Friday, January 20, 2017

दलित

जिस समाज में हम रहते हैं वह उत्सवप्रेमी है, कानूनप्रेमी नहीं. हम पूरे ताम-झाम से आम्बेडकर जयंती, संविधान दिवस तो मना लेते हैं लेकिन आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों पर रोज हो रहे हमलों को लेकर उदासीन बने रहते हैं. ऐसा नहीं है कि सभी ‘आम नागरिकों’ को एक तराजू पर तौला जा सकता हो. इसे कई श्रेणियों में बांट कर देखना ही उचित है. जिस समूह के अधिकारों की जरा भी परवाह यह समाज नहीं करता, वह दलित समुदाय है. असल में, दलित समुदाय के संदर्भ में संवैधानिक अधिकारों का प्रश्न बाद में आता है, प्राथमिक सवाल उनके जीवन और उनके अस्तित्व का है.
आजादी मिलने के बाद से दलित समुदाय अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए संघर्षरत है. अस्मिता का मुद्दा उनके लिए महत्वपूर्ण है जिनका वर्गांतरण हो चुका है या हो रहा है. ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है. कभी माना गया था कि जो दलित कस्बाई या शहरी हो गए हैं, जीवन की बुनियादी सुविधाएं जुटा चुके हैं, थोड़ी बहुत शिक्षा हासिल कर ली है, वे हिंसक जातिवादी हमलों की परिधि से बाहर आ चुके हैं. अब यह मान्यता बेतरह खंडित हो चुकी है. ऐसे साक्ष्यों का हमारे सामने अंबार लगा हुआ है जो चीख-चीख कर बता रहे हैं कि जातिवादी मानसिकता किसी भी श्रेणी के दलित को नहीं बख्शती. गांव से लेकर कस्बे तक, धुर देहात से लेकर महानगरों तक दलित हर जगह असुरक्षित हैं. वे हमेशा संकट के साये में जीते हैं. उनका घर-बार कभी भी लूटा जा सकता है. उनके पक्के मकानों से लेकर झुग्गियां तक कभी भी आग के हवाले की जा सकती हैं. दलित स्त्रियों के साथ कहीं भी और कभी भी बलात्कार हो सकता है. दुधमुंहे दलित बच्चों पर कभी भी पेट्रोल डालकर माचिस की तीली दिखाई जा सकती है. अपने दर्द का बयान करने वाले नवोदित दलित लेखकों को कभी भी घेरा जा सकता है. उनकी अंगुलियां काटी जा सकती जा सकती हैं या काटने की धमकी दी जा सकती है. आज जातिवादी हिंसा अपने उफान पर दिखाई दे रही है.
अब भी कुछ लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जातिवाद गुजरे दिनों की हकीकत है. अब समाज बहुत आगे चला आया है. अब जाति की परवाह कौन करता है? ऐसे लोगों से सिर्फ इतना कहना चाहिए कि वे अखबारी रपटों पर एक नजर डाल लें. एक बार वैवाहिक विज्ञापनों पर सरसरी निगाह फेर लें. जाति व्यवस्था की विकट उपस्थिति जाहिर हो जाएगी. अंतरजातीय विवाह करने वालों के साथ जातिवादी समाज कितनी क्रूरता से पेश आता है, इसकी तमाम मिसालें आसपास मिल जाएंगी. पिछले डेढ़ दशक पर ही हम अपना ध्यान केंद्रित करें और जाति आधारित हिंसा की कुछ चुनिंदा घटनाओं को याद करें तो इस समाज की भयावह सच्चाई का कुछ अंदाज लग जाएगा. देश की राजधानी की नाक के ठीक नीचे महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर आर्थिक रूप से विकसित हरियाणा राज्य में जातिवादी हमलों का एक सिलसिला चल रहा है. अक्टूबर 2002 में झज्जर जिले के दुलीना पुलिस चौकी इलाके में 5 दलित युवकों को गाय मारने के शक की बिना पर पीट-पीट कर मार डाला गया. इसी राज्य के सोनीपत जिले की तहसील गोहाना में अगस्त 2005 में पूरी वाल्मीकि बस्ती लूट कर जला दी गई. सोनीपत के पड़ोसी जिले करनाल के महमूदपुर में फरवरी 2006 में जाटव मोहल्ले पर हमला हुआ. इसमें मोहल्ले के करीब दो दर्जन लोग घायल हुए. बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया. करनाल जिले के ही सालवन गांव में मार्च 2007 में लगभग 300 दलित घरों पर हमला हुआ. लूटने के बाद हमलावरों ने तमाम घरों में आग लगा दी. अप्रैल 2010 में हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में वाल्मीकि बस्ती पर हमला हुआ. हमलावरों ने दो दर्जन घरों को आग लगा दी, कई घरों में लूटपाट की और हमले के वक्त सुबह नौ बजे बस्ती में जो भी मिला, उन्हें बुरी तरह मारा पीटा. ताराचंद वाल्मीकि की बारहवीं दर्जे में पढ़ने वाली होनहार बेटी सुमन (18 वर्ष) पोलियोग्रस्त होने के कारण भाग न सकी. पिता भी उसी के साथ रुके रहे. हमलावरों ने बाप-बेटी दोनों को जला दिया. दलितों को जिंदा जलाने का यह क्रम अभी हाल में पुनः संपन्न किया गया.
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हर दिन कहीं न कहीं ​दलितों पर क्रूरतापूर्ण हमलों की खबरें आती हैं. आप पूछते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, हमारे पूरे समाज की संरचना ही ऐसी है कि यहां दलितों पर हमले कोई हैरानी की बात नहीं है. यह होना ही है. सत्ता में भागीदारी बढ़ने के साथ-साथ दलितों पर हमले भी बढ़े हैं. असल में हमने दलितों के सशक्तिकरण की बात तो की, लेकिन जाति को खत्म करने की जगह​ जिंदा रखा. संविधान में भी यह खेल किया गया कि आरक्षण तो मिले लेकिन जाति जिंदा रहे. जाति और धर्म की संरचना को संवैधानिक ढंग से जिंदा रखा गया है. इस पर कोई सवाल नहीं करता. जैसे आजकल कोई गाय की राजनीति पर सवाल नहीं करता, उसका अपने फायदे में कितना भी खतरनाक इस्तेमाल हो. उसी तरह संविधान की संरचना अगर जातिगत व्यवस्था को बनाए रख रही है तो कोई सवाल नहीं उठाता. यह सब ऊंंची जाति के लोगों की चाल थी कि जाति व्यवस्था जिंदा रहे. जाति जब तक जिंदा है, तब तक दलितों के साथ छुआछूत, भेदभाव और हिंसक हमले होते रहेंगे.
आम्बेडकर का मिशन जाति का जड़ से खात्मा था ताकि एक ऐसा समाज बनाया जा सके जो आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो. लेकिन आम्बेडकर के लिए जितने प्यार का दिखावा किया जाता है, उतनी ही हिकारत उनके सपनों को लेकर बनी हुई है. जातियों को भूल जाइए, जिन्हें संविधान में जज्ब कर दिया गया था और जिन्हें ऊपर से लेकर नीचे तक पूरे समाज को अपनी चपेट में लेना था; छुआछूत जिसको असल में गैरकानूनी करार दिया गया था, अब भी अपने सबसे क्रूर शक्ल में मौजूद है. हाल में कई सर्वे रिपोर्ट में छुआछूत की दहला देने वाली घटनाएं उजागर हुई हैं. असल में छुआछूत जाति का महज एक पहलू है और जातियां बनी रहीं तो छुआछूत भी कभी खत्म नहीं होगी. आम्बेडकर का आजादी, बराबरी और भाईचारे का आदर्श बहुत दूर है और हरेक गुजरते हुए दिन के साथ यह और भी दूर होता जा रहा है. आज भारत की गिनती दुनिया के सबसे गैरबराबरी वाले समाज में होती है! एक जातीय समाज में भाईचारा वैसे भी कल्पना से बाहर की बात है, 1991 के बाद के नए जातीय भारत में तो और भी कल्पनातीत हो गया है.
विकास का ऐसा कोई पैमाना नहीं है, जिसमें दलितों और गैरदलितों (बदकिस्मती से इसमें मुसलमान भी शामिल हैं, जिनकी दशा दलितों जितनी ही खराब है) के बीच की खाई बढ़ी नहीं है. इस खाई की सबसे चिंताजनक विशेषता यह है कि यह पहले चार दशकों के दौरान घटती हुई नजर आई, जबकि नवउदारवादी सुधारों को अपनाने के बाद से यह बड़ी तेज गति से और चौड़ी हुई है. इन नीतियों ने दलितों को कड़ी चोट पहुंचाई है और उन्हें हर मुमकिन मोर्चे पर हाशिये पर धकेला है. अगर उत्पीड़नों को जातीय चेतना के प्रतिनिधि के रूप में लिया जाए तो कोई भी इस नतीजे पर पहुंचने से नहीं बच सकता कि पिछले नवउदारवादी दशकों में जातीय चेतना अभूतपूर्व गति और तेजी से बढ़ रही है.
1968 में तमिलनाडु के किल्वेनमनी में, जहां 44 दलित औरतों और बच्चों को जिंदा जला दिया गया था, वहां दलित हिंसा अपनी नई शक्ल में सामने है. आंध्र प्रदेश (करमचेडु, चुंदरू) के बदनाम अत्याचारों, बिहार के दलित जनसंहारों ने यह साफ है कि राज्य दलितों के खिलाफ जातिवादी अपराधियों को शह दे रहा है. 1996 में बथानी टोला जहां 21 दलितों की हत्या कर दी गई, 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे जहां 61 लोगों को काट डाला गया, 2000 में मियांपुर जहां 32 लोग मारे गए, नगरी बाजार जहां 10 लोगों की 1998 में हत्या कर दी गई और शंकर बिगहा जहां 1999 में 22 दलितों का जनसंहार किया गया था. हरियाणा दलितों पर अत्याचार के लिए बदनाम है जहां मिर्चपुर जैसी भयावह घटनाएं हुईं.


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