‘तहलका’ के नूतनताकांक्षी संवाददाताओं ने दिल्ली के 23 थानों में जा कर और 30 से ज्यादा पुलिसवालों से बातचीत कर जिस सत्य से साक्षात्कार किया है, वह है तो ठोस, लेकिन काश उसमें कुछ नया भी होता। बलात्कार या यौन प्रताड़ना में स्त्री की भूमिका पर दो-चार को छोड़ कर सभी पुलिसवालों ने जो राय प्रगट की है, वह उतनी ही पुरानी है जितने कि हमारे पुराण। विश्वामित्र ने मेनका पर धावा नहीं बोला था, मेनका ने ही उन्हें अपने ऋषित्व को खंडित करने को बाध्य कर दिया था। दूसरी ओर, एक सीता भी तो थीं, जो कई महीनों तक लंका की रमणीय अशोक वाटिका में रहीं, पर महाबली रावण उनके शील का तिनका तक नहीं तोड़ सका। अगर आज पुलिसवाले भी ऐसा ही सोचते हैं तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है। वे बेचारे न तो विद्वान हैं, न विचारक और न ही सभ्यता समीक्षक। पुलिस व्यवस्था की भीतरी संरचना में वे अपनी ही इज्जत (जिसका एक अनिवार्य अंग है, स्वाभिमान) बचा लें, यही बहुत है।
दिल्ली के पुलिसवाले जो सोचते हैं, वही ज्यादातर पुरुष भी सोचते हैं। इनमें से जो जिम्मेदार पदों पर हैं, वे अपना मत सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने से भी नहीं चूकते। बलात्कारी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, इस पर पूरी सर्वसहमति है। बहुत से स्त्री-हितैषी यह सोचते हैं कि जिस पर बलात्कार का केस साबित हो जाए, उसकी पुरुषेंद्रिय को काट कर फेंक देना चाहिए। लेकिन इस पर सर्वसहमति नहीं तो बहुमत है ही कि बलात्कार की घटनाओं के लिए अकेले पुरुष ही जिम्मेदार नहीं हैं, इसमें स्त्री की भी भूमिका है। वह अपनी पोशाक, मेकअप, चालढाल, व्यवहार आदि से पुरुष को उत्तेजित क्यों करती रहती है? जो स्त्रियां अपने चाल-चलन में शील और संयम का परिचय देने में खुद असमर्थ हैं, उन्हें यह शिकायत करने का नैतिक अधिकार नहीं है कि पुरुष ने खुद पर नियंत्रण खो कर अनैतिक कार्य किया है। कानून की निगाह में, अपराधी ही नहीं, उसे अपराध करने के लिए उकसाने वाला भी सजा का हकदार होता है।
ऐसे तर्क स्त्रीवादी वर्ग को सरासर कुतर्क लगते हैं, तो यह उतना ही नैसर्गिक है जितना सूरज का पूरब से निकलता। इस वर्ग का आरोप है कि यह स्त्री की आजादी को कटघरे में खड़ा करने का व्यापक षड्यंत्र है। बलात्कार या बलात्कार की धमकी सिर्फ एक कामुक क्रिया नहीं है, यह स्त्री को उसकी परंपरागत और संकीर्ण दुनिया में वापस धकेलने की सुचिंतित रणनीति है। हर छेड़छाड़ या बलात्कार ऊंची आवाज में की गई मुनादी है: खबरदार, बाहर निकली, तो तुम्हारे साथ यही होगा। फैशन करोगी, तब भी तुम्हारे साथ यही होगा। गैर-मर्दों के साथ घूमोगी-फिरोगी, देर रात तक उनके साथ रहोगी, खुलेआम शराब या हुक्का पियोगी तब तो तुम्हारे साथ यह होगा ही। इस चेतावनी में स्त्री के लिए कहीं प्रच्छन्न संकेत यह भी है कि जब तुमने सारी आजादियों का लुत्फ उठाने का फैसला कर लिया है, तो तुम्हें पुरुष (यानी उसकी वासना) के प्रति भी उदारता से पेश आना चाहिए। मर्दों की दुनिया में जीना है, तो मर्दों को नाराज रख कर कितनी दूर जा सकती हो, बेबी? आधुनिक या उत्तर-आधुनिक जीवन शैली और परंपरागत जीवन मूल्य, ये दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते।
पुलिसवादी तर्क में कई और भी झोल हैं। इस तर्क से बलात्कार या यौन प्रताड़ना की अनेक घटनाओं की व्याख्या नहीं होती। घरेलू नौकरानियां कितनी भड़कीली पोशाक पहनती हैं? अधेड़ और बुजुर्ग औरतों में कितनी सेक्स अपील होती है? कोई कार अचानक रुकती है और सड़क पर अकेली जा रही लड़की को दबोच कर उसके भीतर खींच लिया जाता है। क्या इस कार में बैठे युवक उस लड़की की अदाओं पर लट्टू हो कर अचानक आपा खो बैठे थे? थानों में जिन औरतों के साथ छेड़छाड़, मारपीट या सीधे बलात्कार होता है, क्या वे फैशनेबल कपड़े पहने हुए होती हैं या ब्यूटी पार्लर से निकल कर सीधे थाने जाती हैं? भिखारियों और पागल महिलाओं के साथ कौन बलात्कार करता है? छोटी-छोटी बच्चियों पर, जिन्हें कामुकता का क भी नहीं मालूम, कौन हमला करता है? स्पष्ट है कि स्त्री के साथ यौन जुल्म के कई एक पहलू हैं। बिपाशा बसु या विद्या बालन के साथ बलात्कार नहीं हो सकता, लेकिन मुहल्ले की किसी नाचीज-सी औरत के सिर पर यह खतरा हमेशा मंडराता रहता है।
इन सब सीधे-साधे तथ्यों के बावजूद या उनसे अपनी संपूर्ण सहमति प्रगट करने के बाद मैं निवेदन करना चाहता हूं कि पुलिसवादी तर्क सौ फीसदी निस्सार नहीं है। वह सिर्फ हिमशिला के ऊपरी हिस्से का एक टुकड़ा भर देख पा रहा है। अगर पूरी हिमशिला का ढांचा उसकी निगाह के दायरे में आ पाता, तो वह अपनी स्थापना से खुद स्तंभित हो जाता। ज्यादा बड़ा सच यह है कि बलात्कार का निमंत्रण आकर्षक ढंग से सजी-धजी और वर्जनामुक्त जीवन शैली की ओर बढ़ रही स्त्री नहीं दे रही है, यह निमंत्रण उस संस्कृति की ओर से दिन-रात, प्रतिपल जारी किया जा रहा है जिसकी मान्यता यह है कि देह का स्थान दिल और दिमाग से ऊपर ही नहीं, बहुत ऊपर है। विज्ञापनों की आक्रामक दुनिया पर तीन-चार दिनों तक गौर करने के बाद जरा यह बताइए कि दिल और दिमाग को समृद्ध करने का जरिया बताने वाले विज्ञापन आपने कितने देखे और देह को छरहरा, सुंदर, कोमल, सम्मोहक और यहां तक कि मारक बनाने के नुस्खे बताने वाले विज्ञापन कितने देखे। दिल काला हो तो चलेगा, दिमाग के भीतर रूसी ही रूसी हो, तब भी चलेगा, पर गाल तो गोरे ही होने चाहिए, बालों को भी रेशम के धागों की तरह लहराना चाहिए और दांत तो वही दांत कहलाने के काबिल हैं जो मोती की तरह जगमगाते रहें। जब कामुकता के कारखानों में बना हुआ माल, लागत से सौगुना ज्यादा तक कीमत का टैग लगाए हुए, बेचने के लिए किसी सुंदरी या सुंदर को टीवी के परदे पर उतारा जाता है, तो मेरे मन में खूंखार विचार पैदा होने लगते हैं। किराए के ये सभी टट्टू सामान्य स्त्री-पुरुषों का, उनके घर के भीतर ही, उनकी नाक के सामने, अपमान करते हैं और अपना बैंक बैलेंस बढ़ाते हैं।
लेकिन क्या कीजिएगा। ईसा मसीह के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। कामुकता की संस्कृति का प्रसार करने के लिए इनसे विष-पुरुषों या विष-कन्याओं का काम लिया जा रहा है। इनकी अपनी जिंदगी तो मौज-मस्ती में बीतती होगी- या क्या पता, जूता कहां गड़ रहा है, यह उसे पहनने वाला ही जानता है, पर इसकी मार पड़ती है साधारण स्त्री जाति पर जो उनका अंध अनुकरण करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखना चाहती। इससे कामुकता का जो सघन वातावरण बनता है, वही पुरुष के कान में फुसफुसाता रहता है: पौरुष स्त्री की रक्षा करने में नहीं, उसे जलील करने में है।
- राजकिशोर, वरिष्ठ हिंदी विचारक
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