अपनी चिंता छोड़ पड़ोसी के विषय में 'सामान्य ज्ञान' हासिल करना, दूसरों के चरित्र या उसके कार्यकलापों की जानकारी रखना अथवा किसी की पोशाक या खान-पान जैसी अति व्यक्तिगत बातों तक पर अपनी नजरें रखना गोया हमारे समाज की 'विशेषताओं' में शामिल हो चुका है। समाज का यही स्वभाव जब व्यापक रूप धारण करता है तो यही ताक-झांक कभी लिंग-भेद के आधार पर होने वाली पक्षपातपूर्ण सोच के रूप में परिवर्तित होती नजर आती है तो कभी यही सोच धर्म व जाति के आधार पर अपना फैसला सुनाने पर आमादा हो जाती है। बड़े अफसोस की बात है कि आज पुरुष-प्रधान समाज का रूढि़वादी व संकुचित सोच रखने वाला एक वर्ग यह तय करने लगा है कि कौन क्या पहने, कौन क्या खाए, कौन किससे मिले, कौन किससे शादी-ब्याह करे और कौन अपने बच्चों का नाम क्या रखे और क्या न रखे। स्वयं को बुद्धिजीवी तथा सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने का दावा करने वाले इसी पुरुष समाज के एक विशेष वर्ग द्वारा मानवाधिकारों का हनन करने वाले ऐसे सवाल कभी उठाए जाएंगे और वह भी आज के उस आधुनिक युग में जबकि इंसान चांद और मंगल जैसे ग्रहों की अविश्सनीय सी लगने वाली यात्रा की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है, इस बात की तो कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। पर दुर्भाग्यवश आज यही हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है।
जिस देश में दशकों से बिना बाजू (स्लीवलेस) कपड़े पहनने का चलन फैशन में हो, वहां के दकियानूसी व बीमार मानसिकता के लोग मोहम्मद समी या दूसरों को यह कहते फिरें कि आप अपने घर की महिलाओं को ऐसे कपड़े मत पहनाओ? इसी मानसिकता के लोगों ने सानिया मिर्जा की टेनिस-पोशाक पर भी सवाल उठाया था।
बड़ा अफसोस है कि इस प्रकार का प्रश्न खड़ा करने वालों की नजर ऐसे लोगों की प्रतिभा पर नहीं जाती बल्कि उन्हें इनके बाजू व जांघें दिखाई देती हैं। अब सीधा सा सवाल यह है कि कुसूरवार उन महिलाओं की बाजुएं हैं या फिर समाज के नुक्ताचीनी करने वाले इन स्वयंभू ठेकेदारों की नजरें? जाहिर है, अपनी गंदी नजरों व प्रदूषित सोच पर नियंत्रण रखना स्वयं इन्हीं की जिम्मेदारी है।
हमारे समाज के तंगनजर व संकुचित सोच रखने वाले लोगों को अपनी सोच व नजर पर नियंत्रण रखना चाहिए। धर्म-जाति या लिंग-भेद के आधार पर किसी वर्ग-विशेष पर निरर्थक विषयों को लेकर हमला बोल देना प्रगतिशील समाज के लक्षण कतई नहीं हैं। इस प्रकार के विषय जब राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मीडिया में प्रमुख स्थान बनाते हैं, तो उस समय देश का बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे विषयों को उछालने व हवा देने वालों पर हंसता है तथा उनकी मंदबुद्धि पर अफसोस करता है। ताक-झांक में व्यस्त रहने वालों को चाहिए कि वे किसी दूसरे के घर-परिवार में वहां की पोशाक, खान-पान व नामकरण जैसे विषयों में दखलंदाजी करने या उस पर खुद फैसला सुनाने से बाज आएं। बड़े आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों रियो में हुए ओलंपिक खेलों में जिस महिला समाज की सदस्यों (लड़कियों) ने पदक जीत कर देश की लाज बचाई हो उसी महिला समाज पर कुछ लोग यह कह कर उंगली उठाएं कि उसकी बाजू नंगी है या उसकी टांगें नजर आ रही हैं?
ऐसा प्रतीत होता है कि आलोचना की आड़ में सस्ता प्रचार पाने की जुगत में लगे रहने वाले लोग मौका देख कर मुखर होते हैं। क्योंकि पीवी सिंधु, साक्षाी मलिक और दीपा करमाकर जैसी होनहार लड़कियां जब भारत के लिए पद जीत कर लाईं उस समय इन सभी खिलाडिय़ों की पोशाकें वही थीं जो उनके खेलों के लिए खेल-नियमों के अनुसार निर्धारित की गई थीं। लेकिन चूंकि उस समय इनकी विजय का जश्न काफी जोर-शोर से मनाया जा रहा था और पूरा देश इनके समर्थन में खड़ा था कि नुक्ताचीनी करने वाले पुरुष-प्रधान मानसिकता के इन स्वयंभू ठकेदारों ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए अपने मुंह नहीं खोले, वरना उस समय भी ये जहर उगल सकते थे। अत: इन स्वयंभू काजियों को शहर की चिंता में दुबले होने की जरूरत कतई नहीं है।
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