Monday, January 16, 2017

लेख

वह दौर बीत चुका है,जब अखबार में छपा नजीर के तौर पर पेश होता था। चौराहों-चौपालों के बहस- मुबाहिसे में अख़बार केंद्र में होते थे। अब देखिये। छपे शब्द छोड़िये। बोलती तस्वीरें भी शुबहे की नजर से देखी जा रही हैं। तकनीक और सूचना क्रांति ने ख़बरों की दुनिया बदल दी है। सूचनाओं का प्रवाह बेहद तेज है। प्रिंट के लिए पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया को बड़ा खतरा माना गया। फिर सोशल मीडिया के विस्तार ने दोनों को चुनौती देनी शुरू कर दी।
    अलग माध्यमों की एक-दूसरे को चुनौती के बीच जो उनसे भी बड़ी चुनौती पेश है वह एक माध्यम को दूसरे से नहीं बल्कि अपने भीतर से है। चुनौतियों के बारे में जब बात होती है तो उसके मुकाबले की भी बात होती है। इस मुकाबले के लिए ताकत की जरुरत होती है। मीडिया को ये ताकत कौन देता है ? यकीनन उसके पाठक-दर्शक। इनकी संख्या मायने रखती है लेकिन खबरों को प्रोडक्ट के तौर पर बेचे जाने और उसके लिए बाजार के हर हथकंडे के इस्तेमाल किये जाने के दौर में  ये संख्या भी अंतिम रूप में निर्णायक नहीं हो सकती। असलियत में मीडिया की असली ताकत उस पर उसके पाठक-दर्शक के भरोसे पर टिकी है। इस भरोसे की पैमाइश कैसे हो?  इसका कोई निश्चित फार्मूला और मानक मुमकिन नहीं। ये भरोसा जब कायम रहता है तब भी महसूस किया जाता है और जब टूटता है तब भी बिना शोर के सुना जा सकता है।
    पाठकों-दर्शकों के भरोसे के इस क्षरण की आवाजें  बाहर से कम भीतर से ज्यादा सुनी और सुनाई जाती हैं। रोगी को रोग का खुद अहसास हो, ये इलाज को आसान बनाता है।पर दिक्कत तब आती है जब रोग का पता होने पर तब भी उसके इलाज को लेकर गंभीर न हुआ जाए। क्या मीडिया उसी दौर से गुजर रहा है?
    दुनिया तेजी से बदली है और रोज ही बदलाव हो रहे हैं। मीडिया उससे अछूता नहीं रह सकता। इस बदलाव की खूबियां भी हैं खामियां भी। पूंजी हर दौर की जरुरत थी । आज और भी बड़े आकार में इसकी जरुरत है। इस जरुरत ने इस मैदान में उन खिलाड़ियों को  उतार दिया है, जिनके लिए मुनाफा पहली और आखिरी शर्त है। ये मुनाफा दूसरे धंधों के लिए या फिर राजनीतिक ताकत हासिल करने यानी किसी भी रूप में मिलना चाहिए। इसके लिए सत्य से समझौते से परहेज नहीं किया जाता। फिर यह समर्पण सच को छिपाने, अर्ध सत्य पेश करने से लेकर झूठ तक पर जा टिकता है। इसके लिए ख़बरें देना वाला तटस्थ प्रस्तोता की जगह पक्षकार बन जाता है। पाठक-दर्शक के लिये सच ढूंढने की चुनौती तब और मुश्किल हो जाती है, जब मुकाबले में विरोधी पक्षकार उन्ही तथ्यों को बदले रूप और विपरीत दिशा में पेश करता है। वक्त लगता है पर झूठ पकड़ा जाता है। नहीं भी पकड़ा जाता  तो अविश्वास और संशय का दौर शुरू होता है।और फिर यह अविश्वास मीडिया की भरोसे की उस पूंजी को छीनना शुरू करता है, जो उसने सच बोल-लिख हासिल की थी।
     फिलवक्त पाठकों-दर्शकों तक पहुँच रखने वाला मीडिया का बड़ा हिस्सा मुख्य रूप में दो हिस्सों में बंटा दिखता है। एक वह जो सत्ता से नत्थी है और अपने माध्यमों का जोर-शोर से उसकी हिमायत में इस्तेमाल करता है। सत्ता लाभ के लिए वह ख़बरों को किसी भी रूप में पेश कर सकता है।ऐसी ख़बरों को पढ़ते, देखते और सुनते नीयत भांपते देर नहीं लगती। दूसरा वह है जिसने सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध का परचम थाम रखा है। असहमति लोकतंत्र को प्राणवायु देती है। लेकिन अगर वह मीडिया का एजेंडा बन जाए और खबर देने वाला ही पार्टी बनकर पक्ष या विपक्ष बन जाए तो पाठक-दर्शक के साथ धोखा होता है।इस धोखे का समय अनंत नहीं हो सकता। पाठक-दर्शक उसे ठुकरा कर अपना हिसाब करते हैं।सत्ता का अपना चरित्र होता है।खुशामदी-चापलूस पर कृपावर्षा तो विरोधी पर निगाह टेढ़ी। सत्ता कोप की आशंका होते ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कवच की तलाश शुरू होती है।आमतौर पर सत्ता से लड़ने वालों को जन सहानुभूति मिलती है।कुछ वक्त पहले तक इसको आंकने के मंच सीमित थे। लेकिन सोशल मीडिया ने लोगों को सशक्त मंच देकर मुखर किया है।
   एन.डी.टी.वी पर एक दिन का प्रस्तावित प्रतिबन्ध जिसे बाद में सरकार ने वापस लिया, पर जैसी प्रतिक्रियाएं आई , वह कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं।उन्हें चाहिए तो मोदी समर्थकों का प्रलाप मानकर ख़ारिज कर दीजिये और अगर असहमति के जिस हक़ के लिए लड़ रहे हैं उसे लेकर ईमानदार हों तो भीतर झाँकने में भी हर्ज नहीं। मीडिया में एक हिस्सा वह भी है जो सत्ता और पाठकों दोनों को ख्याल में रखकर घालमेल से काम चलाता है। मीडिया की मजबूरियां भी हैं।सीमायें भी।पर ये वह माध्यम है जिससे उसके पाठकों-दर्शकों की उम्मीदें बहुत बड़ी है। उसे हर हाल में सच और पूरा सच देखना-सुनना और पढ़ना है। पाठक-दर्शक की परख बहुत तेज है।उसे पता है कि कौन सा चैनल क्या दिखायेगा? प्रिंट के स्थापित नामों का लिखा पढ़ने से पहले ही वह जान लेता है कि किस मुद्दे पर उनकी क्या लाइन होगी?पहले राजनीतिक दल अपने अख़बार निकालते थे।समर्थक ये सोच कर नहीं पढ़ते थे कि उसमे तो अपनी ही बात होगी।विरोधी उसे प्रतिद्वन्दी का झूठ मानकर ख़ारिज करते थे।ज्यादातर बंद हो गए।अब कृपापात्र और वित्त पोषितों का दौर है।दर्शक तेजी से रिमोट के जरिये आगे बढ़ता है।पाठक पढ़ता कम पन्ने तेजी से पलटता है।चाह लेता है तो सोशल मीडिया पर कभी संतुलित तो कभी असंतुलित हिसाब कर लेता है।अब खबर लेने वालों की भी खबर ली जा रही है।सहिष्णु बनने की सीख के बीच मीडिया भी क्यों न सहिष्णु रहे?

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