Monday, February 27, 2017

आवारा सुअरों के काटने से रैगर महिला की मौत

हरीजन बस्ती में एक वृद्ध महिला का झाडिय़ों में दोनो हाथ कटे शव मिलने से क्षेत्र में सनसनी फैल गयी। एडवोके ट तिलोकचंद मेघवाल ने बताया कि मेंरे भाई की पत्नी सगींता मेघवाल व बीरबल मेघवाल ,गंजान्नद मेघवाल ने सुअरो के जमघट को देखा तो मौके पर राधा देवी रैगर का शव सुअर नोच कर खा रहे थे सुअरो को खदेडकर छुडवाया गया। घटना की सुचना मिलते ही मौहल्ले के सैंकडो लोग व उपसभापति बाबुलाल कुलदीप मौके पर पहुंचे। मृतका के पुत्र किशनलाल रैगर ने बताया कि मेरी मां राधा देवी दैनिक दिनचर्या के अनुसार हमारे दुर घर के लिए गई थी कि रास्ते में झाडियों के पास सुअरों ने काट खा लिया जिससे उसकी मौत हो गई।
प्राप्त जानकारी केअनुसार राधादेवी पत्नी स्व. रिखाराम रैगर उम्र ७२ वर्ष निवासी रैगर बस्ती सुजानगढ़ मंगलवार सुबह शौच करने के लिए घर से कुछ दूर स्थित कीकर के पेड़ों के झुरमुट में गई थी। मौहल्लेवासियों ने कीकरों के पास सुअरों का जमघट देखकर नजदीक गये तो पता चला कि वे एक शव को नोच रहे हैं। पास जाकर देखने पर शव की पहचान राधादेवी के रूप में होने पर मृतका के परिजनों को सूचना दी गई। राधादेवी के दोनो हाथों को सुअरों ने बुरी तरह से नोच लिया था। सुअरों के खाने से महिला की मौत की खबर से मौहल्लेवासी मौके पर एकत्रित हो गये। मौहल्लेवासियों ने आवारा सुअरों को पकडऩे में नगरपरिषद पर नाकाम रहने तथा सुअर पालकों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करने के प्रति अपना रोष प्रकट किया। उसके बाद मृतका के शव को पोस्टमार्टम के लिए राजकीय चिकित्सालय लाया गया। जहां पर मृतका के पोते कपिल पुत्र किशनाराम रैगर ने पुलिस को रिपोर्ट दी।
जिसके बाद मृतका का पोस्टमार्टम करवाकर शव परिजनों को सौंप दिया। घटना की जानकारी मिलने पर उपसभापति बाबूलाल कुलदीप, पार्षद गणेश मण्डावरिया, गंगाधर लाखन, सुरेन्द्र भार्गव, बंटी लाखन, अजय ढ़ेनवाल, कालू तेजस्वी, सुनील सियोता सहित अनेक मौहल्लेवासी एकत्रित हो गये। पथिक सैना संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष महावीर पोसवाल ने नगरपरिषद की संवेदनहीनता के कारण एक वृद्धा महिला की सुअरों द्वारा हत्या करना बताते हुए जिला प्रशासन एवं नगरपरिषद से मांग की कि शीध्र ही सुअरों को पकड कर सुअरो के आंतक से निजात दिलाये। पोसवाल ने बताया कि पिछले तीन माह से लगतार सुअरों को पकडने की मांग कर रहे हैं, नगरपरिषद के कानों पर जूं तक नही रेंग रही है, जिसके परिणामस्वरूप आज एक वृद्धा को सुअरो ने अपना शिकार बना लिया । सभापति सिकन्द्रर अली खिलजी ने बताया कि वृद्धा की मौत की पोस्टमार्टम जांच से रिपोर्ट आने पर वास्तविकता का पता चलेगा लेकिन मौहल्लोवासियो के अनुसार प्रथम दृष्टया सुअरों के काटने से वृद्धा की मौत हुई है।
नगरपरिषद ने सुअरो को पकडने के लिए निविदा निकाली लेकिन टैडर लेने वाला कोई नही पहुंचा । फिर भी नगरपरिषद सुअरो पालनहारो के खिलाफ कार्यवाही करेगी । उप सभापति बाबुलाल कुलदीप ने घटना पर अफसोस जताते हुए सुअरो के ठेकेदारो के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी और सुअरो के आंतक के चलते सुजानगढ के वार्ड नं 35 में रहने वाली एक वृद्धा महिला की सुअरो के काट खाने से मौत हुई । सुअरो की घरपकड की जाएगी । पार्षद गणेश मडावरिया ने इस दुख घटना के जिम्मेदार नगरपरिषद है और लगातार जनता की मांग है सुअरो के कारण कई मोहल्लो में काट खाने की घटनाए सुनने को मिलती और परिषद से निवेदन करने के बाद भी कार्यवाही नही करने के कारण परिणमस्वरूप कस्बे की एक वृद्धा की मौत सुअरो के काटने से हुई जो निदनीय है ।
इनका कहना है –
नगरपरिषद के विधि सलाहकार से इस बारे में कानूनी सलाह मांगी गई है। सुअर पालकों को पूर्व में दो-तीन बार नोटिस दिये जा चूके हैं तथा सुअरों को पकडऩे एवं बेचने के लिए सार्वजनिक विज्ञप्ति निकाली गई थी। जिसमें एक भी निविदा नहीं आई है।
देवीलाल, आयु1त नगरपरिषद सुजानगढ़

Friday, February 24, 2017

गोदनामा ka sawal


बस्सी, उत्तरप्रदेश से हृषिकेश पूछते हैं-
मैं 50 वर्षीय मध्यम किसान हूँ मेरा जन्म एक सवर्ण परिवार में हुआ और मुझे 12 साल की उम्र में पंजीकृत गोदनामा के माध्यम से एक अनुसूचित जाति की 2 वर्ष की आयु में विधवा हो गई महिला को गोद दे दिया गया।  उन की मृत्यु के बाद मुझे विरासत में कुछ कृषि भूमि मिली।  1982 में सरकार द्वारा यह दावा किया गया कि मेरा गोद जाना विधि सम्मत नहीं है क्यों कि एक सवर्ण किसी अनुसूचित जाति के परिवार में गोद नहीं जा सकता और इस कृषि भूमि का मेरे नाम नामान्तरण नहीं हो सकता।  न्यायालय ने दावा खारिज करते हुए यह फैसला दिया कि मेरा गोद जाना कानूनी और सामाजिक रीति रिवाजों के मुताबिक है और कृषि भूमि का नामान्तरण मेरे नाम खोले जाने का आदेश दिया।  1984 में भूमि मेरे नाम अंतरित हो गई। मेरा विवाह 1986 में एक सवर्ण किन्तु ओ.बी.सी. जाति के परिवार में हुई। मैं 1995 में सरपंच का चुनाव अ.जा. सीट से लड़ चुका हूँ। विरोधियों द्वारा ऐतराज उठाने पर माननीय उप खण्ड अधिकारी ने मेरा जाति प्रमाण-पत्र वैध ठहराते हुए चुनाव लड़ने कि स्वीकृति प्रदान की। मेरी पत्नी भी ओ. बी. सी.सीट से चुनाव जीत चुकी है। विरोधियों द्वारा ऐतराज उठाया गया कि जब मैं अनुसूचित जाति की सीट से लड़ चुका हूँ व अनुसूचित जाति का हूँ तो मेरी पत्नी ओ.बी सी के लिए आरक्षित पद से कैसे चुनाव लड़ सकती है, माननीय उप खण्ड अधिकारी ने उन का जाति प्रमाण-पत्र वैध ठहरातें हुए चुनाव लड़ने कि स्वीकृति प्रदान की।
अब प्रश्न है कि –

1. मेरे पुत्रों कि जाति  क्या होगी? (अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र बनाया हुआ है)
2. मेरे बच्चों को किस जाति का राजनितिक, शैक्षिक व सरकारी आरक्षण मिलेगा?
3. क्या मेरे बच्चे वापिस अपनी मूल जाति में वापिस लौट सकते हैं? (क्योंकि मैंने गोद जाने के बाद सामाजिक व पारिवारिक तौर पर बहुत खामियाजा भुगता है)
4. मेरी मृत्यु के बाद मेरी कृषि भूमि मेरी पत्नी के नाम करना चाहता हूँ। पर वह अपनी जाति कैसे बदले क्योंकि शायद कानून ये करने कि इजाज़त ना दे।  मेरे परिवार के भरण-पोषण का जरिया एक मात्र यही कृषि भूमि है। बच्चे अभी पढ़ रहे हैं।
आशा है आप मेरी इन जिज्ञासाओं का समाधान अवश्य करेंगे।

उत्तर –
हृषिकेश जी,
जातिवाद की जड़ें भारत में इतनी गहरी हैं कि लगता है इसे समाप्त होने में युग गुजर जाएंगे। इस ने हमारे समाज को बहुत गहराई से विभाजित किया है। विभाजन रेखा इतनी गहरी है कि जितना इसे भरने का प्रयत्न किया जाता है यह और गहरी होती जाती है। परंपरागत रूप से किसी व्यक्ति की जाति जन्म से ही निर्धारित होती है। समाज किसी भी व्यक्ति की जाति जन्म के आधार पर मानता है। जातिगत मर्यादाओं का उल्लंघन करने (गोद चले जाने, विजातीय  विवाह करने) से भी किसी की जाति नहीं बदलती है, वह उसी जाति का बना रहता है जिस में वह पैदा हुआ था। यह अवश्य है कि मर्यादा भंग करने के कारण उसे जाति में सम्मान नहीं मिलता। बल्कि पग
-पग पर अपमान मिलता है। यदि इस मापदंड को मानें तो आप की जाति गोद जाने पर भी बदली नहीं है। आप आज भी अपनी पूर्व जाति के सदस्य हैं। आप की पूर्व जाति में आप की स्थिति अब कभी भी सम्मानजनक नहीं हो सकती। लोग आप के निम्न जाति में गोद जाने को पीढ़ियों नहीं भूलेंगे। केवल एक स्थिति में आप अपनी पूर्व जाति में पुनः प्रतिष्ठा बना सकते हैं। आप बहुत धनी हो जाएँ और आप की पूर्व की जाति के प्रतिष्ठित परिवारों में अपनी संतानों के विवाह कर दें। आप की मजबूत आर्थिक राजनैतिक स्थिति के कारण जाति में आप का आना जाना होने लगेगा। लेकिन पीठ फेरते ही पुरानी घटनाओं का उल्लेख करना आरंभ कर देंगे। समाज की इस स्थिति का कोई विकल्प नहीं है। वस्तुतः समाज में आप की स्थिति ऐसी हो गई है कि आप को हर जाति के लोग विजातीय समझने लगेंगे। इस का विकल्प यही है कि आप समाज में जाति की परवाह करना बंद कर दें। आप की संतानों के विवाह जाति का विचार किए बिना करें। फिर जो भी स्थिति बनेगी बनती रहेगी।
ब बात करें, आरक्षण लाभ के लिए कानूनी स्थिति की। कानून का मानना है कि आरक्षण का लाभ देने का सिद्धांत यह है कि लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति ने उस आरक्षित जाति की असुविधाओं को वहन किया हो। आप को बारह वर्ष की अल्पायु में निम्न जाति के परिवार में गोद दे दिया गया। उस में आप के माता-पिता की इच्छा सम्मिलित थी, लेकिन आप की स्वयं की नहीं, आप उस समय अवयस्क थे। आप ने नई जाति की तमाम असुविधाओं को भुगता। आप को उस का लाभ मात्र इतना मिला कि आप को उस जाति का प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ और आप अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ लेने के अधिकारी हो गए। आप की पत्नी ने अपना विवाह पूर्व जीवन अपनी जाति में बिताया। उस ने स्वेच्छा से आप से विवाह किया। उस ने आप की जाति की कोई असुविधा वहन नहीं की। इस कारण से उसे विवाह पूर्व जाति का ही माना गया। कानून के अनुसार दोनों के जाति प्रमाण पत्र सही हैं।
अब आप के प्रश्नों के उत्तर –
1. मेरे पुत्रों कि जाति  क्या होगी? (अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र बनाया हुआ है) और मेरे बच्चों को किस जाति का राजनितिक, शैक्षिक व सरकारी आरक्षण मिलेगा?
प के पुत्रों की जाति अनुसूचित जाति ही होगी। क्यों कि उन का जन्म अनुसूचित जाति के परिवार में हुआ है।   वे इस जाति के आरक्षण का लाभ प्राप्त करते रहेंगे। सामाजिक रूप से उन्हें एक सामान्य जाति के व्यक्ति का पुत्र माना जाएगा जो अनुसूचित जाति में गोद चला गया था।
2. क्या मेरे बच्चे वापिस अपनी मूल जाति में वापिस लौट सकते हैं? (क्योंकि मैंने गोद जाने के बाद सामाजिक व पारिवारिक तौर पर बहुत खामियाजा भुगता है)
स प्रश्न का आंशिक उत्तर तो आप को मिल गया होगा। सामाजिक रूप से आप की मूल जाति के लोग आप के बच्चों को अपनी जाति का मान तो लेंगे लेकिन उन की स्थिति सामान्य नहीं रहेगी। आप के गोद जाने का धब्बा उन पर बना रहेगा। वे आप की मूल जाति में विवाह कर लें तब भी। राजकीय रूप से उन के आप की मूल जाति में विवाह करने के बाद भी उन की जाति अनुसूचित ही बनी रहेगी। 
3. मेरी मृत्यु के बाद मेर
ी कृषि भूमि मेरी पत्नी के नाम करना चाहता हूँ। पर वह अपनी जाति कैसे बदले क्योंकि शायद कानून ये करने कि इजाज़त ना दे।  मेरे परिवार के भरण-पोषण का जरिया एक मात्र यही कृषि भूमि है। बच्चे अभी पढ़ रहे हैं। 
प के देहान्त के उपरान्त आप की कृषि भूमि उत्तराधिकार की विधि के अनुसार आप की पत्नी और आप की संतानों को समान भाग में प्राप्त होगी। जब तक बच्चे वयस्क न होंगे, इस संपत्ति की देख-रेख प्राकृतिक संरक्षक होने के कारण आप की पत्नी करती रहेंगी। वयस्क होने पर वे अपने हिस्से की संपत्ति के स्वयं स्वामी होंगे। आप को यह संपत्ति गोद जाने के कारण विरासत में प्राप्त हुई है। लेकिन गोद माता से प्राप्त होने के कारण आप इसे  किसी भी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के नाम वसीयत कर सकते हैं। लेकिन आप अपनी पत्नी के नाम इसे वसीयत नहीं कर सकते क्यों कि आप की पत्नी अनुसूचित जाति की नहीं है। लेकिन आप के देहान्त के उपरांत आप की पत्नी विरासत में उस का एक भाग प्राप्त करेगी। क्यों कि विरासत पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

Wednesday, February 22, 2017

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के प्रावधानों

राजस्थान मे गुर्जर आंदोलन पुरी तरह आरक्षण के उन लाभों पर केन्द्रित है जिसकी भारतीय संविधान में विशेष व्याख्या की गई है । अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए भारत सरकार समय समय पर विशेष कार्यक्रम और योजना प्रस्तावित करती रहती है ।
भारत में सैकड़ो जनजातियां पाई जाती है । एक जनजाति परिवारों या परिवारों के समूह का संकुल होती है, जिसका एक नाम होता है, जिसके सदस्य एक ही क्षेत्र में रहते हैं, विवाह और व्यवसाय से संबंधित कुछ निश्चित निषेधों का पालन करते हैं, एक ही भाषा बोलते हैं तथा लेन देन एवंर् कत्तव्यों के द्वारा बंधे हुए होते हैं । प्रत्येक जनजाति का अपना एक नाम होता है, सामान्य क्षेत्र, सामान्य भाषा और संस्कृति होती है ।
अनुसूचित जनजाति क्या है ? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के प्रावधानों के तहत राष्ट्रपति के आदेशों द्वारा अनुसूचित जनजाति का निर्धारण किया जाता है । 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 8.2 प्रशित है । भारत के संविधान के अनच्छेद 366 (25) में अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित किया गया है।
अनुच्छेद 342 (1) के अनुसार राष्ट्रपति किसी राज्य केन्द्र शासित प्रदेश के संदर्भ में और राज्य के मामले में राज्यपाल से परामर्श के बाद जनजातियों या जनजातीय समुदायों या उसके समूहों को अनुसूचित जनजातियों के रूप में अधिसूचित कर सकते हैं । यह अनुच्छेद जनजाति या उसके समूह को उनके राज्य केन्द्र शासित प्रदेश में इन समुदायों को उनके लिए संविधान में प्रदत्त संरक्षण उपलब्ध करवाकर संवैधानिक हैसियत प्रदान करता है । इस सूची में किसी तरह का संशोधन संसदीय कानून की धारा 342 (2) के जरिए ही किया जा सकता है । संसद कानून बनाकर किसी भी जनजाति या जनजातीय समुदाय या उसके किसी समूह को अनुसूचित जनजाति या उसके किसी समूह को अनुसूचित जनजातियों की सूची में जोड़ सकती है । अथवा उससे हटा सकती है ।
किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति घोषित करने के कुछ आधार होते हैं, जो इस प्रकार है आदिम विशेषता, भिन्न सभ्यता, सार्वजनिक समाज से दूरी या संपर्क का अभाव, भौगोलिक अलगाव ।
अगर कोई जनजाति इन मापदण्डों पर ख्री उतरती है तो उसे संबंधित राज्य की सरकार से परामर्श करके राष्ट्रपति के आदेश से अधिसूचना मे ंजोड़ा जा सककता है । जनजातियों को सूची से निकालने के लिए भी इसी प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है । हरियाणा, पंजाब तथा केन्द्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, दिल्ली तथा पांडिेरी में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं किया गया है ।
अनुसूचित जनजातियों को सूची में शामिल करने या सूची से हटाने के दावों का फैसला करने के तौर तरीकों को सरकार ने जून 1999 में मंजूरी दे दी । भारत के संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए दो प्रकार के प्रावधान है । पहले तरीके के प्रावधान के संरक्षण पर काम करते हैं और दूसरे प्रकार के प्रावधान उनके विकास से संबंधित है ।
अनुच्छेद 15- इस अनुच्छेद के अनुसार राज्य किसी नागरिक के विरूध्द केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा ।
अनुच्छेद 16 (4) संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार ऐसे किसी भी वर्ग को आरक्षण देने का प्रावधान है , जिसके बारे में राज्य को यह लगता है कि उसे सरकारी नौकिरोयं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है । इसके अंतर्गत खुली प्रतियोगिता को छोड़कर अन्य तरीके से अखिल भारतीय आधार पर सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 16 प्रतिशत एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है ।
अनुच्छेद 17- असपृश्यता का उन्मूलन कर दिया गया और इसे अमानवीय अपराध घोषित किया गया ।
अनुच्छेद - 46- अनुसूचित जातियो और जनजातियोंकी शैक्षणिक तथा आर्थिक हितों की रक्षा की जाए और इन्हें सभी प्रकार के शोषण तथा सामाजिक अन्याय से बचाया जाए ।
अनुच्छेद 330, 332 और 334 इनके द्वारा संसद और राज्य के विधान मंडलों में 20 वर्ष तक के प्रतिनिधित्व की सुविधाएं देने की व्यवस्था की गई है ।
अनुच्छेद 164- इसके अनुसार अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े हुए वर्गों के कल्याण के सभी विभागों और पृथक सलाहकार परिषदों की व्यवस्था की गई है । एक सैवधानिक प्रावधानों के अनुसार भारत शासन उन वर्गों के उत्थान ....
इस वर्ग के उल्लेख से यह आधार पर हमें अध्यनय कर अपने लिए आने वाले कल को सुनिश्चित करने की दिशा में सफलता मिलेगी ।
ऐसे प्रावधानों और अनुसूचि 15 के सभी को समान अधिकार प्राप्त है जिसका लाभ लेकर इस सामाजिक फैसला, असमानता को रोकना होगा ।

दलित असमानता में जी रहा है, क्योंकि वह दलित है।

हमारे संविधान का चरित्र गणतांत्रिक है, बतौर सदस्य नागरिक की अवधारणा है और लक्ष्य समानता का है। समानता के अर्थ भी स्पष्ट हैं। भाषा, क्षेत्र, धर्म, लिंग और जाति के स्तर पर असमानता की स्थिति को समाप्त करना है। संविधान में इसका उल्लेख है। नागरिकों के बीच असमानता की स्थितियां किन-किन आधारों पर बनी हुई हैं? आदिवासी क्या इसीलिए असमानता की स्थिति का शिकार नहीं है, क्योंकि वह आदिवासी है? दलित असमानता में जी रहा है, क्योंकि वह दलित है।
न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की रिपोर्ट बताती है कि मुसलमान कितने पिछड़ेपन के शिकार हैं। इसकी वजह क्या उनका मुसलमान होना नहीं है? जब ब्रिटिश शासन था तब देश की ढेर सारी जातियों ने सरकार के समक्ष किस बात के लिए आवेदन दिया था? उन्होंने आवेदन कोई नौकरियों में आरक्षण के लिए नहीं दिया था। उन्हें लगता था कि अंग्रेज सरकार उनकी सामाजिक हैसियत को ऊपर कर देगी। बोरे भर आवेदनों में किसी जाति ने यह लिखा कि वे कैसे ऊंची जाति के हैं और उनके इतिहास को उनके नये दावों के आलोक में देखा जाना चाहिए।
अंग्रेज जब यहां शासन कर रहे थे, तब कोई घोषित तौर पर वर्ण आधारित व्यवस्था नहीं थी। लेकिन उस राज में धर्म और जाति की पुरानी संस्थाएं पूरी तरह से विद्यमान थीं। बड़े पैमाने पर हिंदू बताये जाने वाले दलितों ने इस्लाम, ईसाई, सिख आदि धर्मों को स्वीकार किया, क्योंकि उन्हें धर्म से ज्यादा बराबरी की हैसियत में खुद को देखना था। उन्हें नये धर्म में सामाजिक बराबरी मिलने की राह दिखी। लेकिन बराबरी की लड़ाई जब कभी होती है और किसी भी रूप में होती है तो ऊंची श्रेणियों में जमे लोग उसका विरोध करते हैं।
इस संदर्भ में भक्तिकाल से लेकर आरक्षण तक की लड़ाई या किसी भी स्तर की बराबरी के प्रयासों का अध्ययन किया जा सकता है। अलबत्ता हर काल की भाषा अलग-अलग होती है।
दरअसल, विरोध का एक ही फार्मूला होता है कि संघर्ष ने अपने तर्कों और तथ्यों से जो औजार तैयार किये हैं, उन्हें कैसे अवधारणाओं से भोथरा कर दिया जाए। जैसे लोकतंत्र पर सवाल कौन खड़े करता है? जिसे लोकतंत्र के होने का न्यूनतम अहसास भी नहीं हो पाता है। विकास पर कौन सवाल खड़े करता है? जो विकास का न्यूनतम लाभ भी नहीं उठा पाता है। विभिन्नताओं और विभेदों से भरे समाज में किसी भी तरह की अवधारणा का अर्थ सबके लिए एक समान नहीं होता। लोकतंत्र से जिसे लाभ होता है वह मौजूदा लोकतंत्र की दुहाई देता है और विकास को राष्ट्रीय निष्ठा से जोड़ देता है।
इस पृष्ठभूमि में जनगणना में जाति-गणना के विरोध का अध्ययन किया जाना चाहिए। यह संयोग नहीं है कि पिछड़ों के आरक्षण के विरोध जैसा ही इसका भी विरोध किया जा रहा है। जो आरक्षण के विरोध में रहे हैं वे कमोबेश ऐसी गणना के विरोध में भी हैं, या बदली हुई परिस्थितियों का खयाल करके कम से कम जाति गणना के पक्ष में नहीं बोल रहे हैं।
सवाल है कि जनगणना में जाति पूछने से क्या दिक्कत है। जाति यहां जन्म से ही निर्धारित हो जाती है। जाति बदली नहीं जा सकती। जाति क्या केवल संख्या-बल है? जो लोग विरोध कर रहे हैं, उन्हें लगता है कि अगर पिछड़ों की आबादी के ठोस तथ्य सामने आ जाएंगे तो उन्हें नौकरियों में जो सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है, उसे बढ़ाने की मांग उठ सकती है। पिछड़ों में एक विश्वास पैदा हो सकता है कि संसदीय व्यवस्था में वे अपने वोटों से अपने जाति-समूह की सत्ता बना लेंगे। पहली बात तो यह कि संसदीय राजनीति में जातियों की भूमिका को इस सपाट तरीके से देखना उनके विरोध को सुसंगत तर्क तैयार करने में बाधाएं खड़ी कर रहा है। जातीय व्यवस्था जनगणना के आधार पर खड़ी नहीं की गयी थी। बहुमत पर अल्पमत की सत्ता राजनीतिक सिद्धांतों की देन होती है। पूंजीपतियों की तादाद बेहद कम है, लेकिन वे पूरी दुनिया में अपना शासन चला रहे हैं।
यह कहा जाता है कि अंग्रेजों ने देश के लोगों में फूट डालो राज करो की नीति के तहत जातीय जनगणना करवायी थी। यह नहीं कहा जाता है कि देश के लोगों में फूट थी, इसीलिए यहां बाहर के शासक आये। फूट इसलिए नहीं थी कि विभिन्न तरह की जातियों के साथ समाज बरकरार था, इसलिए थी क्योंकि गैर-बराबरी थी और उसे दूर करने की कोई नीति नहीं थी। जिस समय अंग्रेज आये, उस समय जितने भी रजवाड़े थे, उनमें किस जाति या जाति-वर्ग के सदस्यों का राज था? वर्ण और जाति के आधार पर सब संगठित क्यों नहीं हो गये और गुलामी की स्थिति से खुद को बचा क्यों नहीं लिया? जाति एकता का आधार नहीं बनती है। जातियों के बीच एकता का आधार हमेशा गैरबराबरी की नीतियों को ध्वस्त करने तक होता है। तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष के बाद से अब तक जातियों के समीकरणों में आये बदलाव का अध्ययन किया जा सकता है। संवैधानिक सत्ता ने भी जातियों के समूह जैसे अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग आदि बनाये हैं, उनका एक आधार निर्धारित किया है। लेकिन उस आधार की धार जैसे-जैसे कमजोर हो रही है, समूह में जातियों के भीतर नये-नये आधार विकसित हो रहे हैं। समूह के रूप में जातियों के वर्गीकरण का विरोध भी किया जाता है।
महात्मा गांधी का मानना था कि अनुसूचित जातियों को एक पृथक इकाई का दर्जा देकर मैक्डोनाल्ड के सांप्रदायिक निर्णय ने हिंदू समाज को दो पृथक भागों में विभाजित करने का षड्यंत्र किया है; उससे निपटने का सवाल स्वराज्य के सवाल से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। बिहार और तमिलनाडु दो ऐसे प्रदेश हैं, जहां सरकारों ने मंडल आयोग की तरह पिछड़ों की एक सूची के बजाय दो सूची बनायी। इस तरह से जातियों के बीच नये-नये समीकरण तैयार करने की राजनीति और रणनीति एक निश्चित उद्देश्य के तहत चलती रहती है। पिछड़े वर्ग के रूप में जातियों की गिनती का विरोध किया जा सकता है, और इससे मेरा भी विरोध है। क्योंकि अगर उद्देश्य समानता के कार्यक्रमों के लिए जनगणना के तथ्यों को आधार बनाना है तो जाति-जनगणना जरूरी है।
हम कहते हैं कि यह बांटो और राज करो की नीति है। यह बात अंग्रेजों के समय भी कही जा रही थी और आज आजाद हिंदुस्तान की सरकार के बारे में भी कही जा रही है। अंग्रेजों ने अपने को जमाये रखने के लिए बांटा, यह माना जा सकता है। लेकिन बंटने के आधार तो पहले से मौजूद थे। दूसरी जातियां अंग्रेजों से कोई राजनीतिक मांग नहीं कर रही थीं। वे तो सामाजिक हैसियत को बढ़ाने की मांग कर रही थीं। सामाजिक हैसियत की कमान किसके हाथों में थी?
अब एक उलटी बात देखी जा रही है कि जातियां खुद को निचली कही जाने वाली जातियों में शामिल कराने के लिए संघर्ष कर रही हैं। इंदिरा गांधी ने 21 मई 1971 को राज्यों के पिछड़े वर्ग और सामाजिक कल्याण मंत्रियों के सम्मेलन में कहा था कि अधिकाधिक लोग पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल होना चाहते हैं। क्यों? तब तो आरक्षण नहीं था। जो लोग पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल होना चाहते थे, उन्हें नये समाज में बराबरी की हैसियत चाहिए थी। बराबरी के लिए उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं से खाने-पीने और रहने की व्यवस्था चाहिए थी।
इंदिरा गांधी ने पिछड़े के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं की और दलितों, आदिवासियों के आरक्षण की नीति लागू नहीं हो पा रही है, इसका उल्लेख भर करती रहीं। दरअसल, बराबरी के जितने भी रास्ते संविधान में दिखते हैं, उन्हें दबाने के कई तरीके भी निकाले जाते रहे हैं। राजनीतिक व्यवस्था का सामाजिक और आर्थिक आधार ही महत्त्वूर्ण होता है। राजनीतिक मंचों से किसी बात को बार-बार क्यों न कहा जाए, जब तक उसके लिए सामाजिक और आर्थिक आधार तैयार नहीं किये जाएंगे, बराबरी की किसी भी लड़ाई को कामयाबी की राह पर नहीं ला सकते। पिछड़ों के आरक्षण से हर पिछड़े को नौकरी नहीं मिलने वाली है। लेकिन उसने सामाजिक जड़ता को तोड़ा, वह समानतामूलक सामाजिक और राष्ट्रीय विकास के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेजों की सत्ता को दलितों का एक चेतनासंपन्न वर्ग अपने हितों के अनुकूल मानता है, क्या कारण है। कहने वाले कहते रहें कि यह तो राष्ट्र-विरोधी है।
अगर कहने वाले की राष्ट्र की अवधारणा में दलितों के लिए बराबरी की नीति नहीं है, तो इसका मतलब किसी समाज पर राष्ट्र की अवधारणा को थोपना ही होगा। आग न होने का आभास देने के लिए राख से चिंगारी को ढकने की कोशिश अवैज्ञानिक होती है। संसदीय व्यवस्था की राजनीति ने लोगों को तोड़ा है, तो उनके भीतर एक भरोसा भी पैदा हुआ है। गर्व से अपनी जाति को दर्ज करवाने का भाव पैदा हुआ है।
संसदीय व्यवस्था की वोट की राजनीति में वर्णवादी व्यवस्था की कुंठा और दमन की स्थिति खत्म होती दिख रही है। जाति-व्यवस्था को जो लोग बुरा मानते हैं उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि जाति-व्यवस्था नये संवैधानिक ढांचे के तर्कों से टूटेगी, क्योंकि इसी में इसकी गुंजाइश है।
अगर संविधान भी चाहिए और पुरानी संस्थाएं भी सक्रिय रहें तो यह संभव नहीं हो सकता। लोगों को पता होगा कि संसदीय व्यवस्था में किन जातियों की कितनी तादाद है तो सत्ता को अपने समाजवादी लक्ष्यों की प्रक्रिया को फिर से निर्धारित करना होगा। सबसे कम तादाद वाली पिछड़ी जाति को पहली प्राथमिकता देनी होगी। दूसरे, जाति का बोध टूटेगा।
वर्णवादी जातीय बोध को तोड़ने का नारा देने का काम भी राजनीति ही करती रही है। लेकिन नारे से ज्यादा जातियों के सदस्यों ने अपने-अपने अनुभवों के आधार पर बेटी और रोटी के नये रिश्तों के साथ जाति-बोध को तोड़ा है। आज पहले की तुलना में कहीं अधिक युवा अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक विवाह कर रहे हैं और करना चाहते हैं। उन्हें उनके माता पिता या जाति और धर्म की पुरानी संस्थाएं रोक देती हैं। समाज ही अपने अनुभवों से जाति को तोड़ेगा। उसकी गणना को दबाने से वह नहीं टूटेगी।

Tuesday, February 21, 2017

रवीश कुमार का भाई तो बलात्कारी हो ही नही सकता!

ज़बरदस्ती में भाई लोग एनडीटीवी वाले रवीश पांडेय के पीछे पड़ गए हैं। अरे भई, हाँ। रवीश कुमार। अब खानदानी नाम रवीश पांडेय है तो क्या हुआ? सेक्युलर हैं। सर्वहारा समाज के प्रतिनिधि हैं। रवीश कुमार ही सूट करता है। अब क्या हो गया जो इन्ही रवीश पांडेय, माफ़ कीजिएगा रवीश कुमार के बड़े भाई ब्रजेश पांडेय बलात्कार के मुकदमे में हैं। पीड़ित भी कौन? एक दलित लड़की! वो भी नाबालिग?? ज़िला मोतिहारी। बिहार। सेक्स रैकेट चलाने का मामला अलग से है!!!! पर इसमें रवीश कुमार का करें? अब ठीक है, माना कि आसाराम से लेकर स्वामी नित्यानन्द तक ऐसे ही मामलों पर बड़ा शोर मचाए रहे वो। गर्दा झाड़े पड़े थे। तब पीड़ित के साथ खड़े थे। रोज़ ही जलते सवालों की बौछार। स्टूडियो न हुआ था। आग का मैदान हो गया था तब। पर भूलो मत। भाई की बात है। आपस में भले लड़ लें। बाहर सब एक हैं। जब बाहर से विपत्ति आई तो युधिष्ठिर ने कहा था- “वयम पंचादि शतकम।” हम एक सौ पांच हैं। कौरव-पांडव सब एक। अब धर्मराज युधिष्ठिर की भी न सुने रवीश!!!
एक बात और सुन लो। रवीश कुमार का भाई तो बलात्कारी हो ही नही सकता। ऊपरवाले की फैक्ट्री में कुछ लोगों के चूतड़ों पर नैतिकता का सर्टिफिकेट चिपकाकर। बाकायदा लाल स्याही से ठप्पा मारकर। फिर उन्हें नीचे भेजा जाता है। ऐसे हैं रवीश कुमार। अगर वो अपने भाई के खिलाफ कुछ भी लिख बोल नही रहे हैं तो सीधा मतलब यही है कि भाई दूध का धुला होगा। वो भी अमूल ब्रांड। फुल क्रीम मिल्क का। तुम समझे कि नही? ये पुलिस। ये थाना। ये कानून। वो दलित लड़की। वो महिला पुलिस इंस्पेक्टर जिसने जांच की और इनके भाई का नाम शामिल पाया। सब के सब बिके हुए हैं। सब झूठे हैं। फ्रॉड हैं। ब्रजेश पांडेय से बड़ा बेदाग़ कौन होगा? उन पर रवीश पांडेय, अरे माफ़ कीजियेगा, रवीश कुमार का हाथ है। मेरी नज़र में ये भाजपाइयों या फिर संघ की साज़िश हो सकती है। Yes, रवीश कुमार के भाई कांग्रेसी नेता हैं। पिछला चुनाव मोतिहारी से लड़े थे। हार गए। सोनिया जी भी आई थीं। रवीश कुमार के भाई हैं। बड़े भाई। जलवा है। किसी ने राजनीतिक साज़िश कर दी होगी!!
अब ये कौन सी बात हुई कि बिहार में तो नितीश कुमार की पुलिस है? भाई साज़िश मत करो रवीश कुमार के खिलाफ। कौन हैं ये नितीश कुमार। बोलो। कौन हैं? अबे, ये बीजेपी के एजेंट हैं। और क्या! रवीश कुमार के ख़िलाफ़ जो भी एक लफ्ज़ बोलेगा, वो बीजेपी का ही एजेंट होगा। जाओ, निकलवाए लो उस दलित लड़की की भी जनम कुंडली। बाप नही तो दादा। दादा नही तो परदादा। या उनके भी दादे। कोई न कोई बीजेपी से सटा रहा होगा। अब बीजेपी तब नही थी तो क्या हुआ!! तुम निकलवाए लो कुंडली। सावरकर और गोलवलकर के साथ कभी घूमे होंगें। इनके दादे-परदादे।
ये वही कम्युनल लोग हैं जो कहते हैं कि रवीश कुमार 2जी मामले में फंसी एनडीटीवी से मिली मोटी तनख्वाह डकारकर रोज़य ईमानदारी का प्रवचन देते हैं। अरे भइया, एनडीटीवी में 2जी मामले के चार्जशीटेड आरोपी टी.आनदकृष्णन ने कई सौ करोड़ का निवेश कर रखा है!!! तो क्या हुआ? कौन सी बिजली गिर गई? रवीश कुमार को इसमें से क्या मिला जा रहा है। हर महीने 5-6 लाख की तनख्वाहै तो मिल रही होगी। और का? अब अगर बगैर रिजर्व बैंक की इजाज़त से। चोरी छिपे। विदेश में बनी अपनी सहयोगी कम्पनियों मे कई सौ करोड़ की रकम डालकर। एनडीटीवी बैठ गई है। तो रवीश कुमार को पर्दे पर ईमानदारी की बात करने से काहे रोक रहे हो? अब वो अगर कुछ और नाही कर पाए रहे हैं। परिवार चलाना है। सो नौकरी भी नाहि छोड़ पाए रहे हैं। तो का ईमानदारी की बात भी न करें। उन्हें कुछ तो करने दो भाई लोगों।
बड़ी गाड़ी। बड़ा बंगला। मोतिहारी में अलग। पटना में अलग। ग़ाज़ियाबाद और कहां कहां!! तो का हुआ? अब ये सोचो कि एयरकंडिशन ज़िन्दगी में रहकर भी कोई। टीवी के पर्दे पर सही। मेहनतकश मजदूर के पसीने के बारे में सोच लेता है। मामूली बात है???
तो भइया, हम तो इस लड़ाई में रवीश पांडेय, उफ़ ये ज़ुबान, फिर से माफ़ी, रवीश कुमार के साथ हैं। आप भी साथ आओ। चलो नया नारा गढ़ते हैं-
“ब्रजेश पांडेय को बचाना है
और
उस दलित लड़की को
झूठा साबित करके दिखाना है।”
अब ये कौन साला आ गया है जो तेज़ आवाज़ में लाउडस्पीकर पर बल्ली सिंह चीमा की कविता बजाए जा रहा है? रवीश कुमार को सुनाए जा रहा है-
“तय करो किस और हो तुम
आदमी के पक्ष में हो
या फिर कि आदमखोर हो तुम।”
भगाओ…मारो….साले को… चुप कराओ… यहां नैतिकता का इकलौता ठेकेदार पत्रकार जीवित है!!! वो भी नही देखा जा रहा है इनसे!!!!
(लेखक के फेसबुक वॉल से साभार)

मीडिया

भारतीय लोकतंत्र में चौथे स्तंभ का दर्जा प्राप्त मीडिया के विषय में वैसे तो शायर ने कहा है कि ‘न स्याही के हैं दुश्मन न सफेदी के हैं दोस्त’। ‘हमको आईना दिखाना है दिखा देते हैं’।। परंतु बदलते समय के साथ-साथ समाज में धन की लालच की पराकाष्ठा के चलते शायद अब मीडिया को दूसरों को आईना दिखाने के बजाए स्वयं अपना मुंह आईने में देखने की ज़रूरत दरपेश है। मीडिया के विषय पर आयोजित होने वाले बड़े-बड़े सेमीनार अथवा इससे संबंधित वार्ताओं में अक्सर बड़े-बड़े लच्छेदार भाषण मीडिया के दिग्गजों द्वारा सुनाए जाते हैं। क्या किसी समाचार पत्र का मालिक तो क्या उसका मुख्य संपादक,संपादक अथवा समूह संपादक सभी अपने-अपने मीडिया हाऊस की गुणवत्ता,उसी निष्पक्षता तथा निडर होने का बखान करते सुने जाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि आजकल तो इन्हीं मीडिया घरानों के बीच तलवारें खिंची भी देखी जा रही हैं। खुलेआम दो अलग-अलग मीडिया घराने क्या समाचार पत्र समूह के स्वामी तो क्या टेलीविज़न के संचालक दोनों ही एक-दूसरे को अपमानित करने,नीचा दिखाने तथा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए हैं। जबकि हकीकत तो यह है कि ऐसे दोनों ही घराने चोर-चोर मौसेरे भाई ही हैं। क्या किसी गंभीर मीडिया हाऊस को यह शोभा देता है कि वह एक-दूसरे पर लांछन लगाने के लिए अपने समाचार पत्रों या चैनल का प्रयोग करे? क्या देश के पाठक अथवा श्रोता अब इसी काम के लिए रह गए हैं कि वे मीडिया घरानों की आपसी लड़ाई को बैठकर निहारें? बजाए इसके कि देश-प्रदेश तथा उनके अपने क्षेत्र के वर्तमान हालात के बारे में उन्हें कोई ज्ञानवर्धक व ताज़ातरीन जानकारी दी जाए?
अभी कुछ ही समय पूर्व हुए लोकसभा के आम चुनावों में मीडिया का दागदार चेहरा सामने आया। कुछ चैनल तथा समाचार पत्रों को छोड़कर शेष सभी एकतरफा समाचार वाचन व प्रकाशन करने लगे। और ऐसे कई मीडिया घराने आज तक पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग करते आ रहे हैं। ज़ाहिर है टीवी चैनल अथवा कोई समाचार पत्र-पत्रिका जहां इनसे जनता निष्पक्ष समाचारों के प्रकाशन व प्रसारण की उम्मीद करती है वहीं यही मीडिया एक व्यवसाय भी है। किसी भी मीडिया घराने को अपने सुचारू संचालन हेतु पैसों की भी आवश्यकता होती है। और यह पैसा पत्र-पत्रिकाओं तथा चैनल्स के मार्किटिंग विभाग द्वारा विज्ञापन के रूप में इकट्ठा किया जाता है। जिस टीवी चैनल की अधिक टीआरपी होती है अथवा जिन समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या अधिक से अधिकतम होती है उन्हें अच्छी दर पर पर्याप्त विज्ञापन प्राप्त होता है। परंतु मीडिया घरानों के व्यवसायी प्रवृति के कई लालची मालिकों द्वारा केवल प्राप्त होने वाले विज्ञापनों पर ही संतोष नहीं किया जाता बल्कि इनकी लालच इस कद्र बढ़ जाती है कि यह मीडिया के मौलिक सिद्धांतों को त्यागने से भी नहीं हिचकिचाते और दुनिया की आंख में अपनी कथित ‘निष्पक्षता’ की धूल झोंकते हुए पूरी तरह पक्षपातपूर्ण समाचार देने लग जाते हैं। खासतौर पर चुनावों के दौरान यह दृश्य सबसे अधिक देखने को मिलता है। और अगर निष्पक्षता का ढोंग रचने वाले इस मीडिया ने किसी ऐसे राजनैतिक दल के पक्ष में अपने घुटने टेके हैं जो बाद में सत्ता में आ गया हो फिर तो उस मीडिया घराने की और भी पौबारह हो जाती है। यानी एक तो अब उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता दूसरे उसे विज्ञापन के रूप में धनवर्षा की भी कोई कमी नहीं रहती। और संभवत: इस प्रकार की प्रवृति के मीडिया घराने के मालिक निष्पक्षता से अधिक अपने कारोबारी मुनाफे की ओर ही ज़्यादा ध्यान देते हैं।
इन दिनों महाराष्ट्र तथा हरियाणा राज्य विधानसभा चुनावों से रूबरू हैं। यहां कई ऐसे नेता चुनाव लड़ रहे हैं जिनके लिए चुनावों की हार-जीत उनके अपने राजनैतिक अस्तित्व से जुड़ चुकी है। हरियाणा में तो कई ऐसे नेता इन चुनावों में या तो उम्मीदवार हैं या पूरी तरह सक्रिय हैं जो स्वयं अखबारों के मालिक भी हैं। ऑन रिकॉर्ड यदि आप इनसे बात करें तो यह पेड न्यूज़ के बहुत बड़े दुश्मन नज़र आएंगे और अपने अखबार को भी यह लोग निष्पक्ष बताते सुने जाएंगे।परंतु सच्चाई इससे कोसों दूर हैं। हरियाणा में प्रसार संख्या के आधार पर सबसे बड़ा अखबार समझे जाने वाला समाचार पत्र उन नेतारूपी समाचार पत्र स्वामियों को भी नहीं बख्श रहा है जो समाचार पत्र समूह के मालिक होने के अतिरिक्त चुनाव मैदान में भी अपना भाग्य आज़मा रहे हैं। अथवा चुनाव में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। इस बार तो पेड न्यूज़ के व्यवसाय ने हद ही खत्म कर दी है। कुछ समय पहले तक तो पढ़े-लिखे लोग पेड न्यूज़ की शैली देखकर समझ जाया करते थे कि अमुक प्रकाशित सामग्री पेड न्यूज़ है। क्योंकि ऐसे प्रकाशित समाचारों के अंत में उक्त समाचार के विज्ञापन होने का संकेत बारीक शब्दों में प्रकाशित कर दिया जाता था। पंरतु जैसे-जैसे पेड न्यूज़ को लेकर विरोध शुरु हुआ तथा देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने यहां तक कि प्रेस काऊंसिल ऑफ इंडिया ने इस विषय पर संज्ञान लिया वैसे-वैसे पेड न्यूज़ प्रकाशित करने की शैली भी बदल गई। इन दिनों ऐसे अखबार सीधे तौर पर किसी संपन्न प्रत्याशी के चुनाव तक के पूरे पैकेज की बात करते हैं। इसी में विज्ञापन तथा समाचार दोनों शामिल हैं। अब पेड न्यूज़ रूपी समाचारों के अंत में उस सामग्री के विज्ञापन होने का कोई संकेत प्रकाशित नहीं किया जाता। यानी महज़ अपनी लालच के चलते मीडिया घराने के लालची मालिक पाठकों के विश्वास को ठेस पहुंचा रहे हैं। साथ-साथ समाचार पत्रों-पत्रिकाओं के प्रति आम इंसान की बनी सकारात्मक सोच के साथ धोखा कर रहे हैं।
ऐसे मीडिया समूह के मालिकों से तथा उन नेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है जो समाचार पत्रों को पैसे देकर अखबारों के माध्यम से अपनी झूठी वाहवाही प्रकाशित करवा रहे हों? हालांकि ऐसा नहीं है कि प्रत्येक प्रत्याशी प्रत्येक समाचार पत्र को पैसे देकर अपनी खबरें प्रकाशित करवाना चाहता हो। दरअसल यह सारा खेल प्रसार संख्या पर आधारित है। जिस समाचार पत्र की जितनी अधिक प्रसार संख्या है उसके अनुसार उसका पैकेज उतना ही कीमती है। परंतु अधिक प्रसार संख्या वाले कई अखबार ऐसे भी हैं जो पेड न्यूज़ जैसे अपवित्र व अनैतिक गोरखधंधे में नहीं पड़ते। हालांकि प्रत्याशियों द्वारा उन्हें खरीदने की कोशिश भी की जाती है। परंतु नैतिकता व सिद्धांत की राह पर चलने वाले तथा मीडिया के प्रति बने जनता के भ्रम की लाज रखने वाले समाचार पत्र ऐसे प्रत्याशियों के झांसे में नहीं आते। निश्चित रूप से ऐसे निष्पक्ष व ईमानदार मीडिया हाऊस पर गर्व किया जाना चाहिए। यहां यह कहना भी प्रासंगिक है कि जो समाचार पत्र पेड न्यूज़ का शिकार नहीं हैं तथा पेड न्यूज़ जैसी भ्रष्ट व पक्षपातपूर्ण व बिकाऊ व्यवस्था को अनैतिक मानते हुए इसका विरोध करते हैं उन्हें इन्हीं चुनावों के दौरान ऐसे प्रत्याशियों तथा समाचार पत्रों को भी प्रमाण सहित बेनक़ाब करना चाहिए जो पैसे देकर समाचार पत्रों में अपने झूठे कसीदे प्रकाशित करवाते हों।
ऐसा करने से जनता को उस तथाकथित बड़े व अधिक प्रसार संख्या वाले समाचार पत्र का वास्तविक व घिनौना चेहरा भी दिखाई देगा। इसके अतिरिक्त पाठकों का भी यह फर्ज है कि वे ऐसे बिकाऊ समाचार पत्रों में प्रतिदिन प्रकाशित होने वाली उम्मीदवारों की पक्षपातपूर्ण सामग्री के स्थान तथा विषय सामग्री को देखकर स्वयं यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश किया करें कि अमुक प्रकाशित सामग्री पेड न्यूज़ ही है। आमतौर पर पेड न्यूज़ के रूप में प्रकाशित होने वाली सामग्री भले ही समाचारों के रूप व समाचार शैली में क्यों न लिखी जाती हो परंतु इस प्रकार का पूरा का पूरा समाचार संबंधी आलेख उस प्रत्याशी के कार्यालय द्वारा ही तैयार किया जाता है जिसने पैसे देकर समाचार पत्र में अपना स्थान चुनाव की तिथि तक के लिए पैकेज के रूप में सुरक्षित करा लिया हो। बहरहाल अनैतिकता का यह खेल कब समाप्त होगा, समाप्त होगा भी या नहीं इसके विषय में तो कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस घिनौने व शर्मनाक खेल में लोकतंत्र के चार स्तंभों में से दो स्तंभ आपस में एक-दूसरे से मिलकर यह खेल खेलते हैं। परंतु इतना ज़रूर है कि पूरी तरह से अनैतिक समझे जाने वाले पेड न्यूज़ जैसे कारोबार में शामिल समाचार पत्र व टीवी चैनल मालिकों के चलते चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता पर प्रश्रचिन्ह अवश्य लग गया है

Sunday, February 19, 2017

नरेंद्र मोदी भारत के सबसे लोकप्रिय नेता

नरेंद्र मोदी भारत के सबसे लोकप्रिय नेता रहे हैं। आज इनको पसंद करने वालों की संख्या कहीं ज्यादा है। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मोदी जी हमेशा कहते हैं की वो फकीर है। इतना ही नहीं उन्होंने एक बार कहा की मेरे पास पैसा नहीं है। उन्होंने यह भी कहा की जिसके पास पैसा नहीं होता वो गरीब नहीं होता है, क्योंकि उसके पास जनता होती है। मोदी जी ने यह बात कहते हुए कहा की मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। पर अब मोदी के बैंक खातों की डिटेल सामने आई है। शायद आपको यह देखकर हैरानी हो पर क्या करें भैया जब फकीरों के पास इतना पैसा आने लग गया तो हम गरीबों का क्या होगा।
मेरे पास कुछ भी नहीं है मोदी – मोदी ने कहा था की वो अन्य नेताओं की तरह करोड़पति नहीं है। इतना ही नहीं इन्होने कहा था की मेरे पास पैसे के नाम पर बहुत कम पैसे हैं। पर आज के हुए खुलासे में आप देखोगे की भिया इनके पास करोड़ों नहीं अरबों की संपति है।
इतनी है मोदी के पास संपति – माय नेता एप्लीकेशन के अनुसार नरेंद्र मोदी के पास करोड़ों रूपये है। इसका ब्योरो भी हम आपके सामने पेश कर रहे हैं। यह वो जानकारी है जो मोदी जी ने माय नेता एप्प वालों को दी हैं। इतना ही नहीं इसमें आप देख सकते हो की मोदी के पास 1,52,57,582 की संपति है।
मैं गरीब हूँ साहेब – मोदी कब अपना बयान बदल लेते हैं पता ही नहीं चलता है, कभी अपने आप को फकीर कहते है तो कभी अपने आप को गरीब कहतें हैं। पर गरीबों के और फकीरों के 10-10 खाते नहीं होतें हैं। मोदी के पास 10 बैंक अकाउंट है जो की इस सूचि में नजर आ रहे हैं।
जनसभा में अपने आप को जनता का सेवक बतातें है मोदी – मोदी का कहना है की वो सिर्फ जनता के सेवक हैं। इतना ही नहीं मोदी के अनुसार वो अपना काम सरकार के पैसे से नहीं करते हैं। वहीं मोदी कहते हैं की उनके पास कुछ भी नहीं है वो तो जनता के सेवक हैं। मैंने पहले भी लिखा है की मोदी के बयानों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुनकिन है।
http://hindviral.com/modi-arabpati-hai/

बलात्कार के बाद सामाजिक प्रताड़ना

‘तहलका’ के नूतनताकांक्षी संवाददाताओं ने दिल्ली के 23 थानों में जा कर और 30 से ज्यादा पुलिसवालों से बातचीत कर जिस सत्य से साक्षात्कार किया है, वह है तो ठोस, लेकिन काश उसमें कुछ नया भी होता। बलात्कार या यौन प्रताड़ना में स्त्री की भूमिका पर दो-चार को छोड़ कर सभी पुलिसवालों ने जो राय प्रगट की है, वह उतनी ही पुरानी है जितने कि हमारे पुराण। विश्वामित्र ने मेनका पर धावा नहीं बोला था, मेनका ने ही उन्हें अपने ऋषित्व को खंडित करने को बाध्य कर दिया था। दूसरी ओर, एक सीता भी तो थीं, जो कई महीनों तक लंका की रमणीय अशोक वाटिका में रहीं, पर महाबली रावण उनके शील का तिनका तक नहीं तोड़ सका। अगर आज पुलिसवाले भी ऐसा ही सोचते हैं तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है। वे बेचारे न तो विद्वान हैं, न विचारक और न ही सभ्यता समीक्षक। पुलिस व्यवस्था की भीतरी संरचना में वे अपनी ही इज्जत (जिसका एक अनिवार्य अंग है, स्वाभिमान) बचा लें, यही बहुत है।
दिल्ली के पुलिसवाले जो सोचते हैं, वही ज्यादातर पुरुष भी सोचते हैं। इनमें से जो जिम्मेदार पदों पर हैं, वे अपना मत सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने से भी नहीं चूकते। बलात्कारी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, इस पर पूरी सर्वसहमति है। बहुत से स्त्री-हितैषी यह सोचते हैं कि जिस पर बलात्कार का केस साबित हो जाए, उसकी पुरुषेंद्रिय को काट कर फेंक देना चाहिए। लेकिन इस पर सर्वसहमति नहीं तो बहुमत है ही कि बलात्कार की घटनाओं के लिए अकेले पुरुष ही जिम्मेदार नहीं हैं, इसमें स्त्री की भी भूमिका है। वह अपनी पोशाक, मेकअप, चालढाल, व्यवहार आदि से पुरुष को उत्तेजित क्यों करती रहती है? जो स्त्रियां अपने चाल-चलन में शील और संयम का परिचय देने में खुद असमर्थ हैं, उन्हें यह शिकायत करने का नैतिक अधिकार नहीं है कि पुरुष ने खुद पर नियंत्रण खो कर अनैतिक कार्य किया है। कानून की निगाह में, अपराधी ही नहीं, उसे अपराध करने के लिए उकसाने वाला भी सजा का हकदार होता है।
ऐसे तर्क स्त्रीवादी वर्ग को सरासर कुतर्क लगते हैं, तो यह उतना ही नैसर्गिक है जितना सूरज का पूरब से निकलता। इस वर्ग का आरोप है कि यह स्त्री की आजादी को कटघरे में खड़ा करने का व्यापक षड्यंत्र है। बलात्कार या बलात्कार की धमकी सिर्फ एक कामुक क्रिया नहीं है, यह स्त्री को उसकी परंपरागत और संकीर्ण दुनिया में वापस धकेलने की सुचिंतित रणनीति है। हर छेड़छाड़ या बलात्कार ऊंची आवाज में की गई मुनादी है: खबरदार, बाहर निकली, तो तुम्हारे साथ यही होगा। फैशन करोगी, तब भी तुम्हारे साथ यही होगा। गैर-मर्दों के साथ घूमोगी-फिरोगी, देर रात तक उनके साथ रहोगी, खुलेआम शराब या हुक्का पियोगी तब तो तुम्हारे साथ यह होगा ही। इस चेतावनी में स्त्री के लिए कहीं प्रच्छन्न संकेत यह भी है कि जब तुमने सारी आजादियों का लुत्फ उठाने का फैसला कर लिया है, तो तुम्हें पुरुष (यानी उसकी वासना) के प्रति भी उदारता से पेश आना चाहिए। मर्दों की दुनिया में जीना है, तो मर्दों को नाराज रख कर कितनी दूर जा सकती हो, बेबी? आधुनिक या उत्तर-आधुनिक जीवन शैली और परंपरागत जीवन मूल्य, ये दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते।
पुलिसवादी तर्क में कई और भी झोल हैं। इस तर्क से बलात्कार या यौन प्रताड़ना की अनेक घटनाओं की व्याख्या नहीं होती। घरेलू नौकरानियां कितनी भड़कीली पोशाक पहनती हैं? अधेड़ और बुजुर्ग औरतों में कितनी सेक्स अपील होती है? कोई कार अचानक रुकती है और सड़क पर अकेली जा रही लड़की को दबोच कर उसके भीतर खींच लिया जाता है। क्या इस कार में बैठे युवक उस लड़की की अदाओं पर लट्टू हो कर अचानक आपा खो बैठे थे? थानों में जिन औरतों के साथ छेड़छाड़, मारपीट या सीधे बलात्कार होता है, क्या वे फैशनेबल कपड़े पहने हुए होती हैं या ब्यूटी पार्लर से निकल कर सीधे थाने जाती हैं? भिखारियों और पागल महिलाओं के साथ कौन बलात्कार करता है? छोटी-छोटी बच्चियों पर, जिन्हें कामुकता का क भी नहीं मालूम, कौन हमला करता है? स्पष्ट है कि स्त्री के साथ यौन जुल्म के कई एक पहलू हैं। बिपाशा बसु या विद्या बालन के साथ बलात्कार नहीं हो सकता, लेकिन मुहल्ले की किसी नाचीज-सी औरत के सिर पर यह खतरा हमेशा मंडराता रहता है।
इन सब सीधे-साधे तथ्यों के बावजूद या उनसे अपनी संपूर्ण सहमति प्रगट करने के बाद मैं निवेदन करना चाहता हूं कि पुलिसवादी तर्क सौ फीसदी निस्सार नहीं है। वह सिर्फ हिमशिला के ऊपरी हिस्से का एक टुकड़ा भर देख पा रहा है। अगर पूरी हिमशिला का ढांचा उसकी निगाह के दायरे में आ पाता, तो वह अपनी स्थापना से खुद स्तंभित हो जाता। ज्यादा बड़ा सच यह है कि बलात्कार का निमंत्रण आकर्षक ढंग से सजी-धजी और वर्जनामुक्त जीवन शैली की ओर बढ़ रही स्त्री नहीं दे रही है, यह निमंत्रण उस संस्कृति की ओर से दिन-रात, प्रतिपल जारी किया जा रहा है जिसकी मान्यता यह है कि देह का स्थान दिल और दिमाग से ऊपर ही नहीं, बहुत ऊपर है। विज्ञापनों की आक्रामक दुनिया पर तीन-चार दिनों तक गौर करने के बाद जरा यह बताइए कि दिल और दिमाग को समृद्ध करने का जरिया बताने वाले विज्ञापन आपने कितने देखे और देह को छरहरा, सुंदर, कोमल, सम्मोहक और यहां तक कि मारक बनाने के नुस्खे बताने वाले विज्ञापन कितने देखे। दिल काला हो तो चलेगा, दिमाग के भीतर रूसी ही रूसी हो, तब भी चलेगा, पर गाल तो गोरे ही होने चाहिए, बालों को भी रेशम के धागों की तरह लहराना चाहिए और दांत तो वही दांत कहलाने के काबिल हैं जो मोती की तरह जगमगाते रहें। जब कामुकता के कारखानों में बना हुआ माल, लागत से सौगुना ज्यादा तक कीमत का टैग लगाए हुए, बेचने के लिए किसी सुंदरी या सुंदर को टीवी के परदे पर उतारा जाता है, तो मेरे मन में खूंखार विचार पैदा होने लगते हैं। किराए के ये सभी टट्टू सामान्य स्त्री-पुरुषों का, उनके घर के भीतर ही, उनकी नाक के सामने, अपमान करते हैं और अपना बैंक बैलेंस बढ़ाते हैं।
लेकिन क्या कीजिएगा। ईसा मसीह के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। कामुकता की संस्कृति का प्रसार करने के लिए इनसे विष-पुरुषों या विष-कन्याओं का काम लिया जा रहा है। इनकी अपनी जिंदगी तो मौज-मस्ती में बीतती होगी- या क्या पता, जूता कहां गड़ रहा है, यह उसे पहनने वाला ही जानता है, पर इसकी मार पड़ती है साधारण स्त्री जाति पर जो उनका अंध अनुकरण करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखना चाहती। इससे कामुकता का जो सघन वातावरण बनता है, वही पुरुष के कान में फुसफुसाता रहता है: पौरुष स्त्री की रक्षा करने में नहीं, उसे जलील करने में है।
- राजकिशोर, वरिष्ठ हिंदी विचारक

बलात्कार और समाज

जो कुछ हो रहा है, भयावह है। लग रहा है जैसे सती-युग लौट आया है। चैनल खबर चला रहे हैं- संसद सदमे में। सदमे में तो हम हैं। स्त्री अब क्या करेगी, कैसे जिएगी, कैसे अपना मुंह सबको दिखाएगी- ये कैसे सवाल हैं? लोग रो रहे हैं, दुखी हैं, और कह रहे हैं अब तन ढकने से क्या, बेचारी का जो था सो तो सब लुट गया। इज्जत सरेआम रौंद डाली गई। अब तो बेचारी तिल-तिल कर घुट-घुट कर मरेगी। यह सब क्या है। यह कैसी सहानुभूति है, जो बलात्कार का शिकार हुई स्त्री को स्वाभाविक जीवन जीता देखना गवारा नही करती।
संसद में बैठी शक्तिशाली स्त्रियां नहीं जानतीं कि रोजाना सार्वजनिक वाहनों में सफर करना महिला के लिए कैसा अनुभव होता है? वे नही जानतीं कि सड़क पर चलना क्या होता है। एक सामान्य पुरुष साथी की तरह खुली हवा में सांस लेने, कभी-कभार फिल्म-पिकनिक की मौज-मस्ती के लिए स्त्री को मानसिक रूप से कितना तैयार होना पड़ता है। चाहे वे जया बच्चन हों, गिरिजा व्यास, सुषमा स्वराज या सोनिया गांधी-अपनी पहचान छोड़ कर सामान्य स्त्री का जीवन एक दिन के लिए जीकर देखें तो शायद इस संसद-रुदन की जरूरत न पड़े।
शक्तिमान महिलाओं को विलाप करते देखना अजीब लगता है। जिनके पास सत्ता की ताकत है, कानून बनाने और उसे क्रियान्वित करने की क्षमता है, जिन्हें अपनी इस जिम्मेदारी को कब का पूरा कर देना चाहिए था उनकी आंखों में सिर्फ आंसू आ रहे हैं, वे सिर्फ मार्मिक भाषण दे रही हैं, वे नम आंखों से निहार रही हैं, वे आक्रोश प्रदर्शित कर रही हैं। अरे ये सारे काम तो संसद से बाहर बैठी महिलाएं भी कर रही हैं, फिर संसद की क्या जिम्मेदारी है?
इस अपराध पर त्वरित कार्रवाई करवाने में सक्षम लोग कार्रवाई करवाने की जगह आंसू बहा रहे हैं, संवेदनशील भाषण कर रहे हैं। कमाल है- संसद रो रही है, संसद सदमे में जा रही है। आपको याद होगा, हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री के कार्यकाल में तो इस लुटी इज्जत के लिए बाकायदा ‘बलात्कार बीमा योजना’ तक लाने पर चर्चा हुई थी। महिला संगठनों और बुद्धिजीवियों की कड़ी आलोचना के बाद उस शर्मनाक प्रस्ताव को वापस ले लिया गया।
इस कांड पर गमगीन सिर्फ महिलाओं को दिखाया गया। तमाम चैनल महिला सांसदों के आंसू और भाषण दिखाते रहे। ज्यादातर पुरुष सांसद इस घटना पर मौन थे या चैनलों ने उन्हें दिखाना जरूरी नहीं समझा। यह भी अजीब है। महिला के साथ अपराध हो तो उस पर महिलाओं का ही नजरिया दिखाया जाएगा। क्यों भाई, पुरुषों का क्यों नहीं? क्या यह एक सामाजिक अपराध नहीं है? क्या इससे पुरुष प्रभावित नहीं होता? क्या ऐसे समाज में पुरुष निश्चिंत होकर सो सकता है?
क्या बलात्कार के लिए फांसी देने से बलात्कार रुक जाएगा, जैसी कि लगातार मांग बनाई जा रही है? बलात्कारी के शिश्नोच्छेद की मांग हो रही है। ऐसी मांग का क्या अर्थ है? फांसी दो-फांसी दो के उन्माद में कोई बुनियादी सवाल सुनने तक को तैयार नहीं है। फांसी की भूखी भीड़ को कुछ लाशें चाहिए ही चाहिए जिससे उसकी क्षुधा कुछ देर को शांत हो। फिर उन्माद का कोई और मुद््दा आ जाएगा। क्या मृत्युदंड से इन घटनाओं को काबू किया जा सकता है?
बलात्कारी मानता है कि शील भंग के बाद पीड़िता किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं बची, उसकी ‘इज्जत’ लुट गई, वह बरबाद हो गई, अब तो उसका जीना मरने से भी बदतर है। इन्हीं मूल्यों के कारण पुरुष बदला लेने के लिए भी बलात्कार को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बलात्कारी को मृत्युदंड या शिश्नोच्छेद की मांग करने वालों के भी मूल्य यही हैं कि अब स्त्री के पास बचा ही क्या। शील गया तो सब गया। शर्म, हया, लाज। इज्जत, शील, चरित्र। ये सब वर्जिन वर्जाइना के पर्याय बना दिए गए हैं। अब लड़की कैसे सिर उठा कर जिएगी। सुषमा स्वराज के रुदन में कहें तो अब उसका जीना-मरना एक समान है।
यह हमारे समाज का सोच है कि अगर पीड़ित स्त्री बलात्कार के दंश से उबरना भी चाहे तो हम वैसा नहीं होने देंगे। बलात्कार तो शरीर पर गहरी चोट है जो देर-सबेर भर जानी है। पर मन की कभी न भरने वाली चोट कौन देता है? कौन इस जख्म को लगातार कुरेद कर नासूर बनाने के लिए जिम्मेदार है। यह कैसा समाज है, जो बलात्कारी के ही दृष्टिकोण से सोचता है। बलात्कारी मानता है उसने स्त्री का ‘सब कुछ’ लूट लिया और समाज भी यही मानता है कि स्त्री का सब कुछ लुट गया। और ‘लुटी हुई इज्जत’ कभी वापस नहीं आ सकती। जिसके लिए स्त्री बस एक यौन अंग है जिसके अवैध (बिना शादी) इस्तेमाल से वह अंग सड़ जाता है, हमेशा के लिए अपवित्र हो जाता है। उस समाज में पुन: प्रवेश के अयोग्य हो जाता है।
क्या यह यों ही है कि इसी सोच से खाप पंचायतें संचालित होती हैं, जहां अपनी मर्जी से शादी करने वाले जोड़ों को खापपंचायतों के समर्थन से काट कर फेंक दिया गया। आॅनर किलिंग के अनगिनत मामले हमारे सामने हैं। लड़की की इसी इज्जत के ‘अपवित्र’ हो जाने पर सामंती परिवार लड़कियों को मार डालते हैं और इस ‘इज्जत को खराब’ करने वाले को भी।
तब क्या बलात्कार के अपराध को कुछ कम करके देखना चाहिए? नहीं! यह जघन्य है और हमें इसे संपूर्णता में देखना होगा। स्त्री की इच्छा के बिना उसका जीवन साथी भी संबंध बनाए तो कानूनन यह भी अपराध है। पति द्वारा किया गया बलात्कार भी आपराधिक दायरे में है। स्त्री हो या पुरुष, अपने शरीर पर पहला अधिकार आपका ही होना चाहिए। बंद कमरों में बच्चों और बच्चियों के साथ घर के ही जाने-पहचाने लोगों द्वारा किए गए दुराचार, कार्य-स्थलों पर स्त्रियों के साथ दुराचार, सार्वजनिक वाहनों में और सड़कों पर राह चलती लड़कियों पर रोजाना होती छींटाकशी और अभद्रताएं भी इसी जघन्य अपराध की सैकड़ों कड़ियां हैं। यह हमारा समाज है जिससे हमें लड़ना भी है और इसे बेहतर भी बनाना है।
भारत में ही कई ऐसे समाज हैं जहां बलात्कार नहीं होते, बच्चियों की भ्रूण हत्याएं नहीं होती, जहां अपराध की दर तथाकथित सभ्य माने जाने वाले समाज की तुलना में न के बराबर है। आप तिब्बती समाज, आदिवासी समाज, मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के राज्यों को देखिए और इसी के बरक्स दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा के समाजों के अपराध देखिए। अपराध न हो इसके लिए बेहतर मूल्यों वाला समाज भी रचना होगा, जहां हर जगह महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इस समय जहां इस गंभीर मुद््दे पर समग्र नजरिए से बहस की जरूरत है, इस पर सारे विचार, सारी बहसों को बस फांसी दो-फांसी दो तक लाकर उन्मादी बना दिया गया है। राजनेताओं के लिए भी यह मांग करना और इसे लागू करना-कराना सुविधाजनक है। जहां सदन में कई जनप्रतिनिधि अपने मोबाइल पर नंगी तस्वीरें देखते पकडेÞ जाएं, वहां समाज को बदलने की बात कौन करना चाहता है?
मीडिया का जब से कॉरपोरेटीकरण हुआ है, अद््भुत खेल देखने को मिल रहे हैं। खेलों तक में यौन आकांक्षाएं पूरी करने को ‘हॉट गर्ल’, ‘ग्लैमर गुड़िया’ ढूंढ़ने का अभियान मीडिया चला रहा है, सिर्फ खेल देखना हो तो खेल लड़कियां दिखा ही रही हैं। बड़े लोगों का मन विश्व सुंदरियों से नहीं भरा तो अब खेलों में भी सुंदरी खोज रहे हैं। इसमें प्रिंट और दृश्य, दोनों मीडिया शामिल हैं। यही चैनल वाले रात-रात भर पॉवरप्राश, शक्तिप्राश और यौन-शक्तिवर्धक दवाओं के अश्लील विज्ञापन दिखाते हैं, फिर दिन भर बलात्कारियों को फांसी पर एसएमएस मंगवा कर ऊंची कमाई करते हैं। रात में प्रचार से कमाई और दिन में उसके विरोध से कमाई!
वियाग्रा जैसी दवा क्या स्वस्थ समाज की जरूरत है? मर्दानगी की सारी अवधारणाएं किस समाज की हैं? पॉवरप्राश जैसे विज्ञापनों में एक लड़का कई-कई लड़कियों के साथ बाकायदा हमबिस्तर दिखाया जाता है, परफ्यूम के विज्ञापनों में मर्दानगी का पागलपन दिखाया जाता है। लगभग हर विज्ञापन में स्त्री को देह, उपयोग और उपभोग की चीज बना कर परोसा जाता है, हर चैनल पर हिंसा और अपराध की कथाएं मनोरंजक बना कर चटखारे लेकर परोसी जाती हैं, जिनमें अपराध का न तो विश्लेषण किया जाता है और न उसे गंभीर समाजशास्त्रीय नजरिए से प्रस्तुत किया जाता है। सभी चैनल मनोहर कहानियां का विजुअल संस्करण बन गए हैं। दिन-रात चैनलों पर हिंसा, हत्या ,बलात्कार देख कर जाहिर है एक हिंसक, मानसिक रूप से विकृत और कुंठित समाज ही बनेगा।
बहुत संकट की स्थिति है। ‘यौनांगों की पवित्रता’ हमारे समाज की बीमारी है। स्त्री के साथ यौन शुचिता का मूल्यबोध जोड़ा गया है, वह खंडित होता है। अब चूंकि शुचिता तो वापस आ नहीं सकती, शुचिता के आईने की किरचें बिखर जाती हैं, जो किसी हाल में नहीं जुड़ सकतीं। इसलिए तूफान आ जाता है। अपराध को अपराध की तरह ही देखा जाना चाहिए वरना अपराध के लज्जा, अपमान, आत्महत्या तक होते हुए समाज न जाने कहां पहुंचेगा।
ये घातक स्थितियां हैं और इन्हें हमारा समाज ही निर्मित करता है। स्त्री की यौन-शुचिता को लेकर समाज इतना दुराग्रही है कि उससे आजाद होना बहुत मुश्किल दिखता है। बलात्कारी को तो फांसी दे देंगे लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि अब बेचारी लड़की कैसे जिएगी, क्या करेगी, उसका जीवन तबाह हो गया, उनके इस सोच को फांसी कैसे देंगे? स्त्री बलात्कार के बाद जीना भी चाहे तो इस मानसिकता की वजह से उसकी पढ़ाई-लिखाई, उसका व्यवहार सब परे हटाकर समाज उसे एक यौन-अंग में तब्दील कर देखेगा कि इसका सब कुछ छिन गया। अब इसके पास बचाने को क्या है?
जहां इस बात पर बहस चलती हो कि लड़की कैसे कपडेÞ पहनती है, किस समय बाहर जाती है, लड़कों से दोस्ती रखती है, जोर-जोर से हंसती है, वहां सामान्य इंसान के रूप में स्त्री को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। इस कुंठित मनोवृत्ति को फांसी दें! स्त्री को मेहरबानी कर जीने दें, उसे खुली हवा में सांस लेने दें, उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें। उसे बलात्कार पीड़िता की पहचान में न बदलें!
- संध्या नवोदिता
(जनसत्ता से साभार)

Thursday, February 16, 2017

दिल्ली के राजनीतीज्ञ

रैगर समाज बहुत लम्‍बे समय से पिछड़ा हुआ रहा है । जिसको मेहनत मजदूरी कर अपना पेट रोजाना भरना पड़ता था । लेकिन अब धीरे-धीरे स्थिति सुधरने लगी है । आज हमारे समाज ने अपनी राजनैतिक जड़े मजबूत कर ली है ओर रैगर समाज के बंधुओं ने ग्राम पंचायत से लेकर मंत्री पद तक अपनी दावेदारी साबित की है और समाज का गौरव बढाया है । 
       स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति से पूर्व श्री भोलाराम तोंणगरिया हैदराबाद (सिंध) में म्‍युनिसिपल कमिशनर रह चुके हैं । श्री खूबराम जाजोरिया दिल्‍ली चीफ कमिशनर के सलाहकार तथा श्री सूर्यमल मौर्य अजमेर चीफ कमिशनर की सलाहकार समिति के सदस्‍य रह चुके हैं । श्री कज्‍जूलाल जाजोरिया सन् 1964 में जोबनेर नगरपालिका के अध्‍यक्ष निर्वाचित हुए हैं । कई रैगर राजस्‍थान में विभिन्‍न नगरपालिकाओं के पार्षद रह चुके हैं तथा कई वर्तमान में सदस्‍य हैं । श्री बंशीलाल आर्य (जोधपुर), श्री मिश्रीलाल मालवीय (जोधपुर), श्री भीकाराम फलवा‍ड़िया (बाड़मेंर), श्री बसंतीराम बाकोलिया (बाड़मेर), श्री छगनलाल जाटोलिया (बाड़मेर), श्री मिश्रीलाल चौहान (पीपाड़), श्री मिश्रीलाल खटनावलिया (पीपाड़), श्री भीमराज नवल (पाली), श्री मगाराम (चुरू) त‍था श्री केशरीमल जाटोलिया (बालोतरा) नगरपालिका के सदस्‍य रहे हैं । श्री केशरीमल जाटोलिया 27 वर्षों तक नगरपालिका बालोतरा के सदस्‍य समिति के अध्‍यक्ष रहे हैं । कई ग्राम पंचायतों के सरपंच भी निर्वाचित हुए हैं । रामचन्‍द्र धोलखेड़िया-बीकानेर, श्री सीताराम मौर्य-भाण्‍डारेज, श्री गिरधारीलाल मौर्य खरकड़ा, श्री जगन्‍नाथ मोरलिया-देवली तथा श्री प्रभुदयाल सबल कोटड़ी ग्राम पंचायत के सरपंच चुने जा चुके हैं । इस तरह रैगर जाति के लोग सरपंच से लेकर केबीनेट मंत्री तक रहे हैं ।

दिल्‍ली महानगर परिषद/विधानसभा 
(Delhi, Metropolitan Council/State Assembly)

वर्ष नाम पार्टी सदस्‍य/मंत्री
1952-1955श्री दयाराम जलुथरिया कांग्रेससदस्‍य
1967-1972 श्री शिवनारायण सरसुनियाभारतीय जनसंधसदस्‍य
1972-1977 श्री मोतीलाल बाकोलिया कांग्रेससदस्‍य
1977-1982 श्री मोतीलाल बाकोलियाकांग्रेससदस्‍य
1977-1982श्री भौरेलाल शास्‍त्री कांग्रेससदस्‍य
1977-1982श्रीमती सुन्‍दरवती नवल प्रभाकरकांग्रेससदस्‍य
1983-1988 श्री मोतीलाल बाकोलियाकांग्रेससदस्‍य
1993-1998 श्री सुरेन्‍द्रपाल रातावाल भाजपा मंत्री
1998-2003श्री मोतीलाल बाकोलियाकांग्रेससदस्‍य
2003-अब तकश्री सुरेन्‍द्रपाल रातावालभाजपा विधायक

दिल्‍लीनगरपालिका / नगर निगम पार्टी सदस्‍य
1954-1957श्री गौतम शक्‍करवालकांग्रेससदस्‍य
1957-1962श्री दयाराम जलुथरियाकांग्रेससदस्‍य
1962-1967श्री खूबराम कांग्रेससदस्‍य
1967-1975श्री गोपालकृष्‍ण रातावालजनसंधसदस्‍य
1975-1980श्री लक्ष्‍यमणसिंह अटलजनसंधसदस्‍य
1983-1988श्री खुशालचन्‍द मोहनपुरियाकांग्रेससदस्‍य
1985-1990श्री हेमचन्‍द्र माहनपुरियाकांग्रेससदस्‍य
1997-2002श्रीमती मीरां कंवरियाभाजपा महापौर
1997-2002श्री धर्मपाल अटलभाजपा सदस्‍य
2002-अब तकश्री योगेन्‍द्र चांदोलियाभाजपा अध्‍यक्ष
2002-2012श्री तुलसीराम सबलानियाकांग्रेसनिगम पार्षद
2006-2007श्रीमती मीरां कंवरियाभाजपामहापौर
2007-अब तकश्री सुरज कुमार कुर्डियाभाजपानिगम पार्षद, करोलबाग जोन के अध्‍यक्ष
2007-2012श्री हरिश सुवासियाकांग्रेसनिगम पार्षद
2012-अब तकश्रीमति भूमि रछोयाकांग्रेसनिगम पार्षद
2012-अब तकश्रीमति पार्वती दिगवालबी.एस.पी.निगम पार्षद
       श्रीमती मीरां कंवरिया रैगर समाज की पहली महिला है जो सन् 1997-2000 में दिल्‍ली नगर निगम की महापौर रही है । 
       श्री मोतीलाल बाकोलिया रैगर समाज के पहले व्‍यक्ति हैं जो दिल्‍ली महानगर परिषद तथा दिल्‍ली विधान सभा के कुल मिलाकर चार बार सदस्‍य रहे हैं ।

Friday, February 10, 2017

सन्देश प्रेस matter

समाज सेवा में रूचि, विनम्र व सौम्य व्यक्तित्व, समस्याओं को सुलझाने का मसला हो या कार्यक्रम संयोजन का हो, बेहतर परिकल्पना शक्ति से योजनाबद्ध एवं चरणबद्ध तरीके से बगैर सहयोगियो से उलझे सफल समाधान/आयोजन कर अन्तिम परिणाम पर पहुँच कर ही रुकना इत्यादि जिनकी प्रमुख विशेषता है।
हम बात कर रहे है"सामूहिक नेतृत्व" कीअवधारणा को प्रेरित करने वाली विचारधारा,विचारधाराओं का सम्मान एवं बिन्दु विशेष पर विभिन्न विचारधाराओं मे सामंजस्य स्थापित कर एक कामन विचारधारा का निरूपण करने वाले ............की l 
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रैगर समाज ने धीरे धीरे ही सही राजनीती मैं पैर ज़माने शुरू कर दिए है , रैगर दर्पण  की कोशिश रही है की वो अपने सभी ऐसे सफल रैगरो की जानकारी आप तक पहुंचाता रहे I
इसी क्रम मैं रैगर समाज मीरा TONGARIA को कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली प्रदेश का महिला सभा की प्रदेश सचिव मनोनीत किया है I रैगर दर्पण रैगर  मीरा जी को शुभकामनाये देता है
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धर्मेन्द्र  का चयन NDA (नेशनल डिफेन्स अकादमी) में हो गया है. धर्मेन्द्र  ने प्रथम प्रयास में ही ये सफलता हासिल की है, साथ ही साथ इसने CBSE 12th में भी 90% अंक लाकर रैगर समाज को गौरान्वित किया है.
धर्मेन्द्र श्रीमती प्रेमवती और श्री रघुबीर के पुत्र है और दिल्ली मैं ही रहते है , रैगर दर्पण धर्मेन्द्र और उनके पुरे परिवार को शुभकामनाये देता है
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कक्षा 10 सीबीएसई के नतीजों में सेंट्रल स्कूल पश्चिम विहार  की लकी सिंह ने कक्षा 10 में 100% अंक प्राप्त किये है रैगर दर्पण  सोशल मीडिया प्रभारी  रघुबीर से बात करते हुए उनके पिता श्री धर्मेन्द्र  जी तथा माताजी रजनी जो एक टीचर है ने बताया की लकी ने ये सफलता अपनी मेहनत और लगन से प्राप्त की है लकी  को पढ़ाई के साथ साथ पैन्टिन्ग में भी रूचि रखती है और भविष्य में वे आईएएस बनकर देश के सेवा करना चाहती है! रैगर दर्पण उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुय ढेर सारी शुभकामनाये देता है

प्रेस matter


किसी भी समाज के विकास एवं उत्थान में महिलाओं का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान होता है। बिना महिलाओं के योगदान के किसी भी समाज का विकास सम्भव नहीं है,चाहे वह कायस्थ जैसा बौद्धिक समाज ही क्यो न हो। वक्त की रफ्तार के साथ तादात्म्य न कर पाने के कारण पिछड गए हमारे कायस्थ समाज को आगे ले जाने के लिए सक्रिय कायस्थ महिलाओं का धनात्मक सहयोग अपेक्षित था, है और सदैव रहेगा।
ऐसे मे जब बडी संख्या मे कायस्थ महिलाये अपने समुदाय के प्रति उदासीन हो एवं शेष अपने समुदाय की अपेक्षा सम्पूर्ण समाज हेतु कार्य करने मे अत्यन्त सहजता की अनुभूति करती हो। इन परिस्थितियो मे जब कभी एकाध कायस्थ महिला अपने समाज को एक एवं विकसित करने के लिये प्रयासरत दिखती हो उसके बेडियो व संघर्षो की कल्पना सहज ही की जा सकती है
हम बात कर रहे है कुशल गृहिणी, मृदभाषी,मधुर वक्ता और कायस्थ समाज के लिए पूर्ण मनोयोग से काम करने वाली कायस्थ महिला लखनऊ की श्रीमती रमन सिन्हा जी की।
कायस्थ नेत्री के रूप में वे हमारे समाज की अन्य महिलाओं जो समाज तो छोडिये ,पडोस भी छोडिये अपने परिवार मे भीे सामंजस्य स्थापित नही कर पाती है ,के लिए अनुकरणीय उदाहरण हो सकती है।
उनका योगदान इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अनावश्यक चर्चा से दूर केवल कायस्थ महिलाओ को संगठित करना ही उन्होने अपना परम लक्ष्य बनाये रखा है।
व्यवहारिक धरातल पर कायस्थ महिलाओं को जोडने के प्रयास के साथ सोशल मीडिया पर "कायस्थवृन्द महिला संगठन"का सफलता से संघटन एवं संचालन उनके कौशल को बयां कर जाता है। "कायस्थखबर-संचालनमण्डल" द्वारा प्रदत्त अधिकारो का प्रयोग करते हुये मै
धीरेन्द्र श्रीवास्तव सक्रिय कायस्थ महिला लखनऊ की श्रीमती रमन सिन्हा जी को कायस्थ समाज हेतु उनके योगदानो को दृष्टिगत करते हुये उन्हे "कायस्थखबर-सक्रियकायस्थ" घोषित करता हूं।
बधाई हो रमन साहिबा। हमारी कामना है कि आपके द्वारा किये गये कार्य अन्य कायस्थों विशेषतया महिला कायस्थो के लिये उदाहरण बने।
यही "कायस्थखबर",
"जय चित्रांश आन्दोलन" है
एवं "कायस्थवृन्द " का लक्ष्य है।
हमे श्रीमती रमन सिन्हा जी से बहुत कुछ प्रेरणा मिलती है व हम उनसे बहुत कुछ सीखना चाहेंगे ।
श्रीमती रमन जी आपको आपके कुशल नेतृत्व की बधाइयां।
।।साधुवाद।।
आपका शुभेच्छु
यह आपातकाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की शक्ति की आहट है। यह शक्ति लोकतान्त्रिक है या नहीं, यह अलग प्रश्न है।
इंटरनेट भी क्या चीज है। सोशल मीडिया आने के पहले यदा-कदा कुछ वेबसाइट पर पाठकों के कमेंट मिला करते थे। जाहिर है वो पाठक थोड़े अध्ययनशील और शांत हुआ करते थे । उनके द्वारा उठायी गई आपत्तियों के जबाब बड़े लेखक शायद ही कभी देते ।
सोशल मीडिया ने इन पाठकों को एक स्थान दिया। वो आपस में लिखने समझने लगे। यहाँ भी वो कभी न जबाब देने वाले बड़े लेखक मौजूद थे। असल बदलाव आया जब संचार क्रांति के तहत मोबाइल और इंटरनेट गाँव-कस्बों से लेकर सुदूर क्षेत्रो तक पहुंच गए। गाँव के लल्लन के पास भी फेसबुक अकाउंट होने लगा । जाहिर है देश स्तर पर होती हर चर्चा को लेकर उसकी अपनी उत्सुकता होती। इस उत्सुकता को शांत किया विभिन्न समूहों द्वारा तैयार किये प्रचार साहित्य ने। वो प्रचार को सत्य समझने लगे। इसी तरह देशभक्त, देशद्रोही जैसे गाँवों की शब्दावली से गायब रहनेवाले शब्द नवपीढ़ी के दिलोदिमाग पर छा गए। प्रचारों के इसी परिणाम पर अब चुनाव लड़े जाने लगे। यह हथियार बन चुके हैं। जमीन पर असर दिखना भी स्वाभाविक ही है।
ऋषि मुनि कभी तपस्या करने हिमालय पर जाया करते थे। यहाँ भी हो सकती थी तपस्या पर वह शांति नहीं थी। कितने चिंतकों के भविष्य घरेलु झंझटों की वजह से बिगड़ गए। आज माहौल अलग है। अब सामाजिक, राजनैतिक श्रेणियों के चिंतक होने लगे हैं जिनको रहना इसी समाज में है। इनकी अपनी दुनिया थी जिसमे सारे इन्हीं के जैसे थे। सोशल मीडिया ने यह दुनिया विस्तृत कर दी। इस विस्तृत होती दुनिया में जब प्रचारजनित एकोन्मुखी इकाइयों का प्रवेश हुआ तब इनकी सीमित दुनिया में खलबली मचना स्वाभाविक था। इन इकाइयों की भाषा भी भदेश थी जो इनके सर्किल में नहीं चलती। इसी खलबली ने असहिष्णुता का रूप धारण किया। स्वयं में प्रतिक्रियावश जन्मी असहिष्णुता दूसरे में दिखने लगी जो वास्तव में थी पर जिनके विरुद्ध यह प्रतिक्रिया थी, उनके लिए यह सामान्य था। प्रचारतंत्र उनकी इसी सामान्य लगनेवाली असहिष्णुता का ही लाभ उठाते हैं।
यही दबाब है जो स्वतंत्र सोंच को रोकता है । कुछ बोलने से रोकता है। वास्तव में यह एक अक्षमता है जो भीड़ के समक्ष विवश है। ऐसे में आपातकाल न होते हुए भी आपातकाल प्रतीत होना स्वाभाविक है।
वास्तव में आपातकाल अब लग ही नहीं सकता, प्रतीत मात्र हो सकता है।
यह लोकतंत्र है जो निश्चित ही लोकतान्त्रिक नहीं। हो भी नहीं सकता। जिम्मेवारी से कोई अछूता नहीं। यही इसकी नियति है जिसे किसी एक सरकार पर थोपा नहीं जा सकता।
कुछ अन्य पहलुओं पर विचार फिर कभी
कांस्पीरेसी थ्योरी में यकीन नहीं।
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एनसीआर खबर डेस्क I गौतमबुद्ध नगर की नॉएडा विधानसभा की सीट पर जैसे ही कल भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह का ऐलान हुआ वैसे ही चारो और से खशी कम विरोध ज्यदा होने लगा I गौतम बुध नगर की राजनीती को थोडा सा भी समझने वाले लोगो की पहली प्रतिक्रया यही थी की आखिर पंकज ही को क्यूँ ? क्या पंकज सिंह नॉएडा के लिए इतने बेगाने हैं की लोग उनसे कनेक्ट नहीं कर पा रहे है या फिर ये सिर्फ भाजपा में राजनाथ सिंह और डा महेश शर्मा के अधिकार की लड़ाई है ? इसको समझने से पहले ज़रूरी है की नॉएडा विधान सभा सीट का एक आंकलन समझा जाए
नोएडा की लोकेशन
हिंडन और यमुना नदी के बीच बसे दोआब इलाके में बड़े संवेदनशील वोटर हैं। यहां फ्लो पॉपुलेशन रहती है। 50 पर्सेंट वोटर ऐसे हैं जो दिल्ली में काम करते हैं और नोएडा में रहते हैं। लगभग 40 पर्सेंट वोटर ऐसे हैं जो दिल्ली में रहते हैं और नोएडा में सिर्फ काम करने आते हैं। ऐसे माहौल में नोएडा के वोटरों पर दिल्ली व राष्ट्रीय राजनीति की छाप हावी है। केंद्रीय सेवाओं में काम करने वाले या रिटायर कर्मचारियों से जुड़े परिवारों की तादाद नोएडा में करीब 2 लाख है। इसी तरह सैन्य सेवाओं से जुड़े 5 हजार परिवारों के 25 से 30 हजार वोटर भी इन चुनावों में अहम भूमिका निभाएंगे। इसके एक तरफ इंदरापुरम जैसा इलाका तो दूसरी तरफ दक्षिण दिल्ली व पूर्वी दिल्ली का बॉर्डर आता है।
नॉएडा की राजनीती 
नोएडा जिले के अंतर्गत आने वाली विधानसभा संख्या 61 और सदर सीट है नोएडा। साल 2012 के आंकड़ों के मुताबिक इस विधानसभा क्षेत्र में कुल मतदाताओं की संख्या  4 लाख 28 हजार 259 है। जिसमें पुरुष मतदाताओं की संख्या 2 लाख 49 हजार 289 है। जबकि महिला मतदाताओं की संख्या 1 लाख 78 हजार 970 है। सीट पर पहली बार विधानसभा चुनाव साल 2012 में हुए। जिसमें बीजेपी के वर्तमान सांसद और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने जीत दर्ज की थी। लेकिन महेश शर्मा ने 2014 में सीट छोड़ दी। और राष्ट्रीय राजनीति में चले गए। केंद्र में उन्हें मंत्री बना दिया गया। वे यहां के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं।
नोएडा विधानसभा का जातीय गणित 
एक आंकलन के अनुसार नोएडा विधानसभा एरिया के लगभग 50 पर्सेंट वोटर शहरी, करीब 50 पर्सेंट ग्रामीणइलाके व झुग्गी एरिया में रहते हैं। इनके बावजूद यहांं 23 % ब्राह्मण, 8 %ठाकुर, 5 % वैश्य, 4 %सिख, 7 % मुस्लिम, 16 % गुर्जर, एक 1% जाट, 6 % यादव, 3 % सैनी, 3 % ईसाई, 4 % कायस्थ  व १% कुम्हार के अलावा आधा-आधा पर्सेंट नाई-धोबी, 12 पर्सेंट एससी-एसटी व 6 पर्सेंट अन्यजातियां शामिल हैं।
कौन कौन है मैदान में , क्या है गणित 
नॉएडा में मुख्य रूप से 3 दलों की लड़ाई है जिनमे भाजपा अब तक १ लाख के करीब वोट पाती रही है वही समाजवादी पार्टी से सुनील चौधरी उम्मीदवार है, सपा को पिछले दो चुनावों में ४२ हजार के करीब वोट मिले थे I वही बसपा से रविकांत मिश्रा मैदान में है I बसपा कभी भी तीसरे स्थान से आगे नहीं बढ़ी हैं लेकिन ब्राह्मण वोट अगर ब्ज्पा से बसपा जाए और ठाकुर वोट सपा  और भाजपा में बटेगा तो पंकज सिंह को भाजपा को मिलने वाले १ लाख वोट को पाना आसान नहीं रहेगा
बदले हालत से क्या होगा 
मौजूदा हालात में पंकज सिंह के लिए जीत मायने रखती है I नॉएडा में शहरी वोटर भाजपा का समर्थक है I लेकिन १ लाख ब्राह्मण वोट के लिए पंकज सिंह को डा महेश शर्मा पर निर्भर रहना पड़ेगा I २०१२ से ही डा महेश शर्मा ने नॉएडा की राजनीती में अपनी पकड़ बनाए रक्खी है ,इसलिए बिना उनके सीट पर आगे आ पाना इतना आसान नहीं होगा I पंकज सिंह की जीत से नॉएडा के नेताओं के भविष्य पर भी एक सवाल खड़ा होगा क्योंकि ब्राह्मण और ठाकुर की राजनीती में पंकज अगर इस जीत से आगे निकलेंगे तो ये बाकियों के लिए पचा पाना आसान नहीं होगा I संजय बाली , कैप्टन विकास गुप्ता जैसे चेहरों को साधाना भी पंकज सिंह के लिए एक महत्वपूर्ण घटक होगा I हालाँकि पिटा राजनाथ सिंह की मजबूत छवि का प्रभाव उन्हें इनको साधने में आसानी दे एकता है I लेकिन बेहद कम समय में नॉएडा की स्थानीय कैडर का कितना साथ पंकज को मिल पायेगा ये वक्त ही बताएगा
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गाँव  में एक अहम् पंचायत हुई, जिसमें भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ वोट करने का निर्णय लिया गया। पंचायत का आयोजन राम के आवास पर उनके ही आह्वान पर किया गया। ग्रामीणों ने श्याम  पर आरोप लगाया कि गाँव के कई मामलो में उन्होंने असामाजिक तत्वों का समर्थन किया है, उन्होंने यह भी आरोप लगाये कि बीजेपी प्रत्याशी गलत प्रवृत्ति के लोगों को भी संरक्षण प्रदान करते हैं।
हालाँकि पंचायत में इस बात पर कोई चर्चा नहीं हुई कि किस प्रत्याशी को समर्थन दिया जाये। पंचायत में राम प्रधान, छोटे  ठेकेदार, दया, सतेंद्र, भगवत, सहित दर्जनों गांववासी मौजूद रहे।
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