Friday, January 20, 2017

दलित उत्पीड़न के मामले

राष्ट्रीय अपराध अनुसन्धान ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा हाल में जारी की गयी क्राईम इन इंडिया– 2015 रिपोर्ट से एक बात पुनः उभर कर आई है कि भाजपा शासित राज्य दलित उत्पीड़न के मामले में देश के अन्य राज्यों से काफी आगे हैं. लगभग यही स्थिति वर्ष 2014 में भी थी. वर्तमान में भाजपा शासित राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, गोवा और हिमाचल प्रदेश हैं. इनके इलावा कुछ अन्य राज्य जैसे उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तेलन्गाना, उत्तर प्रदेश और बिहार हैं जिन में दलित उत्पीड़न के मामले राष्ट्रीय दर (प्रति एक लाख दलित आबादी पर) से ज्यादा हैं. भाजपा शासित राज्यों व् अन्य  राज्यों में दलितों पर उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार घटित अपराधों की स्थिति निम्न प्रकार है:-
दलितों पर 2015 में कुल घटित अपराध: इस वर्ष में यह संख्या 45,003 है जो कि यद्यपि वर्ष 2014 की संख्या 47,064 से कम है परन्तु 2013 की संख्या 39,408 से लगभग 5,500 अधिक है. इसी प्रकार 2015 में प्रति एक लाख दलित आबादी पर घटित अपराध की राष्ट्रीय दर 22.3 है जो कि यद्यपि 2014 की 23.4 से कम है परन्तु  2013 की 19.6 से 2.7 अधिक है. इस से स्पष्ट है कि यद्यपि 2015 में कुल घटित अपराध में पिछले वर्ष की अपेक्षा कुछ कमी आई है परन्तु यह 2013 की अपेक्षा काफी बढ़ा है. यह वृद्धि अधिकतर भाजपा शासित राज्यों में अपराध में बढ़ोतरी के कारण ही है.
दलितों पर वर्ष 2015 में घटित अपराधों में से उत्तर प्रदेश- 8,358, राजस्थान- 6,998, बिहार- 6,438,  आंध्र प्रदेश- 4,415, मध्य प्रदेश- 4,188, उड़ीसा- 2,305, महाराष्ट्र- 1,816, तमिलनाडु– 1,782, गुजरात- 1,046, छत्तीसगढ़- 1,028 तथा झारखण्ड- 752 अपराध घटित हुए हैं. इसी प्रकार 22.3 की राष्ट्रीय दर के विपरीत राजस्थान- 57.2, आन्ध्र प्रदेश- 52.3, गोवा- 51.1, बिहार- 38.9, मध्य प्रदेश- 36.9, उड़ीसा- 32.1,छत्तीसगढ़- 31.4, तेलन्गाना-30.9, गुजरात- 25.7, केरल- 24.7, उत्तर प्रदेश- 20.2 रही है. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि भाजपा शासित राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, गोवा तथा अन्य राज्य जैसे आन्ध्र प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, तेलन्गाना, केरल, उत्तर प्रदेश में दलितोंपर घटित अपराध की दर राष्ट्रिय दर से काफी अधिक है. 
हत्या: 2015 में दलितों की हत्या के 707 अपराध हुए थे और राष्ट्रीय औसत 0.4 थी. इन में से मध्य प्रदेश-80, राजस्थान- 71, बिहार- 78, महाराष्ट्र- 42, उड़ीसा- 21, गुजरात- 17, तमिलनाडु- 48, तेलन्गाना -17, हरियाणा- 22, आन्ध्र प्रदेश- 23 तथा उत्तर प्रदेश- 204 थे. हत्या के अपराध की राष्ट्रीय औसत दर 0.4 थी  परन्तु भाजपा शासित राज्य मध्य प्रदेश (0.7), राजस्थान (0.6), झारखण्ड (0.5), बिहार (0.5), उत्तर प्रदेश (0.5), हरियाणा (0.4) और गुजरात में (0.4) थी. इन आकड़ों से स्पष्ट है कि भाजपा शासित राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान में दलित हत्यायों की दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक रही है.
बलात्कार: वर्ष 2015 में दलित महिलायों के बलात्कार के राष्ट्रीय स्तर पर कुल मामले 2,326 थे तथा राष्ट्रीय दर 1.2 थी. इन में से मध्य प्रदेश (460), उत्तर प्रदेश (444), राजस्थान (318), महाराष्ट्र (238), उड़ीसा (129), हरियाणा (107), तेलन्गाना (107), आन्ध्र प्रदेश (104), केरल (99) छत्तीसगढ़ (81), गुजरात (65), तमिलनाडु (43) और बिहार (42) में रहे. इसी प्रकार बलात्कार की राष्ट्रीय दर 1.2 थी जबकि इसके मुकाबले में मध्य प्रदेश (4.1), केरल (3.3), राजस्थान (2.6), छत्तीसगढ़ (2.5), हरियाणा (2.1), तेलन्गाना (2.0), महाराष्ट्र (1.8), उड़ीसा (1.8), गुजरात (1.6) और आन्ध्र प्रदेश (1.2) रही. इन आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि दलित महिलाओं पर बलात्कार के मामले में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात में अपराध दर राष्ट्रीय दर से काफी अधिक रही है.
दलित महिलाओं पर शील भंग के लिए हमला:  वर्ष 2015 में राष्ट्रीय स्तर पर इस शीर्षक के अंतर्गत कुल 2,800 अपराध घटित हुए तथा राष्ट्रीय दर 1.4 रही. इन में से मध्य प्रदेश- 777, उत्तर प्रदेश- 756, महाराष्ट्र- 353, आन्ध्र प्रदेश- 153, उड़ीसा- 155, हरियाणा- 109, राजस्थान- 107, कर्नटका- 60 और गुजरात- 51 थे.  इस प्रकार के अपराध की राष्ट्रीय दर 1.4 थी जबकि यह मध्य प्रदेश- 6.9, महाराष्ट्र- 2.7, हरियाणा- 2.1, केरल- 2.2, उड़ीसा- 2.2, आन्ध्र प्रदेश एवं तेलन्गाना- 1.8, उत्तर प्रदेश -1.8 रही. इन आंकड़ों से भी स्पष्ट है भाजपा शासित राज्यों मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा में दलितों महिलायों पर शीलभंग के लिए हमले के अपराध की दर राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची रही है.
दलित महिलायों का अपहरण: वर्ष 2015 में इस प्रकार के कुल 687 अपराध हुए तथा राष्ट्रीय दर 0.3 रही. इस प्रकृति के अपराध उत्तर प्रदेश- 415, राजस्थान- 62, मध्य प्रदेश- 43, गुजरात- 37, महाराष्ट्र- 34, हरियाणा-29, उड़ीसा- 22 और आन्ध्र प्रदेश- 10 थे. इसकी राज्यवार दर उत्तर प्रदेश- 1.0, गुजरात- 0.9, राजस्थान- 0.5, मध्य प्रदेश- 0.4, महाराष्ट्र और उड़ीसा- 0.3 रही. इस विश्लेषण से भी स्पष्ट है कि इस अपराध में भी उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश की दर राष्ट्रीय दर से काफी ऊपर रही.
दलित महिलायों का विवाह के लिए अपहरण: वर्ष 2015 में पूरे देश में इस प्रकार के 455 प्रकरण हुए तथा राष्ट्रीय दर 0.2 रही. इनमे उत्तर प्रदेश- 338, राजस्थान- 28, गुजरात- 20, मध्य प्रदेश- 18, महाराष्ट्र- 18 तथा मध्य प्रदेश- 18 घटित हुए.  इसकी राज्यवार दर उत्तर प्रदेश- 0.8, गुजरात- 0.5, मध्य प्रदेश और राजस्थान- 0.2  रही. इससे से भी स्पष्ट है इस अपराध में भी उत्तर प्रदेश के बाद राजस्थान, गुजरात और राजस्थान की दर राष्ट्रीय दर से ऊँची रही.
आगजनी: वर्ष 2015 में आगजनी के कुल 179 मामले हुए तथा राष्ट्रीय दर 0.1 रही. इसमें से छत्तीसगढ़- 43, उत्तर प्रदेश- 30, मध्य प्रदेश- 21, राजस्थान- 21, तमिलनाडु- 14, उड़ीसा- 15 तथा महाराष्ट्र- 11 में अपराध घटित हुए.  दर की दृष्टि से छत्तीसगढ़- 0.3, मध्य प्रदेश- 0.2, राजस्थान- 0.2, गुजरात- 0.2 की दर रही. इस से भी  स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में आगजनी के अपराध की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक रही.
एससी/एसटी एक्ट के अपराध: इस एक्ट के अंतर्गत वर्ष 2005 में कुल 6,005 अपराध पंजीकृत हुए और राष्ट्रीय दर 3.0 रही. इनमें से मध्य प्रदेश-1, महाराष्ट्र- 290, हिमाचल प्रदेश- 74, गुजरात- 190, छत्तीसगढ़- 0, हरियाणा- 19, उड़ीसा- 1, राजस्थान- 92 तथा तेलन्गाना- 358 पंजीकृत हुए. इस अपराध के अंतर्गत भाजपा शासित राज्यों में कम आंकड़ों का कारण इन राज्यों में इस अपराध का कम होना नहीं बल्कि इस एक्ट का प्रयोग न किया जाना है.
एससी/एसटी एक्ट का प्रयोग न किया जाना: उपरोक्त रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों से यह तथ्य भी उभर कर आया है कि लगभग सभी भाजपा शासित राज्यों में एससी/एसटी एक्ट का प्रयोग नहीं किया जा रहा है जिस कारण दलितों पर अत्याचार के मामले सामान्य कानून के अन्तर्गत दर्ज किये जाते हैं. इससे दलितों को अत्याचार के मामलों में न तो कोई मुयाव्ज़ा मिलता है और न ही दोषियों को कड़ी सजा. इन राज्यों में 6,009 आईपीसी अपराध के मामलों में इस एक्ट का प्रयोग नहीं किया गया है. राज्यवार स्थिति यह है: आन्ध्र प्रदेश -2050, राजस्थान- 1,040, छत्तीसगढ़- 790, मध्य प्रदेश- 638, उड़ीसा- 482, तेलन्गाना- 357, हरियाणा- 322, कर्नाटक- 131. इन आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि भाजपा शासित राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा के इलावा आन्ध्र प्रदेश, तेलन्गाना, उड़ीसा और कर्नाटक में भी एससी/एसटी एक्ट का प्रयोग नहीं किया जा रहा है जो कि इन राज्यों के दलितों के साथ बहुत बड़ा अन्याय और धोखा है.
अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार: वर्ष 2015 में इस वर्ग पर 10,914 अपराध घटित हुए और अपराध की राष्ट्रीय दर 10.5 रही जो 2014 के कुल अपराध 11, 415 और राष्ट्रीय दर 11.0 से तो कुछ कम है परन्तु 2013 के 6,793 अपराध और राष्ट्रीय दर 6.5 से काफी अधिक है. 2015 के कुल अपराध में से राजस्थान -3,207, मध्य प्रदेश- 1,531, छत्तीसगढ़- 1,518, उड़ीसा- 1,307, आन्ध्र प्रदेश- 719, तेलन्गाना- 698, महारष्ट्र-483, गुजरात- 256 और झारखण्ड में 269 अपराध घटित हुए. इनकी राज्यवार दर राजस्थान- 34.7, आन्ध्र प्रदेश- 27.3, तेलन्गाना- 21.2, छत्तीसगढ़- 19.4 और उड़ीसा- 14.5 है जो कि राष्ट्रीय दर से काफी अधिक है.
उक्त रिपोर्ट के अनुसार 2015 में अनुसूचित जनजातियों पर इस वर्ष कुल 10,914 अपराध घटित हुए तथा अपराध की राष्ट्रीय दर 10.5 रही. इनमें से राजस्थान- 3,207, मध्य प्रदेश- 1,531, छत्तीसगढ़- 1,518, उड़ीसा- 1,387, आन्ध्र प्रदेश- 719, तेलन्गाना- 698 में अपराध घटित हुए. दर की दृष्टि से केरल- 36.3, राजस्थान- 34.7, आन्ध्र प्रदेश- 27.3, तेलन्गाना- 21.2, छत्तीसगढ़- 19.4, उड़ीसा- 14.5, मध्य प्रदेश- 10.0 की दर रही. इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि केरल, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश तथा तेलन्गाना को छोड़ कर शेष भाजपा शासित राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, और मध्य प्रदेश में अपराध की दर राष्ट्रीय दर से काफी ऊँची रही है.
हत्या:  वर्ष 2015 में अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध हत्या की 144 अपराध घटित हुए जिन में से मध्य प्रदेश- 50, राजस्थान- 22, उड़ीसा- 14, गुजरात- 13, महाराष्ट्र- 11 में घटित हुए. इससे भी स्पष्ट है इस वर्ग पर भाजपा शासित राज्यों में हत्या के अधिक अपराध हुए.
बलात्कार: उक्त अवधि में पूरे देश में अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं पर बलात्कार के 952 अपराध घटित हुए और इसकी राष्ट्रीय दर 0.9 रही. इन में से मध्य प्रदेश- 359, छत्तीसगढ़- 138, महाराष्ट्र- 99, उड़ीसा- 94, राजस्थान- 80, केरल- 47, गुजरात और तेलन्गाना- 44, तथा आन्ध्र प्रदेश- 21 में अपराध हुए. दर की दृष्टि से केरल- 9.7, मध्य प्रदेश- 2.3, छत्तीसगढ़- 1.8, तेलन्गाना- 1.3, उड़ीसा- 1.0, महाराष्ट्र- 0.9 की दर रही. इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि केरल को छोड़ कर शेष भाजपा शासित राज्यों में ब्लात्कार की दर राष्ट्रिय दर से काफी अधिक रही है.
महिलायों पर शीलभंग के लिए हमले:  वर्ष 2015 में अनुसूचित जनजातियों पर इस प्रकार के 818 अपराध घटित हुए तथा राष्ट्रीय दर 0.8 रही. इनमें से मध्य प्रदेश- 378, महाराष्ट्र- 146, छत्तीसगढ़- 86, उड़ीसा- 65, तेलन्गाना- 32 तथा आन्ध्र प्रदेश- 29 में अपराध घटित हुए. दर की दृष्टि से केरल- 3.9, मध्य प्रदेश- 2.5, महाराष्ट्र- 1.4, छत्तीसगढ़ और आन्ध्र प्रदेश- 1.1, तेलन्गाना- 1.0 की रही. इन आंकड़ों से भी स्पष्ट है किकेरल को छोड़ कर शेष सभी भाजपा शासित राज्यों में इस वर्ग पर सब से अधिक अपराध घटित हुए हैं.   
एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत अपराध: वर्ष 2015 में पूरे देश में अनुसूचित जनजाति पर अत्याचार के सम्बन्ध में इस एक्ट के अंतर्गत 6,275 अपराध पंजीकृत हुए. इनमें से राजस्थान- 1,409, मध्य प्रदेश- 1,358, उड़ीसा- 691, महाराष्ट्र- 481, तेलन्गाना और कर्नाटक- 386, छत्तीसगढ़- 373, आन्ध्र प्रदेश- 362 और गुजरात- 248, केरल- 165 घटित हुए. दर की दृष्टि से केरल- 34.0, राजस्थान- 15.3, आन्ध्र प्रदेश- 13.8,तेलन्गाना- 11.7, मध्य प्रदेश- 8.9, उड़ीसा- 7.2 की रही. इस विश्लेषण से भी स्पष्ट है कि केरल को छोड़ कर भाजपा शासित राज्य इस अपराध में भी अन्य से आगे हैं.  
एससी/एसटी एक्ट का लागू न किया जाना: वर्ष 2015 के दौरान अनुसूचित जनजाति के विरुद्ध आईपीसी के 4203 मामले रहे हैं जिन में इस एक्ट का प्रयोग ही नहीं किया गया. इनमें से राजस्थान- 1,746, छत्तीसगढ़- 816, उड़ीसा- 696, आन्ध्र प्रदेश- 352, तेलन्गाना- 302 तथा मध्य प्रदेश- 171 में घटित हुए. दर की दृष्टि से राजस्थान- 18.9, आन्ध्र प्रदेश- 13.4, छत्तीसगढ़- 10.4, तेलन्गाना- 9.2, उड़ीसा- 7.3 रही. इन आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि आन्ध्र प्रदेश, तेलन्गाना और उड़ीसा को छोड़ कर शेष भाजपा शासित राज्यों में एससी/एसटी एक्ट को लागू न करने की दर काफी ऊँची है. 
दलित उत्पीड़न के मामलों में न्यायालय से सज़ा की दर: वर्ष 2015 के दलित उत्पीड़न के मामलों के न्यायालय द्वारा निस्तारण के अनुसार इस वर्ष में 17,012 मामले निस्तारित किये गए जिन में से केवल 4,702 मामलों में ही सजा हुयी तथा 12,310 मामलों में आरोपी दोष मुक्त हो गए. इस प्रकार सजा होने की दर केवल 27.6 प्रतिशत रही. इसी प्रकार उक्त अवधि में न्यायालय द्वारा अनुसूचित जनजाति के 4,894 मामले निस्तारित किये गए जिन में से केवल 1,349 मामलों में सजा हुयी और 3,545 मामलों में आरोपी रिहा हो गए. इस मामले में भी सजा की दर केवल 27.6 ही रही. इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को उत्पीड़न के मामलों में न्याय दिलाने के लिए सरकारों की क्या प्रतिबद्धता है?
वर्ष 2015 के अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति पर अत्याचार के मामलों के आंकड़ों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि भाजपा शासित राज्यों गुजरात, महारष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा में इन वर्गों पर अत्याचार के मामले आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, तेलन्गाना, कर्नाटक को छोड़ कर बहुत अधिक हैं. इन राज्यों में न तो एससी/एसटी एक्ट का इस्तेमाल किया जा रहा है और न ही दोषियों को सजा दिलाने के लिए प्रभावी कार्रवाही  की जा रही है. इन राज्यों में 2013 के मुकाबले में अत्याचार के मामलों में बहुत वृद्धि हुयी है. यह भी सर्वविदित है कि सरकारी आंकड़ों में दिखाया गया अपराध वास्तविक आंकड़ों का एक छोटा हिस्सा होता है. कुल घटित अपराध तो इससे कहीं अधिक होता है. मोदी सरकार ने एक तरफ तो एससी/एसटी एक्ट में संशोधन करने का दिखावा किया है वहीँ दूसरी ओर इस एक्ट को भाजपा शासित तथा कुछ अन्य राज्यों में लागू ही नहीं किया जा रहा है. गुजरात का दलित आक्रोश इसी की परिणति है. ऐसी परिस्थिति में दलितों को इस सम्बन्ध में गंभीरता से मनन करना चाहिए और दलित नेताओं और भाजपा शासित तथा अन्य राज्यों की सरकारों के विरुद्ध एससी/एसटी एक्ट को सख्ती से लागू करने के लिए जनांदोलन करना चाहिए.    
लेखक एस.आर. दारापुरी उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिरीक्षक रह चुके हैं.
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वैसे तो दलित-उत्पीड़न की घटनाएं हमारे दैनंदिन जीवन का अंग बन चुकी हैं, फिर भी बीच-बीच में ऐसी कुछ घटनाएं घट जाती हैं कि आमतौर पर निर्लिप्त रहने वाला समाज चिंतित हो उठता है। हाल के दिनों में कई ऐसी ही घटनाएं सामने आई हैं जो चिंता पैदा करने वाली हैं। एक घटना राजस्थान के नागौर जिले के डांगावास की है जहां हथियारों से लैस सैकड़ों लोग दलितों पर टूट पड़े। इन लोगों ने एक ही परिवार के चार दलितों की हत्या कर दी। इसमें तीन को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डाला, जबकि एक व्यक्ति को गोली से उड़ा दिया गया। दलित परिवार की महिलाओं पर भी क्रूरता की गई और एक महिला की आंख में लकड़ी घोंपकर उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया गया, जबकि दूसरी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया गया। जाट बहुल डांगावास में हुई इस वारदात के तीसरे दिन पुलिस एक आरोपी को गिरफ्तार कर सकी। लोग अभी डांगावास की इस घटना को भूले भी नहीं थे कि उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के हरेवा में पांच दलित महिलाओं को चार घंटे तक नग्न घुमाने का शर्मनाक काम किया गया। इसके अलावा कुछ और ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जहां दलित दूल्हों के घोड़ी पर बैठने का विरोध हिंसक ढंग से किया गया। इस तरह की ताजा घटना रतलाम में हुई। यहां दलित दूल्हे को हमले से बचाने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस तैनात हुई। दूल्हे को हेलमेट भी पहनाया गया ताकि कोई उसे पत्थर न मार सके। जब-जब इस तरह की वारदातें होती हैं, दलितों के साथ-साथ मानवाताबोध संपन्न अन्य लोगों में भी चिंता की लहर दौड़ जाती है। वे घटनास्थल का मुआयना कर असहिष्णु तत्वों के हिंसक कामों की निंदा करने एवं उनके विवेक को झकझोरने का अभियान चलाते हैं, लेकिन नतीजा शून्य निकलता है। एक अंतराल के बाद दलित-द्वेषी भावना का पुन: प्रकटीकरण हो ही जाता है।
दलित उत्पीड़न के खिलाफ हिंदू विवेक को झकझोरने का अभियान इसलिए निष्प्रभावी रहता है, क्योंकि दलितों की सत्ता हिंदू मान्यताओं द्वारा अस्वीकृत है। मानवेत्तर रूप में चिह्नित किया गया दलित समुदाय जब आम लोगों की भांति अपने मानवीय अधिकारों के प्रदर्शन की कोशिश करता है, समर्थ हिंदुओं का एक तबका उन्हें उनकी हैसियत बताने के लिए डांगावास, हरेवा जैसे कांड अंजाम दे देता है। हालांकि सदियों से जारी इस उत्पीड़न से आजिज आकर जहां लाखों दलितों ने निज-धर्म का परित्याग किया, वहीं तमाम ने प्लासी और कोरेगांव में शत्रु सेना का साथ देकर देश को गुलाम तक बनवा दिया, लेकिन हिंदू समाज ने इससे कोई सबक नहीं लिया। परिणाम यह है कि दलित उत्पीड़न का सिलसिला आज भी कायम है। आखिर दलित उत्पीड़न की घटनाओं का प्रतिकार कैसे हो? इस मामले में अंबेडकर ने वषरें पहले कहा था कि 'ये अत्याचार एक समाज पर दूसरे समर्थ समाज द्वारा हो रहे अन्याय का प्रश्न हैं, एक मनुष्य पर हो रहे अन्याय का प्रश्न नहीं हैं। उन्होंने इसे वर्ग संघर्ष बताया था। उनका मानना था कि किसी भी संघर्ष में जीत उन्हीं की होती है जिनके हाथ में साम‌र्थ्य होती है। जिनमें साम‌र्थ्य नहीं उन्हें अपनी विजय की अपेक्षा रखना फिजूल है।
दलितों को अपने शोषण-उत्पीड़न का प्रतिकार के लिए बल संचित करने का सुझाव देते हुए उन्होंने कहा था कि 'मानव समाज के पास तीन प्रकार का बल होता है। एक है मनुष्य-बल। दूसरा है धन-बल और तीसरा है मनोबल। मनुष्य बल की दृष्टि से दलित अल्पसंख्यक हैं और वे संगठित भी नहीं हैं। धन-बल की दृष्टि से देखा जाए तो उनके पास थोड़ा-बहुत जन-बल तो है भी, लेकिन धन-बल तो बिल्कुल ही नहीं है। मानसिक बल की तो उससे भी बुरी हालत है। सैकड़ों साल से अन्याय सहन करते रहने के कारण उनकी प्रतिकार करने की आदत पूरी तरह नष्ट हो गई है। हम भी कुछ कर सकते हैं, इसका विचार ही किसी के मन में नहीं आता। अंबेडकर ने दलित वर्ग को समर्थ हिंदुओं के अत्याचार से बचाने के लिए एकमेव उपाय अपने हाथ में शक्ति इकठ्ठा करना बताया था। उन्होंने दलितों को अपने अत्याचारी वर्ग से निजात दिलाने का जो नुस्खा बताया था वह सार्वदेशिक है। सारी दुनिया में जो अशक्त रहे उन पर सशक्त वर्ग का अत्याचार होता रहा। जिन मानव समुदायों को शक्ति के स्नोतों से वंचित कर अशक्त मानव समुदाय में तब्दील किया गया उनमें किसी की भी स्थिति दलितों जैसी नहीं रही। मानव जाति के इतिहास में किसी भी वर्ग को शक्तिके प्रमुख स्नोतों से पूरी तरह वंचित नहीं किया गया। अमेरिका में जिन अश्वेतों का दलितों की भांति ही पशुवत इस्तेमाल हुआ उनके लिए पूजा-पाठ कभी निषिद्ध नहीं रहा। शक्ति के प्रमुख स्नोतों में दलितों का धार्मिक क्षेत्र से बहिष्कार उन्हें अस्पृश्यता की खाई में धकेलने के लिए प्रधान कारक बन गया। तमाम देशों में अशक्त समूहों को साम‌र्थ्यवान बनाकर उन्हें सबल समुदायों के जुल्म से निजात दिलाई गई, लेकिन भारत में वैसा नहीं हुआ। जबकि यहां उसकी जरूरत कहीं ज्यादा रही। सदियों से जारी दलित उत्पीड़न को मध्यकाल में संतों और भारतीय नव जागरण के असंख्य महानायकों ने गहराई से स्पर्श किया, लेकिन उनमें से कोई भी अंबेडकर की भांति दलित अशक्तिकरण के कारणों को संपूर्णता में नहीं समझ पाया और इसीलिए वे प्रभावी लड़ाई नहीं लड़ सके। गुलाम भारत में जहां तमाम स्वतंत्रता संग्रामी अंग्रेजों के कब्जे में पड़ी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति छीनने में व्यस्त थे वहीं अंबेडकर बड़ी मुश्किल हालात में मानव जाति के सबसे अशक्त समूहों को शक्ति से लैस करने व्यस्त थे। उनके प्रयासों से सदियों से बंद पड़े शक्ति के कई स्नोत दलितों के लिए मुक्त हुए, लेकिन सारे नहीं।
अंबेडकर अपने जमाने में भारत के असहाय नेता रहे। यदि वे असहाय नहीं होते तो संविधान में राजनीति के अतिरिक्त उद्योग-व्यापार सहित तमाम स्नोतों में दलितों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करा देते। अगर दलित उत्पीड़न का प्रतिकार करना है तो अंबेडकर के सुझाव अनुसार दलितों को साम‌र्थ्यवान बनाने के मुद्दे को शीर्ष पर लाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
[लेखक एचएल दुसाघ, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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