एक लोकप्रिय गीत है ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’। अक्सर राजनीतिक पार्टियों की निगाहें कहीं और होती है और निशाने पर कोई और होता है। कहते हैं प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है। लेकिन जब सामाजिक विकास के नाम पर बनी संस्थाओं का चालचलन और नीतियॉं भी राजनीतिक पार्टियों अथवा प्रेम और युद्ध के मैदान में उतरे खिलाडियों जैसे हों तो इन संस्थाओं के चेहरे और चेहरे के पीछे के भावों पर शक की सुईयॉं घुम ही जाती है।
डुवार्स–तराई के मैदान में आदिवासी विकास परिषद एक सामाजिक संस्था के रूप में कार्यरत्त है। उसके द्वारा उठाए गए तमाम मुद्दे सामाज से जुडे हुए हैं, लेकिन सरकार के पास प्रस्तुत की गई कई मांगें ऐसी है जो सीधे राजनीति से भी जुडी हुई है। छटवीं अनुसूची की मांगविशुद्ध राजनैतिक मांग है। लेकिन परिषद के नेतागण बार–बार घोषणा करते हैं कि परिषद विशुद्ध रूप से एक सामाजिक संगठन है, यह सामाजिक संगठन के रूप में पंजीकृत है और राजनीति से उसका कोई लेना देना नहीं है। एक ओर तो परिषद के नेतागण कहते हैं कि परिषद एक सामाजिक संगठन है, वहीं दूसरी ओर अपने सदस्यों को किसी भी राजनैतिक पार्टियों में जाने से रोकते हैं। सवाल है कि क्या एक सामाजिक संगठन के कार्यकर्त्ता को किसी राजनैतिक पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने से रोका जा सकता है। क्या कोई सामाजिक संगठन किसी व्यक्ति के राजनैतिक अधिकार पर पाबंदी लगा सकता है ? क्या एक सामाजिक संगठन का सदस्य उस सामाजिक संगठन का बंधक होता है और क्या उसके राजनैतिक अधिकारों पर भी उस सामाजिक संगठन का अधिकार रहता है?
डुवार्स–तराई में आदिवासियों द्वारा दो राजनैतिक पार्टियों का गठन किया गया। एक डेमोक्रेटिक फ्रंट और दूसरा प्रोग्रेसिव पीपल्स पार्टी (पीपीपी)। दोनों ही पार्टियों को विकास परिषद के टूट का हिस्सा बताया जा रहा है। दोनों ही पार्टियों के कार्यकर्ताओं को दूसरी बडीराजनैतिक पार्टियों का प्लांट किया गया हिस्सा बताया जा रहा है। इसे शुक्र मनाने की बात कह सकते हैं कि इस विषय पर एक दो बयान ही जारी किया गया । निचले स्तर पर नहीं पहुँचे इस मुद्दे को जीवंत नहीं बनाया गया। हम आरोप–प्रत्यारोप पर नहीं जाना चाहते हैं, लेकिन आदिवासी राजनीति और सामाजिक कार्यकलापों में निचले स्तर की बातों के लिए कोई गुंजाइश न हो यह तो चाहते ही हैं। हम यह भी चाहते हैं कि आदिवासी समाज के पास सभी विषयों और क्षेत्रों के लिए अपना ठोस और शक्तिशाली नीति हो।
डेमोक्रेटिक फ्रंट के गठन पर डुवार्स–तराई स्तर पर कोई व्यापक हलचल नहीं देखा गया। लेकिन पीपीपी के गठन के बाद ही आदिवासी विकास परिषद ने पीपीपी से जुडे सदस्यों को परिषद से बाहर का रास्ता दिखलाया। परिषद के इस तरह के रवैये से यह तो स्पष्ट हो चला है कि परिषद एक सामाजिक संगठन नहीं रह गया है, बल्कि वह बकायदा एक राजनैतिक संगठन बन गया है। लेकिन चोला अभी भी सामाजिक संगठन का ही पहना हुआ है।
यदि पीपीपी एक सामाजिक संगठन होता तो एक सामाजिक संगठन के सदस्यों के द्वारा दूसरा सामाजिक संगठन बनाने पर उन्हें निकालने के सिवा कोई चारा नहीं होता, लेकिन एक सामाजिक संगठन के सदस्य भारतीय कानूनों के तहत किसी भी राजनैतिक पार्टी का दामन थामने के लिए न सिर्फ आजाद हैं, बल्कि चाहें तो अलग से अपनी पार्टी का भी गठन कर सकते हैं। लेकिन नवगठित पार्टी में शामिल हुए लोगों को परिषद से बाहर निकालने के साथ–साथ परिषद पुन: यह कहना नहीं भूला कि वह एक सामाजिक संगठन है। यह एक हास्यस्पद स्थिति ही है।
अजूबे की बात तो यह है कि पीपीपी के गठन की बैठक में शामिल हुए अल्पसंख्यकों की अगुवाई करने वाली संस्था डीएमआई के सदस्यों पर भी डीएमआई सचिव ने परिषद के तर्ज पर ही अपने सदस्यों को सावधान किया कि यदि वे पीपीपी में शामिल होते हैं तो उन पर कार्रवाई कीजाएगी। डीएमआई सचिव ने भी फर्माया कि डीएमआई एक सामाजिक संगठन है। कितनी हैरानी की बात है कि सामाजिक संगठन अपने सदस्यों को अपने संगठन का बंधक मान कर चलते हैं। अपने को सामाजिक संगठन घोषित करने वाली संस्थाऍं सामाजिक चोला पहन कर राजनीति करती है और अपने को जनता के सामने सिर्फ सामाजिक संस्थाऍं घोषित करती हैं।
पीपीपी के गठन ने कई संस्थाओं के चोले को उतार फेंका है। बंगाल और बंग्ला बचाओं समिति के कर्ताधर्ता लैरी बोस ने पीपीपी के गठन पर नाराजगी जाहिर की है। कितनी हैरानी की बात है कि एक ऐसी संस्था जिसका आदिवासियों के हित से जरा भी संबंध नहीं है और जो आदिवासियों के लिए कभी कोई आवाज नहीं उठाई आदिवासी समाज के हलचलों पर बकायदा अपना बयान जारी करती है। अशोक भट्टाचार्य जैसे नेता और वामफ्रंट के घटक दलों को भी पीपीपी के गठन से एलर्जी है। इन संस्थाओं को आदिवासी पिछडापन, अशिक्षा, बेरोजगारी, अस्वस्थकर निम्न जीवन स्तर आदि से कोई मतलब नहीं है। लेकिन आदिवासियों द्वारा गठित राजनैतिक पार्टियों से एलर्जी है। ऐसा लगता है इन नेताओं ने आदिवासी समाज को अपने पॉकेट में रखने वाला पर्स समझ रखा है। यदि आदिवासी समाज इनकी मुठ्टी में है तो कैसे इनकी मुट्टी में आ गया है ? यह एक विचारनीय प्रश्न है और इस पर गंभीरता से विचार किया ही जाना चाहिए। कई सवाल है जिस पर आदिवासी समाज को गंभीरता से चिंतन और मनन करना चाहिए।
पीपीपी के गठन के बाद प्रोग्रेसिव टी वर्कर्स युनियन ने स्वाभाविक रूप से बयान जारी किया कि उसका नई पार्टी से कोई लेना देना नहीं है। यह स्वाभाविक इसलिए है कि विकास परिषद ने पहले ही नई पार्टी का विरोध किया है और प्रोग्रेसिव टी वर्कर्स युनियन विकास परिषद केद्वारा ही बनाया गया है।
आदिवासी विकास परिषद एक सामाजिक संगठन है। वह संगठित होकर आदिवासी मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद कर रहा है। आदिवासी विकास परिषद की आवाज पर जनता बंद, हडताल और जुलूसों में शामिल होती है। गणतांत्रिक देश में संवैधानिक रूप से अपने अधिकारों को पाने के लिए एकता जरूरी है और विकास परिषद को समर्थन करना अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन विकास परिषद के नेतृत्व में सामाजिक और राजनैतिक परिकल्पना क्या है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है।
विकास परिषद ने कालचीनी विधान सभा के उपचुनाव का बहिष्कार किया था। परिषद की ओर से विधिवत कोई उम्मीदवार खडा नहीं किया गया। क्योंकि परिषद एक सामाजिक संगठन होने के कारण वैधानिक रूप से उम्मीदवार खडा नहीं कर सकता है। कुछ उत्साही सदस्यों ने राज्य ईकाई की बातों को नकारते हुए विकास परिषद की ओर से उम्मीदवार खडा किया जो चुनाव में हार गया। हार का मुख्य कारण यह था कि विकास परिषद ने स्पष्ट रूप से कोई नीति नहीं बनाया और लोगों को स्पष्ट रूप से कुछ नहीं बताया और एक विभ्रांत की स्थिति को जानबूझ कर बनाए रखा ताकि जीत जाए तो विकास परिषद का उम्मीदवार और हार जाए तो नकार दिया जाए। और हार जाने पर आश्चर्यजनक रूप से नकार ही दिया गया। नेतृत्व की अपरिपक्वता के कारण आदिवासी समाज में एक कुलबुलाहट व्याप्त थी, जिसकी टीस अभी भी महसूस होती है।
यह ठीक है कि परिषद कोई उम्मीदवार खडा नहीं कर सकता है। लेकिन उत्तरबंगाल में सात ऐसे विधानसभा और दो लोकसभा सीट है, जहॉं आदिवासी न सिर्फ बहुसंख्यक हैं, बल्कि कई सीट आदिवासी समाज के लिए आरक्षित भी है। परिषद चाय अंचल की सभी पार्टियों पर आरोप लगा चुकी है कि वह आदिवासियों के लिए कुछ नहीं करती है और उसे वोटबैंक के रूप में उपयोग करती रही है। ऐसे में वह आदिवासी राजनीति के तलवार को कैसे भांजेगा ? क्या आने वाले तमाम चुनावों का बहिष्कार करते रहेगा ? या विकास परिषद के सदस्यों को अपनी पसंद की पार्टी और उम्मीदवार को वोट देने को कहेगा या जिन पार्टियों पर वह आरोप लगा चुका है उन्हीं पार्टियों को पीछे से अघोषित रूप से समर्थन करने के लिए कहेगा ?
डुवार्स–तराई अंचल के सभी राजनीतिक पार्टियों के मुख्य कर्ताधर्ता गैर आदिवासी रहे है और इन पार्टियों में आदिवासी हित की बातों को तरजीह दी जाएगी, ऐसा सोचना सिर्फ बेवकूफी ही होगी। ऐसे में क्या आदिवासी विकास परिषद अपना सामाजिक चोला उतार कर राजनैतिक चोला पहन लेगा ? विकास परिषद के सामाजिक संगठन बने रहने से आदिवासियों को राजनैतिक रूप से क्या विकल्प हासिल होगा ? आदिवासी विकास परिषद राजनैतिक मांग सरकार से करता है, लेकिन राजनीति से दूरी बना कर रहना चाहता है। इसे कहते हैं गुड से दोस्ती गुडगुडे से परहेज। आदिवासी विकास परिषद आदिवासियों को राजनैतिक शक्ति हासिल करने से क्यों रोक रहा है ? राजनीति रूप से वह किसका समर्थन करना चाहता है ? क्या परिषद बता सकता है कि राजनीति शक्ति हासिल किए बिना वह आदिवासी समस्याओं को सुलझाएगा ? क्या अगले पॉंच बर्षो तक वह सामाजिक संगठन का चोला पहन कर इसी तरह सरकार से मांग करते रहेगा ? आदिवासियों के दस लाख वोटों की कीमत क्या है और आदिवासी वोट किसी पार्टी को हासिल होगी ?
हम यह मान लेते हैं कि हाल ही में बनी दो पार्टियॉं विरोधियों द्वारा बिछायी गई बिसात है। ऐसे में अगले चुनाव में आदिवासी विकास परिषद किसको वोट देगा। क्या सीपीएम और उससे जुडे वामफ्रंट को ? यदि नहीं तो क्या कांग्रेस अथवा तृणमूल को? यदि वह सामाजिक संगठन है और वोटों की राजनीति से दूर रहना चाहता है तो वह आदिवासी युवकों द्वारा बनाई गई पार्टियों से आदिवासियों को क्यों दूर रखना चाहता है। विकास परिषद और वामफ्रंट पार्टियों के विचारों में नई पार्टियों को लेकर आश्चर्यजनक समानता सिर्फ क्या संयोग है अथवा कुछ और ?
आदिवासी समाज में बहुत अरसे के बाद एकता आई है। बहुत अरसे के बाद लोग एक मंच पर इक्क्ट्ठे हुए है। नौजवानों की आंखों में नये सपने आए हैं। ऐसे में समाज का नेतृत्व कर रहे लोगों को बहुत र्इमानदारी से अपने अगले कदम रखने होंगे। किसी भी तरह का गलत कदम समाज को लेकर डूब सकता है। यदि परिषद को लगता है कि आदिवासियों द्वारा बनाई गई दो राजनैतिक पार्टियॉं किन्हीं अन्य पार्टियों का मुखौटा है तो वह इन पार्टियों का जरूर विरोध करे और उनका पर्दाफाश करे। लेकिन साथ ही यह भी बताए कि वह सामाजिक एकता और शक्ति को बनाए रखने के लिए क्या राजनैतिक विकल्प आदिवासियों के लिए रख रहा है ? यदि वह बिना विकल्प दिए ही इन पार्टियों का विरोध करेगा और आदिवासियों को विकल्पहीन रखेगा तो अगली बार होने वाले चुनावों में भी उन्हीं पार्टियों की जीत होगी जो पिछले साठ साल से चुनाव जीतती रही है और आदिवासियों को सिर्फ वोट बैंक समझती रही है।
यदि आदिवासी नेतृत्व यथास्थिति ही बनाए रखना चाहता है तो यह न सिर्फ अत्माहत्या के समान होगा, बल्कि ऐसे में उनके इरादों और र्इमानदारी पर भी सवाल उठेंगे। आदिवासियों द्वारा अपनी राजनैतिक पार्टियॉं बनाने पर तो दूसरी राजनैतिक पार्टियों को फर्क पडेगा ही, क्योंकि बिना सवाल किए चुपचाप वोट देने वाला विशाल संख्यक वोटर उनके हाथ से निकल जाएगा और परोक्ष रूप से आदिवासी समाज को नियंत्रित करने वाला उनका हाथ खाली रह जाएगा। लेकिन विकास परिषद को क्या फर्क पड रहा है। यह उन्हें स्पष्ट करना चाहिए। जबकि दूसरी ओर एक ऐसा आदिवासी राजनैतिक नेतृत्व उभर कर आएगा जो आदिवासी विकास और समाज की भविष्य पर रोज नया सवाल उठाया करेगा। नया नेतृत्व किसी राजनीतिक आका का कठपुतली नहीं होकर सचमुच का आदिवासी नेता होगा और आदिवासी मुद्दों पर जान लडा कर बात करेगा। यदि आदिवासी नेतृत्व को उत्पन्न होने से विकास परिषद रोकेगा और खुद भी राजनीति पार्टी नहीं बनाएगा तो यह सवाल बना ही रहेगा कि उनकी (नेतृत्व की) निगाहें किधर हैं और निशाने पर कौन है ?
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