भारतीय संस्कृति में सारे उत्सव परिवर्तन का समारोह मनाने के लिए होते हैं। होली दिवाली जैसे प्रमुख उत्सव तो ऋतुपरिवर्तन के अवसर पर ही मनाए जाते हैं। गत दशक में सारे विश्व में ही मानो परिवर्तन का पर्व चल रहा है। भारत में भी हिन्दुओं के स्वभाव के अनुसार व्यवस्था के माध्यम से ही व्यवस्था के परिवर्तन का महती कार्य प्रारंभ हुआ है। लोकतंत्र के महोत्सव लोकसभा के आम चुनावों में तीन दशक बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्रदान कर भारत की क्रांतीधर्मी प्रजा ने नई सरकार को सड़ी-गली व्यवस्था सुधारने का जनादेश ही दिया है। दृढ़ नेतृत्व के आश्वासक प्रदर्शन के कारण ‘अच्छे दिन’ आने की आकांक्षा और अधिक बढ़ी है। केवल जन-मन-भावन निर्णयों के द्वारा जनता को मूर्ख बनाने के स्थान पर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में ठोस कार्यवाही की अपेक्षा इस कार्यकुशल प्रशासन से है। चार माह का समय बहुत अधिक नही होता है अतः मूल्यांकन का अवसर नही है, किंतु कुछ प्रारंभिक संकेतों पर विचार करना प्रासंगिक अवश्य है।
दो महत्वपूर्ण निर्णय दूरगामी परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए दिखाई देते हैं। निवर्तमान सोवियत रशिया के असफल प्रयोग पंचवार्षिक योजना की अंधानुकृति के रुप में गत छः दशको से भारत की विकास यात्रा को पेचीदा बनाने वाले ’योजना आयोग’ की विदाई पूर्ण परिवर्तन की ओर पहला सराहनीय चरण है। समाज के सभी वर्गों से इस क्रांतीकारी निर्णय का उत्स्फूर्त स्वागत हुआ। यह कितना आश्चर्यजनक है कि समाजवाद के नाम पर राजनीति व व्यापार करनेवाले नेताओं अथवा पत्र-पत्रिकाओं ने भी योजना आयोग को श्रद्धांजलि प्रदान करते हुए कोई दुःख या खेद तक प्रकट नहीं किया। मानो एक भग्नावशेष का यह सहज स्वाभाविक पतन था। औपनिवेशिक शासन से सम्पूर्ण मुक्ति की ओर दूसरा सराहनीय प्रयास अनावश्यक अधिनियमों (Laws) को समाप्त करना है। नई संसद के प्रथम सत्र मे ही 60 निरर्थक कानूनों को समाप्त कर दिया। अब ऐसे 600 से अधिक और अनावश्यक कानूनों को सूचिबद्ध कर लिया गया है जिन्हें अगले सत्र मंे समाप्त कर दिया जाएगा। एक आकलन के अनुसार भारतीय जनता के शोषण हेतु अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 4000 निरर्थक कानून आज भी अस्तित्व में है। 50 साल से अधिक समय में इनका कोई उपयोग नहीं हुआ है किंतु किसी ने इन्हें समाप्त करने की ओर ध्यान नही दिया। भले ही इन अधिनियमों के समाप्त किए जाने का समाज पर कोई बहुत अधिक प्रत्यक्ष परिणाम नहीं दिखाई देगा फिर भी सच्चे अर्थ मे स्वत्तंत्र होने की मनीषा को यह निश्चित ही व्यक्त करता है।
स्वतंत्रता की 67 वीं वर्षगांठ पर बहुत वर्षों बाद आत्मविश्वासपूर्ण, भयमुक्त व हृदयस्पर्शी वक्तव्य देश के प्रधानमंत्री द्वारा किया गया। नहीं तो ऐसा लगता था कि आधी शती के बीत जाने के बाद भी देश मानो अभी भी स्वतंत्रता की प्रतीक्षा ही कर रहा है। शासक स्वदेशी हो गए। लोकतंत्र ने जनसामान्य को निर्णायक अधिकार प्रदान कर दिए। ज्ञान-विज्ञान व अर्थशास्त्र के अनेक क्षेत्रों में देश के पराक्रमी वीरों ने विश्व कीर्तिमान स्थापित किए। विश्व में भारत के प्रति अत्यंत उदात्त अपेक्षाओं का वातावरण बना। फिर भी, सामान्य भारतीय मन स्वातंत्र्य की उन्मुक्त अनुभूति नहीं कर पा रहा। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि विदेशियों को खदेड़ने के बाद भी अभी भी हम उन्हीं के तंत्र को अपनाए हुए है। स्व का तंत्र अपनाए बिना सच्चे अर्थ में ’स्वतंत्र’ कैसे हुआ जा सकता है?
प्रधानमंत्री के हृदय से निकले हुए स्वतंत्रता भाषण में भी यह वेदना परोक्ष रुप से प्रकट हुयी। जिस प्रधानमंत्री की कार्यकुशलता कें बारे में इतने कम समय में ही आख्यायिकाएं गढ़ गई है। उन्हें भी लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने भाषण में लगभग 15 मिनट तक दिल्ली के प्रशासनिक अधिकारियों की तानाशाही के बारे में शिकायत करनी पडी़। समयपालन, दायित्वबोध व कठोर परिश्रम जैसे सामान्य गुणों के बारे में भी अतिविशिष्ट प्रयत्नों की आवश्यकता बताती है कि प्रशासनिक तंत्र कितना सड़ चुका है। प्रधानमंत्री को ’भारतीय प्रशासनिक सेवा’ (IAS) के अधिकारियों के लिए उन्नीस बिन्दुओं की आचार संहिता बनानी पड़ी। दासता के समय की इस व्यवस्था को इतने कठोर प्रयत्नों से अनुशासित करने के स्थान पर प्रशासकीय सेवा की आवश्यकता के बारे में ही मौलिक रुप से विचार करना अधिक आवश्यक लगता है। अधिकारियों के अधिकार, कर्तव्य और अनुशासन पर विमर्श प्रारम्भ हो गया है। वास्तव में इसकी आवश्यकता व स्वरुप पर भी सीरे से विचार होना चाहिए।
सारे विश्व में ही गत 10 -15 वर्षों से इस विषय पर गहन विचार विमर्श और कई स्थानों पर तो प्रखर विवाद चल रहा है। यूरोपीय साम्राज्यवादियों द्वारा शासित ’गुलाम मण्डल’ देशों में शोषण करनेवाली, अतिकेन्द्रीत व अधिसत्तावादी प्रशासकीय व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठने लगी है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी अतिप्रशासकीय, केन्द्रीकृत व्यवस्था के स्थान पर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के समान न्यूनतम, प्रबंधकीय, प्रशासन व्यवस्था की वकालत की जा रही है। वैसे ही इन सब विकसित देशों में प्रशासकीय सेवा निम्न व मध्यम प्रशासन के कागजी कार्यवाही तक ही प्रभावी है। उच्चस्तरीय नीतिनिर्धारण में सामान्य परीक्षा द्वारा चयनित प्रशासकीय बाबुओं के स्थान पर विषय विशेषज्ञों तथा जन प्रतिनिधियों को ही प्राधान्य दिया जाता है।
अमेरिका मे संघीय प्रशासन (Federal Administration) में प्रत्येक राष्ट्राध्यक्ष अपनी रूचि तथा नीति की वरीयता के अनुसार विशेषज्ञों का चयन करते हैं। इन विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई नीतियों को लागू करने के लिपीकीय (Clerical) कार्य के लिए ही लोकसेवा का उपयोग किया जाता है। जिन ब्रिटिशों ने चीन से उधार लेकर भारत में भारतीय नागरी सेवा (ICS Indian Civil Services) प्रारंभ की जो आज भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS-Indian Administrative Services) के नाम जानी जाती है; उनके अपने देश में भी राॅयल सिव्हिल सर्विसेस का स्थान मध्यम व निम्न प्रशासन मंे ही है। नीती निर्धारण व नियमन के उच्च स्तरीय कार्य लोकतांत्रिक पद्धति से चयनित जनप्रतिनिधी तथा उनके द्वारा नियुक्त विषय विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। जर्मनी व फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों मे भी केन्द्रीत प्रणाली के द्वारा परीक्षा के आधार पर नियुक्त नागरी प्रशासन का शासन तंत्र में दोयम स्थान ही है। केवल परकीय सत्ता के अधीन रहे देशों में ही अत्यंत कड़ी, केन्द्रीकृत व पूर्ण सत्ताधारी बाबूगिरी (Bureaucracy) पायी जाती है।
आज सारे विश्व में प्रशासन के इस कठोर तंत्र को परिवर्तित करने का विचार चल रहा है। भारत में तो यह सर्वाधिक प्राथमिकता की आवश्यकता हैं। आज सारा तंत्र प्रशासकीय सेवा से नियुक्त अधिकारियों के चारों ओर केन्द्रित है। लोकसेवा आयोग के माध्यम से चयनित हो जाने पर ये अधिकारी मानो शासन तंत्र के सर्वेसर्वा हो जाते है। यह स्वाभविक ही था कि ब्रिटीश राज्यव्यवस्था भारतीय जनता को अधीन रखने के लिए इस प्रकार की तानाशाही व्यवस्था का निर्माण करती किंतु स्वतंत्रता के बाद तो इसे बदल देना चाहिये था। भले ही प्रशासकीय सेवा की परीक्षायें लेकर अधिकारियों का चयन करनेवाले आयोग का नाम हमने ’लोकसेवा आयोग’ रखा है किंतु चयन, प्रशिक्षण व नियुक्ति की प्रणाली में कहीं भी सेवाभाव या विनम्रता परिलक्षित नहीं होती। नागरी सेवाओं के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न सेवाओं जैसे प्रशासकीय सेवा, पुलीस सेवा, वित्तीय सेवा, विदेश सेवा, डाक सेवा, वनसेवा आदि में भी आपसी ऊँचनीच का भाव इतना प्रखर है कि प्रशिक्षण के समय से ही अधिकारियों के अंदर आधुनिक वर्णव्यवस्था तैयार हो जाती है। पूरी प्रक्रिया ही प्रचंड अहंकार को जन्म देती है। समाज भी शासकीय अधिकारियों को अनावश्यक महत्व देकर चापलूसी करता है और इस दासता की व्यवस्था को प्रगाढ़ बनाता जाता है।
अंग्रेजों के लिए लगान वसूल करनेवाले अधिकारी होने के नाते जिले मे प्रशासन प्रमुख को ’कलेक्टर’ अर्थात संग्रह करने वाला कहा जाता था। अंग्रेजों द्वारा की गई भारत की आर्थिक लूट का वह प्रमुख स्तंभ था। स्वतंत्रता के बाद भी कई राज्यों में आज भी जिला प्रशासक को अंग्रेजी के ड्रिस्ट्रीक्ट कलेक्टर कहा जाता है। भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी सेवा का भाव उत्पन्न करनेवाला नहीं है। जिलाधीश जैसे शब्दों से तो जमींदारी व्यवस्था की गंध आती है। परिणामतः स्वतंत्र भारत में प्रशासन की व्यवस्था अभी भी विदेशी शासकों के समान ही शोषण करनेवाली है। सामान्य व्यक्ति इन अधिकारियों तक पहुँच भी नही सकता। जब कि लोकरंजक राज्यव्यवस्था में यह प्रशासन का दायित्व होना चाहिए कि वह जनता तक संवाद, संपर्क व सहयोग का सेतु बनायें। ना तो चयन में न प्रशिक्षण में और न ही उत्तरदायित्व में भारतीय प्रशासकीय सेवा के अधिकारियों को इस बात का किंचिजमात्र भी भान रहता है। परिणाम यह है कि आज अधिकतर प्रशासकीय अधिकारी, व्यक्तिगत हितों को सर्वोपरी रखते हुए अपने कार्य का निष्पादन करते हैं। भ्रष्टाचार, लेटलतीफी, अंडगेबाजी, टालमटोल यह सरकारी कामकाज के सामान्य लक्षण बन गए है। इस मामले में दिल्ली के मंत्रालयों से लेकर खंडस्तर के तहसील कार्यालयों तर ’राष्ट्रीय एकात्मता’ का परिचय प्राप्त होता है।
प्रशासकीय सुधारों के अनेक प्रयत्न हुए किन्तु केवल पैबंद लगाकर अथवा इस जीर्ण व्यवस्था में कार्य कुशलता का संचार कर स्थायी परिणाम प्राप्त होने की संभावना नहीं हैं। आधुनिक तकनीक का प्रयोग करकें पारदर्शी व्यवस्था का निर्माण तो किया जा सकता हैं किंतु तब तक सत्ताकेन्द्रीत, संविधान से संरक्षित, लगभग पूर्ण निरंकुश प्रशासकीय सेवा बनी रहेगी तब तक व्यवस्था का सबसे प्रमुख अंग ’मनुष्य’ वैसा ही रहेगा। सारे विश्व में ही इस विषय को लेकर के विचार चला रहा है। भारत में भी क्रांतीकारी विचार करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार योजना आयोग को समाप्त कर उसके स्थान पर वित्तीय नियोजन की पूर्णतः नवीन रचना का विचार हो रहा है उसी प्रकार प्रशासनिक सेवा के विषय में भी मौलिक रुप से नये सिरे से विचार करना आवश्यक है।
सरकारी अधिकारियों के व्यवहार व आचरण के विषय में प्राचीन समय से ही विचार हुआ है। रामायण काल में दशरथ की सभा में विश्वावित्र की शिकायतों का प्रमुख भाग शासकीय अधिकारियों के संवेदनाहीन व्यवहार व भ्रष्ट आचरण को लेकर था। चाणक्य द्वारा रचित कौटील्लीय अर्थशास़्त्र में भी निरंकुश अधिकारियों के व्यवहार से राजतंत्र को होने वाली उपार क्षति के बारे में चेतावनी दी है। यहाँ तक कि मनुस्मृति भी शासकीय अधिकारियों के चयन, प्रशिक्षण तथा नियुक्ति के विषय में अत्यंत गंभीर सूचनाएं प्रदान करती है।
वर्तमान समय की प्रशासकीय व्यवस्था के व्यवहार की त्रुटियों का विश्लेषण करने पर हम अच्छी व्यवस्था के निर्माण हेतु मौलिक चिंतन के लिए कुछ मुद्दों को समस सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था मंे व्यवहार को लेकर जो सामान्य दोष प्रकट दिखाई देते है वे हैं – कार्यसंस्कृती का अभाव, दायित्वबोध की कमी, सामाजिक संवेदनहीनता व अधिकारी वृत्ती का अहंकार। इन सबके कारण प्रशासकीय व्यवस्था लोकसेवक के रुप में कार्य करती हुयी दिखाई नहीं देती है। समाज व शासन से अधिक स्वंय के हितों को महत्व देने की वृत्ति के कारण भ्रष्टाचार, गुटबंदी व अन्य अनेक दुर्गुणों का प्रादुर्भाव प्रशासन में हुआ है। अत्यंत जटील परिक्षा पद्धिति से चयन होने के कारण स्वयं की अहंमन्यता का गंड़ इस व्यवस्था में प्रारंभ से ही रोपित होता है। संविधान द्वारा प्रदत्त सरंक्षण के कारण नौकरी छूटने का तनिक भी भय प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होता है। 1935 के भारत अधिनियम (Government of India Act 1935) में अंग्रेजों ने उस समय के निर्वाचित भारतीय जनप्रतिनिधियों से प्रशासकीय अधिकारियों को अलग रखने की दृष्टि से जो प्रतिरोधक प्रावधान बनाए थे दुर्भाग्य से हमारे संविधान में उनको वैसे ही जारी रखा हैं। किसी भी प्रशासनिक अधिकारी की जाॅच से पूर्व शासन की अनुमति अनिवार्य है। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों मे इस व्यवस्था के करण ही जाॅंच नही हो पा रही थी। गत माह (सितम्बर 2014) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस व्यवस्था को बदला गया। मूलरुप से ही प्रशासकीय सेवा के प्रावधान ऐसे है कि जो व्यक्ति में यह भाव निर्माण करते है। कि मै कार्य करुं अथवा न करुं, सही करुं अथवा गलत करुं, समाज से, जनप्रतिनिधियों से व अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से उचित व्यवहार करुं या न करुं एक बार शासकीय सेवा में आ जाने बाद कोई मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता। राजनेता तो आते- जाते रहते हैं, प्रशासनिक अधिकारी ही स्थायी रुप से शासन का संचालन करते हैं। यह भाव भी इस संवेदनहीन कार्यपद्धति के विकास का एक प्रमुख कारण है। अति सामन्यीकरण भी वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था की एक प्रमुख कमजोरी है। किसी भी शाखा में शिक्षित प्रशासनिक अधिकारी सभी विषयों का विशेषज्ञ मान लिया जाता है। कल तक जो पशुपालन विभाग का सचिव था आज शिक्षा विभाग मे मुख्य सचिव बना दिया जाता है। और फिर वह 25, 30 वर्ष का शैक्षिक अनुभव रखनेवाले कुलपतियों को भी निर्देश देने लग जाता है। सेवा व रक्षा मंत्रालय के मध्य विसंवाद के भी यही कारण हैं।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए प्रशासनिक व्यवस्था के पुनर्गठन का मौलिक विचार किया जाना चाहिये। राज्य व केंद्र शासन के स्तर पर मंत्रालयों में सर्वाेच्च नीति निर्माण व नियमन के पदों पर विषय विशेषज्ञों की निश्चित समयावधि (Tenure) के लिए नियुिक्त एक उपाय हो सकता है। स्थायी रुप से केवल प्रबंधन, प्रशासन का कार्य करनेवाले कार्यपालन अधिकारियों का और वह भी न्यूनतम मात्रा में होना पर्याप्त होगा। अन्य मंत्रालयीन कार्य अनुभवी लिपीकों द्वारा किए जा सकते हैं। सर्वोच्च नीति नियामक जिन्हें आज की व्यवस्था में सचिव के रुप में संबोधित किया जाता है और हमारी पारंपारिक प्रणाली में अमात्य कहा जाता था वे उस-उस विषय के तज्ञ होने अपेक्षित है। न्यायपूर्ण चुनाव द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियोें के कार्यकाल के साथही इनकी नियुक्ति की समयावधि संबद्ध हो सकती हैं। वर्तमान में भी जिन सरकारी उपक्रमों में प्रशासन विशेषज्ञों के हाथ में है वे उपक्रम असाधारण उपलब्धियाँ अर्जित कर रहै हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन(ISRO) व रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (DRDO) इसके प्रमुख उदाहरण है। वैज्ञानिकों के स्थान पर उच्च प्रशासन में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को रखा जाता तो मंगलयान मंगल पर नहीं पहुंचता। पहुंचता भी तो इतने कम खर्चे में व निश्चित समयावधि में पहुंचना कठिन ही था। विषय विशेषज्ञों के हाथ मे प्रशासन होने का कार्यक्षमता पर सकारात्मक परिणाम इन दो उदाहरणों से स्पष्ट होता है।
जिला व स्थानीय प्रशासन के स्तर पर भी केन्द्रीकृत व्यवस्था के स्थान पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को अधिक महत्व देना शासन पर समाज के अंकुश के लिए अधिक उपयोगी होगा। दीर्घगामी दृष्टि से स्वावलंबी समाज व समाजाधिरित शासन के आदर्श को प्रत्यक्ष प्रस्थापित करने में भी यह व्यवस्था अधिक उपयुक्त होगी। वर्तमान में किसी भी शहर में जनता द्वारा चयनित महापौर होता ही है किंतु उसके अधिकार प्रशासनिक अधिकारियों से कम होते हैं। महानगरपालिका में भी आयुक्त (Munciple Commisioner) पर उसकी निर्भरता विकास कार्यो को बाधित करती है। राजनेताओं पर आस्था कम हुयी है फिर भी व्यवस्थागत रुप से इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि निश्चित समयावधि (5 साल ) के बाद हर प्रतिनिधि को जनता का सामना करना पड़ता है। भ्रष्ट अथवा अकार्यक्षम होने पर जनता के पास यह विकल्प है कि महापौर अथवा जिला परिषद अध्यक्ष अथवा सरपंच को बदल दे। वर्तमान व्यवस्था में प्रशासनिक अधिकारियों का केवल स्थानांतरण संभव है उनको अपदस्थ करना असंभव भले ही नहीं किंतु अत्यंत दुरुह है। अनेक देशों में लोकतांत्रिक पद्धति से विधायिका के अलावा कार्यपालिका व न्याय पालिका के अधिकारियों के निर्वाचन की व्यवस्था भी चल रही है। अमेरिका में कई राज्यों में स्थानीय पुलिस प्रमुख, न्यायाधीश, सरकारी वकील आदि सभी का जनता द्वारा निर्वाचन होता है। उस पद के लिए आवश्यक न्यूनतम अर्हता व योग्यता प्राप्त प्रतिभागियों में से अपने लिए सुयोग्य व्यक्ति को चयन करने का अधिकार जनता को होता है व तय समय के बाद पुनर्मूल्यांकन की सुविधा होती हैं। यह भी एक उपाय हो सकता है जिससे समाज का शासन पर अंकुश हो। जिले का पुलिस अधिकारी यदि जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता हो तो उसे जनता के प्रति संवेदनशील व्यवहार रखना ही पडेगा।
यह निश्चित है कि वर्तमान में चल नही केंद्रीकृत, अधिसत्तावादी ’भारतीय प्रशासनिक सेवा’ को बंद किए बिना वास्तविक स्वतंत्रता स्वप्नवत् ही है। समाज में यह मंथन तो प्रारम्भ हो कि इसे बदला जाना आवश्यक है। सच्ची स्व-तंत्रता कम लिये भाररतीय प्रशासनिक सेवा को शीघ्र बंद कर देना चाहिये।
https://uttarapath.wordpress.com/2014/10/14/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4/
दो महत्वपूर्ण निर्णय दूरगामी परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए दिखाई देते हैं। निवर्तमान सोवियत रशिया के असफल प्रयोग पंचवार्षिक योजना की अंधानुकृति के रुप में गत छः दशको से भारत की विकास यात्रा को पेचीदा बनाने वाले ’योजना आयोग’ की विदाई पूर्ण परिवर्तन की ओर पहला सराहनीय चरण है। समाज के सभी वर्गों से इस क्रांतीकारी निर्णय का उत्स्फूर्त स्वागत हुआ। यह कितना आश्चर्यजनक है कि समाजवाद के नाम पर राजनीति व व्यापार करनेवाले नेताओं अथवा पत्र-पत्रिकाओं ने भी योजना आयोग को श्रद्धांजलि प्रदान करते हुए कोई दुःख या खेद तक प्रकट नहीं किया। मानो एक भग्नावशेष का यह सहज स्वाभाविक पतन था। औपनिवेशिक शासन से सम्पूर्ण मुक्ति की ओर दूसरा सराहनीय प्रयास अनावश्यक अधिनियमों (Laws) को समाप्त करना है। नई संसद के प्रथम सत्र मे ही 60 निरर्थक कानूनों को समाप्त कर दिया। अब ऐसे 600 से अधिक और अनावश्यक कानूनों को सूचिबद्ध कर लिया गया है जिन्हें अगले सत्र मंे समाप्त कर दिया जाएगा। एक आकलन के अनुसार भारतीय जनता के शोषण हेतु अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 4000 निरर्थक कानून आज भी अस्तित्व में है। 50 साल से अधिक समय में इनका कोई उपयोग नहीं हुआ है किंतु किसी ने इन्हें समाप्त करने की ओर ध्यान नही दिया। भले ही इन अधिनियमों के समाप्त किए जाने का समाज पर कोई बहुत अधिक प्रत्यक्ष परिणाम नहीं दिखाई देगा फिर भी सच्चे अर्थ मे स्वत्तंत्र होने की मनीषा को यह निश्चित ही व्यक्त करता है।
स्वतंत्रता की 67 वीं वर्षगांठ पर बहुत वर्षों बाद आत्मविश्वासपूर्ण, भयमुक्त व हृदयस्पर्शी वक्तव्य देश के प्रधानमंत्री द्वारा किया गया। नहीं तो ऐसा लगता था कि आधी शती के बीत जाने के बाद भी देश मानो अभी भी स्वतंत्रता की प्रतीक्षा ही कर रहा है। शासक स्वदेशी हो गए। लोकतंत्र ने जनसामान्य को निर्णायक अधिकार प्रदान कर दिए। ज्ञान-विज्ञान व अर्थशास्त्र के अनेक क्षेत्रों में देश के पराक्रमी वीरों ने विश्व कीर्तिमान स्थापित किए। विश्व में भारत के प्रति अत्यंत उदात्त अपेक्षाओं का वातावरण बना। फिर भी, सामान्य भारतीय मन स्वातंत्र्य की उन्मुक्त अनुभूति नहीं कर पा रहा। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि विदेशियों को खदेड़ने के बाद भी अभी भी हम उन्हीं के तंत्र को अपनाए हुए है। स्व का तंत्र अपनाए बिना सच्चे अर्थ में ’स्वतंत्र’ कैसे हुआ जा सकता है?
प्रधानमंत्री के हृदय से निकले हुए स्वतंत्रता भाषण में भी यह वेदना परोक्ष रुप से प्रकट हुयी। जिस प्रधानमंत्री की कार्यकुशलता कें बारे में इतने कम समय में ही आख्यायिकाएं गढ़ गई है। उन्हें भी लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने भाषण में लगभग 15 मिनट तक दिल्ली के प्रशासनिक अधिकारियों की तानाशाही के बारे में शिकायत करनी पडी़। समयपालन, दायित्वबोध व कठोर परिश्रम जैसे सामान्य गुणों के बारे में भी अतिविशिष्ट प्रयत्नों की आवश्यकता बताती है कि प्रशासनिक तंत्र कितना सड़ चुका है। प्रधानमंत्री को ’भारतीय प्रशासनिक सेवा’ (IAS) के अधिकारियों के लिए उन्नीस बिन्दुओं की आचार संहिता बनानी पड़ी। दासता के समय की इस व्यवस्था को इतने कठोर प्रयत्नों से अनुशासित करने के स्थान पर प्रशासकीय सेवा की आवश्यकता के बारे में ही मौलिक रुप से विचार करना अधिक आवश्यक लगता है। अधिकारियों के अधिकार, कर्तव्य और अनुशासन पर विमर्श प्रारम्भ हो गया है। वास्तव में इसकी आवश्यकता व स्वरुप पर भी सीरे से विचार होना चाहिए।
सारे विश्व में ही गत 10 -15 वर्षों से इस विषय पर गहन विचार विमर्श और कई स्थानों पर तो प्रखर विवाद चल रहा है। यूरोपीय साम्राज्यवादियों द्वारा शासित ’गुलाम मण्डल’ देशों में शोषण करनेवाली, अतिकेन्द्रीत व अधिसत्तावादी प्रशासकीय व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठने लगी है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी अतिप्रशासकीय, केन्द्रीकृत व्यवस्था के स्थान पर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के समान न्यूनतम, प्रबंधकीय, प्रशासन व्यवस्था की वकालत की जा रही है। वैसे ही इन सब विकसित देशों में प्रशासकीय सेवा निम्न व मध्यम प्रशासन के कागजी कार्यवाही तक ही प्रभावी है। उच्चस्तरीय नीतिनिर्धारण में सामान्य परीक्षा द्वारा चयनित प्रशासकीय बाबुओं के स्थान पर विषय विशेषज्ञों तथा जन प्रतिनिधियों को ही प्राधान्य दिया जाता है।
अमेरिका मे संघीय प्रशासन (Federal Administration) में प्रत्येक राष्ट्राध्यक्ष अपनी रूचि तथा नीति की वरीयता के अनुसार विशेषज्ञों का चयन करते हैं। इन विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई नीतियों को लागू करने के लिपीकीय (Clerical) कार्य के लिए ही लोकसेवा का उपयोग किया जाता है। जिन ब्रिटिशों ने चीन से उधार लेकर भारत में भारतीय नागरी सेवा (ICS Indian Civil Services) प्रारंभ की जो आज भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS-Indian Administrative Services) के नाम जानी जाती है; उनके अपने देश में भी राॅयल सिव्हिल सर्विसेस का स्थान मध्यम व निम्न प्रशासन मंे ही है। नीती निर्धारण व नियमन के उच्च स्तरीय कार्य लोकतांत्रिक पद्धति से चयनित जनप्रतिनिधी तथा उनके द्वारा नियुक्त विषय विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। जर्मनी व फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों मे भी केन्द्रीत प्रणाली के द्वारा परीक्षा के आधार पर नियुक्त नागरी प्रशासन का शासन तंत्र में दोयम स्थान ही है। केवल परकीय सत्ता के अधीन रहे देशों में ही अत्यंत कड़ी, केन्द्रीकृत व पूर्ण सत्ताधारी बाबूगिरी (Bureaucracy) पायी जाती है।
आज सारे विश्व में प्रशासन के इस कठोर तंत्र को परिवर्तित करने का विचार चल रहा है। भारत में तो यह सर्वाधिक प्राथमिकता की आवश्यकता हैं। आज सारा तंत्र प्रशासकीय सेवा से नियुक्त अधिकारियों के चारों ओर केन्द्रित है। लोकसेवा आयोग के माध्यम से चयनित हो जाने पर ये अधिकारी मानो शासन तंत्र के सर्वेसर्वा हो जाते है। यह स्वाभविक ही था कि ब्रिटीश राज्यव्यवस्था भारतीय जनता को अधीन रखने के लिए इस प्रकार की तानाशाही व्यवस्था का निर्माण करती किंतु स्वतंत्रता के बाद तो इसे बदल देना चाहिये था। भले ही प्रशासकीय सेवा की परीक्षायें लेकर अधिकारियों का चयन करनेवाले आयोग का नाम हमने ’लोकसेवा आयोग’ रखा है किंतु चयन, प्रशिक्षण व नियुक्ति की प्रणाली में कहीं भी सेवाभाव या विनम्रता परिलक्षित नहीं होती। नागरी सेवाओं के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न सेवाओं जैसे प्रशासकीय सेवा, पुलीस सेवा, वित्तीय सेवा, विदेश सेवा, डाक सेवा, वनसेवा आदि में भी आपसी ऊँचनीच का भाव इतना प्रखर है कि प्रशिक्षण के समय से ही अधिकारियों के अंदर आधुनिक वर्णव्यवस्था तैयार हो जाती है। पूरी प्रक्रिया ही प्रचंड अहंकार को जन्म देती है। समाज भी शासकीय अधिकारियों को अनावश्यक महत्व देकर चापलूसी करता है और इस दासता की व्यवस्था को प्रगाढ़ बनाता जाता है।
अंग्रेजों के लिए लगान वसूल करनेवाले अधिकारी होने के नाते जिले मे प्रशासन प्रमुख को ’कलेक्टर’ अर्थात संग्रह करने वाला कहा जाता था। अंग्रेजों द्वारा की गई भारत की आर्थिक लूट का वह प्रमुख स्तंभ था। स्वतंत्रता के बाद भी कई राज्यों में आज भी जिला प्रशासक को अंग्रेजी के ड्रिस्ट्रीक्ट कलेक्टर कहा जाता है। भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी सेवा का भाव उत्पन्न करनेवाला नहीं है। जिलाधीश जैसे शब्दों से तो जमींदारी व्यवस्था की गंध आती है। परिणामतः स्वतंत्र भारत में प्रशासन की व्यवस्था अभी भी विदेशी शासकों के समान ही शोषण करनेवाली है। सामान्य व्यक्ति इन अधिकारियों तक पहुँच भी नही सकता। जब कि लोकरंजक राज्यव्यवस्था में यह प्रशासन का दायित्व होना चाहिए कि वह जनता तक संवाद, संपर्क व सहयोग का सेतु बनायें। ना तो चयन में न प्रशिक्षण में और न ही उत्तरदायित्व में भारतीय प्रशासकीय सेवा के अधिकारियों को इस बात का किंचिजमात्र भी भान रहता है। परिणाम यह है कि आज अधिकतर प्रशासकीय अधिकारी, व्यक्तिगत हितों को सर्वोपरी रखते हुए अपने कार्य का निष्पादन करते हैं। भ्रष्टाचार, लेटलतीफी, अंडगेबाजी, टालमटोल यह सरकारी कामकाज के सामान्य लक्षण बन गए है। इस मामले में दिल्ली के मंत्रालयों से लेकर खंडस्तर के तहसील कार्यालयों तर ’राष्ट्रीय एकात्मता’ का परिचय प्राप्त होता है।
प्रशासकीय सुधारों के अनेक प्रयत्न हुए किन्तु केवल पैबंद लगाकर अथवा इस जीर्ण व्यवस्था में कार्य कुशलता का संचार कर स्थायी परिणाम प्राप्त होने की संभावना नहीं हैं। आधुनिक तकनीक का प्रयोग करकें पारदर्शी व्यवस्था का निर्माण तो किया जा सकता हैं किंतु तब तक सत्ताकेन्द्रीत, संविधान से संरक्षित, लगभग पूर्ण निरंकुश प्रशासकीय सेवा बनी रहेगी तब तक व्यवस्था का सबसे प्रमुख अंग ’मनुष्य’ वैसा ही रहेगा। सारे विश्व में ही इस विषय को लेकर के विचार चला रहा है। भारत में भी क्रांतीकारी विचार करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार योजना आयोग को समाप्त कर उसके स्थान पर वित्तीय नियोजन की पूर्णतः नवीन रचना का विचार हो रहा है उसी प्रकार प्रशासनिक सेवा के विषय में भी मौलिक रुप से नये सिरे से विचार करना आवश्यक है।
सरकारी अधिकारियों के व्यवहार व आचरण के विषय में प्राचीन समय से ही विचार हुआ है। रामायण काल में दशरथ की सभा में विश्वावित्र की शिकायतों का प्रमुख भाग शासकीय अधिकारियों के संवेदनाहीन व्यवहार व भ्रष्ट आचरण को लेकर था। चाणक्य द्वारा रचित कौटील्लीय अर्थशास़्त्र में भी निरंकुश अधिकारियों के व्यवहार से राजतंत्र को होने वाली उपार क्षति के बारे में चेतावनी दी है। यहाँ तक कि मनुस्मृति भी शासकीय अधिकारियों के चयन, प्रशिक्षण तथा नियुक्ति के विषय में अत्यंत गंभीर सूचनाएं प्रदान करती है।
वर्तमान समय की प्रशासकीय व्यवस्था के व्यवहार की त्रुटियों का विश्लेषण करने पर हम अच्छी व्यवस्था के निर्माण हेतु मौलिक चिंतन के लिए कुछ मुद्दों को समस सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था मंे व्यवहार को लेकर जो सामान्य दोष प्रकट दिखाई देते है वे हैं – कार्यसंस्कृती का अभाव, दायित्वबोध की कमी, सामाजिक संवेदनहीनता व अधिकारी वृत्ती का अहंकार। इन सबके कारण प्रशासकीय व्यवस्था लोकसेवक के रुप में कार्य करती हुयी दिखाई नहीं देती है। समाज व शासन से अधिक स्वंय के हितों को महत्व देने की वृत्ति के कारण भ्रष्टाचार, गुटबंदी व अन्य अनेक दुर्गुणों का प्रादुर्भाव प्रशासन में हुआ है। अत्यंत जटील परिक्षा पद्धिति से चयन होने के कारण स्वयं की अहंमन्यता का गंड़ इस व्यवस्था में प्रारंभ से ही रोपित होता है। संविधान द्वारा प्रदत्त सरंक्षण के कारण नौकरी छूटने का तनिक भी भय प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होता है। 1935 के भारत अधिनियम (Government of India Act 1935) में अंग्रेजों ने उस समय के निर्वाचित भारतीय जनप्रतिनिधियों से प्रशासकीय अधिकारियों को अलग रखने की दृष्टि से जो प्रतिरोधक प्रावधान बनाए थे दुर्भाग्य से हमारे संविधान में उनको वैसे ही जारी रखा हैं। किसी भी प्रशासनिक अधिकारी की जाॅच से पूर्व शासन की अनुमति अनिवार्य है। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों मे इस व्यवस्था के करण ही जाॅंच नही हो पा रही थी। गत माह (सितम्बर 2014) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस व्यवस्था को बदला गया। मूलरुप से ही प्रशासकीय सेवा के प्रावधान ऐसे है कि जो व्यक्ति में यह भाव निर्माण करते है। कि मै कार्य करुं अथवा न करुं, सही करुं अथवा गलत करुं, समाज से, जनप्रतिनिधियों से व अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से उचित व्यवहार करुं या न करुं एक बार शासकीय सेवा में आ जाने बाद कोई मेरा कुछ नही बिगाड़ सकता। राजनेता तो आते- जाते रहते हैं, प्रशासनिक अधिकारी ही स्थायी रुप से शासन का संचालन करते हैं। यह भाव भी इस संवेदनहीन कार्यपद्धति के विकास का एक प्रमुख कारण है। अति सामन्यीकरण भी वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था की एक प्रमुख कमजोरी है। किसी भी शाखा में शिक्षित प्रशासनिक अधिकारी सभी विषयों का विशेषज्ञ मान लिया जाता है। कल तक जो पशुपालन विभाग का सचिव था आज शिक्षा विभाग मे मुख्य सचिव बना दिया जाता है। और फिर वह 25, 30 वर्ष का शैक्षिक अनुभव रखनेवाले कुलपतियों को भी निर्देश देने लग जाता है। सेवा व रक्षा मंत्रालय के मध्य विसंवाद के भी यही कारण हैं।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए प्रशासनिक व्यवस्था के पुनर्गठन का मौलिक विचार किया जाना चाहिये। राज्य व केंद्र शासन के स्तर पर मंत्रालयों में सर्वाेच्च नीति निर्माण व नियमन के पदों पर विषय विशेषज्ञों की निश्चित समयावधि (Tenure) के लिए नियुिक्त एक उपाय हो सकता है। स्थायी रुप से केवल प्रबंधन, प्रशासन का कार्य करनेवाले कार्यपालन अधिकारियों का और वह भी न्यूनतम मात्रा में होना पर्याप्त होगा। अन्य मंत्रालयीन कार्य अनुभवी लिपीकों द्वारा किए जा सकते हैं। सर्वोच्च नीति नियामक जिन्हें आज की व्यवस्था में सचिव के रुप में संबोधित किया जाता है और हमारी पारंपारिक प्रणाली में अमात्य कहा जाता था वे उस-उस विषय के तज्ञ होने अपेक्षित है। न्यायपूर्ण चुनाव द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियोें के कार्यकाल के साथही इनकी नियुक्ति की समयावधि संबद्ध हो सकती हैं। वर्तमान में भी जिन सरकारी उपक्रमों में प्रशासन विशेषज्ञों के हाथ में है वे उपक्रम असाधारण उपलब्धियाँ अर्जित कर रहै हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन(ISRO) व रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (DRDO) इसके प्रमुख उदाहरण है। वैज्ञानिकों के स्थान पर उच्च प्रशासन में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को रखा जाता तो मंगलयान मंगल पर नहीं पहुंचता। पहुंचता भी तो इतने कम खर्चे में व निश्चित समयावधि में पहुंचना कठिन ही था। विषय विशेषज्ञों के हाथ मे प्रशासन होने का कार्यक्षमता पर सकारात्मक परिणाम इन दो उदाहरणों से स्पष्ट होता है।
जिला व स्थानीय प्रशासन के स्तर पर भी केन्द्रीकृत व्यवस्था के स्थान पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को अधिक महत्व देना शासन पर समाज के अंकुश के लिए अधिक उपयोगी होगा। दीर्घगामी दृष्टि से स्वावलंबी समाज व समाजाधिरित शासन के आदर्श को प्रत्यक्ष प्रस्थापित करने में भी यह व्यवस्था अधिक उपयुक्त होगी। वर्तमान में किसी भी शहर में जनता द्वारा चयनित महापौर होता ही है किंतु उसके अधिकार प्रशासनिक अधिकारियों से कम होते हैं। महानगरपालिका में भी आयुक्त (Munciple Commisioner) पर उसकी निर्भरता विकास कार्यो को बाधित करती है। राजनेताओं पर आस्था कम हुयी है फिर भी व्यवस्थागत रुप से इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि निश्चित समयावधि (5 साल ) के बाद हर प्रतिनिधि को जनता का सामना करना पड़ता है। भ्रष्ट अथवा अकार्यक्षम होने पर जनता के पास यह विकल्प है कि महापौर अथवा जिला परिषद अध्यक्ष अथवा सरपंच को बदल दे। वर्तमान व्यवस्था में प्रशासनिक अधिकारियों का केवल स्थानांतरण संभव है उनको अपदस्थ करना असंभव भले ही नहीं किंतु अत्यंत दुरुह है। अनेक देशों में लोकतांत्रिक पद्धति से विधायिका के अलावा कार्यपालिका व न्याय पालिका के अधिकारियों के निर्वाचन की व्यवस्था भी चल रही है। अमेरिका में कई राज्यों में स्थानीय पुलिस प्रमुख, न्यायाधीश, सरकारी वकील आदि सभी का जनता द्वारा निर्वाचन होता है। उस पद के लिए आवश्यक न्यूनतम अर्हता व योग्यता प्राप्त प्रतिभागियों में से अपने लिए सुयोग्य व्यक्ति को चयन करने का अधिकार जनता को होता है व तय समय के बाद पुनर्मूल्यांकन की सुविधा होती हैं। यह भी एक उपाय हो सकता है जिससे समाज का शासन पर अंकुश हो। जिले का पुलिस अधिकारी यदि जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता हो तो उसे जनता के प्रति संवेदनशील व्यवहार रखना ही पडेगा।
यह निश्चित है कि वर्तमान में चल नही केंद्रीकृत, अधिसत्तावादी ’भारतीय प्रशासनिक सेवा’ को बंद किए बिना वास्तविक स्वतंत्रता स्वप्नवत् ही है। समाज में यह मंथन तो प्रारम्भ हो कि इसे बदला जाना आवश्यक है। सच्ची स्व-तंत्रता कम लिये भाररतीय प्रशासनिक सेवा को शीघ्र बंद कर देना चाहिये।
https://uttarapath.wordpress.com/2014/10/14/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4/
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