शिक्षा विधि के तीन मूलभूत सिद्धांत हैं | निकट से दूर की शिक्षा, सारे विश्व की शिक्षा देने से पूर्व व्यक्ति को उसके निकट जो है जो उसकी शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए | फिर क्रमश इस दायरे को बढ़ाते हुए करते करते पूरे सृष्टि, ब्रह्मांड की जानकारी दी सकती है| दूसरा सिधांत है ज्ञात से अज्ञात की ओर | जो मनुष्य को जानकारी है उसका सहारा लेते हुए क्रमशः और अधिक ज्ञान पाया जा सकता है| शिक्षा का तीसरा सिद्धांत है सूक्ष्म से स्थूल की ओर | वर्तमान विधि में इन मौलिक सिद्धांतों का अवलंबन नहीं किया जा रहा है | यही कारण है कि शिक्षा नीरस, उबाऊ ओर पेचीदी हो गयी है| स्थूल जड़ जगत के सिद्धांतों से हम सूक्ष्म प्रज्ञा का विकास नहीं कर सकते | वास्तविकता में सूक्ष्म विचार को ग्रहण कर उसपर चिंतन मंथन का प्रशिक्षण प्रदान करने से स्थूल जगत की विशेषताओं को समझना-समझाना सहज हो जायेगा | भगवदगीता में भगवन श्रीकृष्ण इसी विधि का अवलंबन कर रहे हैं | अर्जुन के विषादग्रस्त स्तिथि पर चोट करने के लिए वे उसके क्षात्रधर्म को ललकारते हैं | उसके हृदय के निकट के विषय को छूते हैं ओर कहते हैं कि क्लैव्यता को मत प्राप्त कर, क्योंकि यह तुझे शोभा नहीं देती | कीर्ति, स्वर्ग अर्जुन को ज्ञात इन विषयों पर चोट करते हुए भगवन श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारा यह पलायन अस्वर्ग्य और अकीर्तिकर है | मतलब तुम्हे स्वर्ग से दूर करने वाला है ओर तुम्हारी अपकीर्ति [बदनामी] करने वाला है | विषादग्रस्त मन पर इस आघात के कारण अर्जुन अपने मन में उत्पन्न हो रही कायरता को पहचान लेता है | अपनी संकीर्णता के कारण मन में आ रहे शोक व भय को वह पहचान लेता है | पहले अध्याय में अर्जुन इस पलायन का न केवल समर्थन अपितु उदात्तीकरण भी कर रहा है| वहां पर वो इसे धर्म के अनुसार बता रहा है| कृष्ण के आघातोपचार से उसका वैचारिक पाखण्ड टूटता है और मन सत्य को स्वीकारने के लिये तैयार हो जाता है | इस प्रकार मन को अपनी भूलो को स्वीकारने के लिए तत्पर होना शिष्यत्व की प्रथम सीडी है| “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः ||” कायरता के दोष से ग्रसित मन के कारण धर्म के प्रति भ्रमित हो गया हूँ ओर ऐसी स्थिति में जहाँ धर्मं क्या है और अधर्म क्या है इसका भेद समझ नहीं आ रहा है | इसलिए मैं तुम्हे प्रश्न कर रहा हूँ |
हमारे मन के अन्दर हमारी भूलो का संकेत करने वाली आवाज़ सदा जीवंत रहती है| हमारी हर कमजोरी को वह हमारे सामने इंगित कर देती है | किन्तु अपने अहंकार के वशीभूत हम उस ओर ध्यान नहीं देते | धीरे धीरे मन को अपनी हर बात का समर्थन व उदातीकरण करने की आदत लग जाती है| यह एक ग्रंथि के रुप में हमारे स्वभाव का हिस्सा बनती है | हम स्वयं अपनी भूलों को नहीं पहचांते और कोई सखा, मित्र, हितचिंतक उस बारे में बताता है तो हम अपमानित अनुभव करते है | इस गांठ को खोले बिना मन किसी उपदेश को स्वीकार नहीं कर सकता | गुरु के सम्मुख इन गांठो को खोलना ही पड़ता है | गीता हमें अपनी गांठो का परिचय कराती है | पर खोलनी तो हमें ही पड़ेगी | बालको के शिबिरों में खेल में दिया जाने वाला प्रयोग इस बात को स्पष्ट करता है | एक बालक को मुठ्ठी बाँधने के लिये कहा जाता है और दुसरे को मुठ्ठी खोलने के लिए | कितना भी प्रयास करने पर दुसरे की मुठ्ठी नहीं खोल पाते | फिर शिक्षक कहता है कि मै एक मंत्र बोलता हूँ, मुठ्ठी अपने आप खुल जाएगी | मुठ्ठी बाँधने वाले बालक के कान में शिक्षक कुछ कहता है और अगले प्रयास में मुठ्ठी अपने आप खुल जाती है | सबको आश्चर्य होता है कि यह कौनसा मंत्र है ? मंत्र केवल इतना है कि शिक्षक उसे कहता है कि “अब जब वह खोले तो खोल देना ” खेल से मिलने वाली सीख के रुप में यह बताया जाता है कि जब तक हम न चाहे हमारी मुठ्ठी कोई दूसरा नहीं खोल सकता | मन की गांठो का भी ऐसे ही है | किसी और के जोर लगाने से वे खुलती नहीं है | अत्यंत हलके हाथों से इन गांठो को खोलना होता है |
अर्जुन के शिष्यत्व ग्रहण करने के बाद कृष्ण उसे विश्व का सर्वोच्च दर्शन अर्थात सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करते हैं | आत्मतत्व की अमरता के सूक्ष्मतम ज्ञान से गीता का सन्देश प्रारंभ होता है | जब कि उनका अंतिम उद्देश्य कर्त्तव्यकर्म के लिए अर्जुन को प्रेरित करना है | युद्धकर्म के स्थूलतम कर्त्तव्य का ज्ञान प्राप्त करवाने के लिये श्री कृष्ण प्रारंभ अजर, अमर, आत्मतत्व के सूक्ष्मतम विवेचन से करते हैं | यह शिक्षा की सर्वोतम विधी है | आज हम सूक्ष्मज्ञान को आध्यात्मिक मानकर शिक्षा से दूर कर चुके हैं | व्यावहारिकता के नाम पर शिक्षा की पाठयवस्तु को पूर्णतः सांसारिक बना दिया है | जबकि कौशलपूर्ण व्यवहार सूक्ष्मतम ज्ञान की समझ से ही संभव है |
ज्ञान, भक्ति, कर्म और अत्यंत गूढ़ ऐसे राजयोग का तर्कशुद्ध विवेचन करने के बाद भी अर्जुन कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर नहीं हो पा रहा है | अनेक प्रश्न वह पूछ रहा है उसके उतर भी भगवन कृष्ण सुन्दरता से देते है किन्तु अर्जुन का मोह नष्ट नहीं होता | तब भगवन श्रीकृष्ण ने उसे विराट रुप का दर्शन दिया | यह विराट का दर्शन ही सब शंकाओ का समाधान करने वाला है | यही अंतिम ज्ञान है | विराट की यह साधना ही हमें गीता का वास्तविक सन्देश देती है | विराट के दर्शन से अर्जुन न केवल विस्मित नहीं अपितु भयभीत भी होता है | वह हाथ जोड़कर कृष्ण को कहता है कि मै तो तुमको अपना सखा मानता था | अज्ञानवश न जाने मैंने आपके साथ कैसा व्यवहार कर दिया | वास्तविकता में कृष्ण के साथ यह सख्य ही अर्जुन के शिष्यत्व का आधार है| ‘कृष्ण हमारे भी सखा है’ | जब हम उन्हें अपना सखा पहचान लेंगे तब उनके विराट रुप का दर्शन हो जायेगा | कण कण में विधमान इशत्व और जन जन में विधमान दिव्यत्व को हम पहचान सकेंगे और अपने कर्त्तव्य पथ पर निर्बाध रुप से आगे बढ़ सकेंगे |
आइये , अपने मन की गांठे खोले और कृष्ण सखा शिष्य बन जाएँ !!!
No comments:
Post a Comment