वर्तमान तो सदैव मनुष्य के नेत्रों के सम्मुख रहता ही है, जिसके सहारे वह भविश्य की भी कल्पनाऐ करता रहता है लेकिन जब उसे अतीत की ओर झांकना पड़ता है, तब उसे �इतिहास� नामक आश्रय की �शरण में जाना पड़ता हैं। किसी भी जाति-धर्म, भाशा-सभ्यता, संस्कृति व देष के अतीत के उत्थान-पतन को हम इतिहास के आइने मे ही देख सकते है। बोली घटनाओं का सच्चा वृतान्त ही इतिहास है।
मानव जाति के उद्गम एवं विकास की कहानी अभी तक पहेली बनी हुई है। एक ओर जहॉ विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म एवं दशर्न के अनुसार व्याख्या कर इतिहास लिखते है तो दूसरी ओर वैज्ञानिक लोग पुरातत्त्व विज्ञान का सहारा लेकर अपने अथक प्रयासों से प्रमाण जुटाकर विषुद्ध वैज्ञानिक दृश्टि कोण के अनुरूप एक कोषिक से बहुकोषिक जन्तुओ के विकास की श्रृंखला में मानव जाति की उत्पत्ति एवं विकास के नये इतिहास का सूत्रपात करते हैं। जो भावी पीढ़ी के लिए चिन्तन का पथ-प्रशस्त करता हैं।
मानव जाति की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं समाज का इतिहास भी पहेली बना हुआ है। मानव की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं उपजाति की उत्पत्ति का इतिहास भी एक गूढ़ रहस्य बना हुआ है। विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के बारे मंे या तो इतिहास मौन है या इतिहासकारों ने आपसी विवादों और तर्क - वितर्कों का ऐसा अखाड़ा बना रखा है कि इस प्रकार के विभिन्न मत मातान्तरों का अध्ययन करने पर भी सच्चाई तक पहुंच पाना दुर्लभ नही कठीन अवष्य है। इतना ही नहीं इन्हें विदेशी मानते है तो कुछ इन्हें विदेशी एवं देशी लोगों की मिली-जुली जाति मानते हैं। अगर हम हमारे देश के प्राचीन इतिहास को उठाकर देखें तो वैदिक काल में यहा पर कोई जाति प्रथा नहीं थी। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चार वणों ब्राह्मण, क्षेत्रिय, वैष्य, �शूद्र में बॉंटा गया था यह वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के जन्म संस्कारो पर आधारित न होकर कर्म संस्करों पर आधारित थी। सच ही कहा है- व्यक्ति जन्म से नहीं , कर्म से महान बनता है।
एक �शूद्र का पुत्र भी अपने महान् कर्मो एवं ज्ञानार्जन से ब्राह्मण बन सकता था। एक ब्राह्मण का पुत्र अपने तुच्छ एवं नीच कर्मों से �शूद्र बन सकता था। परन्तु कालान्तर में यह वर्ण व्यवस्था भी जन्म पर आधारित होने लगी। जिसके कारण समाज व्यवस्था स्थायी जातियों में बंट कर रह गयीं। जो विभिन्न व्यवसायों एवं वैचारिक मतभेदों के कारण विभिन्न जातियों में बंटती गयी। कालान्तर में इन जातियों के जातिय बंधन इतने प्रबल हो गए कि आज चाहते हुए भी नहीं टूटते तथा व्यक्ति सामाजिक नियमों में परतन्त्र होकर रह गया है।
मानव जाति के उद्गम एवं विकास की कहानी अभी तक पहेली बनी हुई है। एक ओर जहॉ विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म एवं दशर्न के अनुसार व्याख्या कर इतिहास लिखते है तो दूसरी ओर वैज्ञानिक लोग पुरातत्त्व विज्ञान का सहारा लेकर अपने अथक प्रयासों से प्रमाण जुटाकर विषुद्ध वैज्ञानिक दृश्टि कोण के अनुरूप एक कोषिक से बहुकोषिक जन्तुओ के विकास की श्रृंखला में मानव जाति की उत्पत्ति एवं विकास के नये इतिहास का सूत्रपात करते हैं। जो भावी पीढ़ी के लिए चिन्तन का पथ-प्रशस्त करता हैं।
मानव जाति की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं समाज का इतिहास भी पहेली बना हुआ है। मानव की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं उपजाति की उत्पत्ति का इतिहास भी एक गूढ़ रहस्य बना हुआ है। विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के बारे मंे या तो इतिहास मौन है या इतिहासकारों ने आपसी विवादों और तर्क - वितर्कों का ऐसा अखाड़ा बना रखा है कि इस प्रकार के विभिन्न मत मातान्तरों का अध्ययन करने पर भी सच्चाई तक पहुंच पाना दुर्लभ नही कठीन अवष्य है। इतना ही नहीं इन्हें विदेशी मानते है तो कुछ इन्हें विदेशी एवं देशी लोगों की मिली-जुली जाति मानते हैं। अगर हम हमारे देश के प्राचीन इतिहास को उठाकर देखें तो वैदिक काल में यहा पर कोई जाति प्रथा नहीं थी। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चार वणों ब्राह्मण, क्षेत्रिय, वैष्य, �शूद्र में बॉंटा गया था यह वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के जन्म संस्कारो पर आधारित न होकर कर्म संस्करों पर आधारित थी। सच ही कहा है- व्यक्ति जन्म से नहीं , कर्म से महान बनता है।
एक �शूद्र का पुत्र भी अपने महान् कर्मो एवं ज्ञानार्जन से ब्राह्मण बन सकता था। एक ब्राह्मण का पुत्र अपने तुच्छ एवं नीच कर्मों से �शूद्र बन सकता था। परन्तु कालान्तर में यह वर्ण व्यवस्था भी जन्म पर आधारित होने लगी। जिसके कारण समाज व्यवस्था स्थायी जातियों में बंट कर रह गयीं। जो विभिन्न व्यवसायों एवं वैचारिक मतभेदों के कारण विभिन्न जातियों में बंटती गयी। कालान्तर में इन जातियों के जातिय बंधन इतने प्रबल हो गए कि आज चाहते हुए भी नहीं टूटते तथा व्यक्ति सामाजिक नियमों में परतन्त्र होकर रह गया है।
जाति व्यवस्था यह ढांचा समय, परिस्थितियों, प्राकृतिक विपदाओं अतिवृश्टि, अनावृश्टि, महामारी बाहरी आक्रमणों एवं विभिन्न धर्म एवं मत के प्रचारकों एवं पंथ के सृजनों से विभिन्न उपजातियों में बंटता गया। जाति व्यवस्था का यह ढांचा 10 वीं �शताब्दी से ज्यादा प्रभावित हुआ। 10 वीं �शताब्दी में कई विदेशी आक्रमणकारी आंधी की भॉति आए एवं यहां की अपार धन सम्पदा को लूटकर, सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक भावना को छिन्न-भिन्न कर तूफान की भॉति वापस चले गये। इससे भी ज्यादा उन विदषी जातियों ने हमारी प्राचीन व्यवस्था को प्रभावित किया, जो यहां अपने धर्म एवं �शासन का विस्तार करने के लिए स्थायी रुप से निवास करने लगे। इस प्रकार जातियों एवं उपजातियों के बनने एवं बिगड़ने का क्रम निरन्तर चलता रहा। कुछ ऐसे पराक्रमी, �शूरवीर एवं युग पुरुष भी हुए, जिन्होंने अपने बाहुबल एवं पराक्रम से प्रचलित समाज व्यवस्था के अनुकुल न बनकर, समाज व्यवस्था को अपने अनुकूल बनाया। दूसरी तरफ से कुछ ऐसे संत, दार्षनिक, योगी महापुरूश भी हुए, जिन्होंने अपने उपदेष एवं विचारों से समाज के कलेवर को ही बदल दिया और अपनी ओर से नवीनता देने का प्रयास किया। इस प्रकार किसी जाति की उत्पत्ति के बारे में प्रामाणिकता का दावा नहीं किया जा सकता। फिर भी उपलब्ध प्राचीन इतिहास, साहित्य,शिलालेख, भित्तिचित्र पौराणिक गाथाएं, भाट-चारणों के पास उपलब्ध इतिहास, दन्तकथाएं एवं किंवदन्तियों के आधार पर किसी जाति की उत्पत्ति एवं विकास के इतिहास तक पहुंचा जा सकता है। सारांश रूप में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि सभी जातियों एवं उपजातियों का उद्गम वैदिककालीन आर्यों की समाज व्यवस्था के चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य, �शूद्र ही रही है। तो हम सभी मूल रूप से आर्यों की ही सन्तान है।
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