Friday, January 13, 2017

मन की बात

गाँव री लुगायाँ, भौरानभोर उठती, पीसणो  पीसती, खीचड़ो   कूटती, रोट्यां   पोंवती । 
गाँव री लुगायाँ, पूसपालो ल्यावंती,गायाँ  ने  नीरती, दूध    ने   दुंवती, बिलोवणो  करती । 
गाँव री  लुगायाँ, बुहारी     काढ़ती,बरतन   माँजती, कपड़ा     धोंवती,टाबर बिलमावती । 
गाँव री लुगायाँ,खेत म   जाँवती, निनाण कराँवती, सीट्या तुड़ावँती, खलो    कढावँती । 
गाँव री  लुगायाँ, पाणी ल्याँवती, गोबर    थापती,माथो     बाँवती, मेहंदी   माँडती । 
गाँव री लुगायाँ, बरत     करती, भजन   गाँवती ,पीपल  सींचती, का"णी   सुणती । 
गाँव री लुगायाँ, तातो जिमावती, लुखी खाँवती, सगळौ काम, सळटा"र सोंवती । 
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चौमासो

जका चल्या गया छोड़' र गाँव
बसग्या टाबरा ने लैर परदेश
                        बानै कांई लेणो है बिरखा स्यूं
                       अर कांई लेणो है चौमासा स्यूं


दीसावरा में चालै चौखा धंधा
एयरकण्डीशन में बैठ्या करे मौज
                      देश में बिरखा बरसे जे नहीं बरसे
                               बांको मन तो कदै नी तरसे


बजार में मिल ज्यावै सगळी सरा
काकड़ी,मतीरा,काचरा र फल्या
                         चोखा-चोखा छाँट-छाँट ले आवै
                     जणा बानै क्यू चौमासो याद आवै


फरक पड़े है गाँव में रेव जका कै
नहीं बरस्यां काळ पड़तो ही दीखै  
                   पड्या काळ मुंडै पर फेफी आज्यावै
                      डांगर-ढोर भूखा मरता मर ज्यावै


ना होली दियाळी लापसी बणै
ना टाबरियां ने सीटा पौळी मिलै
                      घरां में रोट्या का फोड़ा पड़ ज्यावै
                      बाबो बिना दुवाई के ही मर ज्यावै।
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तुम थी मेरी जीवन साथी, तुम से था मेरा संसार
खो गया सूरज सिंदूरी, तुम साथ छोड़ कर चली गई।

सुख गया जीवन का उपवन,रहा कभी जो हरा-भरा
आया पतझड़ जीवन में,तुम साथ छोड़ कर चली गई।

मैंने आँखों में डाला था,जीवन के सपनों का काजल 
चलते-चलते राहों में, तुम साथ छोड़ कर चली गई। 

सातों कसमें खा कर के हम, साथ निभाने को आए
ढल चली संध्या सुहानी,तुम साथ छोड़ कर चली गई।

दुःख मेरा अब क्या बतलाऊँ, दिल रोता है रातों में 
संगी-साथी कोई नहीं,तुम साथ छोड़ कर चली गई। 

गीत अधूरे रह गए मेरे,अब क्या ग़मे बयान करूँ
बिखरी सारी आशाएं,तुम साथ छोड़ कर चली गई।
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नहीं मरनी चाहिए
पति से पहले पत्नी
भीतर-बाहर
सब समाप्त हो जाता है।

घर भी नहीं लगता
फिर घर जैसा
अपने ही घर में पति
परदेशी बन जाता है।

बिन पत्नी के
पति रहता है मृतप्रायः
निरुपाय,अकेला
ठहरे हुए वक्त सा और
कटे हुए हाल सा।

घर हो जाता है
उजड़े हुए उद्यान सा
बेवक्त आये पतझड़ सा।

ढल जाती है
जीवन की सुहानी संध्या
अधूरा हो जाता है
बिन पत्नी के जीवन।

अमावस का अन्धकार
छा जाता है जीवन में
बेअर्थ हो जाता है
जीना फिर जीवन।

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