Tuesday, February 7, 2017

सामाजिक बहिष्कार और न्याय

सामाजिक बहिष्कार की घटनाओं को देखते हुए एक संस्था ने इस प्रथा को अपराध घोषित किए जाने और इसके खिलाफ कड़ा कानून बनाने की मांग को लेकर राज्यव्यापी अभियान शुरू कर दिया है। शहर की अंधश्रृद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष दिनेश मिश्र ने बताया,‘हमने ‘सामाजिक बहिष्कार निषेध कानून लागू करने और इस प्रथा के शिकार लोगों को न्याय दिलाना सुनिश्चित करने की मांग को लेकर राज्य के सभी 27 जिलों में धरना प्रदर्शन आयोजित करने की योजना बनाई है।’ उन्होंने बताया,‘हम अभी तक राजधानी रायपुर और बिलासपुर जिला मुख्यालयों में ऐसा कर चुके हैं जहां बहुत से लोग इसके शिकार हुए हैं या हो रहे हैं। ऐसे सभी लोगों ने इस धरना प्रदर्शन में शिरकत की।
रायपुर के रहने वाले नेत्र रोग विशेषज्ञ मिश्र पिछले दो दशक से अंधविश्वास और काला जादू जैसी इन सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने उस आंदोलन की भी शुरूआत की थी जिसकी परिणति जादू टोना उत्पीड़न (निषेध) कानून 2005 के तौर पर हुई। छत्तीसगढ़ सरकार ने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक क्षेत्र में अभिनव प्रयास करने के लिए मिश्रा को पंडित रविशंकर शुक्ल सम्मान से भी विभूषित किया है। समिति के अध्यक्ष दिनेश मिश्रा ने बताया कि संगठन ने सामाजिक बहिष्कार के मामले में अपराध पंजीबध्द करने और इसके खिलाफ कानून बनाने की मांग की है। इसके लिए धरना प्रदर्शन भी किया गया है।
मिश्रा ने बताया कि राज्य में सामाजिक और जातिगत स्तर पर सक्रिय पंचायतों द्वारा सामाजिक बहिष्कार के लगातार मामले आते रहते हैं। ग्रामीण अंचल में ऐसे मामले ज्यादा होते हैं। राज्य में ऐसे मामले आते हैं जिसमें जाति या समाज से बाहर विवाह करने, समाज के मुखिया का कहना न मामने, पंचायतों के मनमाने फरमान और फैसलों को सिर झुकाकर पालन नहीं करने पर किसी व्यक्ति या उसके पूरे परिवार को समाज व जाति से बाहर कर दिया जाता है तथा समाज में उसका हुक्का पानी बंद कर दिया जाता है। समिति सामाजिक बहिष्कार के प्रभावितों को न्याय दिलाने और बहिष्कार के विरोध में प्रभावी कानून बनाने की मांग कर रही है।
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में रहने वाले 50 वर्षीय मजदूर भगत दास बघेल की पत्नी श्यामा बाई की मौत इस वर्ष अगस्त महीने में हो गई लेकिन बघेल उसका अंतिम संस्कार गांव के मुक्तिधाम में नहीं कर सके। उन्हें पत्नी का शव अपने घर के पीछे दफनाना पड़ा। गांव वालों के मुताबिक बघेल ने 40 वर्ष पहले दूसरी जाति की महिला से प्रेमविवाह करने की ‘गलती’ की थी। इसके बाद बघेल और उसके परिवार का गांव के लोगों ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया था। छत्तीसगढ़ में यह ऐसा अकेला मामला नहीं है जिसकी वजह से एक महिला को मुक्तिधाम की मिट्टी नसीब नहीं हो पाई और उसके परिवार को उपेक्षित जीवन जीना पड़ रहा है।
राज्य में ऐसे सैकड़ों मामले हैं और ऐसे अनेक परिवार हैं जो प्रेम विवाह, टोना करने के आरोप, किसी महिला के दूसरे व्यक्ति के साथ चले जाने, अवैध शराब बेचने या समाज के खिलाफ सूचना का अधिकार का उपयोग करने के कारण सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहे हैं। मिश्रा ने बताया कि सामाजिक बहिष्कार होने से दंडित व्यक्ति और उसके परिवार से पूरे गांव और समाज में कोई भी व्यक्ति न बातचीत करता है और न ही उनसे किसी भी प्रकार का व्यवहार रखता है। बहिष्कृत परिवार को हेंडपंप से पानी लेने, तलाब में नहाने और निस्तार करने, सार्वजनिक कार्यक्रमों में शामिल होने, दुकान से सामान खरीदने और अन्य कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से वंचित कर दिया जाता है।
वहीं सामाजित पंचायतें कभी कभी सामाजिक बहिष्कार हटाने के लिए भारी जुर्माना, अनाज, शारीरिक दंड और गांव छोड़ने जैसे फरमान जारी कर देती है। इस सामाजिक बहिष्कार के कारण विभिन्न स्थानों पर आत्महत्या, हत्या, प्रताड़ना और पलायन करने की घटनाएं भी होती हैं। उन्होंने बताया कि सामाजिक बहिष्कार को लेकर अभी तक कोई सक्षम कानून नहीं बन पाया है जिसके कारण ऐसे मामलों में कोई उचित कार्रवाई नहीं हो रही है। मिश्रा ने बताया कि इस मुददे को लेकर वह राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायधीश ,छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और मुख्यमंत्री से आग्रह कर चुके हैं और विभिन्न आयोगों में पत्र भेज चुके हैं। राज्य शासन ने इस संबंध में गंभीरता पूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया है।
भागलपुर में सामाजिक अन्याय की शर्मनाक कहानी घटित हुई है। जर्जर होती जम्हूरियत पर अखिलेश अखिल का यह लेख एक बड़ा सवाल है जिसे समाधान की जरुरत है। 'बिहार फिर एक जातीय युद्ध की चपेट में 'की आशंका जता रहे हैं अखिलेश। स्वराज टीम भागलपुर की घटना पर लगातार नजर रख रही है। पढ़ें यह लेख ।
क्या अपनी  मांगो को लेकर देश के  गरीब, भूमिहीन और दलितलोग सरकार के  लोगो से नहीं मिल सकते ? क्या अपनी बेबसी की आवाज सरकार के कानो में डालना जुर्म है ?और क्या धरना प्रदर्शन करना कानून विरोधी है ? लोकतान्त्रिक देश में सरकार के हर जुर्म के विरोध में अपनी आवाज उठाने की बात हमारे संविधान में दर्ज है।  फिर भागलपुर में जिस तरह भूमिहीन दलितों को पीटा गया और दलित महिलाओ को घायल और नंगा किया गया इसे क्या कहा जाए ? सच तो यही है कि  जमीन के सवाल को लेकर निरीह भूमिहीन जनता पर जो पुलिसिया दमन भागलपुर में हुआ है, वह नीतीश कुमार के सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता को ’नंगा’ कर देता है। जिस तरह से बुजुर्ग महिलाओं और बच्चों पर लाठी चार्ज किया गया, वह साफ करता है कि नितीश सरकार जमीन के सवाल को हल करने से ज्यादा सवाल को दबाने में सक्रिय है। भूमिहीन दलितों  के आवास की गारंटी, भूमिहीनों को जो दशकों पहले परचा दिया गया था- उस पर कब्जा दिलाने की मांग तथा सरकारी व भूदान की जमीनों से दबंगों व सामंतों के कब्जे से मुक्त कराने की मांग समेत डीडी बंदोपाध्याय आयोग की सिफारिशों को लागू कराने की मांग अगर आज बिहार का दलित, महादलित कर रहा है तो नीतीश कुमार की एक दशक से अधिक समय से बिहार पर काबिज सरकार क्या कर रही थी? उन्हें अब तक कब्जे क्यों नहीं दिए गए। चोरी और सीनाजोरी  वाली कहावत भागलपुर में देखने को मिल रही है। 
         भूमहीनो और दलित महिलाओ पर हमले की बात पहले की जाए।  क्या नीतीश सरकार यह बता पायेगी कि जिन दर्जन भर से ज्यादा दलित और भूमिहीन महिलाओ को बेरहमी से पिटाई की गयी है उसका जुर्म क्या था ? या तो सरकार पहले उसका जुर्म साबित  करे या फिर जिन सरकारी तंत्र की वजह से हमारी महिलाये घायल हुयी है उन पर कड़ी कार्रवाई की जाए।  खबर के मुताविक भूमिहीन और दलित लोग कई दिनों से सरकार द्वारा वर्षो पहले मिले जमीन  के पट्टे के अनुसार जमीन पर कब्जा दिलाने की मांग कर रहे थे। लेकिन  लोग सुन नहीं रहे थे , अंत में धरना दे रहे लोगो ने भागलपुर कलेक्टर के दफ्तर में जाकर कलेक्टर से इस बाबत मिलना चाह रहे थे।  भीड़ में बड़ी संख्या में महिलाये भी थी जो कई दिनों से भूखे प्यासे ठंढ से परेशान थी।  उनके बच्चे भी साथ में ही थे।  कलेक्टर के ऑफिस में घुसने के आरोप में दलित महिलाओ की पिटाई की गयी।  यह कैसा इन्साफ है ? आखिर अपनी बात कहने आम जन किसके पास जाए ? और कलेक्टर कोई भगवान् है क्या जिससे मिलने के लिए किसी से परमिशन की जरुरत होती है? 
 राजनीतिक रूप  से देखे तो भागलपुर की यह पुलिसिया गुंडई सामंती सोच से लबरेज है।  सरकार वोट की राजनीति के तहत सरकार ने भूमिहीन दलितों को बसने -रहने के लिए जमीन के कागजात तो दे दिए लेकिन जमीं पर कब्जा नहीं दिया।  जमीन के कागज़ भूमिहीन के पास और जमीन पर कब्जा सामंतो के पास।  गजब का न्याय है भाई ! आंदोलनरत लोग वही कब्जा के लिए सरकार से गुहार लगा रहे थे।  जो फिलहाल सरकार के बुते की बात नहीं है। नीतीश की सरकार में जो लोग शामिल है और जिन जातियो की चलती है उनके पास ही अधिकतर भूमिहीनों की जमीन हड़पी गयी है।  सरकार महिला दमन के विरोध में सबसे पहले पुलिस , कलेक्टर, एसपी और एसडीओ को निलंबित करे और तत्काल जमीनों पर कब्जा दिलाये। अगर ऐसा नहीं होता है तो मान लीजिये कि नितीश की राजनीति ख़त्म होगी और बिहार में एक बार फिर जातीय-युद्ध की राजनीति शुरू होगी। 

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