18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब अंग्रेज भारत में अपना पैर जमा चुके थे; भारतीय समाज एक नए प्रकार की सोच में ढलने लगा. मध्यकालीन परम्पराएँ व रीति-रिवाज अपने प्रभाव खोने लगें क्योकि वे बदलते समाज की आवश्यकता के अनुसार नही बदल रहे थे और वे समाज में जड़ बन गये. अतः उन्हें परिवर्तित कर समाज को आधुनिक मूल्यों व विचारधारा पर आधारित करने के लिए अनेक महापुरुषों ने उन सामाजिक-धार्मिक रिवाजों में सुधार का बीड़ा उठाया और धार्मिक- सामाजिक मूल्यों की सही और प्रासंगिक व्याख्या प्रस्तुत की. इस सामाजिक-धार्मिक सुधार की प्रक्रिया में जहाँ कुछ महापुरुषों ने समाज के गलत व अवैज्ञानिक परम्पराओं की आलोचना की और उनमे सुधार की आवश्यकता बताई; वही कुछ विद्वानों ने धर्म और समाज के अच्छे मूल्यों और परम्पराओं को उभारकर धर्म को प्रतिस्थापित किया. सामाजिक सुधार की इस प्रक्रिया पर ब्रिटिश शासन का भी प्रभाव पड़ा क्योकि उनके आने के बाद कुछ भारतीय लोग यूरोपीय आधुनिक संस्कृति से अवगत हुए और भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार हुआ. 19वीं शताब्दी में भारत में सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलनों की एक श्रृंखला शुरू हुई जिसका उद्देश्य भारतीय समाज को आधुनिक मूल्यों के के अनुरूप ढालना था. ये सुधार आन्दोलन औपनिवेशिक भारत में उभर रहे मध्यम वर्ग की बढ़ती सामाजिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति थे. 19वी शताब्दी तक भारतीय समाज में फैले धार्मिक व सामाजिक अंधविश्वासों, रूढियों और असमानता की प्रवृत्तियों को ब्रिटिश सरकार के आने के बाद उभरे भारतीय मध्यम वर्ग ने जो आधुनिक शिक्षा और विचारों से परिपूर्ण हो गया था; ने एक कठिन चुनौती पेश की. उसने सामाजिक व धार्मिक सरंचनाओं को समानता, स्वतंत्रता व न्याय के आधुनिक मूल्यों के अनुरूप ढालने के लिए आन्दोलनों का सहारा लेना शुरू किया.
भारतीय समाज में प्रमुख समस्या महिलाओं की समाज में दयनीय स्थिति को लेकर थी. 19वीं शताब्दी के भारतीय समाज में महिलाएं सती प्रथा, कन्या बालिका हत्या, बाल विवाह और विधवाओं के विवाह पर रोक जैसी अनेक शोषणकारी परम्पराओं और रीति-रिवाजों की शिकार थी.इसके अलावे उन्हें पर्दा प्रथा और शील रक्षा जैसी खोखली नैतिकता की परिधि में अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता था. झूठी प्रतिष्ठा और खोखली परम्पराओं की रक्षा के नाम पर भारतीय समाज में महिलाओं के ऊपर अनेक प्रकार की बंदिशे और प्रतिबन्ध लगाए गये थे और उन्हें घर की चारदीवारी के अन्दर कैद होकर रहना पड़ता था. इससे उनके जीवन के विकास की गति रुक गयी थी. अतः महिलाओं को झूठी और तर्कहीन परम्पराओं से मुक्त कर उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए 19वीं शताब्दी में अनेक समाज सुधारक आगे आए. इनमे से ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, अलीगढ आन्दोलन, सिंह सभा इत्यादि प्रमुख थे. इन संगठनों ने जहाँ एक तरफ महिलाओं के खिलाफ होने वाले अमानुषिक व्यवहारों और शोषण की प्रवृति का विरोध किया वही दूसरी तरफ इसने भारतीय समाज में फैले जातिवाद और छुआछुत के आधार पर होने वाले भेदभाव व असमानताओं के विरुद्ध भी आवाज़ उठाई और इन परम्पराओं को धार्मिक व वैज्ञानिक आधार पर गलत ठहराया. भारत में समाज और धर्म हमेशा से एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं और यहाँ की सामाजिक परम्पराएँ और रुढियों का आधार धार्मिक व्याख्या है; अतः सामाजिक परिवर्तन और सुधार के लिए यह अति आवश्यक था कि धार्मिक मूल्यों और मान्यताओं की सही व तर्कपूर्ण व्याख्या की जाये ताकि उसके आधार पर समाज में वांछित सुधार लाये जा सके. इसके लिए धार्मिक क्षेत्र में फैली अनेक बुराइयों व अंधविश्वासों यथा-मूर्ति पूजा, देवदासी प्रथा, बहुदेववाद और धार्मिक रुढ़िवावादिता का अंत कर धर्म को तर्कशील बनाना अति आवश्यक था. जब अंग्रेज भारत में आये तो उन्होंने एक वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण शिक्षा प्रणाली को देश में लागु किया ताकि उन्हें एक अंग्रेजी शिक्षित मध्यम वर्ग मिल सके जो उनकी प्रशासनिक काम-काज में सहायता कर सके. भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव यह हुआ कि कुछ इने-गिने लोग ही सही पर एक वर्ग में पश्चिमी वैज्ञानिक विचारों का प्रसार हुआ और वे अपने समाज के मान्यताओं व मूल्यों का पश्चिमी लोकतान्त्रिक परम्पराओं के साथ तुलना करने लगे. इससे उन्हें अपने समाज में फैली रुढिवादिता और खोखली परम्पराओं का ज्ञान हुआ जो मूलतः कुछ वर्गों द्वारा अन्य पिछड़ी वर्गों के शोषण पर आधारित थी और कुछ विशिष्ट वर्गों की स्वार्थपूर्ति का साधन थे. पश्चिमी लोकतान्त्रिक मूल्यों यथा- स्वतंत्रता, समानता,न्याय और बंधुता के भारत के कुछ पढ़े-लिखे वर्गों के मध्य प्रसार होने से भारतीय जनता पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा. कुछ विचारकों ने भारतीय समाज में इन मूल्यों को स्थापित करने के लिए सुधार आन्दोलनों का सहारा लिया. इन मूल्यों को भारतीय समाज में स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा उपयुक्त विधायी सहयोग की आवश्यकता थी.
ब्रिटिश सरकार भारतीय सामाजिक और धार्मिक मामलों में अनेक कारणों से हस्तक्षेप नही कर रही थी. पहला इस कारण कि वे जानबूझ कर भारतीय सामाजिक व धार्मिक मूल्यों को यथावत रखना चाहती थी; जिससे कि उन्हें अपनी संस्कृति व मूल्यों को उच्च और भारतीय संस्कृति व मूल्यों को निम्न दिखाने का मौका मिलता था और इसी के आधार पर वे भारतीयों को सभ्य बनाने के तर्क का सहारा लेकर अपनी शासन को वैधता प्रदान करते थे. इसके अतिरिक्त इसाई मिसिनरी जानबूझ कर भारतीय समाज को नीचा दिखने चाहते थे ताकि हिन्दू धर्म की बुराइयों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने और उसे शोषण पर आधारित दिखने से निम्नवर्गीय जनता को ईसाइयत की तरफ मोड़ा जा सके. अंग्रेज सरकार भारतीय सामाजिक व धार्मिक मूल्यों में इस कारण से भी कोई हस्तक्षेप और सुधार कार्यक्रम नही चला रही थी; क्योकि उसे भय था कि ऐसा करने से उसे उच्च वर्गीय रूढ़िवादी लोगों के विद्रोह व असंतोष का सामना करना पड़ सकता था. और अपने शासन के प्रारंभिक दौर में वह ऐसे किसी सामाजिक व धार्मिक प्रतिरोध का सामना नही करना चाहती थी जो उसके शासन के लिए खतरा पैदा करे. इसीलिए ब्रिटिश सरकार भारत में एक ऐसे देशी वर्ग का उदय चाहती थी; जो आगे बढ़कर समाज में फैली कुरीतियों व शोषण के खिलाफ आवाज उठा सके ताकि उनके मांग के अनुरूप सरकार सुधार की प्रक्रिया शुरू कर सके. अगर अंग्रेज सरकार खुद पहल कर सामाजिक व धार्मिक सुधार करने का प्रयास करती तो भारत के रूढ़िवादी बहुत आसानी से ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय समाज में हस्तक्षेप बताकर जनता को इसके खिलाफ गोलबंद कर सकते थे. इसीलिए न सिर्फ सरकार ने किसी भी प्रकार के सामाजिक और धार्मिक हस्तक्षेप से खुद को दुर रखी बल्कि यूरोपियन ईसाई मिशनरियों को भी भारत में धर्म प्रचार करने की अनुमति नही दी. लेकिन इसाई मिसिनरी भारत में चुपके-चुपके धर्म प्रचार करते रहे. चार्ल्स ग्रांट जैसे अंग्रेज का मानना था कि भारत में अंग्रेजों का वास्तविक वर्चस्व पश्चिम के उन श्रेष्ठतर नैतिक जीवनमूल्यों के प्रयत्न से ही संभव था, जो उसके इसाई विरासत में व्यक्त हो रहे थे. उसके अनुसार भारतीय जनता में इसाई धर्म के मूल्यों को समाहित करने से जनता द्वारा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह की संभावना काफी कम हो सकती थी, क्योकि यह मूल जनता को उसके बहुदेववादी हिन्दू धर्म से मुक्त करती और उसको उपनिवेशवाद की आत्मसाती परियोजना का अंग बनाती.(विश्वनाथन 1989 : 71-74)
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