Tuesday, January 3, 2017

कविता समाज से जुडी

‘दीपोत्सव 2001 हेतु शत शत शुभकामनाएँ‘ में डॉ0 वसिष्ठ विषमता के बारे में चिन्ता करते हुए कहते हैं- 
“क्या विषमता है जगत् की
तमिस्रा से प्यार!
युद्ध को तैयार क्षण में
नेह से तकरार।“
 उनकी यही अभिलाषा है कि
 “दीप ने ही
दी सभी को रोशनी
रोशनी बस रोशनी बस
रोशनी बस रोशनी!!/“
आजकल ने ही दीप की रोशनी की परम आवश्यकता है और यह तभी सम्भव है कि जब संगठित होकर आर्थिक विषमता को जड़ से उखाड़ा जाए। 
‘पारा कसमसाता है‘ में यदि एक ओर भयंकर ठंड की ओर संकेत किया गया है, तो दूसरी ओर ‘मुक्ति क्रम में‘ प्रयासरत एक नन्हा चिड़ा ‘मृत्युभोगी चीख लेकर‘ रह-रह कर पंख फड़फड़ाता है। अर्थात् वह प्रतिकूल मौसम से संघर्ष कर रहा है। बन्धन से जकड़े मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा ही होता है। उसे जीवित रहने के लिए रात-दिन कठोर श्रम करना पड़ता है। तभी तो गीतकार कहता है –
 “शुरू हुई दिन की हलचल
गये सभी लोहे में ढल।“
‘धूप की गजल‘ महानगरीय परिवेश से साक्षात्कार कराती है। देश की राजधानी दिल्ली दिनारम्भ होते ही लाहे में ढल जाती है। आशय यह है कि जीविका के असंख्य जन कठोर श्रम करके स्वयं को लोहा जैसा सख्त बना लेते हैं।
 “बाँहों के आकाशी दायरें
सिमटें फिर उसी बिन्दु पर
जिसमें था स्याहिया ज़हर।“
“छिद्रित घट से
क्रमशः रिसते रिसते
चुप्पी में डूब गये शोर भये दिन
सागर में ज्वारमयी मीन बहुत उछरी
सिर्फ रेत पाया लेकिन।“ 
“हाथों का अर्थ हुआ क़र्ज़ मांगना
टूक-टूक स्वयं को सलीब टाँगना।“
“बतियाती फ़र्ज़ांे से
रह-रह कर चमक-दमक
घहराकर उफन रही
भीतर की घुटी कसक
जीवन तो रीत गया
जुड़े रहे नाम से।“
“फँस गया मन सभ्यता के जंगलीपन बीच।“……
 “आ गई संवेदना/उस बिन्दु पर चल के
 बस, कथा के रह गए हैं
 पत्र पीपल के
 मूल्य सारे ज़िन्दगी के संग्रहालय चीज़।“
संग्रहालय में पुरातात्विक  वस्तुएँ रखी जाती हैं। सजावट-दिखावट के लिए। आजकल की विषमताग्रस्त समाज ने उदात्त मानवीय मूल्य सजावट के लिए बातों के संग्रहालय  में रख दिए हैं। अर्थात् ‘पर उपदेस कुशल बहुतेरे/ जे आचरहिं ते नर न घनेरे/‘ यही कारण है कि कथनी और करनी के अन्तर ने व्यक्तित्व खंडित कर दिया है। वह विकलांग हो गया है। उसके सामने एक नहीं कई-कई ‘प्रश्न चिह्न‘ खड़े हो गये हैं। परिणाम सामने यह है कि “हर दिन आ खड़ा हुआ/ मुँह बाए/ ले नया सवाल/ क्रिया निरत चर्या/ बिन क्रिया हुई/ क्षण-क्षण बेहाल/ थे रदीफ काफिया बा-अदब/ पर/ खिसक गये हाथों से/ सुरों के बहर।“ 
“जन से होश सँभाला, तन से पाया कालापन
टलता रहा महज तारीखों में उजियार बदन।“
 यह ‘कालापन‘ चरित्रहीनता, मूल्य-विहीनता और काली कमाई का प्रतीक है, जो अपनी अलग समानान्तर व्यवस्था चला रहा है। गीतकार इतना निराश है कि उसे महसूस होता है कि
“स्याही ने
 हर सीढ़ी
 ऐसा रौव जमाया अपना
 सहमा छिपता सा फिरता है
 सूर्य उदय का सपना।“ 
लेकिन “तो भी, फाँक रोशनी थामें, तकता पागल मन।“ (पृ0 31) सवाल है कि ‘पागल मन‘ का सपना पूरा होगा? शायद नहीं। आजकल भ्रष्ट राजनीति ने अपरधीकरण का आश्रय सारे के सारे मानवीय मूल्य ध्वस्त कर दिए हैं। फिर भी लोक संर्घष कर रहा है। जनशक्ति ही उकी मनोकामना पूरी कर सकती है। जनशक्ति के अभाव में हर व्यक्ति विभाजित जिन्दगी जी रहा है। अब प्रश्न यह है कि “किस तरह आखिर गुजारे  ऋचा-सम्मत पल/ हर किसी ने, निरी कसकर, चढ़ा ली साँकल।“ (पृ0 34) यह है महानगरीय और नगरीय अजनबीपन, जो अपने व्यक्तित्व को परिसीमित करना श्रेयकर समझता है। वेदों की ऋचाएँ उसके लिए व्यर्थ हैं। साथ-साथ चलो। साथ-साथ बोलो। सब के मन को जानो। स्वाध्याय से प्रमाद मत करो। सत्य बोलो। सौ शरदों तक सूर्य देखो। महानगर में कितने प्रतिशत लोग नित्य सूर्योदय-सूर्यास्त आदि देखते हैं।
महानगरीय नगरीय  कस्बाई और ग्रामीण व्यक्ति  के सामने एक और समस्या खड़ी  है। खालीपन। बेरोजगारी  से जनमा हुआ। कर्म करना मानव का स्वभाव है। गुप्त जी ने लिखा है- “नर हो, न निराश करो मन को/कुछ काम करो/ जग में रह कर कुछ नाम करो।“ लेकिन गीतकार के सामने यह ज्वलंत प्रश्न है
“कब तक यों जिएँ लिये खालीपन
और, दूर, माथे से रहे शिकन।“ (पृ0 35)
लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो पाता है। चिन्ता माथे पर शिकन लेकर आती है। समस्या यह भी है कि
“दिशाहीन चौराहे चौराहे चौराहे
 जर्द हुए चेहरों पर/एक चमक मुस्काए
सच, कैसे मुस्काए
मिलती जब बर्फीली अग्नि-छुअन।“ (पृ0 35)
उद्धरण की अन्तिम पंक्ति में अन्तः विरोध  है। ‘छुअन‘ बर्फीली भी है और अग्नि से युक्त भी। अर्थात् आक्रोश से माथा तप रहा है, लेकिन असहाय होने का अहसास उसे ‘बर्फीला‘ कर देता है।
‘कब तक झेलूँ लावा मन में‘ सोच कर कवि व्यवस्था की घातक वास्तविकता इस प्रकार उजागर करता है -पुर्जा, एक व्यवस्था का, बस/ माना/ जोड़ा और चलाया/ शब्दों की अमृत वाणी से/ भूखी पीढ़ी को वहलाया/ मृत्यु चीख तेरी आँगन में।“ (पृ0 36) यह सब सोच-सोच कर के गीतकार आक्रोश से भर कर प्रश्नों की झड़ी लगा देता है-
“लीक, लीकिया, कब तक कब तक?
कब तक पीड़ा, कब तक शोषण?
कब तक प्रतिभा कुण्ठित  होगी?
कब तक मन मर्जी का दोहन?
होगा क्या अरण्य  रोदन में?
“गड्ढा है ज्यों का त्यों 
कीचड़ भी ठीक वही
 क्या है फिर जिसको मैं रहा था उलीच? 
जड़धर्मा लोगों के बीच।“
 “सड़को पर निकल पड़ी घर से/ दिनचर्या रोज़ की/ एक अदद गठरी सिर पर लिये/ रोटी के बोझ की/चप्पू बिन आसमान नाप रही नैया।
“स्वार्थमयी मिट्टी में उगते हैं/ आज के प्रणाम/ बिन लगाम मृग मरीचिकाओं के फन्दों में/ फँसे रहें कब तक हम अन्धो में?/ अर्थ के लिए होते सैकड़ो गुलाम/ सुबह-शाम।“ 
“कब तक दिक्कालो से थर्राएँ/ आदेशों पर हरदम गुन गाएँ/ हिय उबाल ठण्डा वत हुआ बहुत आम/ बिना काम।“ 
“रेशमी सुझावों के घेरे में/ 
मेरा अपना मत काफूर हुआ/
 विद्रोही आसमान/ सिर्फ शून्य-सा हो कर/ 
जीवन नासूर हुआ/ एक आग खँडहर के शरण हुई/
 लपटों के शीश लगे कटने।“ 
“सुर्खियों के ही सहारे जो/ आकाश में बेवक्त हैं उछले/ गुम्बदी अस्तित्व के पोषक/ तनिक झोंके से बहुत दहले।“
“हर लहर प्रति निकट का ही काटती/ धुन्ध के टुकड़े महज़ है बाँटती/ धीर होता वो/ आलाप हो कर/ राग जल की ‘गूँज‘ को सह ले।“
“मेघ-नामधारी वे भापकन/ रहे भ्रम/ और हम प्यासे रहे/ जैसे रहे पहले/ सूखा पड़ी जमीन से, कौन, क्या, गह ले।“ “घूम कर हर ओर आए/ दरकता मन, शर्त क्यों सह ले।“ 
“मेरे सीने में नही तो तेरे सीने में सही/ हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।“ 
“टूट कर गिर न जाएँ/ 
सहीपन के बिन्दु आकाशी/ 
महज़ कुछ वक्त के टुकड़े/ 
न कर दें गन्ध को बासी/ 
खुली आबादियों के मूल स्वर! छा जा।“
“प्रतिबद्धित गीत नहीं टूटेंगे/ कितने ही ठीठ कदम बढ़ जाएँ/ काले काले अक्षर हाथ में लिये।“
 “टूट जाएँगे/ जिनसे/ इन्हें जो मिले काँधें हैं!/ बन्धु! अनखुल जाल बाँधे हैं!!“  इस के लिए वह यह सोचता है – “क्या करें (कि)/चटका हुआ मन/ फिर लबालब आस-भर गाए/ क्या करें(कि)/ लँगड़ा मुसाफिर/ लक्ष्य तक/ नित शक्ति-भर धाए/ शुरू जन कर दें सफर तो ध्येय ही हो अन्त।“

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