जो कुछ हो रहा है, भयावह है। लग रहा है जैसे सती-युग लौट आया है। चैनल खबर चला रहे हैं- संसद सदमे में। सदमे में तो हम हैं। स्त्री अब क्या करेगी, कैसे जिएगी, कैसे अपना मुंह सबको दिखाएगी- ये कैसे सवाल हैं? लोग रो रहे हैं, दुखी हैं, और कह रहे हैं अब तन ढकने से क्या, बेचारी का जो था सो तो सब लुट गया। इज्जत सरेआम रौंद डाली गई। अब तो बेचारी तिल-तिल कर घुट-घुट कर मरेगी। यह सब क्या है। यह कैसी सहानुभूति है, जो बलात्कार का शिकार हुई स्त्री को स्वाभाविक जीवन जीता देखना गवारा नही करती।
संसद में बैठी शक्तिशाली स्त्रियां नहीं जानतीं कि रोजाना सार्वजनिक वाहनों में सफर करना महिला के लिए कैसा अनुभव होता है? वे नही जानतीं कि सड़क पर चलना क्या होता है। एक सामान्य पुरुष साथी की तरह खुली हवा में सांस लेने, कभी-कभार फिल्म-पिकनिक की मौज-मस्ती के लिए स्त्री को मानसिक रूप से कितना तैयार होना पड़ता है। चाहे वे जया बच्चन हों, गिरिजा व्यास, सुषमा स्वराज या सोनिया गांधी-अपनी पहचान छोड़ कर सामान्य स्त्री का जीवन एक दिन के लिए जीकर देखें तो शायद इस संसद-रुदन की जरूरत न पड़े।
शक्तिमान महिलाओं को विलाप करते देखना अजीब लगता है। जिनके पास सत्ता की ताकत है, कानून बनाने और उसे क्रियान्वित करने की क्षमता है, जिन्हें अपनी इस जिम्मेदारी को कब का पूरा कर देना चाहिए था उनकी आंखों में सिर्फ आंसू आ रहे हैं, वे सिर्फ मार्मिक भाषण दे रही हैं, वे नम आंखों से निहार रही हैं, वे आक्रोश प्रदर्शित कर रही हैं। अरे ये सारे काम तो संसद से बाहर बैठी महिलाएं भी कर रही हैं, फिर संसद की क्या जिम्मेदारी है?
इस अपराध पर त्वरित कार्रवाई करवाने में सक्षम लोग कार्रवाई करवाने की जगह आंसू बहा रहे हैं, संवेदनशील भाषण कर रहे हैं। कमाल है- संसद रो रही है, संसद सदमे में जा रही है। आपको याद होगा, हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री के कार्यकाल में तो इस लुटी इज्जत के लिए बाकायदा ‘बलात्कार बीमा योजना’ तक लाने पर चर्चा हुई थी। महिला संगठनों और बुद्धिजीवियों की कड़ी आलोचना के बाद उस शर्मनाक प्रस्ताव को वापस ले लिया गया।
इस कांड पर गमगीन सिर्फ महिलाओं को दिखाया गया। तमाम चैनल महिला सांसदों के आंसू और भाषण दिखाते रहे। ज्यादातर पुरुष सांसद इस घटना पर मौन थे या चैनलों ने उन्हें दिखाना जरूरी नहीं समझा। यह भी अजीब है। महिला के साथ अपराध हो तो उस पर महिलाओं का ही नजरिया दिखाया जाएगा। क्यों भाई, पुरुषों का क्यों नहीं? क्या यह एक सामाजिक अपराध नहीं है? क्या इससे पुरुष प्रभावित नहीं होता? क्या ऐसे समाज में पुरुष निश्चिंत होकर सो सकता है?
क्या बलात्कार के लिए फांसी देने से बलात्कार रुक जाएगा, जैसी कि लगातार मांग बनाई जा रही है? बलात्कारी के शिश्नोच्छेद की मांग हो रही है। ऐसी मांग का क्या अर्थ है? फांसी दो-फांसी दो के उन्माद में कोई बुनियादी सवाल सुनने तक को तैयार नहीं है। फांसी की भूखी भीड़ को कुछ लाशें चाहिए ही चाहिए जिससे उसकी क्षुधा कुछ देर को शांत हो। फिर उन्माद का कोई और मुद््दा आ जाएगा। क्या मृत्युदंड से इन घटनाओं को काबू किया जा सकता है?
बलात्कारी मानता है कि शील भंग के बाद पीड़िता किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं बची, उसकी ‘इज्जत’ लुट गई, वह बरबाद हो गई, अब तो उसका जीना मरने से भी बदतर है। इन्हीं मूल्यों के कारण पुरुष बदला लेने के लिए भी बलात्कार को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बलात्कारी को मृत्युदंड या शिश्नोच्छेद की मांग करने वालों के भी मूल्य यही हैं कि अब स्त्री के पास बचा ही क्या। शील गया तो सब गया। शर्म, हया, लाज। इज्जत, शील, चरित्र। ये सब वर्जिन वर्जाइना के पर्याय बना दिए गए हैं। अब लड़की कैसे सिर उठा कर जिएगी। सुषमा स्वराज के रुदन में कहें तो अब उसका जीना-मरना एक समान है।
यह हमारे समाज का सोच है कि अगर पीड़ित स्त्री बलात्कार के दंश से उबरना भी चाहे तो हम वैसा नहीं होने देंगे। बलात्कार तो शरीर पर गहरी चोट है जो देर-सबेर भर जानी है। पर मन की कभी न भरने वाली चोट कौन देता है? कौन इस जख्म को लगातार कुरेद कर नासूर बनाने के लिए जिम्मेदार है। यह कैसा समाज है, जो बलात्कारी के ही दृष्टिकोण से सोचता है। बलात्कारी मानता है उसने स्त्री का ‘सब कुछ’ लूट लिया और समाज भी यही मानता है कि स्त्री का सब कुछ लुट गया। और ‘लुटी हुई इज्जत’ कभी वापस नहीं आ सकती। जिसके लिए स्त्री बस एक यौन अंग है जिसके अवैध (बिना शादी) इस्तेमाल से वह अंग सड़ जाता है, हमेशा के लिए अपवित्र हो जाता है। उस समाज में पुन: प्रवेश के अयोग्य हो जाता है।
क्या यह यों ही है कि इसी सोच से खाप पंचायतें संचालित होती हैं, जहां अपनी मर्जी से शादी करने वाले जोड़ों को खापपंचायतों के समर्थन से काट कर फेंक दिया गया। आॅनर किलिंग के अनगिनत मामले हमारे सामने हैं। लड़की की इसी इज्जत के ‘अपवित्र’ हो जाने पर सामंती परिवार लड़कियों को मार डालते हैं और इस ‘इज्जत को खराब’ करने वाले को भी।
तब क्या बलात्कार के अपराध को कुछ कम करके देखना चाहिए? नहीं! यह जघन्य है और हमें इसे संपूर्णता में देखना होगा। स्त्री की इच्छा के बिना उसका जीवन साथी भी संबंध बनाए तो कानूनन यह भी अपराध है। पति द्वारा किया गया बलात्कार भी आपराधिक दायरे में है। स्त्री हो या पुरुष, अपने शरीर पर पहला अधिकार आपका ही होना चाहिए। बंद कमरों में बच्चों और बच्चियों के साथ घर के ही जाने-पहचाने लोगों द्वारा किए गए दुराचार, कार्य-स्थलों पर स्त्रियों के साथ दुराचार, सार्वजनिक वाहनों में और सड़कों पर राह चलती लड़कियों पर रोजाना होती छींटाकशी और अभद्रताएं भी इसी जघन्य अपराध की सैकड़ों कड़ियां हैं। यह हमारा समाज है जिससे हमें लड़ना भी है और इसे बेहतर भी बनाना है।
भारत में ही कई ऐसे समाज हैं जहां बलात्कार नहीं होते, बच्चियों की भ्रूण हत्याएं नहीं होती, जहां अपराध की दर तथाकथित सभ्य माने जाने वाले समाज की तुलना में न के बराबर है। आप तिब्बती समाज, आदिवासी समाज, मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के राज्यों को देखिए और इसी के बरक्स दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा के समाजों के अपराध देखिए। अपराध न हो इसके लिए बेहतर मूल्यों वाला समाज भी रचना होगा, जहां हर जगह महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इस समय जहां इस गंभीर मुद््दे पर समग्र नजरिए से बहस की जरूरत है, इस पर सारे विचार, सारी बहसों को बस फांसी दो-फांसी दो तक लाकर उन्मादी बना दिया गया है। राजनेताओं के लिए भी यह मांग करना और इसे लागू करना-कराना सुविधाजनक है। जहां सदन में कई जनप्रतिनिधि अपने मोबाइल पर नंगी तस्वीरें देखते पकडेÞ जाएं, वहां समाज को बदलने की बात कौन करना चाहता है?
मीडिया का जब से कॉरपोरेटीकरण हुआ है, अद््भुत खेल देखने को मिल रहे हैं। खेलों तक में यौन आकांक्षाएं पूरी करने को ‘हॉट गर्ल’, ‘ग्लैमर गुड़िया’ ढूंढ़ने का अभियान मीडिया चला रहा है, सिर्फ खेल देखना हो तो खेल लड़कियां दिखा ही रही हैं। बड़े लोगों का मन विश्व सुंदरियों से नहीं भरा तो अब खेलों में भी सुंदरी खोज रहे हैं। इसमें प्रिंट और दृश्य, दोनों मीडिया शामिल हैं। यही चैनल वाले रात-रात भर पॉवरप्राश, शक्तिप्राश और यौन-शक्तिवर्धक दवाओं के अश्लील विज्ञापन दिखाते हैं, फिर दिन भर बलात्कारियों को फांसी पर एसएमएस मंगवा कर ऊंची कमाई करते हैं। रात में प्रचार से कमाई और दिन में उसके विरोध से कमाई!
वियाग्रा जैसी दवा क्या स्वस्थ समाज की जरूरत है? मर्दानगी की सारी अवधारणाएं किस समाज की हैं? पॉवरप्राश जैसे विज्ञापनों में एक लड़का कई-कई लड़कियों के साथ बाकायदा हमबिस्तर दिखाया जाता है, परफ्यूम के विज्ञापनों में मर्दानगी का पागलपन दिखाया जाता है। लगभग हर विज्ञापन में स्त्री को देह, उपयोग और उपभोग की चीज बना कर परोसा जाता है, हर चैनल पर हिंसा और अपराध की कथाएं मनोरंजक बना कर चटखारे लेकर परोसी जाती हैं, जिनमें अपराध का न तो विश्लेषण किया जाता है और न उसे गंभीर समाजशास्त्रीय नजरिए से प्रस्तुत किया जाता है। सभी चैनल मनोहर कहानियां का विजुअल संस्करण बन गए हैं। दिन-रात चैनलों पर हिंसा, हत्या ,बलात्कार देख कर जाहिर है एक हिंसक, मानसिक रूप से विकृत और कुंठित समाज ही बनेगा।
बहुत संकट की स्थिति है। ‘यौनांगों की पवित्रता’ हमारे समाज की बीमारी है। स्त्री के साथ यौन शुचिता का मूल्यबोध जोड़ा गया है, वह खंडित होता है। अब चूंकि शुचिता तो वापस आ नहीं सकती, शुचिता के आईने की किरचें बिखर जाती हैं, जो किसी हाल में नहीं जुड़ सकतीं। इसलिए तूफान आ जाता है। अपराध को अपराध की तरह ही देखा जाना चाहिए वरना अपराध के लज्जा, अपमान, आत्महत्या तक होते हुए समाज न जाने कहां पहुंचेगा।
ये घातक स्थितियां हैं और इन्हें हमारा समाज ही निर्मित करता है। स्त्री की यौन-शुचिता को लेकर समाज इतना दुराग्रही है कि उससे आजाद होना बहुत मुश्किल दिखता है। बलात्कारी को तो फांसी दे देंगे लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि अब बेचारी लड़की कैसे जिएगी, क्या करेगी, उसका जीवन तबाह हो गया, उनके इस सोच को फांसी कैसे देंगे? स्त्री बलात्कार के बाद जीना भी चाहे तो इस मानसिकता की वजह से उसकी पढ़ाई-लिखाई, उसका व्यवहार सब परे हटाकर समाज उसे एक यौन-अंग में तब्दील कर देखेगा कि इसका सब कुछ छिन गया। अब इसके पास बचाने को क्या है?
जहां इस बात पर बहस चलती हो कि लड़की कैसे कपडेÞ पहनती है, किस समय बाहर जाती है, लड़कों से दोस्ती रखती है, जोर-जोर से हंसती है, वहां सामान्य इंसान के रूप में स्त्री को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। इस कुंठित मनोवृत्ति को फांसी दें! स्त्री को मेहरबानी कर जीने दें, उसे खुली हवा में सांस लेने दें, उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें। उसे बलात्कार पीड़िता की पहचान में न बदलें!
- संध्या नवोदिता
(जनसत्ता से साभार)
(जनसत्ता से साभार)
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