एक समय किसी देश
में चारों ओर क्रांति की पुकार उठने लगी ।
अन्याय – पीड़ित, शोषित वर्ग के अधिकारों की मांग एकदम उभर पड़ी।
सर्वत्र एक ही
मांग गूंज रही थी – क्रांति !
क्रांति! क्रांति!
कारखानो के मजदूर
छुट्टी के समय जब गंदे कपड़ों मे बंधी सुखी रोटियाँ निकाल उन्हे पानी के सहारे कण्ठ
से नीचे उतारते तो एक ही बात कहते –अब क्रांति होनी
ही चाहिए।
शिक्षक पढ़ाते हुए
और किसान हल जोतते हुए क्रांति की बात सोंचते।
होटल में ,
बाज़ार में, बसों में, रेल में, चौराहों पर चौपालों पर एक ही स्वर उठता था।
क्रांति चाहिए ! क्रांति चाहिए !
कवि अपने गीतों
में क्रांति का आह्वान करते।
लेखक तरुणाई को
गर्म खून की सौगंध देकर क्रांति के लिए उभारते।
एक ही स्वर धरती
से उठकर आसमान को छेद रहा था – क्रांति !
क्रांति ! क्रांति !
राज्यसत्ता
क्रांति की इस पुकार से भयभीत हुई । राजा का हृदय दहला। मंत्री घबराए। नौकरसाह
सकपकाए। सत्ता, वैभब, एश्वर्य उन्हे हाथ से खिसकते नज़र आए।
राजा ने
मंत्रियों को बुलाया और उनसे सलाह की। उन्होने एक तरकीब निकाली।
तीन दिनो बाद देश
के तमाम अखबारों मे पहिले पृस्ठ पर मोटे-मोटे अक्षरों में उस बड़े व्यापारी का यह
वक्तव्य छपा- “क्रांति होनी
चाहिए। मनुष्य को मनुष्य का अधिकार मिलना ही चाहिए। जनता की सच्ची सरकार कायम होनी
चाहिए।
उस राज्य में
बड़े-बड़े व्यापारियों के चिकने पन्नोवाले, सुंदर कवर के, अनेक खूबसूरत
अखबार निकलते थे। सबने उसकी बात को प्रमुखता से छापा। वह बड़ा व्यापारी था। सब लोग
उसे जानते थे। उसका नाम सबने सुना था। लोगों ने कहा “कैसा निर्भीक है!”
बस वह सवेरे
व्यापारी था, शाम को नेता हो
गया।
इधर अनेक देशभक्त,
क्रांतिवीर, किसानो और मजदूरों में क्रांति की तैयारी कर रहे थे।
कुछ दिनो बाद उसस
व्यापारी ने तमाम व्यापारियों को मिला कर ‘क्रांतिकारी दल’ की स्थापना कर
ली।
और एक दिन देश के
तमाम अखबारों में उस व्यापारी की विभिन्न तसवीरों के साथ छापा- ‘क्रांति हो गयी ! राजसत्ता पलट गयी !राजा गद्दी
से उतार दिया गया ! क्रांतिकारी दल ने सरकार को खरीद लिया। अब जनता के सच्चे
प्रतिनिधि क्रांतिकारी दल का राज्य होगा।‘
अखबारों में बात
छपी तो सर्वत्र फैली और गूंजी- क्रांति हो गयी !, क्रांति हो गयी !
और लोगों ने
सोंचा – ‘अब करने को क्या रह गया?
क्रांति तो हो गयी ।‘
और सर्वत्र मरघट
सी मुर्दानि छा गयी। लोग निष्क्र्यि हो गए। सब पहले जैसा ही चलता रहा। राजा वही,
मंत्री वही, नौकरशाही वही। वही अन्याय, वही शोषण, लेकिन लोग शान्त।
उन्होने मान लिया की क्रांति हो गयी ।
और इधर क्रांति
करने वाले वीर सोंचने लगे – यह क्रांति बिना
किए कैसे हो गयी !
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