Wednesday, February 22, 2017

दलित असमानता में जी रहा है, क्योंकि वह दलित है।

हमारे संविधान का चरित्र गणतांत्रिक है, बतौर सदस्य नागरिक की अवधारणा है और लक्ष्य समानता का है। समानता के अर्थ भी स्पष्ट हैं। भाषा, क्षेत्र, धर्म, लिंग और जाति के स्तर पर असमानता की स्थिति को समाप्त करना है। संविधान में इसका उल्लेख है। नागरिकों के बीच असमानता की स्थितियां किन-किन आधारों पर बनी हुई हैं? आदिवासी क्या इसीलिए असमानता की स्थिति का शिकार नहीं है, क्योंकि वह आदिवासी है? दलित असमानता में जी रहा है, क्योंकि वह दलित है।
न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की रिपोर्ट बताती है कि मुसलमान कितने पिछड़ेपन के शिकार हैं। इसकी वजह क्या उनका मुसलमान होना नहीं है? जब ब्रिटिश शासन था तब देश की ढेर सारी जातियों ने सरकार के समक्ष किस बात के लिए आवेदन दिया था? उन्होंने आवेदन कोई नौकरियों में आरक्षण के लिए नहीं दिया था। उन्हें लगता था कि अंग्रेज सरकार उनकी सामाजिक हैसियत को ऊपर कर देगी। बोरे भर आवेदनों में किसी जाति ने यह लिखा कि वे कैसे ऊंची जाति के हैं और उनके इतिहास को उनके नये दावों के आलोक में देखा जाना चाहिए।
अंग्रेज जब यहां शासन कर रहे थे, तब कोई घोषित तौर पर वर्ण आधारित व्यवस्था नहीं थी। लेकिन उस राज में धर्म और जाति की पुरानी संस्थाएं पूरी तरह से विद्यमान थीं। बड़े पैमाने पर हिंदू बताये जाने वाले दलितों ने इस्लाम, ईसाई, सिख आदि धर्मों को स्वीकार किया, क्योंकि उन्हें धर्म से ज्यादा बराबरी की हैसियत में खुद को देखना था। उन्हें नये धर्म में सामाजिक बराबरी मिलने की राह दिखी। लेकिन बराबरी की लड़ाई जब कभी होती है और किसी भी रूप में होती है तो ऊंची श्रेणियों में जमे लोग उसका विरोध करते हैं।
इस संदर्भ में भक्तिकाल से लेकर आरक्षण तक की लड़ाई या किसी भी स्तर की बराबरी के प्रयासों का अध्ययन किया जा सकता है। अलबत्ता हर काल की भाषा अलग-अलग होती है।
दरअसल, विरोध का एक ही फार्मूला होता है कि संघर्ष ने अपने तर्कों और तथ्यों से जो औजार तैयार किये हैं, उन्हें कैसे अवधारणाओं से भोथरा कर दिया जाए। जैसे लोकतंत्र पर सवाल कौन खड़े करता है? जिसे लोकतंत्र के होने का न्यूनतम अहसास भी नहीं हो पाता है। विकास पर कौन सवाल खड़े करता है? जो विकास का न्यूनतम लाभ भी नहीं उठा पाता है। विभिन्नताओं और विभेदों से भरे समाज में किसी भी तरह की अवधारणा का अर्थ सबके लिए एक समान नहीं होता। लोकतंत्र से जिसे लाभ होता है वह मौजूदा लोकतंत्र की दुहाई देता है और विकास को राष्ट्रीय निष्ठा से जोड़ देता है।
इस पृष्ठभूमि में जनगणना में जाति-गणना के विरोध का अध्ययन किया जाना चाहिए। यह संयोग नहीं है कि पिछड़ों के आरक्षण के विरोध जैसा ही इसका भी विरोध किया जा रहा है। जो आरक्षण के विरोध में रहे हैं वे कमोबेश ऐसी गणना के विरोध में भी हैं, या बदली हुई परिस्थितियों का खयाल करके कम से कम जाति गणना के पक्ष में नहीं बोल रहे हैं।
सवाल है कि जनगणना में जाति पूछने से क्या दिक्कत है। जाति यहां जन्म से ही निर्धारित हो जाती है। जाति बदली नहीं जा सकती। जाति क्या केवल संख्या-बल है? जो लोग विरोध कर रहे हैं, उन्हें लगता है कि अगर पिछड़ों की आबादी के ठोस तथ्य सामने आ जाएंगे तो उन्हें नौकरियों में जो सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है, उसे बढ़ाने की मांग उठ सकती है। पिछड़ों में एक विश्वास पैदा हो सकता है कि संसदीय व्यवस्था में वे अपने वोटों से अपने जाति-समूह की सत्ता बना लेंगे। पहली बात तो यह कि संसदीय राजनीति में जातियों की भूमिका को इस सपाट तरीके से देखना उनके विरोध को सुसंगत तर्क तैयार करने में बाधाएं खड़ी कर रहा है। जातीय व्यवस्था जनगणना के आधार पर खड़ी नहीं की गयी थी। बहुमत पर अल्पमत की सत्ता राजनीतिक सिद्धांतों की देन होती है। पूंजीपतियों की तादाद बेहद कम है, लेकिन वे पूरी दुनिया में अपना शासन चला रहे हैं।
यह कहा जाता है कि अंग्रेजों ने देश के लोगों में फूट डालो राज करो की नीति के तहत जातीय जनगणना करवायी थी। यह नहीं कहा जाता है कि देश के लोगों में फूट थी, इसीलिए यहां बाहर के शासक आये। फूट इसलिए नहीं थी कि विभिन्न तरह की जातियों के साथ समाज बरकरार था, इसलिए थी क्योंकि गैर-बराबरी थी और उसे दूर करने की कोई नीति नहीं थी। जिस समय अंग्रेज आये, उस समय जितने भी रजवाड़े थे, उनमें किस जाति या जाति-वर्ग के सदस्यों का राज था? वर्ण और जाति के आधार पर सब संगठित क्यों नहीं हो गये और गुलामी की स्थिति से खुद को बचा क्यों नहीं लिया? जाति एकता का आधार नहीं बनती है। जातियों के बीच एकता का आधार हमेशा गैरबराबरी की नीतियों को ध्वस्त करने तक होता है। तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष के बाद से अब तक जातियों के समीकरणों में आये बदलाव का अध्ययन किया जा सकता है। संवैधानिक सत्ता ने भी जातियों के समूह जैसे अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग आदि बनाये हैं, उनका एक आधार निर्धारित किया है। लेकिन उस आधार की धार जैसे-जैसे कमजोर हो रही है, समूह में जातियों के भीतर नये-नये आधार विकसित हो रहे हैं। समूह के रूप में जातियों के वर्गीकरण का विरोध भी किया जाता है।
महात्मा गांधी का मानना था कि अनुसूचित जातियों को एक पृथक इकाई का दर्जा देकर मैक्डोनाल्ड के सांप्रदायिक निर्णय ने हिंदू समाज को दो पृथक भागों में विभाजित करने का षड्यंत्र किया है; उससे निपटने का सवाल स्वराज्य के सवाल से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। बिहार और तमिलनाडु दो ऐसे प्रदेश हैं, जहां सरकारों ने मंडल आयोग की तरह पिछड़ों की एक सूची के बजाय दो सूची बनायी। इस तरह से जातियों के बीच नये-नये समीकरण तैयार करने की राजनीति और रणनीति एक निश्चित उद्देश्य के तहत चलती रहती है। पिछड़े वर्ग के रूप में जातियों की गिनती का विरोध किया जा सकता है, और इससे मेरा भी विरोध है। क्योंकि अगर उद्देश्य समानता के कार्यक्रमों के लिए जनगणना के तथ्यों को आधार बनाना है तो जाति-जनगणना जरूरी है।
हम कहते हैं कि यह बांटो और राज करो की नीति है। यह बात अंग्रेजों के समय भी कही जा रही थी और आज आजाद हिंदुस्तान की सरकार के बारे में भी कही जा रही है। अंग्रेजों ने अपने को जमाये रखने के लिए बांटा, यह माना जा सकता है। लेकिन बंटने के आधार तो पहले से मौजूद थे। दूसरी जातियां अंग्रेजों से कोई राजनीतिक मांग नहीं कर रही थीं। वे तो सामाजिक हैसियत को बढ़ाने की मांग कर रही थीं। सामाजिक हैसियत की कमान किसके हाथों में थी?
अब एक उलटी बात देखी जा रही है कि जातियां खुद को निचली कही जाने वाली जातियों में शामिल कराने के लिए संघर्ष कर रही हैं। इंदिरा गांधी ने 21 मई 1971 को राज्यों के पिछड़े वर्ग और सामाजिक कल्याण मंत्रियों के सम्मेलन में कहा था कि अधिकाधिक लोग पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल होना चाहते हैं। क्यों? तब तो आरक्षण नहीं था। जो लोग पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल होना चाहते थे, उन्हें नये समाज में बराबरी की हैसियत चाहिए थी। बराबरी के लिए उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं से खाने-पीने और रहने की व्यवस्था चाहिए थी।
इंदिरा गांधी ने पिछड़े के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं की और दलितों, आदिवासियों के आरक्षण की नीति लागू नहीं हो पा रही है, इसका उल्लेख भर करती रहीं। दरअसल, बराबरी के जितने भी रास्ते संविधान में दिखते हैं, उन्हें दबाने के कई तरीके भी निकाले जाते रहे हैं। राजनीतिक व्यवस्था का सामाजिक और आर्थिक आधार ही महत्त्वूर्ण होता है। राजनीतिक मंचों से किसी बात को बार-बार क्यों न कहा जाए, जब तक उसके लिए सामाजिक और आर्थिक आधार तैयार नहीं किये जाएंगे, बराबरी की किसी भी लड़ाई को कामयाबी की राह पर नहीं ला सकते। पिछड़ों के आरक्षण से हर पिछड़े को नौकरी नहीं मिलने वाली है। लेकिन उसने सामाजिक जड़ता को तोड़ा, वह समानतामूलक सामाजिक और राष्ट्रीय विकास के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेजों की सत्ता को दलितों का एक चेतनासंपन्न वर्ग अपने हितों के अनुकूल मानता है, क्या कारण है। कहने वाले कहते रहें कि यह तो राष्ट्र-विरोधी है।
अगर कहने वाले की राष्ट्र की अवधारणा में दलितों के लिए बराबरी की नीति नहीं है, तो इसका मतलब किसी समाज पर राष्ट्र की अवधारणा को थोपना ही होगा। आग न होने का आभास देने के लिए राख से चिंगारी को ढकने की कोशिश अवैज्ञानिक होती है। संसदीय व्यवस्था की राजनीति ने लोगों को तोड़ा है, तो उनके भीतर एक भरोसा भी पैदा हुआ है। गर्व से अपनी जाति को दर्ज करवाने का भाव पैदा हुआ है।
संसदीय व्यवस्था की वोट की राजनीति में वर्णवादी व्यवस्था की कुंठा और दमन की स्थिति खत्म होती दिख रही है। जाति-व्यवस्था को जो लोग बुरा मानते हैं उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि जाति-व्यवस्था नये संवैधानिक ढांचे के तर्कों से टूटेगी, क्योंकि इसी में इसकी गुंजाइश है।
अगर संविधान भी चाहिए और पुरानी संस्थाएं भी सक्रिय रहें तो यह संभव नहीं हो सकता। लोगों को पता होगा कि संसदीय व्यवस्था में किन जातियों की कितनी तादाद है तो सत्ता को अपने समाजवादी लक्ष्यों की प्रक्रिया को फिर से निर्धारित करना होगा। सबसे कम तादाद वाली पिछड़ी जाति को पहली प्राथमिकता देनी होगी। दूसरे, जाति का बोध टूटेगा।
वर्णवादी जातीय बोध को तोड़ने का नारा देने का काम भी राजनीति ही करती रही है। लेकिन नारे से ज्यादा जातियों के सदस्यों ने अपने-अपने अनुभवों के आधार पर बेटी और रोटी के नये रिश्तों के साथ जाति-बोध को तोड़ा है। आज पहले की तुलना में कहीं अधिक युवा अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक विवाह कर रहे हैं और करना चाहते हैं। उन्हें उनके माता पिता या जाति और धर्म की पुरानी संस्थाएं रोक देती हैं। समाज ही अपने अनुभवों से जाति को तोड़ेगा। उसकी गणना को दबाने से वह नहीं टूटेगी।

No comments:

Post a Comment