आप मीडिया से लगातार जुड़े रहे हैं. मीडिया में दलितों को लेकर जो एक भेदभाव है. उसे आप कैसे देखते हैं?
- मैं आपसे पहले भी कह चुका हूं कि यह पूरा मामला स्ट्रक्चर का है. बहुत सारे लोग कहते हैं कि दलित मीडिया खड़ा हो. लेकिन ये हो नहीं पाया है. (मैं बीच में टोकता हूं)
तो क्या दलित मीडिया खड़ा होना चाहिए. आप इसके पक्ष में हैं?या फिर इसी सिस्टम में दलितों को जगह मिलनी चाहिए?
मैं इतने सपाट तरीके से चीजों को देखता नहीं हूं. मान लिजिए की अगर दलित मीडिया है तो वो फिर दलित मीडिया हो गया. हम कह रहे हैं कि एक मीडिया ऐसा हो जो समाज की गैरबराबरी को दिखाए. दलित मीडिया का क्या मतलब हुआ, केवल दलितों की बात करने वाला. तो मान लिजिए की ऐसा कोई मीडिया खड़ा हो भी गया तो मुझे नहीं लगता कि वो ज्यादा कामयाब होगा. हां, दलित समाज के भीतर एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन पूरे समाज को एडजस्ट करने के लिए वो काम नहीं करेगा. तो मैं ये मानता हूं कि केवल दलित मीडिया से काम नहीं चलेगा. क्योंकि पूरे समाज को संबोधित करने के लिए, उसकी वस्तुस्थिति जाहिर करने के लिए उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
जैसे यूपी में इन दिनों एक भाषा इस्तेमाल की जा रही है. दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न. आप इसकी बारीकी को समझिए कि कैसे वो दलित के उत्पीड़न के लिए दलित को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है. आप इसको सोचिए. मायावती दलित नहीं भी हैं और हैं भी. वह सरकार की मुख्यमंत्री हैं. प्रदेश चला रही हैं तो वो पूरे समाज की हैं. लेकिन आप उनको संबोधित कर रहे हैं केवल दलित. और खासतौर पर वहां कर रहे हैं जहां दलित उत्पीड़न की शिकायत है. तो आप क्या कर रहे हैं कि आप वहां सरकार को बचा रहे हैं. सरकार के ढ़ांचे को बचा रहे हैं और दलित को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यानि की उनका दलित होना इस विफलता का परिचायक है. बहुत सूक्ष्म तरीके से ऐसी सांस्कृतिक लड़ाई होती है. बड़ी बारीक लड़ाई है. और अगर हम इस बारीकी को समझने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं तो हम क्या करते हैं कि जो भी चीजें (नारा) आती हैं, हम उसमें बह जाते हैं. तो मुझे लगता है कि हमें उस बहने वाली स्थिति से निकलना होगा.
मीडिया में तमाम बड़े नाम हुए हैं. जैसे प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, एसपी सिंह. उन्हें काफी अच्छा माना जाता है. उनके जमाने में क्या दलित मुद्दों को जगह मिल पाती थी. उन्होंने इस ओर ध्यान दिया था.
- नहीं, कोई ध्यान नहीं दिया था. इन लोगों का कभी भी इससे कंसर्न विषय नहीं रहा. मैं मानता हूं कि भारतीय मीडिया में अभी तक कोई भी ऐसा मीडिया लीडर नहीं निकला है जो इस सवाल को बहुत गंभीरता से लेता हो. मीडिया मे दलितों के खिलाफ खबरों के आने का जो ट्रेंड है, वो जो शुरू में था वही अब है. दलितों के बारे में जो खबर आती है वो तब आती है जब दलित उत्पीड़न की बड़ी घटना हो जाती है. वह इसलिए आती है क्योंकि आप उसे इग्नोर नहीं कर सकते हैं. मैं नहीं समझता हूं कि किसी ने बहुत सचेत होकर कोई कोशिश की है कि मीडिया में जो दलितों के खिलाफ या तमाम तरह की गैरबराबरी के खिलाफ खबरों को ज्यादा से ज्यादा जगह मिल पाए. और इस गैरबराबरी से निकलने की अवस्था बने. ऐसा भी नहीं है कि दलित समाज के जिन बच्चों की पत्रकारिता में रुचि है और जो इसमें आना चाहते हों, इनलोगों ने उनकी मदद की हो.
संविधान में हमें आरक्षण का लाभ मिला है लेकिन कई जगहों पर यह नहीं दिया जाता. जैसे आपने ही एक आरटीआई डाली थी, जिसमें निकल कर आया था कि लोकसभा चैनल में दलित नहीं हैं. जबकि वो भी सरकारी चैनल है. क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं है?
- बिल्कुल है. जब से यह चैनल शुरू हुआ उसके पहले ही यह नियम बन गया कि हम कन्सलटेंट के रूप मे किसी को भी भर्ती कर सकते हैं. उसमें आरक्षण का कोई लेना-देना नहीं है. अब उन्होंने एक रास्ता निकाला कि आरक्षण के सिद्धांत को कैसे दरकिनार कर दें. तो इसके लिए एक अलग रास्ता निकाला गया. लोकसभा में देश का सारा कानून बनता है. यहीं यह नियम बना कि दलितों के लिए नौकरियों में शिक्षा में आरक्षण होगा और उसी के संस्थान में आरक्षण लागू नहीं है. संपादकीय के 107 लोगों के ढ़ांचे में मेरी जानकारी में एक भी लोग नहीं हैं. और अगर वो यह सोचते हैं कि बिना आरक्षण लागू किए इस व्यवस्था में कोई आदिवासी आ जाएगा, कोई दलित आ जाएगा तो यह ऐसे ही हैं, जैसे कोई यह कहता है कि बिना आरक्षण के कोई लोकसभा में पहुंच जाएगा. इतने सालों बाद भी इसके बारे में नहीं सोचा जा सकता. आप सोचिए कि इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. ठीक इसी तरह मैने प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल उठाया था. वहां पूरी वर्ण व्यवस्था को प्रदर्शित करने वाली तस्वीरें लगी हैं. कि किसको ब्राह्मण कहते हैं, किसको क्षत्रिय कहते हैं, किसको वैश्व और किसको शूद्र कहते हैं. हमने इस बारे में आरटीआई डाला, संसद में सवाल करवाया लेकिन यह जवाब नहीं आया कि वो क्यो?
यह 1932 से लगी है. जब से अंग्रेज थे तब से. उस आफिस में हर दल के लोग जाते हैं. कई दलों की सरकार रह चुकी है. उसमें तमाम दलित लोग रह चुके हैं. मुझे हैरानी होती है कि किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाया. आपने खुद को एकोमोडेट करने की जो मानसिकता बना रखी है इसमें यही होगा. ऐसे में आप रिलेक्स हो जाते हैं. जो अकोमोडेट हो जाते हैं उनको फिर समाज में परिवर्तन की लड़ाई से कोई मतलब नहीं रहता.
आज जो लोकसभा की स्पीकर हैं वो दलित परिवार से आती हैं. बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं लेकिन उनके राज में भी यह व्यवस्था चलती जा रही है. मेरा यह मानना है कि अगर स्ट्रक्चर में आप केवल अपनी जगह बनाएंगे और स्ट्रक्चर गैरबराबरी का है. तो आप मान कर चलिए कि गैरबराबरी किसी ना किसी रूप में बनी रहेगी. उसका रूप बदल जाएगा.
यही चीजें शिक्षण संस्थाओं में भी देखने को आ रही हैं. पिछले दिनों मे तमाम आरटीआई में यह निकल कर आया है कि दलितों और पिछड़ों के लिए निर्धारित सीटों को भरने में तमाम तरह की धांधली हो रही है?
- मैं तो कह रहा हूं कि आपके हाथ से आरक्षण जा रहा है. अब जो राजनीतिक नेतृत्व तैयार किया गया है वो आरक्षण के मुद्दे को उठाकर जोखिम लेने की स्थिति मे नहीं है. आप सोचिए ना कि आरक्षण को लागू हुए देश में कितने साल हो गए. मैने तो आरटीआई के माध्यम से कई जानकारियां निकाली थीं. इसमें सामने आया था कि भारत सरकार में एक भी सेक्रेट्री दलित नहीं था. ग्रुप‘ए’के अधिकारी भी रेयर ही थे. शिक्षण संस्थाओं मे भी यही हाल है. एम्स में भी लड़ाई लड़ी गई है. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि आरक्षण की स्थिति को खत्म करने के जो प्रयास हो रहे हैं वो दलित और पिछड़े के नेतृत्व में किया जा रहा है. यह ज्यादा खतरनाक बात है.
आप पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाते रहे हैं, वहां के अनुभवों को बताइए?
- आईआईएमसी के हिंदी विभाग में 3 साल तक पढ़ाया. 2-3 साल दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा. वर्धा में कई वर्षों से जाता रहा हूं. फिर वहां प्रोफेसर के रूप मे नियुक्त भी हुआ था. अब भी कई संस्थानों से जुड़ा हूं. लेकिन पढ़ाने के बीच में दुविधा की स्थिति भी होती है कि हम छात्रों को किसके लिए तैयार कर रहे हैं? क्या हम मीडिया आर्गनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार कर रह हैं, या फिर समाज के लिए पत्रकार तैयार कर रहे हैं. आखिर हम मीडिया आर्गेनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार क्यों करें? यह दुविधा है.
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहने के दौरान वहां के कुलपति वीएन राय से आपका विवाद काफी सुर्खियों मे रहा था. विवाद की वजह क्या थी. क्या अब वो सारा विवाद खत्म हो गया?
- व्यक्तिगत विवाद नहीं था. हर संस्थान का लीडर चाहता है कि संस्थान उसके मुताबिक चले. कोई आजादी देता है, कोई नहीं देता. झगड़ा यहीं होता है. वर्धा में जो कुलपति हैं, वो पुलिस बैकग्राउंड के हैं. उनका जीवन आदेश देने-लेने में गुजरा है. मेरा जीवन स्वतंत्र रहा है. तो मूलतः यही अंतरविरोध था. फिर धीरे-धीरे विवाद का विषय बनता चला गया. उन्होंने ही आमंत्रित किया था. अप्वाइंट किया था. इंटरव्यूह के वक्त ही मैने साफ कहा था कि मैं दिल्ली छोड़कर आ रहा हूं तो मेरी एक योजना है. मैने उसे सामने रखा था. लेकिन जब उसे लागू करने लगा तो दिक्कत आने लगी. फिर ईसी (एक्जीक्यूटिव काउंसिल) ने फैसला किया कि मुझे हटाना है. एकतरफा फैसला था. फिलहाल नागपुर हाई कोर्ट में केस चल रहा है.
लोकसभा में दलित-आदिवासी समुदाय से 120 सांसद हैं. लेकिन मिर्चपुर जैसा बड़ा कांड होने के बावजूद संसद में वह प्रमुखता से नहीं उठ पाया. इसकी क्या वजह है?
- संसद ही क्यों, जितना शोर-शराबा संसद के बाहर होना चाहिए था, वहां भी नहीं हो पाया. इस पर अध्ययन होना चाहिए कि मिर्चपुर जैसे बड़े कांड के बावजूद भी आंदोलन की शक्लक्यों नहीं बन पाई. इस घटना के बाद पूरा सरकारी तंत्र जागरूक हो गया था. भावी प्रधानमंत्री कहा जाने वाला शख्स भी वहां पहुंच गया था. मुआवजे की घोषणा हुई. अधिकारी गिरफ्तार किए गए. मेरा सवाल है कि क्या आंदोलन इसी तरह की मांगों के लिए होते हैं? आंदोलन का उद्देश्य क्या बस ऐसी मांगों को पूरा करवाना होता है? या फिर आंदोलन का उद्देश्य इस तरह की घटनाओं को रोकना होता है. तो आंदोलन का उद्देश्य उस उद्देश्य तक नहीं पहुंचा है, जहां इसे पहुंचना चाहिए था.
दलित समाज का बड़ा हिस्सा सत्ता में है. लाखों लोग अच्छी नौकरी में है. सबकुछ है लेकिन आप एक बड़ा आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर पा रहे हैं. खैरलांजी, मोहाना, दुलीना जैसे आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर सके. दलित उत्पीड़न विरोधी जो राजनीतिक धारा है, उस पूरी धारा का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए.
क्या आप दलित आंदोलन के वर्तमान रुख और तेजी से संतुष्ट हैं?
- बिल्कुल नहीं हूं. संतुष्ट तब होते, जब सब ठीक होता, दुरुस्त होता. आंदोलन का विस्तार होता रहता है. अभी जड़ता की स्थिति है. अगर इसे तोड़ा नहीं गया तो लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी.
वर्तमान में दलित आंदोलन में किन नई बातों को शामिल किए जाने की और पुरानी बातों को छोड़ने की जरूरत है?
- आंदोलन में जो एक बात दिखाई दे रही है कि यह शहरी हिस्से, मध्यवर्ग और शिक्षित लोगों तक ही सिमटती जा रही है. यह बड़ा खतरा है. हम कभी यह नहीं सुनते कि जो आरक्षण नहीं मिलने की शिकायत करते हैं वो देश के खेत मजदूरों की भी बात करते हैं. खेत मजदूरों की सर्वाधिक आबादी दलितों की ही है. आंकड़ें उपलब्ध है कि 20 रुपये रोज पर 76 फीसदी लोग गुजारा करते हैं, आप उनमें दलितों की संख्या का अंदाजा लगा लिजिए. इसके मुकाबले इनकी चिंता कितनी होती है, उसे साफ तौर पर देख सकते हैं. आंदोलन की भाषा को सबसे पहले चेक करने की जरूरत है. आरक्षण समाज को मिलता है, व्यक्ति को नहीं. आरक्षण के जरिए व्यक्ति सरकारी संस्थाओं में समाज का प्रतिनिधित्व करता है. जब तक वह इस स्थिति को महसूस नहीं करेगा कि वह अकेला व्यक्ति नहीं बल्कि अपने समाज का प्रतिनिधि है, वह अपने आप को जिम्मेदार नहीं बना सकता है.
उत्तर प्रदेश के अलावा और कहीं सशक्त नेतृत्व उभर कर क्यों नहीं आ पाया?
- उत्तर प्रदेश में जो आंदोलन की स्थिति बनी है, उसमें कांशी राम जी का आंदोलन लंबे समय तक चला. उसी की वजह से दलित चेतना जागी. कांशी राम जी का आंदोलन पूरे प्रदेश में दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करता था. यूपी ब्राह्मणवाद का केंद्र रहा है. लोगों की चेतना में यह लंबे समय से था. इसमें इतनी आक्रमकता थी कि‘इनको मारो जूते चार’की बात कही गई. कांशीराम जी ने इस बात को समझा की जब तक इस आवाज में अभिव्यक्त नहीं करेंगे, गुस्से को उभार नहीं पाएंगे. कांशी राम ने लोगों की सोच के साथ तालमेल बैठा लिया. इसलिए यूपी में सफलता मिली. यह बिहार में नहीं मिलती. पंजाब में नहीं मिल सकती थी, जहां के कांशीराम खुद थे.
मायावती, रामविलास पासवान, प्रकाश आंबेडकर, उदित राज और रामदास अठावले जैसे प्रमुख दलित नेताओं की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? इनका भविष्य क्या है?
- ये सारे लोग सत्ता से जुड़े लोग हैं. अब अगर आप मायावती से आंदोलन करने की उम्मीद करेंगे तो यह मुश्किल है. कांशी राम ने कभी भी मुख्यमंत्री बनने की नहीं सोची. आप (मेरी ओर इशारा करते हुए) जिन तमाम लोगों के नाम ले रहे हैं, उन्हें सत्ता सुख मिल गया है. ये आंदोलन नहीं कर सकते. हां, यह सत्ता के अंतरविरोधों को उभार कर जातीय गठबंधन के अनुरूप सत्ता में जगह बना लेंगे. ये कोई बदलाव, कोई आंदोलन नहीं कर सकते.
दलित-आदिवासी हित के लिए तमाम एनजीओ काम कर रहे हैं. क्या आप उनकी कार्यप्रणाली को ठीक मानते हैं, क्या वो ईमानदार हैं?
- हमेशा विकल्प का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया जाना चाहिए. तात्कालिक हित और दूरगामी हित के बीच के फर्क को समझना चाहिए. जो एनजीओ हैं, वो राजनीतिक तौर पर बुनियादी परिवर्तन का हथियार नहीं हो सकता है. इसलिए किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ के काम से यह दिखता तो है कि वह आपके हित की बात कर रहा है, लेकिनउससे कोई बुनियादी फर्क नहीं आ पाता है. जैसे वह शिक्षा की बात तो करेगा लेकिन जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के कारण से शिक्षा नहीं मिल पा रही है, उसकी बात नहीं करेगा. तो जो एनजीओ काम कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने बहुत उल्लेखनीय काम कर दिया है. या फिर जो दलितों के ऐसे आंदोलन को मजबूत कर रहा हो जो बुनियादी ढ़ांचे को तोड़ने की बात करता है.
अगर आपको दलितों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा सुधारने की छूट दी जाए तो आप क्या करेंगे?
- मुझे काम करने की छूट मिली हुई है. जो कारण मेरी समझ में आता है उसे लोगों के सामने रखता हूं. और भी बहुत सारी चीजें जो उनपर थोपी गई है, उसे सामने लाता हूं.
चंद्रभान प्रसाद, प्रो. तुलसी राम, डा. विवेक कुमार और श्योराज सिंह बेचैन जैसे तमाम दलित चिंतक, लेखक और विचारक दलितों की आवाज को हर मोर्चे पर उठाते रहते हैं. इनके विचारों से आप कितने सहमत हैं?
- सबके अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना नजरिया है. सब महत्वपूर्ण लोग हैं और सबका योगदान हैं. बराबरी के चिंतन और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ाई को इन तमाम लोगों के विचारों ने नया आयाम दिया है.
आप दलित हित की बात करते हैं, आप बाबा साहेब को कैसे देखते हैं?
- उनके विचारो से मेरी बिल्कुल सहमति हैं. दरअसल बाबा साहेब की जो पूरी चिंतन प्रणाली है, उसकी तमाम लोग अपने तरीके से व्याख्या करते हैं. जैसे बाबा साहब कहते हैं किशिक्षित बनों, संगठित बनों, संघर्ष करो. हर कोई यह नारा लगाता है. मैं इसमें बाबा साहब की एक बात जोड़ता हूं कि बाबा साहेब जैसे ही यह कहते हैं कि मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, तो उनका यह कथन, पहले वाले कथन के मायने बदल देता है. उनके लिए शिक्षित होने का मतलब खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए शिक्षित होना नहीं है. या फिर बस स्कूली शिक्षा भर नहीं है. शिक्षा का मतलब यहां बदल जाता है.
जैसे मेरे एक मित्र हैं- अनंत तिलतुमरे. बाबा साहेब के परिवार के हैं. जिस तरह से वो बाबा साहेब के विचारों को प्रस्तुत करते हैं, आप बाबा साहेब के विचारों के अलावा किसी और के विचारों से सहमत नहीं हो सकते. तो महत्वपूर्ण यह है कि आप उन्हें कैसे प्रस्तुत करते हैं. मैं बाबा साहब का दिया संदेश पसंद करता हूं. उनका प्रभाव महसूस करता हूं और उनका सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का जो कारण है, वो हमें सोचने की गति देता है.
आपके जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव किसका रहा?
- आपके जीवन पर किसी एक व्यक्ति का प्रभाव नहीं होता. मैं इसका पक्षधर भी नहीं हूं. परिवर्तन की हर धारा को, बराबरी का समाज बनाने की सभी धाराओं को करीब से देखने की कोशिश करता हूं. जिसका साकारात्मक पक्ष महसूस करता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं. तो किसी व्यक्ति से प्रभावित हूं, ऐसा नहीं कह सकता. खुद को आधुनिकतम राजनीतिक विचारधारा से जोड़ पाता हूं. लोकतंत्र और बराबरी से जोड़ पाता हूं.
अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में बताइए?
- कोई दुश्मन नहीं है. व्यक्ति के रूप में किसी को दुश्मन नहीं मानता हूं. जिन्होंने मेरे ऊपर गोली चलाई, अपहरण करने की कोशिश की, उन्हें भी नहीं. हां, विचारधारा को दुश्मन मानता हूं. जो प्रतिक्रियावादी धारा है वह मेरे दुश्मन की तरह है.
गोली चलाई, अपहरण की कोशिश? कब की घटना है यह? जरा विस्तार से बताइए.
- सब कॉलेज के दिनों की बात है. उन दिनों आरक्षण समर्थक थे तो क्लास रूम की बजाए बाहर होते थे. उस दौरान कुछ लड़कों के साथ झगड़ा हुआ था. मेरे ऊपर गोली चलाई गई, मेरे अपहरण की कोशिश हुई.
क्या कोई ऐसी घटना है जिसने आपके जीवन को प्रभावित किया?
- दो लोगों की बातों ने काफी प्रभावित किया. एक केशव शास्त्री थे. लीडर थे. लोहियावादी थे. उनका एक किस्सा बड़ी प्रभावित करता था. एक दिन उन्होंने पूछा कि कभी किसी नदी के किनारे गए हो? मैने कहा- हां, गया हूं. उन्होंने कहा कि क्या कभी गौर किया है कि पहाड़ से नदी की ओर जो धारा निकलती है, वह कई बड़े पेड़ों को उस धारा में बहाकर ले आती है. लेकिन उस नदीं में जो छोटी मछली होती है वह धारा के विपरीत चलती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित है. उसमें चेतना है. तो वह प्रदर्शित करती है कि धारा बहाकर नहीं ले जा सकती. उनके इस किस्से ने काफी प्रभावित किया.
एक दूसरी घटना जिसने मेरे विश्वास को बढ़ाया, वो घटना नौवीं कक्षा में घटी. मेरे सामने संकट था कि क्या करें. तब एक टीचर मिले. कुशवाहा जाति के थे. हम उन्हें मुंशी मास्टरकहते थे. (आज की बदलती बोली की ओर ध्यान दिलाकर कहते हैं, सर नहीं मास्टर कहते थे) उन्होंने नौंवी पास करने के बाद मुझसे कहा कि तुम 11वीं (तब बोर्ड) की परीक्षा दो. मैने कहा- मास्टर साहब यह कैसे होगा. उन्होंने भरोसा दिलाते हुए कहा कि अगर मैं आने वाले 4-6 महीने तक पढ़ाई करूंगा तो टॉप-10 में आ जाऊंगा. हालांकि ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन उन्होंने मुझपर जो भरोसा दिखाया उसने मेरे भीतर आत्मविश्वास का एक ढ़ांचा खड़ा कर दिया.
आपके आत्मविश्वास को तोड़ना और बनाए रखना, यही पूरी लड़ाई है. खासकर एक दलित के भीतर यह मायने रखता है. अगर एक दलित को बार-बार यह कहा जाता है कि वह कुछ नहीं कर सकता तो उसके आत्मविश्वास का ढ़ांचा टूट जाता है. शासक यही काम करते हैं. तो सारी लड़ाई आत्मविश्वास को बनाए रखनी की है. तो ऐसे कई पात्र मेरे जीवन में आए हैं. वो सभी सामान्य थे. मेरे भीतर उन सभी का कंट्रीब्यूशन है. मुझे गढ़ने में उनकी बड़ी भूमिका है.
सर आपने इतना वक्त दिया, हमसे बात की धन्यवाद
धन्यवाद अशोक जी।
अप्रैल, 2010 में हरियाणा के हिसार जिले में मिर्चपुर गांव में बाल्मीकी बस्ती के एक कुत्ते के भौंक देने के बाद बाल्मीकि बस्ती पर वहां के जाटों ने हमला कर दिया था और कई घर फूंक डाले थे। उसमें एक विकलांग लड़की सुमन को जिंदा जला दिया गया और उसके पिता को भी। उस घटना के बाद कुछ आरोपियों को पकड़ा गया और मुकदमा चल रहा है। लेकिन उन्हें रिहा करने के लिए वहां जो "आंदोलन" चल रहा है और उसके प्रति जो सरकारी रुख है, एक निचली अदालत की जज ने जो टिप्पणी की थी, वह अपने आप में इस बात का सबूत है कि हमारी व्यवस्था किसके लिए और किस तरह काम करती है। यह कड़ी रुक नहीं रही है। क्या हम एक आजाद देश में रह रहे हैं और क्या हम आज भी यह कहने की हालत में हैं कि हम एक गौरवशाली परंपरा वाले समाज और देश में रहते हैं?
जब यह घटना हुई थी, तब मैं, दिलीप मंडल, राकेश कुमार सिंह, चंद्रा और विनीत कुमार के साथ वहां गया था। तभी यह लेख लिखा था, जो जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था।
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मिर्चपुर की कड़ियां...
जब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था को नस्लीय भेदभाव की तरह वंचित वर्गों के खिलाफ दमन-शोषण के एक मानक के रूप में स्वीकार करने की बात आती है, तो देश की सरकार इस मुद्दे को खारिज करने के लिए अतिरिक्त उत्साह का प्रदर्शन करती दिखती है। इससे दुनिया में यही संदेश जाता है कि यह मांग कुछ असंतुष्ट वर्गों की गैरजरूरी ‘खुराफात’ होगी और जाति-व्यवस्था एक प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के साथ सामरिक-आर्थिक समझौते करते और भावी महाशक्ति के रूप में प्रचारित हमारे देश के सामाजिक हालात क्या इतने ही सुखद हैं?
दरअसल, सामाजिक वर्णक्रम का मनोविज्ञान इतना आसान नहीं है कि उसकी गुत्थियां अर्थव्यवस्था के विकास दर के जुमलों से सुलझायी जा सकें। दूसरे कई राज्यों के मुकाबले हरियाणा एक समृद्ध या और ज्यादा समृद्ध होता राज्य है। ‘जिंदल प्रभाव’ से आच्छादित राज्य के एक जिले हिसार का सफर करते हुए कोई भी यह अंदाजा लगा सकता है कि रास्ते में पड़ने वाले घरों की बनावट और वहां की बहुत अच्छी सड़कें शायद ‘ईमानदार और समग्र’ विकास नीतियों का नतीजा होंगी। मिर्चपुर गांव भी बाहर से ऐसा ही दिखता है। लेकिन पिछले महीने इस गांव की एक घटना ने फिर से इस वहम को तोड़ा है कि आर्थिक विकास सामाजिक शोषण और दमन की स्थितियों से निपटने का एक आखिरी जरिया है।
एक कुत्ते के भौंकने के बाद हुई नोक-झोंक क्या इतना बड़ी वजह हो सकती है कि गांव की समूची बाल्मीकि बस्ती पर हमला करके घरों को फूंक डाला जाए? लेकिन इस बहाने ने ऐसा रूप लिया कि दबंग माने जाने वाले जाट समुदाय के लोगों ने ‘अपनी’ सत्ता और पुलिस प्रशासन में अपने लोगों के साये में बाल्मीकि बस्ती को घेर कर करीब बीस घरों को इत्मीनान से जलाया। खासतौर पर उन घरों को निशाना बनाया गया जो किसी तरह थोड़ी अच्छी हालत में आ चुके थे।
घृणा के उस पैमाने का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है जो एक विकलांग लड़की के ऊपर पेट्रोल डालने के बाद घर में बंद कर देने और बाहर से आग लगा देने को मजबूर करता है। शारीरिक रूप से लाचार अठारह साल की सुमन बारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी। नफरत की इस आग में सुमन के साथ उसके पिता ताराचंद भी जला दिये गये।
सुव्यवस्थित विकास की दिख सकने वाली तस्वीरों के बीच इस स्थिति की कल्पना भी शायद मुमकिन नहीं कि अपने जलते घरों और खुद को बचाने की कोशिश करते पुरुषों और महिलाओं के सामने हमलावर निर्वस्त्र होकर नाचने लगें! यह किसी भी तरह के विकास के तमाम दावों को खारिज करने के लिए काफी है। यह हजारों साल की ‘महान’ सांस्कृतिक परंपराओं पर शर्म करने के लिए काफी है। यह एक ऐसे कबीले की कल्पना लगती है जिसे अपनी सड़ांधों पर गर्व करना सुहाता है और वह इसी में जीना चाहता है। नहीं तो क्या कारण है कि अपनी प्रकृति में समान गोहाना, दुलीना या मिर्चपुर कांड शृंखला की कड़ियों की तरह आगे बढ़ते जा रहे हैं।
इस तरह की घटनाओं के बावजूद अक्सर खाप पंचायतों में अपनी तीन हजार साल की परंपरा पर गर्व की घोषणा की जाती है। इन पंचायतों में वे लोग भी बैठे होते हैं, जिनके घरों में आधुनिकतम सुख-सुविधाओं के सभी साधन मौजूद होंगे और संभव है कि उनमें से बहुत सारे डॉक्टर-इंजीनियर या स्कूल-कॉलेज में पढ़ाने वाले शिक्षक हों। जिस मिर्चपुर गांव में बाल्मीकि बस्ती को जलाया गया, वहां दूसरी सरकारी नौकरियों के अलावा शिक्षण के पेशे में चार सौ लोग हैं। इन चार सौ में से तीन सौ अस्सी शिक्षक अकेले जाट बिरादरी से हैं। लेकिन मिर्चपुर की घटना के बाद भी इनके बीच का कोई शिक्षक अगर बाल्मीकियों को बदमिजाज और सिरचढ़ा कहता हुआ मिल जाए तो समझा जा सकता है कि अपने समाज पर इन शिक्षकों का क्या असर होगा और अगर होगा तो वह किस तरह का होगा। कहते हैं कि शिक्षा सभी तरह की जड़ताओं और अंधेरों को दूर करती है। लेकिन हकीकत यह भी है कि सत्ता और सत्ता में बने रहने की चाहत शिक्षा को एक साजिश में तब्दील कर देती है। राजनीतिक सत्ताएं आमतौर पर सामाजिक सत्ताओं का ही प्रतिरूप होती हैं। और यह जगजाहिर है कि राजनीतिक सत्ताओं के लिए सामाजिक सत्ताओं के हित क्यों सर्वोपरि होते हैं।
यह अनायास नहीं है कि खाप पंचायतों को न केवल पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उनकी पार्टी का, बल्कि हरियाणा के औद्योगिक विकास में अपनी खास जगह रखने वाले कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल का भी खुला समर्थन मिलता है। राज्य सरकार की ओर से मुआवजे की रस्म अदायगी को खारिज करके मिर्चपुर के पीड़ित जब अपनी मांगों के साथ हिसार जिलाधिकारी कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे थे, तो उन्हें एक तरह से जबर्दस्ती वहां से हटा दिया गया। वे कौन-सी ताकतें हैं, जो राजनीतिक सत्ताओं को इस तरह के ‘खेल’ को जारी रखने के लिए मजबूर करती हैं? दरअसल, बदलती आर्थिक संरचनाओं का असर वंचित तबकों की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थितियों पर जरूर हुआ, जिसमें उन्हें सशक्तीकरण की एक प्रक्रिया में जाने का मौका मिला। नये दौर के संपर्कों के कारण बड़े पैमाने पर दलित अपने पारंपरिक पेशों से बाहर आये और मजदूरी से लेकर दूसरे कई तरह के काम-धंधों में उन्होंने दखल देना शुरू किया। पारंपरिक पेशे जहां उनकी सामाजिक हैसियत और आर्थिक बदहाली को बनाये रखने में ही अपनी भूमिका निभाते थे, वहां अब उन्होंने अपने घर की दीवारें अच्छी बनायीं, टीवी, फ्रिज या मोटरसाइकिल भी खरीदे। निजी स्कूलों का खर्च वे नहीं उठा सकते थे, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही सही, भेजना शुरू किया।
यह एक ऐसी स्थिति है जिससे समूची सामाजिक सत्ता-संरचना में टूट-फूट मच सकती है। और संस्कृति का ‘राग- उदार’ गाता हुआ हमारे देश या समाज का प्रभु वर्ग अभी इतना उदार नहीं हुआ है कि अपनी हैसियत की कुर्सी की ओर बढ़ते किसी कदम का वह स्वागत करे। जाहिर है, कमजोर वर्गों के लोगों का अपने अस्तित्व को लेकर जागरूक होना समाज पर पहले से काबिज प्रभु वर्गों को नागवार गुजरा है।
मुश्किल यह है कि सशक्तीकरण की इस प्रक्रिया ने दबंग समुदायों के बीच उदार या मानवीय होने की प्रेरणा भरने के बजाय अपनी परंपरागत हैसियत के छिन जाने का भय पैदा किया। जब तक समाज अपनी परंपराओं के हिसाब से चलता रहा और दलित-दमित तबके ‘अपनी सीमा’ में रहे, यह ‘गर्व’ करने का विषय रहा। और जब सामाजिक सत्ता के सूत्र बिखरने लगे तो इस श्रेष्ठता-बोध के मनोविज्ञान के सामने नयी चुनौतियां खड़ी हुईं। इसी यथास्थितिवाद को कायम रखने या इसे बचाने की कोशिशों के तहत प्रभु वर्ग ज्यादा आक्रामक हुए। गोहाना या मिर्चपुर जैसे कांड दरअसल उसी प्रतिक्रिया का नतीजा कहे जा सकते हैं, जिसकी मार्फत यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि समाज की लगाम किसके हाथों में है और किसे अपनी तय सामाजिक हैसियत से ऊपर आने का हक नहीं है।
मगर सामाजिक सत्ताओं और उसके प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र के सामने स्थितियां क्या पहले की तरह ही आसान रह गयी हैं?
पुलिस प्रशासन के साये में सुनियोजित तरीके से हुए मिर्चपुर कांड के बाद सिर्फ सार्वजनिक शर्म से बचने के लिए हरियाणा सरकार ने जो औपचारिक कार्रवाई की, उसकी असलियत का अंदाजा भी स्थानीय दलितों के इस आरोप से लगाया जा सकता है कि घटना को अंजाम देने वाले अब भी खुलेआम घूम रहे हैं और लोगों को धमका रहे हैं।
गौरतलब है कि मिर्चपुर में दलित उत्पीड़न का लंबा इतिहास रहा है और खासतौर पर दलित महिलाओं का यौन उत्पीड़न और उन्हें नंगा करके घुमाने जैसी घटनाएं पहले भी होती रही हैं। अपनी मर्जी से वोट नहीं डाल पाने या गांव के मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित होने जैसी स्थितियां अगर आज भी बनी हुई है तो यह किसकी विफलता है? शायद यही वजह है कि हालिया घटना के बाद प्रशासन की ओर से दिये गये सुरक्षा के आश्वासन के बावजूद कुछ भुक्तभोगी गांव में लौटे, लेकिन उन्होंने अपने परिवार की युवतियों और लड़कियों को गांव से दूर अपने रिश्तेदारों के पास रखने का विकल्प चुना।
यह उस इलाके में दलित वर्गों के लिए सम्मान और सुरक्षा के माहौल और प्रशासन के आश्वासन की सच्चाई है। वे कौन-से हालात होंगे, जिनमें स्थानीय दलित परिवारों ने दावा किया कि अगर पुलिस ने चाल नहीं चली होती तो हमारे लड़के इतना बड़ा कांड नहीं होने देते, और कि अब लड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचा? साफ है कि अब दलित भी शायद खुद सामना करने के विकल्प की ओर बढ़ रहे हैं। क्या यह सरकारों के चेतने का समय है? यह बेवजह नहीं है कि घटना के लगभग तीन हफ्ते बाद मिर्चपुर में एक ओर सर्वखाप पंचायत में आठ-दस हजार लोगों की भीड़ के सामने दावा किया जा रहा था कि ‘बाल्मीकि भाइयों ने अब समझौता कर लिया है और वे भाईचारे के साथ गांव में रहने को तैयार हो गये हैं’ और दूसरी ओर, जलायी गयी बस्ती के भुक्तभोगी परिवारों का साफ कहना था कि किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता और दोषियों को हर हाल में सजा मिलनी चाहिए।
मगर राज्य की राजनीतिक ताकतों को दलित वर्गों की पीड़ा और उनके गुस्से की कोई परवाह नहीं है। दलितों पर अत्याचारों से लेकर इज्जत बचाने के नाम पर हत्या जैसे बर्बर फरमानों के बावजूद अगर राजनीतिक दल खाप पंचायतों के सामने सिर झुकाये नजर आते हैं तो इसके कारण क्या हो सकते हैं? या तो उनका मकसद सिर्फ वोट लेना है, या फिर वे खुद भी उसी मध्ययुगीन मानसिकता में कैद हैं! परंपरा को बचाने के नाम पर जातीय और राजनीतिक स्वार्थों का यह घालमेल संविधान तक को खारिज करने में नहीं हिचकता।
सामाजिक विकास नीतियों की इससे बड़ी विफलता और क्या हो सकती है कि शिक्षा और सभ्यता के तमाम दावे जाति की जड़ों के सामने हार जाते हैं! देश के सभी हिस्सों में लागू पाठ्यक्रमों में अपनी संस्कृति की उदारता पर गर्व करने का मनोविज्ञान तैयार किया जाता है। लेकिन अलग-अलग रूपों में देश के सभी हिस्सों में कमजोर तबकों के खिलाफ अक्सर होने वाली अत्याचार की घटनाएं व्यवहार में उस उदारता की हकीकत बयान करती हैं। इस सच्चाई को दुनिया के सामने नस्लीय भेदभाव के आईने में देखने से हमारी सरकारें क्या इसलिए कतराती रही हैं कि इससे गोहाना, दुलीना या मिर्चपुर जैसे कांडों पर पड़ा पर्दा उघड़ जाएगा?