वर्तमान भारतीय समाज की सबसे बडी त्रासदी है-पारिवारिक विघटन। इसका प्रमुख कारण है-पाश्चात्य अर्थ व्यवस्था का व्यापक प्रभाव। भारतीय समाज व्यवस्था, वर्ण और अपृश्यता को छोडकर अपने मौलिक स्वरूप में विलक्षण है। इस समाज व्यवस्था में लोकतन्त्र तथा समाजवाद का, ऐसा गहन तथा व्यापक सम्मिश्रण है कि इसके सम्बंध में कोई विद्वान समाजशास्त्री भी स्पष्ट रूप से अपना मत अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
कबीलाई गणतन्त्र से लेकर सामंतवादी राजतन्त्र, कट्टरवादी, यवन-तन्त्र, उपनिवेश वादी अंग्रेज-तन्त्र एवं स्वतंत्रतावादी लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली के समारम्भ होने तक भारतीय समाज व्यवस्था सदैव अपने मौलिक स्वरूप में अक्षुण्ण रही है। यहाँ तक कि भारत की सीमा से लगते साम्यवादी साम्राज्यवाद ने भी भारतीय समाज-व्यवस्था को वर्ग-भेद होने के बावजूद व्यापक रूप से प्राभावित नहीं किया। भारतीय समाज की सुदृढता, भारतीय परिवार की सुदृढता में निहित है। परिवार भारतीय समाज की एक लघुतम इकाई है जो भारतीय संस्कृति के समस्त मौलिक तत्वों को आत्मसात किये रहती है। भारत के एक छोटे से छोटे परिवार में सम्पूर्ण भारत-राश्ट्र की झलक देखी जा सकती है।
भारतीय परिवार की सुदृढता का आधार है भावात्मक सहकार। परिवार के प्रत्येक सदस्य में बौद्धिक तथा आर्थिक सम्बंधों से ऊपर की प्रगाढता होती है। परिवार के सदस्यों की बौद्धिक, आर्थिक तथा पारिश्रमिक क्षमता चाहे कम या अधिक हो सकती है किन्तु दुःख और सुख में सबकी सम्भागिता सदैव समान ही होती है। परिवार के किसी सदस्य का मान अपमान सम्पूर्ण परिवार का मान-अपमान समझा जाता है। शिक्षा
,चिकित्सा,वस्त्र,भोजन और आवास की सुविधा सबके लिए समान होती है तो विकास के अवसर भी सबके लिए समान ही होते है। यह अलग बात है कि आत्मोन्न्ति, अपनी निजी चेतना की सर्वरता पर निर्भर करती है। शादी – विवाह,त्यौहार-उत्सवों में सबकी सम्भागिता समान होती है। परिवार के किसी सदस्य का मित्र-सम्बन्धी पूरे परिवार का ही मित्र सम्बन्धी होता है।
,चिकित्सा,वस्त्र,भोजन और आवास की सुविधा सबके लिए समान होती है तो विकास के अवसर भी सबके लिए समान ही होते है। यह अलग बात है कि आत्मोन्न्ति, अपनी निजी चेतना की सर्वरता पर निर्भर करती है। शादी – विवाह,त्यौहार-उत्सवों में सबकी सम्भागिता समान होती है। परिवार के किसी सदस्य का मित्र-सम्बन्धी पूरे परिवार का ही मित्र सम्बन्धी होता है।
भारत के परिवार के(स्त्री-पुरुष ) प्रत्येक सदस्य का पद तथा पद के अनुसार उनका सम्बोधन भी निश्चित होता है। अधिकार और दायित्व भी निश्चित होते है। यही कारण है कि भारतीय परिवारों में सम्बन्धों की श्रृंखला अति विस्तृत होती है जो इतर भारतीय समाजों में नहीं पाई जाती। परिवार के सभी महत्वपूर्ण निर्णय परिवार के मुखिया द्वारा ही लिए जाते है जिसकी योग्यता उसकी आयु के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होती, किन्तु उसके अनुभव को कोई चुनौती नहीं दे सकता।
स्पष्ट है ईंट जितनी मजबूत होंगी, दीवार भी उतनी ही मजबूत होगी, भवन भी उतना ही मजबूत होगा। भारतीय समाज की सुदृढ संरचना का मूल सूत्र भी यही है। किन्तु सदियों से सुदृढ जिस भारतीय समाज की संरचना ने अनगिनत रातनैतिक विप्लवों और सांस्कृतिक झंझावातों की परवाह किए बिना अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाये रखा, क्या भविष्य में भी बिना प्रयास किए हमारे समाज का ताना-बाना इसी प्रकार से सुरक्षित बना रह सकेगा। आखिर इस प्रश्न की उपज का कारण क्या है? लाख आत्म विष्वास के बावजूद भी क्यों हम हमारे समाज के सुसंस्कृत भविष्य के बारे में आषंकित हो उठते है? क्यों अचानक ही हमारी बौद्धिक वीणा की तंत्रियों में विप्लव राग झनझना उठता है?
मेरी समझ में इन प्रष्नों के प्रति तटस्थ रहना हमारा अपने सामाजिक,सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति उदासीनता का आवरण ओढ लेना है। यदि हम एक प्राणवान समाज हैं,और जीवित एक राष्ट्र है तो हमें साम्राज्यवादियों के हाथ में आई दो धार की तलवार से सावधान रहना होगा। जो हमारी गर्दन पीठ पर प्रहार करने के बजाय सीधे हमारे दिल की धडकनों में चुभाई जाने लगी है। चाहे इसे वाम हस्त से चलाया जाये अथवा दक्षिण हस्त से किन्तु लक्ष्य साधन में कोई अन्तर नहीं होता।
तलवार की दोनों धार दिखने में चाहे भिन्न दिखाई देती हों किन्तु दोनों ही धार अर्थ की सान पर घिसकर चमकाई हुई है। जो व्यक्ति की इयत्ता को चीरकर पारिवारिक सांमजस्य का कीमा बना डालती है।एक व्यवस्था अर्थ के साम्य पर आधारित है। जिसमें राज्य हित सर्वोपरि किन्तु व्यक्ति का कोई अस्तित्त्व नहीं होता। खान-पान, रहन-सहन, शिक्षा , चिकित्सा, यहाँ तक कि व्यक्ति के क्रिया-कलाप, विचार और भावनाओं पर बाहरी नियन्त्रण रहता है। व्यवस्था निरंकुष रहती है तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पूर्णतया बाधित रहती है। व्यक्ति परिवार और समुदाय के लिए नहीं, राज्य के लिए जिम्मेदारी होता है। ऐसी स्थिति में परिवार की कल्पना का कोई अस्तित्त्व नहीं होता।
इस व्यवस्था की आधार भूमि सामाजिक और आर्थिक विशमता हुआ करती है। यह विशमता राज्य की अदूरदर्षी नीतियों के कारण पनपती है। जब तक सम्पूर्ण इच्छा षक्ति से व्यवस्था का परिस्कार नहीं किया जाता तब तक निरंकुष व्यवस्था के बीजांकुरण की सम्भावना कम नहीं होती। विशमता को चरम तक पहुँचने से पूर्व,इस व्यवस्था के अंकुर निकलकर भी अपना विकास नहीं कर पाते। जैसा कि भारत के अशिक्षित ,दलित और गरिब समुदायों को यदा-कदा उनकी स्थितियों में चमत्कारी परिवर्तन का लॉली पॉप खिलाकर उनकी अपरिश्कृत विचारधारा को लाल पानी के सागर के किनारों का पर्यटन करवाया जाता है। उनकी स्थितियों और परिस्थितियों का चमत्कारिक परिवर्तन के नाम पर धार्मिक कट्टरवादियों की भांति भावनात्मक दोहन किया जाता है। आंखों में रक्त भरकर मरूस्थल, पर्वत, जंगल और कछार में भटकने वाला व्यक्ति साम्य के नाम पर परिवार और समाज के आधार को चकनाचूर कर देता है।
लेकिन तलवार की दूसरी धार इससे भी अधिक विनाषक और खतरनाक हैं। जो व्यक्तिगत अर्थलाभ की धुरी पर सारे संसार को नचाती हैं । यह व्यवस्था स्वतन्त्रता के नाम पर स्वच्छन्दता एवं स्वेच्छाचार का मोहक जाल फैलाती है। यह प्रतिस्पर्धात्मक होती है। जो व्यक्ति के मस्तिष्क में निरंकुश लाभ की कीली ठोकती है। व्यक्ति का मस्तिश्क झूठ-कपट और छंन्दों से भर जाता है और व्यक्ति हित के सामने परिवार समाज और राश्ट्र का हित गौण हो जाता है। निर्बल-दुर्बल व्यक्ति अथवा वर्ग निरन्तर असहाय तथा परमुखापेक्षी बनता रहता है।
अर्थचेतना से सम्पन्न व्यक्तियों का आजकल परिवार से मोहभंग होने लगा है। भूमि, व्यापार और सम्पत्ति के झगडें आजकल परिवारों के अन्दर ही अधिक होने लगे है। कंपनियाँ परिवारों से अधिक प्रिय लगने लगी है। माता-पिता की बीमारी, भाई-बहिनों की पढाई-लिखाई या रहन-सहन पर खर्च किया जाने वाला पैसा अब कंपनियों के शेयर खरीदने अथवा व्यापार में काम आने लगा है। उत्पाद के प्रचार का अनुमान लगाया जाना मुश्किल है। प्रचार ने व्यक्ति को उपभोक्ता बना दिया है। परिवारो में उपभोग की प्रतिस्पर्धा बलवती होती जा रही है। ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला-मुखियाँ धधक रही है। रात में साथ-साथ टी‐वी देखकर सोने वाले परिवार के सदस्यों में सुबह नाश्ते की टेबिल पर रार-तकरार का आलम दिखाई देने लगता है। व्यक्ति पहले परिवार के लिए विपत्ति झेला करता था, आज कंपनियों के लिए झेल रहा है।
राज्यों से आषीर्वाद प्राप्त ये कंपनियाँ एक तरफ परिवारों को बाँट रही है। व्यक्तियों को उपभोक्ताओं में बदल रही है। संवेदनाओं पर लाभ का मुलम्मा लगा रही है तो दूसरी तरफ ये विभक्त मानसिकता का आकर्षक प्रचार के माध्यम से दोहन कर रही है। भुमि अधिग्रहीत की जा रही है। लघु व्यापार कॉमा में जा चुका है। गिने-चुने लोगों को नौकरी के बदले लाखों के पैकेज देकर नवयुवकों की पेश जमात को या तो दो-चार हजार की पगार पर क्रीतदासों की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया जाता है या दर-दर की ठोकरें खाते हुए भटकने के लिए छोड दिया जाता है।
कंपनियाँ आजकल सरकारें बनाती है। मीडिया का कारोबार चलाती है। व्यापार, रोजगार और प्रबंधन सब कम्पनियों के अवाले होता जा रहा है। संस्कार का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। सहकार और सौहार्द का जनाजा निकल रहा है। कंपनियों के ढोल-नगाडों की गूँज में समाज और राष्ट्र की शहनाईयाँ ही गूँगी हो चली है तो अब परिवार की तूतियों को सूनने वाला कौन है? फिर भी हम कम्पनियों की अदाओं पर फिदा है। मानवता के इतिहास में भौतिकता के हाथों मानव चेतना का ऐसा दिवाला पहले कभी नहीं पिटा था
अब उठो कुण्ठा बुहारो
शक्ति के आँगन में तुलसी दीप चौबारे में बारो
ज्ञान की इस अलसुबह में, आरती का स्वर उबारो,
अब उठो कुण्ठा बुहारो।
रात की अब तह बना दो, विगत को चादर उढ़ा दो,
प्रात की गाओ प्रभाती, उदित रवि को जल चढ़ा दो।
अब उठो कुण्ठा बुहारो।
विगत से बस सीख लेकर, सत्य परिपाटी बना दो,
ज्ञान की इस शृंखला में, गीत नव नूतन उचारो।
अब उठो कुंठा बुहारो।
अरुणिमा आते ही देखो , विहग वृन्द उड़ान भरते,
शक्ति पंखों में समेटे , नाप लेते दिशा चारों .
अब उठो कुंठा बुहारो।
प्रगति कोई उच्च साधो, मुट्ठियों में लक्ष्य बाँधो ,
मन को अर्जुन सा बना कर, तीव्र गति सा तीर मारो।
अब उठो कुंठा बुहारो।
उदित रवि को सर नवा लो, प्रकृति को गुरुवर बनालो,
प्रकृति के कण- तृण सकल, महिम अति आरती उतारो।
अब उठो कुंठा बुहारो।
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इस माटी का कण कण पावन।
नदियाँ पर्वत लगे सुहावन।
मिहनत भी करते हैं प्रायः सब करते हैं योग यहाँ।
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।
ये पंजाबी वो बंगाली।
मैं बिहार से तू मद्रासी।
जात-पात में बँटे हैं ऐसे,
कहाँ खो गया भारतवासी।
हरित धरा और खनिज सम्पदा का अनुपम संयोग यहाँ।
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।
मैं अच्छा हूँ गलत है दूजा।
मैं आया तो अबके तू जा।
परम्परा कुछ ऐसी यारो,
बुरे लोग की होती पूजा।
ऐसा लगता घर घर फैला ये संक्रामक रोग यहाँ।
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।
सच्चाई का व्रत-धारण हो।
एक नियम का निर्धारण हो।
अवसर सबको मिले बराबर,
नहीं अलग से आरक्षण हो।
मिलकर सभी सुमन कर पाते सारे सुख का भोग यहाँ
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।
*****
भईया
संग्रहालय की वस्तु है
देश भक्ति और जन सरोकार
संसद ने कारपोरेट हाउस का रूप
अब कर लिया है अख़्तियार
बिजनीस हेड जन प्रतिनिध बन कर
बना लेते है मजबूत सरकार
उन्हे कब अच्छे लगेंगे
सड़क छाप आम आदमी के
स्वदेशी और देशी व्यवहार
आम आदमी
अपराध से लड़ने के लिए
कानून को हांथ मे लेने का
जब जोखिम उठाएगा
तभी आम आदमी को
सुरक्षा देने का मजबूत कानून
वास्तव में बन पाएगा
तभी यह समाज बच पाएगा
जब मुख्य मंत्री
हम आप की तरह
सड़क पर होगा
तभी आम आदमी की
समस्याओं के केंद्र पर
हमला थोड़ा तेज होगा
जमीनी हकीकत को
हिकारत से देखते हैं
वे मौका परास्त सिर्फ
मतलब की रोटी सेंकते हैं
भईया ,
कभी तो चलेगी
जमीन बचाओ की आँधी
कोई तो होगा
हम आप से गौतम या गांधी
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