एक साझा समाज के रूप में #दाना_माँझी के हम सब ही तो दोषी हैं, जो घटना के अंधे तमाशबीन बनकर पर-पीड़ा का फ़क़त तमाशा ही देखते रहे । यहां मूल सवाल समाज की जड़ हो चुकी संवेदनशीलता का है । फिर हम अपने से पहले केवल व्यवस्था को ही जिम्मेदार क्यों मानें ? व्यवस्था भी तो कानून-सम्पन्न होकर समाज के लोगों के द्वारा समाज के बीच ही काम करती है । तो पढ़िए, इसी विषय पर यह लेखन आज 28.08.2016 अख़बार#6PM_इन्दौर में प्रकाशित । मूल-लेखन भी चस्पा है -
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अमानवीय समाज की लाश ढोते बेबसी के काँधे !
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अमानवीय समाज की लाश ढोते बेबसी के काँधे !
हमारा समाज आज स्वार्थ की स्व-वीभत्सतता के आदिम जंगलों में विचरण कर रहा है | और हम लोग आत्म-मुग्धता की दोगली कंदराओं में नित शरणागत हैं | सु-सभ्य कहे जाना वाला हमारा समाज ऊपर से दिखने में भले ही एक सु-संस्कृत लोगों का समूह नज़र आता है | मगर व्यक्तिगत भूमिका में आपसी सहयोग की कसौटी पर परस्पर घोर असहयोगी जान पड़ता है | हमें अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता | हम अपने स्वार्थ के हाथों परवश हैं | एक-दूसरे के अच्छे समय में तो हम आपसी सहयोगदार होते हैं, मगर एक-दूजे के बुरे-दौर में निपट स्वार्थी किस्म का आचरण व्यक्त करते हैं | कहने को भले ही हम अपने बेहतर समय का एक परस्पर सहयोगात्मक सामूहिक समाज हैं, मगर व्यक्तिगत संक्रमण-काल में जंगली जीवों से भी बदतर नितांत परभक्षी हैं | कहीं-कहीं तो हम निर्ममता की हद तक समाज की नमनाक घटनाओं पर भी तमाशबीन जैसे हो जाते हैं | जबकि कई-एक मौकों पर हमारा प्रकट आचार-व्यवहार निपट असंवेदनशील दिखाई देता है |
ओडीशा के कालाहांडी का एक आदिवासी दाना मांझी अपनी मृत पत्नी के शव को 12 किलोमीटर तक अकेला अपने काँधे पर सिर्फ इसलिए ढोकर ले जाता है, क्योंकि उसके पास शव-वाहन के लिए पैसे नहीं होते हैं | उसे कोई सहयोग नहीं करता | उसके साथ सहयोग के लिए केवल उसकी एक बारह बरस उम्र की एक बेटी भर होती है | रास्ते भर लोग तमाशबीन बने इस दारुण दृश्य को महज निहार रहे होते हैं | रास्ते के लोग याने ‘मैं और आप’ ही तो हुए | जिनके दुःख व सुख के चेहरे-मोहरे अक्सर एक-दूसरे से मिलते जुलते से होते हैं | वे ‘मैं और आप’ जिनके लिए यह पराया दुःख अपने निजी दुःख से मिलता-जुलता तो हैं, मगर फिर भी है तो पराया ही | हम इतने असंवेदनशील हैं कि अगर दुःख हमारा निजी नहीं हो तो वह हमें उद्वेलित भी नहीं करता | तभी तो हम पर-पीड़ा में मददगार भी नहीं होते बल्कि अमानवीय होकर तमाशबीन बन जाते हैं | हम समय की भयावहता में जमकर संवेदना के पाषाण मानवीय पुतले बन चुके हैं | इस निर्मम वक्त के आधुनिक शिल्पकार लोग हैं हम, जो इतिहास के पन्नों पर जब-तब आदम की आपसी-असहयोग की अमानवीय इबारत लिख रहे होते हैं |
कहने को हम इस अमानवीय भयावहता के लिए शासन, प्रशासन और व्यवस्था सभी को कोस सकते हैं | और कोस ही रहे होंगे कि इस दर्दनाक मंज़र के लिए ‘यह नहीं वह’ व्यवस्था जिम्मेदार हैं | यह सच भी है, क्योंकि तब दाना मांझी केवल अपनी पत्नी की ही लाश नहीं ढो रहा था, बल्कि एक ही वक्त पर वह बेपरवाह और तमाशबीन सिस्टम की लाश भी ढो रहा था | कुछ लोगों का कयास यह भी होगा कि उस आदमी की ग़रीबी ने उसे ये दुर्दिन दिखाए हैं | कुछ लोग इन सब से बढ़कर ये भी कहने से नहीं चूकेंगे कि ‘दुर्भाग्य का अपना कोई निज सौभाग्य नहीं होता है’ | वह लाईलाज मर्ज़ जैसा जानलेवा होता है | मगर ये कोई नहीं कहेगा कि हमने एक समूह के रूप में समाज के भीतर के इस दारुण मंज़र के लिये अपने तईं क्या कुछ कर्त्तव्य निभाया | कहीं हम किसी के आदिवासी होने से उसकी मदद के लिए लाचार होते हैं | तो कहीं किसी के दलित होने से उसका चाहकर भी सहयोग न कर पाना हमारी सामाजिक मजबूरी बन जाता है | वह लाश जो चार कांधों पर होने के बजाय एक मजबूर पति के एकल काँधे पर ढोई जाकर 12 किलोमीटर का पैदल सफ़र तय करती है, वह शेष बचे तीन जोड़ कांधों का अवकाश नहीं भोगती, बल्कि अपने निर्मम समय के लोगों की अमानवीय त्रासदी का अवैधानिक दंड भुगत रही होती है |
जिसे मरना था वह मर-खप गया | जिन कांधों को अपना निजी दुःख ढोना था, वह ढो भी चुका | मानवता के इस दोगले व्यवहार वाले समाज में यही सब कुछ चलता रहता है | जब आदमी अपने लोगों का ही नहीं हो सकता तो फिर समय के सामने उसके निर्मम और असंवेदनशील होने का रोना आखिर क्यों रोया जाय |
ओडीशा के कालाहांडी का एक आदिवासी दाना मांझी अपनी मृत पत्नी के शव को 12 किलोमीटर तक अकेला अपने काँधे पर सिर्फ इसलिए ढोकर ले जाता है, क्योंकि उसके पास शव-वाहन के लिए पैसे नहीं होते हैं | उसे कोई सहयोग नहीं करता | उसके साथ सहयोग के लिए केवल उसकी एक बारह बरस उम्र की एक बेटी भर होती है | रास्ते भर लोग तमाशबीन बने इस दारुण दृश्य को महज निहार रहे होते हैं | रास्ते के लोग याने ‘मैं और आप’ ही तो हुए | जिनके दुःख व सुख के चेहरे-मोहरे अक्सर एक-दूसरे से मिलते जुलते से होते हैं | वे ‘मैं और आप’ जिनके लिए यह पराया दुःख अपने निजी दुःख से मिलता-जुलता तो हैं, मगर फिर भी है तो पराया ही | हम इतने असंवेदनशील हैं कि अगर दुःख हमारा निजी नहीं हो तो वह हमें उद्वेलित भी नहीं करता | तभी तो हम पर-पीड़ा में मददगार भी नहीं होते बल्कि अमानवीय होकर तमाशबीन बन जाते हैं | हम समय की भयावहता में जमकर संवेदना के पाषाण मानवीय पुतले बन चुके हैं | इस निर्मम वक्त के आधुनिक शिल्पकार लोग हैं हम, जो इतिहास के पन्नों पर जब-तब आदम की आपसी-असहयोग की अमानवीय इबारत लिख रहे होते हैं |
कहने को हम इस अमानवीय भयावहता के लिए शासन, प्रशासन और व्यवस्था सभी को कोस सकते हैं | और कोस ही रहे होंगे कि इस दर्दनाक मंज़र के लिए ‘यह नहीं वह’ व्यवस्था जिम्मेदार हैं | यह सच भी है, क्योंकि तब दाना मांझी केवल अपनी पत्नी की ही लाश नहीं ढो रहा था, बल्कि एक ही वक्त पर वह बेपरवाह और तमाशबीन सिस्टम की लाश भी ढो रहा था | कुछ लोगों का कयास यह भी होगा कि उस आदमी की ग़रीबी ने उसे ये दुर्दिन दिखाए हैं | कुछ लोग इन सब से बढ़कर ये भी कहने से नहीं चूकेंगे कि ‘दुर्भाग्य का अपना कोई निज सौभाग्य नहीं होता है’ | वह लाईलाज मर्ज़ जैसा जानलेवा होता है | मगर ये कोई नहीं कहेगा कि हमने एक समूह के रूप में समाज के भीतर के इस दारुण मंज़र के लिये अपने तईं क्या कुछ कर्त्तव्य निभाया | कहीं हम किसी के आदिवासी होने से उसकी मदद के लिए लाचार होते हैं | तो कहीं किसी के दलित होने से उसका चाहकर भी सहयोग न कर पाना हमारी सामाजिक मजबूरी बन जाता है | वह लाश जो चार कांधों पर होने के बजाय एक मजबूर पति के एकल काँधे पर ढोई जाकर 12 किलोमीटर का पैदल सफ़र तय करती है, वह शेष बचे तीन जोड़ कांधों का अवकाश नहीं भोगती, बल्कि अपने निर्मम समय के लोगों की अमानवीय त्रासदी का अवैधानिक दंड भुगत रही होती है |
जिसे मरना था वह मर-खप गया | जिन कांधों को अपना निजी दुःख ढोना था, वह ढो भी चुका | मानवता के इस दोगले व्यवहार वाले समाज में यही सब कुछ चलता रहता है | जब आदमी अपने लोगों का ही नहीं हो सकता तो फिर समय के सामने उसके निर्मम और असंवेदनशील होने का रोना आखिर क्यों रोया जाय |
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"नेकी की दीवार" पर यह लेखन आज 19.09.2016 पढिए साप्ताहिक कॉलम #सुबह_सवेरे भोपाल में । मूल-पाठ तो नत्थी है ही -
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नेकी, नेकी की दीवार और नेकी के फ़रिश्ते !
एक कहावत है कि “नेकी कर और दरिया में डाल !” कालांतर में बहुतेरे लोगों ने बहुत-सी नेकियाँ की और दरियाओं में डाली | मगर धीरे-धीरे देश के सारे दरिया नेकियों से लबालब भरा गए | तब नेकी करने वालों को चिंता सताने लगी कि अब वे अपनी नेकियों को कहाँ परणाएँ | तब उन्होंने एक नया रास्ता निकाला । अपनी नेकियों को मुद्रा के समान परस्पर लेनदेन करके आपसी धंधा-पानी व रिश्तेदारी साधना शुरू कर दिया । हमारे देश के लोग बदी करना भले ही ना छोड़ें, मगर नेकी करने का कोई भी अवसर गंवाना नहीं चाहते | नेकी उनके लिए बेख़ौफ़ होकर बदी करने का रास्ता जो साफ़ करती है | तभी तो लोगों द्वारा नेकी और बदी की बेलेंस-शीट को हमेशा चाक-चौबंद बनाए रखा जाता है | उसके डेबिट-क्रेडिट के मिलान में किसी भी तरह की कोई कौताही नहीं बरती जाती | कौताही बरतने से नेकी का पृथ्वी पर से डायनासोर के अस्तित्व की भांति हमेशा के लिए गायब हो जाने का खतरा जो पैदा हो सकता है | ये रिस्क हमारे मुल्क के बाशिंदे कतई नहीं उठा सकते | अतः हमारे यहाँ लोगों द्वारा नेकी के साथ-साथ बदी भी समान रूप से की जाती रहती है | ताकि नेकी करने की नीयत और ज़रूरत दोनों सदैव बनी रहे | वैसे भी केवल नेकी ही नेकी की जाए तो अच्छाई के घमंडी होने का कारण पैदा हो सकता है | और यदि बदी ही बदी की जाए तो बुराई के घमंडी होने का खतरा हो सकता है | तभी तो हमारे मुल्क के बाशिंदे नेकी और बदी में साम्य बनाकर चलने में विश्वास रखते हैं | ताकि नेकी भी खुश रहे और बदी भी नाराज़ नहीं होवे | न बदी जीते और न ही नेकी हारे | सर्वे भवन्तु सुखिनः ! हम हिन्दुस्तानी लोग जन्मजात मध्यममार्गी जो होते हैं |
खबर है कि ईरान में जब नेकियों की भरमार हो गई तो वहां के लोगों ने अपने यहाँ नेकियां करने के लिए जगह-जगह दीवारें बना डाली हैं | लोग आते हैं और अपनी नेकियाँ वहाँ टांगकर या रखकर चले जाते हैं | जहाँ नेकियाँ ज्यादा हो और उसे डालने के लिए दरियाओं की कमी हो, वहाँ पर नेकियों को ऐसे ही बे-तरतीब ढंग से सहेजा जाता है | वैसे भी ईरान जैसे रेगिस्तानी मुल्क में दरिया और कूएँ कहीं ढूंढें से भी मिलना मुश्किल हैं | तभी तो वहाँ के लोग अपनी नेकियों को जगह-जगह दीवारें बनाकर उसपर टांगते फिरते हैं | हमारे यहाँ ऐसा कोई लोचा नहीं है | हमारे देश में न तो कूओं की कोई कमी हैं और न ही दरियाओं की | और नेकियाँ तो माशा-अल्लाह आप जानते ही हैं भर-पल्ले उपलब्ध है | एक ढूंढों तो हज़ार मिलती हैं | आदमी के उठने वाले हर दूसरे कदम पर एक नेकी मौजूद है | और हर दूसरा आदमी एक नेकीकार के रोल में अपनी एक्टिंग करता फिरता है | हम नेकियों के मामले में बड़े ही आत्म-निर्भर मुल्क हैं | हमें नेकी करने के लिए किसी मौका-औ’-दस्तूर की आवश्यकता नहीं होती | बल्कि हम कभी-कभी तो अकारण भी नेकियाँ कर दिया करते हैं | अकारण नेकियाँ करने से हमारे बदीकार होने का बैलेंस अग्रिम रूप से संतुलित बना रहता है | जैसे कि बदी के एवज में नेकी का कोई अग्रिम बयाना भुगतान किया जा रहा हो |
सुनने में आया है कि अब हमारे मुल्क में भी नेकी की दीवारें बनने लगी हैं | एक दीवार राजस्थान के भीलवाड़ा में बन-बनाकर नेकियाँ भी बटोरने लगी है | जबकि दूसरी दीवार म.प्र. के झाबुआ में ज़ोर-शोर से बनने की जुगत में है | ईरान और हमारे देश में बनने वाली नेकी की दीवारें कई मायनों में जुदा होंगी | हमारे यहाँ नेकियों को कई किस्म की बदी की अग्नि परीक्षा से होकर गुजरना पड़ेगा | यहाँ बनने वाली दीवारों को कई अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के अनुभवों से दो-चार होना पड़ेगा | मसलन, हमारे यहाँ कोई भी नेकी या भलाई के काम थोडा-सा धंधा-पानी साधे, थोड़ा-सा नाम कमाए, थोड़ी-सी राजनीति किए और जस पाने की कामना को साधे बगैर कभी मुकम्मल नहीं हो सकते | बल्कि हमारे यहाँ तो ढ़ोल पीट-पीट कर नेकी की जाती है |
हो सकता है भविष्य में इन नेकी की दीवारों के निर्माण के लिए कोई नेता कुदाली चलाकर भूमि-पूजन करे | या फिर बनने के बाद एक समारोह में नेताजी के लच्छेदार भाषण के साथ उसका लोकार्पण किया जाए | अगले दिन नेताजी का फोटो इस दीवार के साथ अख़बारों की सुर्खियाँ बने | फिर धीरे-धीरे लोग-बाग़ इस दीवार पर अपनी-अपनी नेकियाँ टांगकर जाने लगें | कुछेक लोग इस दीवार की ख्याति सुनकर इसके साथ अपनी निजी सेल्फियाँ भी खिंचवाने चले आएँ | फिर बाद में जब वहाँ बहुत-सारी नेकियाँ इकट्ठा हो जाएँ तब जरूरतमंद लोग अपनी जरुरत के हिसाब से धीरे-धीरे वहाँ से नेकियाँ उठाकर ले जाने लगें | तब एक दिन यह भी हो सकता है कि किसी एक सूनसान रात में कोई अति-जरूरतमंद आदमी उस नेकी की दीवार को ही चुरा कर ले जाए | वैसे भी हमारे मुल्क में नेकियाँ यूँ खुले-आम लावारिश छोड़ने की विषय और वस्तु दोनों ही नहीं होती हैं |
खबर है कि ईरान में जब नेकियों की भरमार हो गई तो वहां के लोगों ने अपने यहाँ नेकियां करने के लिए जगह-जगह दीवारें बना डाली हैं | लोग आते हैं और अपनी नेकियाँ वहाँ टांगकर या रखकर चले जाते हैं | जहाँ नेकियाँ ज्यादा हो और उसे डालने के लिए दरियाओं की कमी हो, वहाँ पर नेकियों को ऐसे ही बे-तरतीब ढंग से सहेजा जाता है | वैसे भी ईरान जैसे रेगिस्तानी मुल्क में दरिया और कूएँ कहीं ढूंढें से भी मिलना मुश्किल हैं | तभी तो वहाँ के लोग अपनी नेकियों को जगह-जगह दीवारें बनाकर उसपर टांगते फिरते हैं | हमारे यहाँ ऐसा कोई लोचा नहीं है | हमारे देश में न तो कूओं की कोई कमी हैं और न ही दरियाओं की | और नेकियाँ तो माशा-अल्लाह आप जानते ही हैं भर-पल्ले उपलब्ध है | एक ढूंढों तो हज़ार मिलती हैं | आदमी के उठने वाले हर दूसरे कदम पर एक नेकी मौजूद है | और हर दूसरा आदमी एक नेकीकार के रोल में अपनी एक्टिंग करता फिरता है | हम नेकियों के मामले में बड़े ही आत्म-निर्भर मुल्क हैं | हमें नेकी करने के लिए किसी मौका-औ’-दस्तूर की आवश्यकता नहीं होती | बल्कि हम कभी-कभी तो अकारण भी नेकियाँ कर दिया करते हैं | अकारण नेकियाँ करने से हमारे बदीकार होने का बैलेंस अग्रिम रूप से संतुलित बना रहता है | जैसे कि बदी के एवज में नेकी का कोई अग्रिम बयाना भुगतान किया जा रहा हो |
सुनने में आया है कि अब हमारे मुल्क में भी नेकी की दीवारें बनने लगी हैं | एक दीवार राजस्थान के भीलवाड़ा में बन-बनाकर नेकियाँ भी बटोरने लगी है | जबकि दूसरी दीवार म.प्र. के झाबुआ में ज़ोर-शोर से बनने की जुगत में है | ईरान और हमारे देश में बनने वाली नेकी की दीवारें कई मायनों में जुदा होंगी | हमारे यहाँ नेकियों को कई किस्म की बदी की अग्नि परीक्षा से होकर गुजरना पड़ेगा | यहाँ बनने वाली दीवारों को कई अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के अनुभवों से दो-चार होना पड़ेगा | मसलन, हमारे यहाँ कोई भी नेकी या भलाई के काम थोडा-सा धंधा-पानी साधे, थोड़ा-सा नाम कमाए, थोड़ी-सी राजनीति किए और जस पाने की कामना को साधे बगैर कभी मुकम्मल नहीं हो सकते | बल्कि हमारे यहाँ तो ढ़ोल पीट-पीट कर नेकी की जाती है |
हो सकता है भविष्य में इन नेकी की दीवारों के निर्माण के लिए कोई नेता कुदाली चलाकर भूमि-पूजन करे | या फिर बनने के बाद एक समारोह में नेताजी के लच्छेदार भाषण के साथ उसका लोकार्पण किया जाए | अगले दिन नेताजी का फोटो इस दीवार के साथ अख़बारों की सुर्खियाँ बने | फिर धीरे-धीरे लोग-बाग़ इस दीवार पर अपनी-अपनी नेकियाँ टांगकर जाने लगें | कुछेक लोग इस दीवार की ख्याति सुनकर इसके साथ अपनी निजी सेल्फियाँ भी खिंचवाने चले आएँ | फिर बाद में जब वहाँ बहुत-सारी नेकियाँ इकट्ठा हो जाएँ तब जरूरतमंद लोग अपनी जरुरत के हिसाब से धीरे-धीरे वहाँ से नेकियाँ उठाकर ले जाने लगें | तब एक दिन यह भी हो सकता है कि किसी एक सूनसान रात में कोई अति-जरूरतमंद आदमी उस नेकी की दीवार को ही चुरा कर ले जाए | वैसे भी हमारे मुल्क में नेकियाँ यूँ खुले-आम लावारिश छोड़ने की विषय और वस्तु दोनों ही नहीं होती हैं |
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