Sunday, January 22, 2017

सामाजिक न्याय

आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक न्याय की धारणा के  तहत ही की गई. सदियों से दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को वंचित रखने के  लिए तरह–तरह के  हथकंडे अपनाए गए, जिसमें सबसे बड़ा और कारगर हथकंडा ईश्वरीय शक्ति का भय था . इस भय के  कारण इस देश का एक बड़ा हिस्सा दिन–प्रतिदिन बद–से–बदतर जीवन यापन करने को मजबूर होता चला गया. इसी पीड़ादायी जीवन से मुक्ति के  लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा सामने आई या यूं कहें कि देश की देश की वो जनता, जिसको हर तरह के  हक अधिकारों  से वंचित किया गया, उन्हीं अधिकारों की प्राप्ति के  लिए सामाजिक व्यवस्था है, जो वंचितों को सामाजिक न्याय दिलाने का सबसे बड़ा हथियार है .आरक्षण का प्रावधान  समता, स्वतंत्रता और बंधुता के  निर्माण के लिए किया गया . संविधान  की धारा 14 के  अनुसार कानून के  समक्ष सब बराबर हैं . डॉ.बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने कहा है किequality is coming in the way of equality इसलिए इस देश के  दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को गैर बराबरी का दर्जा देना संविधान तथा आरक्षण विरोधी तो है ही, राष्ट्र विरोधी भी है. यह साबित हो चुका है कि सदियों से विसमतामूलक सामाजिक एवं धार्मिक  दंड विधान ने जिन शूद्र–अतिशूद्र एवं स्त्रियों को सभी प्रकार की गारन्टी देने वाली धाराओं की उद्देश्यपूर्ति के  लिए ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी .

भारतीय इतिहास में ज्योतिबा राव फुले सयाजी राव गायकवाड़, चर्मराज वाडयाल, शाहूजी महाराज जैसे अनेक महापुरुष वंचितों के  हक व लड़ाई लड़े हैं. उन्हीं महापुरुषों में से एक उत्तर प्रदेश के  स्वामी अछूतानंद हरीहर थे . 1922 में जब ‘प्रिंस ऑपफ वेल्स’ भारत भ्रमण के  लिए आया तो कांग्रेसियों  ने देशव्यापी स्तर पर प्रोटेस्ट करके  उसका विरोध किया, क्योंकि स्वामी अछूतानंद के  नेतृत्व में दिल्ली के  लालकिला में ‘विराट अछूत सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था जिसका चीफ गेस्ट प्रिंस ऑफ वेल्स था. उस सम्मेलन में लगभग पच्चीस हजार दलित भाग लिए थे. प्रिंस ऑफ वेल्स का दलितों ने भव्य स्वागत किया और उसके  सामने अछूतानंद ने ‘मुल्की हक’  का मांग पत्र रखा कि अछूतों को हर क्षेत्र में अधिकार दिये जाएं, जिससे उन्हें शोषण से मुक्ति मिलें. उस समय कई मांगें मान ली गई थीं और अनेक राज्यों में लागू भी हुई थीं. 1931–32 में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर  ने व्यापक स्तर पर संवैधानिक रूप से आरक्षण के  लिए जो संघर्ष किया वह अद्वितीय है. निश्चित रूप से आरक्षण लागू करवाने में बाबा साहब का रोल सबसे बड़ा है .विश्व में जहां कहीं भी सामाजिक असमानता या रंगभेद है, वहां आरक्षण है. भारतीय समाज–व्यवस्था तो जातिगत भेदभाव का पिटारा है.

जापान में ऊँच–नीच की भावना के  तहत बराकुमीन, योरोप में अफरमेटिव एक्शन, चीन में आदिवासियों और अमेरिका में रंगभेद, नस्लभेद पर आधारित ‘रिवर्स डिस्क्रीमीनेशन’ तथा डाईवर्सिटी नामक आरक्षण प्रणाली लागू है. वहां उनकी जनसंख्या के आधार पर सभी प्रकार के  ठेकों, सप्लाई आदि में आनुपातिक हिस्सेदारी दी जाती है. अश्वेत अफ्रोअमेरिकनों  को कम ब्याज पर ऋण  तथा उनके  बच्चों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाता है. यदि आरक्षण से योग्यता या दक्षता में कमी आती और उसके  कारण देश का विकास रुक जाता, तो आजतक वे देश गर्त में जा चुके  होते, लेकिन नहीं आज वो विकसित देश हैं और उल्टे योग्यता का डंका पीटने वाला भारत आज भी अविकसित की श्रेणी में खड़ा है. बाबा साहब ने इजराइल के  यहूदियों के  बारे में बहुत ही रोचक तथ्य बताया है. यहूदियों के  साथ इसलिए अत्याचार होता है कि वहां के  बाकी क्रिस्चन  यहूदी लोगों को अपने में मिलाना चाहते हैं. लेकिन भारत में बिलकुल उल्टा है. यहां वंचित समाज मिलना चाहता है इसलिए अत्याचार का शिकार होता है. अभी तक तो जिन्होंने देश को बांटकर रखा है वही राष्ट्र निर्माता के  प्रभु बने बैठे हैं .अब सवाल यह है कि राष्ट्र है क्या ? क्या राष्ट्र में रहने वाले सब लोग हैं या राष्ट्र की मिट्टी है, या राष्ट्र वन, पर्वत, नदी, पशु–पक्षी है, या कुछ लोग हैं जिनसे राष्ट्र का निर्माण होता है ?

यदि सभी लोग राष्ट्र के  लोग हैं, तो दो बिन्दुओं पर विचार करना होगा . एक-राष्ट्रहित का मतलब सबका हित या कुछ लोगों का हित . यदि सबका हित है, तो सबमें दलित आदिवासी भी शामिल है . यदि मुख्य मुद्दा यह है कि दलित राष्ट्र के  भीतर है या राष्ट्र के  बाहर ? यदि राष्ट्र के  भीतर मानते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि उनका हित राष्ट्र का हित है . यदि दलितों को राष्ट्र से बाहर माना जाता है तो अप्रत्यक्ष रूप से इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि भारत को दो राष्ट्र की जरूरत है . एक हिदू राष्ट्र तथा दूसरा हिन्दू शासक . यदि दलितों को राष्ट्र का अभिन्न अंग मानकर समान नागरिकता की बात हो रही है, तो सबके  साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए . समान नागरिक से ही समान नागरिकता का निर्माण होता है जब हम राष्ट्रहित की बात करते हैं, तो इसका मतलब होता है सभी नागरिकों का हित . राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए देश के  सभी नागरिकों को उनकी संख्या के  अनुपात में देश की सम्पत्ति आवंटित होनी चाहिए . यदि एक को सौ प्रतिशत दे दिया गया और दूसरे को कुछ भी नहीं, ऐसा करना तो सरासर अन्यायपूर्ण और बेईमानी है . जहां संख्याआधारित भागीदारी सुनिश्चित हो वहीं न्यायपूर्ण आवंटन है .इस आधार पर क्या दलितों को देश की सम्पत्ति का न्यायपूर्ण वितरण किया गया है ? उनकी संख्या के  आधार पर आरक्षण के  अंतर्गत क्या उन्हें बराबरी का अधिकार मिला है ? यदि नहीं, तो देश का नागरिक होने के  कारण उनका पूरा अधिकार  है कि उन्हें बराबरी का हिस्से मिले .

 यदि राष्ट्र सब नागरिकों से मिलकर बनता है तो उसकी भागीदारी भी बराबर की होनी चाहिए, कम या ज्यादा नहीं . कम करेंगे तो एक के  प्रति अन्याय है और ज्यादाा करेंगे तो दूसरे के  प्रति अन्याय होगा . इसलिए कम और ज्यादा वाला अन्यायपूर्ण व्यवस्था को हटाकर सही अनुपात के  हिसाब से आवंटन होना चाहिए . देश का 15 प्रतिशत आबादी यह दावा करता है कि आरक्षण से समाज में खाई बन रही है . हमारा हक मारा जा रहा है . देश की एकता अखंडता बाधित हो रही है . जहां तक समाज में खाई बनने का सवाल है, तो वे लोग आंकड़े उठाकर देख लें जहां–जहां जिस अनुपात में आरक्षण बढ़ा वहां दक्षता एवं प्रशासनिक क्षमता के  साथ–साथ सामाजिक स्तर में भी वृद्धि  हुई . किसी भी राष्ट्र की सम्पूर्ण उन्नति और विकास तक संभव होता है जब उस राष्ट्र से रहने वाले व्यक्तियों द्वारा सामूहिक तथा बराबरी का भागीदारी हो . अन्यथा कुछ मुट्ठी भर लोगों की योग्यता, दिमाग, क्षमता और प्रशान से राष्ट्रहित नहीं साधा  जा सकता . मिसाल के  तौर पर आजादी के  बाद सबसे पहले दक्षिणी राज्यों आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू में आरक्षण लागू हुआ . वहां का शैक्षणिक स्तर प्रशासनिक क्षमता एवं ईमानदारी उन राज्यों से कई गुना अच्छा है जिन राज्यों में आरक्षण ठीक से लागू नहीं हुआ . जहां भी जिस क्षेत्र में किसी एक जातिविशेष का वर्चस्व रहा है वहां भ्रष्टाचार, जातिवादी भेदभाव,धांधली बड़े पैमाने पर हुई है .

जब पुलिस, वकील, जज, जेलर, जल्लाद एक ही बिरादरी का होगा, शोषित को कैसे न्याय मिलेगा भारत में जब तक जाति आधारित डाईवर्सिटी नहीं होगी तब तक न तो समतामूल समाज बन सकता है और न ही राष्ट्र उन्नति कर सकता है . सभी को उनके  जीवन के  हर क्षेत्र में हिस्सेदारी दे दी जाए तो आरक्षण विरोधी  और आरक्षण समर्थक झमेला ही खत्म हो जायेगा . देश में जितने भी अस्मितामूलक आंदोलन चल रहे हैं सबके  मूल में मनुवादी बदनियति है . जिस दिन इनकी नियत साफ  हो जाए उस दिन सही मायने में राष्ट्र निर्माण होगा . अभी तो बहुजनों को खुद का हिस्सा नहीं मिल पा रहा हे जिसके  लिए वे संघर्षरत हैं तो दूसरों का हक कैसे मार रहे हैं और यदि हक नहीं मारा गया है .आरक्षण का सवाल सीधे देश की एकता और अखण्डता से जुड़ा है.  आरक्षण मिलने से इस देश के बिखरे लोगों को यह लगने लगा कि हम भी इस देश के वासी हैं.  जिस देश में मानव-मानव में भेद हो, एक को उच्च स्थान प्राप्त हो और दूसरे को न खाना अच्छा मिलता हो, न रहने की जगह हो, न कपड़े पहनने की आजादी हो, न अभिव्यक्ति की आजादी हो, न शिक्षण संस्थाओं में जाने दिया जाता हो और न ही नौकरियों में भागीदारी हो.  वह दूसरा व्यक्ति कैसे  महसूस करेगा कि यह देश मेरा भी उतना ही है जितना अन्यों का ?इसी भेदभाव के आधार पर बाबा साहब ने कहा था कि हमारा कोई देश नहीं.  यह आरक्षण का ही कमाल है कि इस देश के  एक बहुत बड़े वंचित समाज को राष्ट्रहित में जोड़ा.

इतिहास गवाह है कि इस देश का सबसे मेहनतकश और मेरिट वाला बहुजन समाज रहा है.  खेत में अन्न उपजाना हो, भट्टे पर ईट बनानी हो, अच्छे फैशनेबल ड्रेस तैयार करना हो, खाद्य सामग्री को निर्यात योग्य बनाना हो,सब तो बहुजन समाज के  स्त्राी-पुरुष ही अपने खून-पसीने से पैदा करते हैं और राष्ट्र के उत्पादन में अपनी महती भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसका फायदा तो मलाईदार ही उठा रहा हे.  एक पिता के चार बेटों में से एक ने तीन का हिस्सा हड़प लिया.  घर में समान बंटवारे के  लिए कलह तो होगा ही होगा.  भाई-भाई के बीच खाई बनाने का काम तो उस बेईमान भाई ने किया जिससे सबमें वैमनस्य पैदा हुआ.  ठीक ऐसे ही इस देश की एक छोटी जनसंख्या ने बड़े जनसमूह का हिस्स हड़प लिया और उस समूह को गरीब, लाचार, भूखा, दुरवा, नंगा रहने को मजबूर किया.आज भी अधिकांश आदिवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है.  प्राकृतिक संसाधनों से जैसे-तैसे अपना पेट भरते हैं, अपने तन को ढंकते हैं, कन्दराओं में जीवन यापन करते हैं.  आखिर उनका हिस्सा गया कहाँ? क्या उन्हें देश का नागरिक समझा गया है? कुछ सवालों पर हमें गहराई से सोचने की जरूरत है.  दरअसल आरक्षण की वजह से एस.सी., एस.टी. और ओबीसी में सामूहिक भावना का विकास हुआ है.  वे एक जुट हुए हैं.  इसलिए गैर दलितों की असली पीड़ा आरक्षण से कम दलित-पिछड़ों का एकजुट होना और जातिवाद घटने से ज्यादा है. 

भारत के गाँव खण्ड-खण्ड में बँटे हुए हैं.  जिस गाँव में जितनी जातियाँ हैं उतने ही जाति आधारित टोले हैं.  एक गाँव को अखण्ड बना नहीं सकते तो क्या अखण्ड भारत को संकल्पना शेष बचती है ‘अनेकता में एकता भारत की विशेषता’ कोरी जुमलेबाजी है.  सच्चाई तो ‘अनेकता में भी विविधता’ है.  अखंड राष्ट्र निर्माण की भावना को व्यक्त करते हुए काशीराम ने कहा था- हमारे  शासन में लोग पूजाघरों या घर के देहरी के अन्दर हिन्दू, मुसलमान आदि रह पायेंगे लेकिन देहरी के बाहर उनको भारतीय होकर निकलना पड़ेगा. एक दलील यह भी दी जा रही है कि आरक्षण से अयोग्य लोग आते हैं. आरक्षित सीटों पर नौकरी करने वाले सारे के  सारे तो अयोग्य नहीं होते, वैसे ही जैसे सभी नौकरी करने वाले सवर्ण योग्य नहीं होते.  आज यदि एक दलित की बेटी टीना डाॅबी सामान्य सीट से देश की सर्वोच्च परीक्षा टाॅप करती है तो वह अयोग्य कैसे हुई? क्या सिर्फ उसकी जाति के  नाम पर उसे अयोग्य घोषित करना राष्ट्रीयता है? यदि नहीं, तो निश्चित रूप से उसने अयोग्यता का राग अलापने वालों की
मानसिकता को धवस्त किया और देश का नाम विश्व स्तरपर ऐतिहासिक रूप से गौरवान्वित किया है.  उसने हरियाणा जैसे राज्य में स्त्री समस्या पर कार्य करने का साहस दिखाया है.  इससे बड़ी योग्यता और राष्ट्रहित दूसरा क्या हो सकता है ? इस देश में जातीय शोषण बड़े पैमाने पर होता है लेकिन जैसे ही आरक्षण आया, आरक्षण से शिक्षा मिली, फिर नौकरी मिली, व्यक्ति का जीवन स्तर बदला और थोड़ा-सा बदलाव सामाजिक परिस्थितियों में भी हुआ.  जिन दलितों की सामाजिक हैसियत और आर्थिक पक्ष मजबूत है उनका शोषण अपेक्षाकृत गरीब दलितों से कम होता है.

आरक्षण आने से समाज पर गुणात्मक प्रभाव पड़ा जिससे जातिआधारित शोषण और अपराधों में कमी आई.  इससे भारत की छवि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सुधरी या बिगड़ी ? जाहिर-सी बात है सुधरी.जब छवि सुधरी तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक बेहतरीन संदेश पहुंचा.  यह भी एक तरह से राष्ट्रहित है. फिर आरक्षण से देश का नुकसान कहाँ हो रहा है ? कुछ लोगों का आरोप है कि आरक्षण का लाभ ऊँचे  पदों पर पहुँचे हुए सम्पन्न दलितों को ही मिल रहा है, जो गरीब दलित हैं वे लाभ लेने से वंचित रह जा रहे हैं.  ऐसा आरोप जातिवादी सोच की उपज है.  यह तर्क तब लागू होता है जब आरक्षित सीटें पूरी तरह भरी जातीं.  बहुजन समाज से आने वाले असंख्य लड़के -लड़कियां, स्त्री -पुरुष उच्च शिक्षा प्राप्त करने के  बावजूद नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं.  उच्च शिक्षण संस्थाओं में तथा अन्य जगहों पर लाखों बैकलाॅक की सीटें ‘नाट फाउंड सूटेबल’ घोषित कर खाली रखी गयी हैं.  जो लोग उपर्युक्त आरोप लगा रहे हैं क्या उन्होंने इसके  लिए हाय-तौबा मचाई कि आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है इसे हर हाल में लागू किया जाना चाहिए? दूसरी महत्त्वपूर्ण बात कि क्या ऊँचे  पदों पर पहुँचने मात्रा से जाति खत्म हो जाती है? जब कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, बनिया ऊँचे पदों पर आसीन होता है तो उसे जातिवाचक सम्बोधन न देकर पूरे देश का कर्णधार कहा जाता है. लेकिन जब कोई बहुजन समाज में विभूति पैदा होती है, राष्ट्रनिर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान देता है, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करता है पिफर भी उसे दलित मसीहा, दलित राष्ट्रपति, दलित मुख्यमन्त्राी, दलित चिन्तक, दलितसमाजशास्त्री आदि जातिवादी सम्बोधनों सेप्रचारित किया जाता है.

जब तक इस जातिवादी सोच में परिवर्तन नहीं होगा तब तक दलित आरक्षण में कोई बदलाव सम्भव नहीं हो सकता. आरक्षण का सवाल आर्थिक सम्पन्नता- विपन्नता या अमीरी-गरीबी नहीं है. इसका मूलाधार सामाजिक और धार्मिक भेदभाव है. ऊँचे पदों पर आसीन बाबू जगजीवन राम, पीपल.पुनिया, जीतनराम मांझी आदि के साथ जो सामाजिक और धार्मिक दुर्व्यवहार हुआ वह सर्वविदित है. ऐसी शर्मनाम और मूर्खतापूर्ण अनेक घटनाएँ रोज घटती हैं. इसलिए आरक्षणका सम्बन्ध सामाजिक न्याय और धार्मिक न्याय से है न कि आर्थिक.एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जिस पर विचार करने की जरूरत है. कुछ लोग यह भी तर्क देते  हैं कि गैर-दलितों में भी गरीबी है. इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन यह अंशतः सही है पूर्णरूपेण नहीं. गैर दलित जो ऊँचे पदों परबैठा हुआ है, हजारों बिघे जमीन का मालिक है, देश-विदेश में अरबों की सम्पत्ति बनाया है.क्या वो सवर्ण अपने उन गरीब भाइयों कोअपनी अर्जित सम्पत्ति में हिस्सेदार बनाया है? जो गाँवों में पूजा कराकर कथा बाँचकर तथा यजमानी प्रथा से अपना घर चला रहा है.इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है नेपाल का पशुपति मन्दिर.उस मन्दिर में सिर्फ महाराष्ट्र का नम्बूदरीपाद ब्राह्मण ही मठाधीश बनता है,किसी अन्य गोत्र का ब्राह्मण नहीं. जो उनके अन्दर की खाई है उस पर भी सवाला उठने चाहिए. अभी मुट्ठीभर बहुजन आगे आये हैंउसी में भ्रम फैलाया जा रहा है जिनकेअधिकार का एक प्रतिशत भाग भी उन्हें मिला नहीं है. बहुजन आरक्षण के  कारण देश खंडित नहीं हुआ है, बल्कि शैक्षणिक अनुपात बढ़ा है, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ हुई है, बहुजन समाज के  स्त्री-पुरुष ने हर क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देकर देश को विश्व पटल पर गौरवान्वित किया है.
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सामाजिक न्याय का सपना तो सभी प्रकार के भेदभाव से रहित समाज का सपना है। इस अर्थ में यह बुद्ध, ईसा, कबीर और मार्क्स के भावों का विस्तार है
जो  लोग सोचते-समझते हैं तथा एक बेहतर समाज का स्वप्न देखते हैं, उन्हें भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा पर पिछले कुछ वर्षों से मंडरा रहे खतरों ने चिंतित कर रखा है। ये खतरे सामाजिक न्याय के विरोधियों की ओर से भी हैं, और आंतरिक भी। सबसे बड़ा खतरा इस अवधारणा के संकुचन का है। सामाजिक न्याय का अर्थ है उन सभी व्यक्तियों को न्याय उपलब्ध करवाना, जिन्हें किसी भी प्रकार के वर्चस्व के कारण अन्याय का सामना करना पड़ रहा है। यह अन्याय चाहे वर्ण अथवा नस्ल आधारित हो, पेशा आधारित, लिंग आधारित, धन आधारित, भौगोलिक क्षेत्र पर आधारित, धर्म आधारित, संस्कृति आधारित, परंपरा आधारित, भाषा आधारित, अथवा शारीरिक संरचना पर ही आधारित क्यों न हो। सामाजिक न्याय अपने मूल रूप में विशेषाधिकार आधारित योग्यतावाद के विरूद्ध एक निरंतर युद्ध है। मानवतावाद और करूणा इस यु़द्ध के स्थायी भाव हैं तथा जीवन के हर क्षेत्र में सभी को समान अवसर की उपलब्धता के लिए संघर्ष व सामाजिक विविधता का सिद्धांत, इस युद्ध के शस्त्र और अस्त्र।
लेकिन आज सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ वंचित तबकों से आने वाले कुछ लोगों का चुनाव जीत जाना माना जाने लगा है। व्यवस्थागत स्तर पर इसे सरकारी नौकरियों और निम्न गुणवत्ता वाली शिक्षा देने वाले ठस्स सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण तक सीमित कर दिया गया है। अधिक से अधिक कुछ लोग निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग करते हैं। इसे ही ‘सामाजिक न्याय’की लड़ाई का अंतिम छोर मान लिया गया है।
सामाजिक न्याय का यह अर्थ प्रचलित होना कि- यह वंचित तबकों को मात्र कुछ डिग्रियां दिलाने अथवा सरकारी-नि*मार्क्स के भावों का विस्तार है। इस भाव के संकुचन के लिए इस लड़ाई को लडऩे वाले भी जिम्मेवार हैं, लेकिन वास्तव में भारतीय समाज की वर्चस्ववादी शक्तियां भी यही चाहती हैं कि यह लड़ाई इसी संकुचित रूप में रहे तथा उनके अधीन विभिन्न प्रकोष्ठों में चलती रहे।
इसे भारतीय राजनीति के एक उदाहरण से समझ सकते हैं। भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष मुख्य रूप से द्विजों और शूद्रों-अतिशूद्रों-आदिवासियों के बीच है। द्विज अल्पसंख्यक हैं जबकि शुद्र-अतिशूद्र-आदिवासी बहुसंख्यक। देश के लोकतंत्र पर राज करने वाली दोनों प्रमुख पार्टियां – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी – अपने संगठन में ओबीसी प्रकोष्ठ, दलित प्रकोष्ठ, आदिवासी प्रकोष्ठ आदि रखती हैं। यह बहुजन तबकों के संघर्षों को एक प्रकार से कोष्ठकों में बंद करने का तरीका है। जब ये बहुजन समुदाय उनके प्रकोष्ठों में बंद हो जाते हैं तो स्वत: ही अल्पसंख्यक द्विज भारतीय राजनीति की मुख्यधारा बन जाते हैं। बहुजनों का काम सिर्फ  इतना रह जाता है कि वे संसद, मंत्रीमंडल में अपने समुदाय के प्रतिनिधियों तथा प्रधानमंत्री कार्यालय और अन्य प्रमुख सत्ता संस्थानों में अपने समुदायों के अधिकारियों की घटती-बढती संख्या की गिनती करते रहें! भारतीय राजनीति ने इस वर्चस्व  को बनाए रखने के लिए ‘अल्पसंख्यक’शब्द के अर्थ को ही भ्रामक बना दिया है। आज भारतीय राजनीति में इसका प्रचलित अर्थ है मुसलमान। मुसलमानों के लिए सभी पार्टियों में अलग प्रकोष्ठ होते हैं। देश में 13.4 फीसदी आबादी की हिस्सेदारी रखने वाले मुसलमान वास्तविक अल्पसंख्यक नहीं हैं, वोटों की संख्या की दृष्टि से तो कतई नहीं। अगर मुसलमान अल्पसंख्यक हैं तो बहुसंख्यक कौन है? कोई कह सकता है कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। तो फिर हिंदुओं के लिए दलित प्रकोष्ठ और ओबीसी प्रकोष्ठ क्यों हैं? लोकतंत्र में यह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि बहुसंख्यक कौन है। यही कारण है कि मुसलमानों का पसमांदा (शूद्र) तबका तथा दलित, बहुजन और आदिवासी  तथा अन्य वास्तविक अल्पसंख्यक ईसाई (2.3 प्रतिशत) और बौद्ध (0.8 प्रतिशत) को मिलाकर जिस ‘बहुजन’की अवधारणा तैयार होती है, उसे तोडने के लिए भारत का प्रभु वर्ग इस प्रकार की तिकडमें राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर अपनाता है।
दूसरी ओर, बहुसंख्यकवाद और समाजिक न्याय एक दूसरे के एकदम विपरीत हैं। इसलिए बहुजनवाद और बहुसंख्यकवाद के बीच के फर्क को भी समझना चाहिए। ‘बहुजन’शब्द बुद्ध के सूत्र वाक्य ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’से आया है। बहुजनवाद का अर्थ हैं, जो अधिकतम लोगों के हित के लिए हो। वर्चस्व स्थापित करने की इच्छुक अल्पसंख्यक शक्तियों के स्वार्थों का निषेध इसमें समाहित है। बहुजनवाद का अर्थ है, सभी फलें, फूलें, खिलें, कोई किसी पर वर्चस्व  स्थापित न करे। जबकि बहुसंख्यकवाद का अर्थ है बहुसंख्यक लोगों का अल्पसंख्यकों पर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व व उनकी संस्कृति का हरण।
हिंदुत्व की राजनीति अपने मूल रूप में यही करने की कोशिश करती है। हालांकि हिंदुस्तान में वास्तव में हिंदुत्ववाद से अधिक मजबूत ब्राह़मणवाद की राजनीति रही है, जो वास्तविक में अल्पसंख्यकवाद है, न कि बहुसंख्यकवाद।
सामाजिक न्याय की अवधारणा को इन दोनों अतियों से हमें बचाना होगा तथा इसे उस अंतिम समुदाय और अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना होगा, जिसे किसी भी कारण से वंचना झेलनी पड़ी हैIआरक्षण निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। यह सामाजिक प्रतिनिधित्व को प्रदर्शित करने के लिए एक आवश्यक उपकरण है। वास्तविकता यह भी है कि राज्य की ओर से भारत के बहुजन तबकों को जो एकमात्र चीज आज तक मिली है, वह ‘आरक्षण’ही है। इसके अतिरिक्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता के केंद्रो में उनकी कोई भागीदारी है ही कहां?
विश्व के सबसे अमीर लोगों की सूची में भारतीयों की संख्या निरंतर बढती जा रही है। इस प्रकार की सूचियां पिछले कई वर्षों से समाचार-माध्यमों की सुर्खियां बन रही हैं। उन खरबपतियों की तो छोडिए, भारत के सबसे अमीर सैंकड़ों लोगों की सूची में भी न कोई ओबीसी है, न कोई दलित, न कोई आदिवासी, न कोई पसमांदा मुसलमान। हो सकता है आपको इस संदर्भ में दलित चैंबर ऑफ कामर्स (डिक्की) से जुडे उद्योगपतियों की याद आए। जाति आधारित प्रताडना के बावजूद सफल हुए उन उद्योगपतियों का हौसला काबिले तारीफ है, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत के जिन अमीर लोगों की सूचियां समय-समय पर जारी होती रहती हैं, उनके सामने डिक्की से जुडे उद्योगपतियों की आर्थिक हैसियत कुछ भी नहीं है। वहां तो वे पहाड़ के नीचे खडे उंट की तरह ही दिखेंगे।
उदाहरण के लिए हम यह विचार करें कि आखिर क्या कारण है कि राजनीतिक रूप से इतनी जीतों के बावजूद आज तक, कम से कम उत्तर भारत में, बहुजन समुदाय के किसी व्यक्ति के पास कोई अखबार या टीवी चैनल नहीं है, जिसे ‘मुख्यधारा’का कहा जा सके? यह एक बडा सवाल है, जिसका सीधा सा उत्तर है कि उत्तर भारत के बहुजन समुदायों के किसी व्यक्ति की आर्थिक हैसियत इतनी नही हैं, जितना उन मुख्यधारा के अखबारों, टीवी चैनलों का मुकाबला करने लायक एक नया अखबार या टीवी चैनल खडा करने के लिए होनी चाहिए। इस संदर्भ में इसका या उसका नाम लेना व्यर्थ की बातें हैं। मीडिया मेनोपॉली के इस समय में एक नये समाचार-माध्यम समूह की स्थापना करना, एक नये साम्राज्य की स्थापना करना है, उसके लिए जितना धन चाहिए, उतना सिर्फ  उन्हीं के पास है, जो भारत के सबसे अमीर 100-150 लोगों की सूची में हैं। और उस सूची में कोई बहुजन नहीं है।
बहरहाल, सामाजिक न्याय का उद्देश्य निश्चित रूप से न तो बहुजन तबकों को नौकरियों तक सीमित रखना है, न अरबपति पैदा करना ही। लेकिन इस मामाले में हमें भारत में ‘बहुजन डायवर्सिटी मिशन’के संस्थापक एचएल दुसाध से सहमत होना होगा कि सत्ता के सभी केंद्रो और सभी प्रकार के संसाधनों के मालिकाना हक में सामाजिक-विविधता ही सामाजिक न्याय का कारगर उपाय है। आरक्षण उस दिशा में चलने के लिए जरूरी आरंभिक कदम भर है। लेकिन आवश्यक यह है कि हम पहली मंजिल पर ही न रूक जाएं बल्कि आगे के रास्तों पर भी नजर रखें।
फारवर्ड प्रेस का यह अंक ‘सामाजिक न्याय’के विभिन्न आयामों पर विमर्श की दिशा में एक शुरूआत है। अगले अंकों में भी हम इस विषय पर और सामग्री प्रकाशित करेंगे तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा को और विस्तार देने की कोशिश करेंगे।

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