Friday, January 20, 2017

अनुसूचित जाति-ानजाति उत्पीड़न

राज्य में दलितों पर हुए अत्याचार के अभी केवल 307 मामले लम्बित हैं। इसमें हत्या का एक भी मामला नहीं है। दलितों को गंभीर रूप से घायल करने का पूर राज्य में कोई मामला लम्बित नहीं है। दलित महिला के साथ बलात्कार का मात्र एक मामला लम्बित है। आपको भरोसा हुआ? राज्य सरकार को भी भरोसा नहीं हो रहा है। अनुसूचित जाति-ानजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम के तहत दर्ज ये आंकड़े तो बता रहे हैं कि राज्य में दलितों पर अत्याचार नहीं के बराबर हो रहे हैं और चारों तरफ मामला ठीक-ठाक है। लेकिन हकीकत कुछ और है। मामला यह है कि बिहार की पुलिस अब भी अनुसूचित जाति-ानजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज ही नहीं करती है और यही कारण है कि दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार की संख्या कागज पर घटती जाती है।ड्ढr ड्ढr इस राज का खुलासा तब हुआ जब अनुसूचित जाति-ानजाति कल्याण मंत्री जीतनराम मांझी ने गत वर्ष दलितों के खिलाफ दर्ज हुए अत्याचार के मामलों की समीक्षा शुरू की। श्री मांझी ने बताया कि अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के किसी व्यक्ित की हत्या होती है तो पुलिस को यह मामला अनुसूचित जाति-ानजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम की धारा 3 (2)(5) के तहत दर्ज करना चाहिए। दलितों को गंभीर रूप से घायल करने और किसी दलित महिला के साथ बलात्कार की घटना होने पर मामला दर्ज करने के लिए अधिनियम में अलग-अलग धाराएं हैं। लेकिन पुलिस कभी इनका उपयोग ही नहीं करती है। पुलिस इस अधिनियम की केवल एक ही धारा का उपयोग करती है और वह भी जब कोई व्यक्ित किसी दलित व्यक्ित को जातिसूचक शब्द से संबोधित करता है। इस तरह के 2मामले राज्य भर में लम्बित हैं। श्री मांझी ने कहा कि राज्य के हर जिले में अनुसूचित जाति-ानजाति थानों के खुल जाने से इस अधिनियम के तहत मामलों को दर्ज करने में तेजी आएगी।
**************************************************************
21वीं शताब्दी में यूरोपीय संघ का टूटना और पहले ब्रिटेन का इससे बाहर आ जाना है तो फिर अमेरिका में ओबामा के पतन और डोनाल्ड ट्रंप के उत्थान का होना है। उधर चीन के आर्थिक-सैन्य शक्ति के रूप में उभरने से आज पूरी दुनिया फिर से दो ध्रुवीय हो गई है तथा अमेरिका और चीन के शीत युद्ध की शुरूआत के साथ पुरानी महाशक्ति रूस का भी तीसरे ध्रुव की तरह महत्व बढ़ गया है।

हम अब अनिश्चितता, असमंजस और बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं और जाने क्या हो जाए और जाने क्या दिख जाए, जैसी विज्ञापन प्रतियोगिताओं के शिकार हैं। यही नहीं कि ये परिवर्तन भौतिक, आर्थिक और सैन्य दबावों से हमें विकास की दौड़ में घुसने के लिए विवश कर रहा है अपितु पूरी दुनिया का हालचाल दक्षिण से उत्तर की तरफ तो पश्चिम से पूरब की तरफ भाग भी रहा है। भारत में ये नया बदलाव हमारी 50 करोड़ की युवा आबादी का लोकतंत्र में लगातार बदहाल होकर ही 2014 के जनादेश से, एक अच्छे दिन का सपना लेकर उदय हुआ है। यह परिवर्तन भीषण भी है और स्मार्ट भी है। भारत जैसे विविधता और विशालता पूर्ण देश की मूल समस्या आज भी यही है कि हम गरीबी, असमानता और परम्पराओं के भंवरजाल में भी फंसे हुए हैं तथा सोचते हैं कि बिना मरे ही स्वर्ग में जाने का रास्ता देशभक्ति के हरिकीर्तन से ही निकलता है। लेकिन आप कभी मनीषी राहुल सांकृत्यायन की छोटी से 100 साल पुरानी पुस्तक भागो मत दुनिया को बदलो को पढ़ेंगे या फिर पिछले दिनों अमेरिका के निवर्तमान 42वें राष्ट्रपति बराक ओबामा का अंतिम विदाई भाषण सुनेंगे, तो आप समझ सकेंगे कि 21वीं शताब्दी में पूरी दुनिया का जीवन एक- कबीरदास की उलटवासी बन गया है तथा आधी दुनिया उदार वाद और आदर्शवाद की नैतिकता को बचाने में लगी है तो आधी दुनिया आर्थिक, सैनिक और वैज्ञानिक उपलब्धियों की दिशा में दौड़ रही है।

इस बदलाव एक मात्र सूत्र ये ही है कि जो अर्थबल और सैन्य बल से अर्थात जो ताकतवर होगा, वही इन्द्रसभा पर राज करेगा और जो शाम, दण्ड, भेद से नीति और उसकी रणनीति बनाएगा- वही जिन्दा रहेगा। भारत के अलावा सभी दुनिया के 194 देशों में आज ये ही दुविधा सबको सता रही है कि भूख और गरीबी से पीड़ित मानवता को पहले बचाया जाए या पहले उसे दबाया अथवा कुचला जाए? इधर 21वीं शताब्दी में यूरोपीय संघ का टूटना और पहले ब्रिटेन का इससे बाहर आ जाना है तो फिर अमेरिका में ओबामा के पतन और डोनाल्ड ट्रंप के उत्थान का होना है। उधर चीन के आर्थिक-सैन्य शक्ति के रूप में उभरने से आज पूरी दुनिया फिर से दो ध्रुवीय हो गई है तथा अमेरिका और चीन के शीत युद्ध की शुरूआत के साथ पुरानी महाशक्ति रूस का भी तीसरे ध्रुव की तरह महत्व बढ़ गया है। 1990 में सोवियत संघ जिस तरह खण्ड-खण्ड होकर 18 देशों में बदल गया था। उसी तरह दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिनका सूरज कभी डूबता नहीं था वह ब्रिटिश साम्राज्य भी आजादी और लोकतंत्र की आंधियों में तिनके-तिनके बिखर गया था।

बदलाव की ये आर्थिक, सैनिक और विज्ञान तथा टेक्नॉलोजी से निकली सुनामी आज भारत को घेरे हुए है तथा पूरी दुनिया के भविष्य का खजाना अब सबको भारत जैसे 133 करोड़ देशवासियों के बाजार और उपभोक्ताओं में ही दिख रहा है। याद रहे ये दक्षिण एशिया (जिसमें भारत भी आता है) वह आज महात्मा गांधी, पटेल, अम्बेडकर और नेहरू के मध्यम मार्गी सामाजिक- आर्थिक विकास के मॉडल को छोड़कर अब धीरे-धीरे अतिवादी राष्ट्रवादी और संकीर्ण हिन्दुवादी परम्पराओं को पकड़कर आर्थिक विकास के लिए सैनिक शक्ति को बढ़ाने में अंधी दौड़ लगा रहा है। क्योंकि नेहरू- गांधी और स्वामी विवेकानंद तथा अम्बेडकर और अम्बेडकर के नाम से, राजनीति और सामाजिक, आर्थिक श्रेष्ठता का बाजार जहां इन सभी ब्रांड और आदर्श प्रतीकों को सिरे से नकार रहा है वहां अतुल्य भारत सर्जीकल स्ट्राइक, नोटबंदी, प्रवासी भारतीय सम्मेलन, स्मार्ट सिटी, स्टार्ट अप जैसे नित नए लोकलुभावन बाजार और उपभोक्ता को रिझाने वाले आश्चर्यजनक व्यक्तिवादी, एकाधिकारवादी और अधिनायकवादी आकस्मिक बदलाव और विकास के हथियारों का प्रयोग कर रहा है। और बकरी एक घाट पर पानी पियेंगे और सबका साथ सबका विकास होगा। 
भारत की सामाजिक, आर्थिक संपदा पर आज जो सर्जिकल स्ट्राइक हो रही है उसका सबसे घातक प्रभाव देश की सहिष्णुता और संस्कृति पर हो रहा है और गरीब जनता अब औचक-भौचक हो गई है। मेरे प्यारे भाइयों और बहनों! भारत में ये नव निर्माण का बदलाव 1947 के बाद भी था लेकिन 2014 के बाद ये सामाजिक, आर्थिक सुधारों का बदलाव मुक्त बाजार की जरूरतों के दबाव में और रोटी, कपड़ा, मकान के जवाब में और अधिक आक्रामक, संवेदनहीन, गैर जवाबदेह और राजसत्ता के निरंकुश होने से तेज हो गया है। क्योंकि हम अमेरिका और चीन के शीतयुद्ध में फंसे हुए हैं और बाजार तथा सदाचार की चक्की में एक साथ पीसे जा रहे हैं। अब बाजार और सरकार किसी लोकतंत्र, संसद और संविधान को जवाबदेही के प्रति उत्साहित और अनिवार्य नहीं है। 


जहां अब आप असंगठित मजदूर हैं वहां अब आप युवा पीढ़ी के स्मार्ट और लाभ-हानि की तलवारों के बीच खड़े हैं। अत: आपका लोकतंत्र, आजादी और आदर्श जैसा पुराना मोहजाल खतरे में है क्योंकि हर देश आज पाक-नापाक गठबंधनों के बल पर अपने अवाम को सपने दिखा रहा है और बाजार की ताकतों ने धर्म-कर्म और जात-बिरादरी की गर्दन मरोड़ना शुरू कर दिया है। लोकतंत्र की उदार मानवतावादी अवधारणाएं अब रूढ़िवादी, तानाशाही और बाजारवादी शक्तियों से जीने-मरने की महाभारत में बदल रही हैं। ऐसे कठिन समय में फिलस्तीन, अफगानिस्तान, वियतनाम, जापान, मिश्र, बांग्लादेश, ईराक,लीबिया,सीरिया तथा मध्य एशिया और लेटिन अमरीकी और अफ्रीकी देशों की दुर्दशा का इतिहास कभी पढ़िए और सोचिए कि भारत जैसा गरीबी और असमानता का महासमुद्र आज बदलाव के तूफानों में आकुल-व्याकुल और अनिश्चितता भरा कैसे है?

No comments:

Post a Comment