीनों लक्षणों से पूर्ण होना चाहिये। संगठन किसी छोटे समूह के हित में हो तो उसका स्तर सीमित ही होगा। अतः समाज की बड़ी से बड़ी सजीव इकाई के लिये कार्य करनेवाला संगठन अधिक प्रभावी रुपसे ईश्वरीय कार्य कर सकता है। ऊँचे लक्ष्य का अर्थ है संगठन का गन्तव्य विराट होना चाहिये। सहज साध्य लक्ष्य के लिये उत्पन्न संगठन उद्देश्य की पूर्णता के बाद अनावश्यक हो जाते है और यदि विसर्जित ना कर दिये जाये तो आसुरिक हो जाते है। सम्भवतः इसी सिद्धान्त को ध्यान में रखकर गांधी ने स्वतन्त्रता के बाद कोंग्रेस के विसर्जन का प्रस्ताव रखा था। संगठन प्रतिक्रियावादी होगा तो उसकी आयु व प्रभाव दोनों सीमित होंगे। अतः संगठन का प्रभावक्षेत्र सर्वव्यापी होना चाहिये। अतः तीसरा लक्षण सर्वजन हिताय। पर सभी संगठनों के लिये यह सम्भव नहीं हो पाता। ऐसे में कम से कम बहुजन हिताय तो होना ही चाहिये।

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