संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावती' को लेकर जो बवाल हो रहा है, उसकी जड़ें इतिहास में हैं. जो लोग संजय लीला भंसाली पर हाथ उठाकर ये दावा कर रहे हैं कि वो रानी पद्मिनी के सम्मान की रक्षा कर रहे हैं उनका इतिहास भी कुछ खंगाल लिया जाए.
यह किसी मध्ययुगीन सूफी शायर का काल्पनिक किस्सा नहीं है. बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है. राजस्थान में एक महान राजपूत नेता हुआ करते थे. उनका नाम था भैरो सिंह शेखावत, जो बाद में भारत के उपराष्ट्रपति भी बने. एक दिन, रेलवे स्टेशन पर सैकड़ों राजपूत लोगों ने शेखावत को घेर लिया, उनके हाथों में तलवारें थीं और वो शेखावत पर हमले की धमकी दे रहे थे. वजह यह थी कि उन्होंने रूप कंवर के महिमामंडन की राजपूतों की मांग का समर्थन करने से इनकार कर दिया था.
रूप कंवर एक युवती थी, जिसे 1987 में देवराला नाम के गांव में उसके पति की चिता के साथ जला दिया गया था. खून की प्यासी भीड़ शेखावत के आसपास खड़ी थी, लेकिन शेखावत वहां से भागे नहीं. उन्होंने इस भीड़ के सामने खुलकर कहा कि वह रूप कंवर को जलाए जाने का समर्थन नहीं करेंगे. शेखावत ने दहाड़कर कहा 'मैं बहुत छोटा था जब मेरे पिता की मौत हो गई थी. अगर मेरी मां भी खुद को जला लेती, तो फिर मेरी परवरिश कौन करता. मैं सती जैसी प्रथाओं की निंदा करता हूं.
इस कहानी से राजस्थान के राजपूतों की मानसिकता के बारे में बहुत कुछ पता चलता है. ये वही लोग हैं जो कुछ समय पहले तक परंपरा के नाम पर एक औरत को नशीली दवाएं देने, उसे जंजीरों में जकड़ने और फिर उसे जिंदा जलाए जाने का महिमामंडन कर रहे थे और उस महिला को देवी बता रहे थे. दूसरा कारण, अब रानी पद्मिनी के सम्मान में राजपूत करणी सेना नाम का जो संगठन हाथ पैर मार रहा है, उसके तार भी 20वीं सदी में सती जैसी प्रथाओं को कानूनी बनाने की मांग करने वालों से जुड़े रहे हैं.
पश्चिमी राजस्थान के एक हट्टे कट्टे राजपूत लोकेंद्र कालवी भंसाली विरोधी मुहिम का नेतृत्व कर रहे हैं. वह कल्याण सिंह के बेटे और उनके राजनीतिक वारिस हैं. कल्याण सिंह वही व्यक्ति हैं जिन्होंने सती प्रथा के महिमामंडन और रूप कंवर को देवी बनाने के लिए मुहिम चलाई थी. और आज पद्मिनी की गरिमा की रक्षा के लिए उछल कूद कर रही राजपूत सभा सामंती और बर्बर प्रथाओं को जायज ठहराने वाली मुहिम की अगवा रही है.
दरअसल बात जब महिलाओं के अधिकारों की आती है तो राजस्थान के राजपूत संगठनों का इतिहास विरोधाभासों से भरा रहा है. अगस्त 1997 में जब जयपुर के पूर्व राजघराने की बेटी और स्वर्गीय महारानी गायत्री देवी की पोती दिया कुमारी ने जयपुर पैलेस के ही एक कैशियर नरेंद्र सिंह से शादी की तो राजपूतों के पेट में मरोड़ हो गई, जो लोग आज भंसाली के पीछे पड़े हैं, उन्हीं के नेतृत्व में राजपूत महासभा ने पूरे राज्य में विरोध प्रदर्शन किए और राजघराने को खूब बुरा भला कहा. सिर्फ इसलिए कि उसने अपनी अकेली संतान को समुदाय की इच्छाओं के विपरीत शादी करने की इजाजत दे दी. इन लोगों ने राजघराने का हुक्का पानी बंद करने और उन्हें दिए गए खिताब छीनने की भी धमकी दी.
इसी हंगामे के कारण, शाही परिवार को दिल्ली में एक सादे से समारोह में दोनों की शादी करानी पड़ी. इसके कुछ साल बाद, कालवी और उनके समर्थकों ने सामाजिक न्याय मंच बनाया और ऊंची जातियों के लिए आरक्षण की मांग उठाई. और देखिए सामाजिक न्याय के लिए उन्होंने अपना अभियान किस तरह चलाया? तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की सभाओं में हिंसक प्रदर्शन करके. कालवी के नेतृत्व में राजपूत हुड़दंगियों ने कई जगहों पर पर हमले किए, उनकी सभाओं और रैलियों में बाधा डाली और राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री की नाक में खूब दम किया.
बड़ी हैरानी होती है कि अब वही लोग उस पद्मिनी के सम्मान में खड़े हैं, जिसका अस्तित्व इतिहास में कल्पना की दहलीज पर खड़ा है. मलिक मोहम्मद जायसी की बखान की गई कहानी में शायद एक महिला थी, जो सैकड़ों लोगों के साथ जलती चिता में भस्म होने के लिए भेजी गई थी. जरा सोचिए यही राजपूत जो सती को सही ठहराते हैं, उन्होंने एक महिला को सिर्फ इसलिए समाज से बाहर करने की धमकी दी थी कि उसने अपने परिवार के आशीर्वाद से, लेकिन समुदाय की मर्जी के खिलाफ अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी की.
इन्हीं राजपूतों ने एक महिला मुख्यमंत्री को परेशान किया और यही अब एक फिल्म निर्देशक पर हमला कर रहे हैं क्योंकि वह चित्तौड़गढ़ के राजा और श्रीलंका की राजकुमारी की प्रेम कहानी को घुमाना चाहता है. कहा जाता है कि इन दोनों को एक तोते ने मिलाया था. राजस्थान में कभी राजपूतों का दबदबा था. विरोध का झंडा थामने वाले इन लोगों का मानना है कि भंसाली एक ऐसा गाना फिल्माने की सोच रहे, जिसमें रानी पद्मिनी को सपने में अलाउद्दीन खिलजी के साथ डांस करते हुए दिखाया जाएगा, इसी बात पर ये लोग भड़के हुए हैं.
इस मामले में भी समस्या वही है. हर समुदाय मिथकों और कहानियों को भी सच मान लेता है. कुछ विश्वास, मिथक और रूढ़ियां इतनी गहरी जड़ें जमा लेते हैं, फिर कल्पना को तथ्यों से और बयानबाजी को तर्कों से अलग करना असंभव हो जाता है. ठीक ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ वालों की तरह. मैंने जयपुर में रहने वाले डॉ ओमेंद्र रत्नु से बात की. वह एक सर्जन हैं और भंसाली की फिल्म के खिलाफ जारी अभियान में जोर शोर से शामिल हैं. मैंने उनसे पूछा कि राजपूत फिल्म का क्यों विरोध कर रहे हैं?
उनकी दलील थी: 'पद्मिनी हमारी मां और हमारी देवी है. पद्मिनी ने इसलिए जौहर किया ताकि कोई उसके शरीर को छू भी न पाए. अगर कोई उसका अपमान करता है, तो उसे चौराहे पर खड़ा करके सरेआम सजा दी जानी चाहिए.' 'इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसका अस्तित्व, उसके साहस की कहानी दस्तावेजों में दर्ज या नहीं. नालंदा में बहुत सारे हिंदू दास्तावेजों को जला दिया गया था. हमारे यहां तो मौखिक परंपरा रही है.. हम राजपूतों के लिए, हिंदुओं के लिए यह विश्वास, गर्व और सम्मान की बात है. किसी फिल्ममेकर ने अपनी मां का दूध पिया है तो जीजस और अल्लाह के अस्तित्व पर सवाल उठा कर दिखाए..ठीक है, भंसाली हमें अपने स्क्रिप्ट दिखाएं.'
साफतौर पर इस पूरे मामले का सियासी पहलू भी है. 14वीं सदी की कहानी, जो उसके तीन सौ साल बाद लिखी गई, उस पर अब बहस बहुत से राजपूतों के लिए कई मायनों में अहमियत रखती हैं. बयानों के इस युद्ध में, जहां ताकतवर ही सही समझा जा सकता है, वहां जीत सिर्फ एक की हो सकती है. फिल्म को राजनीतिक और भावुक मुद्दा बनाने से राजपूतों के हित सधते हैं. राजस्थान में कभी राजपूतों का दबदबा था, लेकिन अब वे राजनीति रूप से हाशिए पर चले गए हैं. जाटों और मीणाओं की पूछ कहीं ज्यादा बढ़ गई है. कालवी जैसे नेता अपनी खोई अहमियत को फिर से हासिल करना चाहते हैं और सियासी दमखम दिखाना चाहते हैं. अगर समुदाय के लिए न सही तो कम से कम अपने लिए ही सही.
इसलिए वो अकसर ऐसे मुद्दे उठाते हैं, जिन पर पूरे समुदाय को एकजुट किया जा सके, भले मुद्दा कितना भी बेतुका, मध्ययुगीन और बर्बरापूर्ण ही क्यों न हो. सती प्रथा को सही ठहराना या फिर समुदाय की मर्जी के खिलाफ जीवन साथी चुनने वाली महिला की शादी को खारिज करना ऐसे ही मुद्दे हैं. बेशक असली मुद्दों की कोई कमी नहीं है. ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जो राजस्थानी महिलाओं और खासकर राजपूत महिलाओं की जिंदगी को प्रभावित करते हैं और जिन पर समुदाय को ध्यान देना चाहिए, अपना गुस्सा जाहिर करना चाहिए.
राजपूतों को अपने समुदाय की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए बहुत काम करना होगा, खासकर उन महिलाओं के लिए जिन्होंने कड़ी चुनौतियों के बावजूद आगे बढ़ते जाने का फैसला किया है. बरसों से राजपूतों ने महिलाओं के अधिकारों की पूरी तरह अनदेखी की है. बहुत समय तक राजपूतों में विधवा विवाह पर कोई बात ही नहीं करता था, जबकि खेती बाड़ी करने वाले बहुत से समुदायों में इसे सामाजिक मान्यता मिल गई थी. लेकिन राजपूतों में इसे अच्छा नहीं माना जाता था.
जिन लोगों ने फरमान मानने से इनकार कर दिया, उन्हें समाज से बाहर कर दिया गया, उनसे अछूतों जैसा व्यवहार किया गया. कुछ साल पहले ही राजपूतों में विधवा विवाह को मौन सहमति मिली है. ज्यादातर राजपूत महिलाएं आज भी पर्दे में ही रहती हैं. शादी या अन्य सामाजिक आयोजनों में उनके लिए अलग से प्रबंध किया जाता है. आधुनिक जमाने में उनके यहां ऐसा चलन है. देश में सबसे कम सारक्षरता राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में है. बच्चों में अंतर, स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या, शिशु मृत्यु दर, लैंगिक अनुपात और शादी की उम्र जैसे मानकों पर भी राजस्थान की स्थिति खराब है.
1997 में जब राजपूत जयपुर राजघराने को समुदाय से बाहर करना चाहते थे, तो ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने आसमान सिर पर उठाने वाले इन लोगों से कहा कि वे राजपूतों की गरीबी और अशिक्षा पर ध्यान दें. भवानी सिंह नाम मात्र के ही सही, लेकिन उस कछ्छावा गोत्र के प्रमुख थे, जिसने जयपुर राजवंश की नींव रखी थी. 'बबल्स सिंह' के नाम से मशहूर रहे भवानी सिंह और राजस्थान के इकलौते शेर कहे जाने वाले उपराष्ट्रपति शेखावत अगर आज जिंदा होते तो उन्हें राजपूत नेताओं की इन चिंताओं के बारे में सोच कर बड़ा मजा आता कि कैसे वो महिलाओं के सम्मान में जमीन आसमान एक किए हुए हैं. क्या पता रूप कंवर भी इन्हें देखकर मुस्करा रही होती. (साभार- फर्स्टपोस्ट)
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