हम दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी हैं। उसका कारण हमारी जनसंख्या है। डेमोक्रेसी में संख्या महत्वपूर्ण होती है। वैसे, गुण महत्वपूर्ण होते, तो हमारी डेमोक्रेसी सबसे गुणवान भी होती। क्योंकि हमारी डेमोक्रेसी सर्वगुणसम्पन्न है। उतनी ही सर्वगुणसम्पन्न, जितनी शादी के लिए दिखाई जाने वाली लड़की होती है। कुछ गुण उसमें होते हैं, कुछ जोड़ दिए जाते हैं। हमारी डेमोक्रेसी में भी कुछ ऐसे गुण जोड़े गये हैं, जिनकी दूसरी डेमोक्रेसी में कल्पना भी नहीं की जाती।
डेमोक्रेसी, विदेशी विचार से उपजी एक राजनैतिक व्यवस्था है। जब डेमोक्रेसी हमारे हाथ लग गई, तो हमने वही किया, जिसे करने में हम लोग माहिर हैं− मिलावट! आप गलत समझ रहे हैं, मिलावट नकारात्मक शब्द नहीं है। मिलावट मेल−मिलाप जैसा शब्द है। जब लोग मिलते हैं तो उसे मेल−मिलाप कहा जाता है। जब चीज़ें मिलती हैं तो उसे मिलावट कहा जाता है। अगर मेल−मिलाप नकारात्मक नहीं है, तो मिलावट कैसे हुआ? खैर, हिंदुस्तानियों ने डेमोक्रेसी के विदेशी विचार में खास हिंदुस्तानी गुण मिला दिये। इस तरह हिंदुस्तानी डेमोक्रेसी का एक खास अंदाज़ में विकास हुआ। इस विकास की तुलना दूध में पानी मिलाने से की जा सकती है। पानी मिलाने से एक बड़ा फायदा होता है। दूध की मात्रा बढ़ जाती है और दूध वाले का आर्थिक विकास होता है। डेमोक्रेसी में मिलावट से नेताओं को भी दूधवाले जैसा ही फायदा होता है। अगर, आप मानते हैं कि दूध में पानी मिलाना सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, तो आपकी सोच नकारात्मक है। पानी मिला दूध हज़म करना ज़्यादा आसान होता है। हिंदुस्तानी डेमोक्रेसी का हाज़मा भी बहुत अच्छा है। तभी तो बहुत से नेता बहुत कुछ हज़म कर जाते हैं।
डेमोक्रेसी में खास हिंदुस्तानी गुण मिलाने से कई और फायदे हुए। धर्म और जातियां जागृत हो गर्इं। सब जानते हैं हिंदुस्तान अनेक जातियों और धर्मों का देश है। डेमोक्रेसी ने जातियों और धर्मों को विकास दिया। इस विकास से वोट बैंक नामकी संस्था विकसित हुई। वोट बैंक में, बैंक ज़्यादा महत्वपूर्ण शब्द है। बैंक आर्थिक विकास का माध्यम होता है। वोट बैंक से भी आर्थिक विकास होता है। नेताओं का हो गया है। बाकी लोगों का भी कभी न कभी हो जाएगा, अभी थोड़ा सब्र रखिए। विकास एक धीमी प्रक्रिया है। रोम एक दिन में नहीं बना था। जानते हैं, रोम जल्दी क्यों नहीं बना? क्योंकि उसे हिंदुस्तान में बना कर इटली भेजा गया था। हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार के अलावा कोई भी काम जल्दी करना मना है।
हिंदुस्तानी डेमोक्रेसी ने शानदार ध्येय तय किये। उन ध्येयों के लिए शानदार ध्येय−वाक्य बनाये। एक शानदार वाक्य है− सत्यमेव जयते। कुछ लोग यह वाक्य सुन कर हंसते हैं। क्या हंसने वालों ने कभी सोचा है, सत्य कब जीतता है? तब, जब वह असत्य से लड़ता है! यानी सत्यमेव को जयते बनाने के लिए असत्य का मौजूद होना ज़रूरी है। यानी सत्य को कायम रखने के लिए असत्य को कायम रखना ज़रूरी है। हमारे नेता यह सार्थक काम बड़ी कुशलता से करते हैं। हमारी डेमोक्रेसी महान है, क्योंकि इस देश का हर झूठा नेता सत्य का पक्षधर है।
हमारे देश में डेमोक्रेसी की स्थापना करने वाले बड़े दूरदर्शी थे। इसीलिए तो उन्होंने स्पीकर की कुर्सी के सामने बड़ी सी खाली जगह छोड़ी। और, उस खाली जगह को नाम दिया− 'वैल ऑफ़ द हाउस'। जिसे अंग्रेज़ी में 'वैल' कहते हैं, उसे हिंदी में कुआं कहते हैं। हिंदुस्तान में डेमोक्रेसी की स्थापना करने वालों ने यह कुआं क्यों बनाया? क्योंकि वे जानते थे कि एक दिन ऐसा आएगा, जब देश के नेता कुएं में कूदा करेंगे। वैसे, जब कोई नेता कुएं में कूदता है तो अकेला नहीं कूदता। उसके धक्के से देश का वह हिस्सा भी कुएं में जा गिरता है, जिसका नेता प्रतिनिधित्व करता है। नेता कुएं में क्यों कूदते हैं? क्योंकि नेता अच्छे तैराक होते हैं। क्या हमारा देश भी अच्छा तैराक है? क्या यह देश तैरना जानता है? किसी दिन ऐसा न हो कि कुएं में कूदे नेता, और डूब जाए देश। हमारे देश की डेमोक्रेसी में अब कुछ भी असंभव नहीं लगता।
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डेमोक्रेसी, विदेशी विचार से उपजी एक राजनैतिक व्यवस्था है। जब डेमोक्रेसी हमारे हाथ लग गई, तो हमने वही किया, जिसे करने में हम लोग माहिर हैं− मिलावट! आप गलत समझ रहे हैं, मिलावट नकारात्मक शब्द नहीं है। मिलावट मेल−मिलाप जैसा शब्द है। जब लोग मिलते हैं तो उसे मेल−मिलाप कहा जाता है। जब चीज़ें मिलती हैं तो उसे मिलावट कहा जाता है। अगर मेल−मिलाप नकारात्मक नहीं है, तो मिलावट कैसे हुआ? खैर, हिंदुस्तानियों ने डेमोक्रेसी के विदेशी विचार में खास हिंदुस्तानी गुण मिला दिये। इस तरह हिंदुस्तानी डेमोक्रेसी का एक खास अंदाज़ में विकास हुआ। इस विकास की तुलना दूध में पानी मिलाने से की जा सकती है। पानी मिलाने से एक बड़ा फायदा होता है। दूध की मात्रा बढ़ जाती है और दूध वाले का आर्थिक विकास होता है। डेमोक्रेसी में मिलावट से नेताओं को भी दूधवाले जैसा ही फायदा होता है। अगर, आप मानते हैं कि दूध में पानी मिलाना सेहत के लिए अच्छा नहीं होता, तो आपकी सोच नकारात्मक है। पानी मिला दूध हज़म करना ज़्यादा आसान होता है। हिंदुस्तानी डेमोक्रेसी का हाज़मा भी बहुत अच्छा है। तभी तो बहुत से नेता बहुत कुछ हज़म कर जाते हैं।
डेमोक्रेसी में खास हिंदुस्तानी गुण मिलाने से कई और फायदे हुए। धर्म और जातियां जागृत हो गर्इं। सब जानते हैं हिंदुस्तान अनेक जातियों और धर्मों का देश है। डेमोक्रेसी ने जातियों और धर्मों को विकास दिया। इस विकास से वोट बैंक नामकी संस्था विकसित हुई। वोट बैंक में, बैंक ज़्यादा महत्वपूर्ण शब्द है। बैंक आर्थिक विकास का माध्यम होता है। वोट बैंक से भी आर्थिक विकास होता है। नेताओं का हो गया है। बाकी लोगों का भी कभी न कभी हो जाएगा, अभी थोड़ा सब्र रखिए। विकास एक धीमी प्रक्रिया है। रोम एक दिन में नहीं बना था। जानते हैं, रोम जल्दी क्यों नहीं बना? क्योंकि उसे हिंदुस्तान में बना कर इटली भेजा गया था। हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार के अलावा कोई भी काम जल्दी करना मना है।
हिंदुस्तानी डेमोक्रेसी ने शानदार ध्येय तय किये। उन ध्येयों के लिए शानदार ध्येय−वाक्य बनाये। एक शानदार वाक्य है− सत्यमेव जयते। कुछ लोग यह वाक्य सुन कर हंसते हैं। क्या हंसने वालों ने कभी सोचा है, सत्य कब जीतता है? तब, जब वह असत्य से लड़ता है! यानी सत्यमेव को जयते बनाने के लिए असत्य का मौजूद होना ज़रूरी है। यानी सत्य को कायम रखने के लिए असत्य को कायम रखना ज़रूरी है। हमारे नेता यह सार्थक काम बड़ी कुशलता से करते हैं। हमारी डेमोक्रेसी महान है, क्योंकि इस देश का हर झूठा नेता सत्य का पक्षधर है।
हमारे देश में डेमोक्रेसी की स्थापना करने वाले बड़े दूरदर्शी थे। इसीलिए तो उन्होंने स्पीकर की कुर्सी के सामने बड़ी सी खाली जगह छोड़ी। और, उस खाली जगह को नाम दिया− 'वैल ऑफ़ द हाउस'। जिसे अंग्रेज़ी में 'वैल' कहते हैं, उसे हिंदी में कुआं कहते हैं। हिंदुस्तान में डेमोक्रेसी की स्थापना करने वालों ने यह कुआं क्यों बनाया? क्योंकि वे जानते थे कि एक दिन ऐसा आएगा, जब देश के नेता कुएं में कूदा करेंगे। वैसे, जब कोई नेता कुएं में कूदता है तो अकेला नहीं कूदता। उसके धक्के से देश का वह हिस्सा भी कुएं में जा गिरता है, जिसका नेता प्रतिनिधित्व करता है। नेता कुएं में क्यों कूदते हैं? क्योंकि नेता अच्छे तैराक होते हैं। क्या हमारा देश भी अच्छा तैराक है? क्या यह देश तैरना जानता है? किसी दिन ऐसा न हो कि कुएं में कूदे नेता, और डूब जाए देश। हमारे देश की डेमोक्रेसी में अब कुछ भी असंभव नहीं लगता।
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लोकतांत्रिक देश में चुनाव ही जनता का सबसे बड़ा त्योहार होता है। जनता इसमें बढ़-चढ़कर भाग लेती है और वह अपने देवता का निर्धारण करती है। इसके बाद वह हर क्षण, हर पल उस देवता की ओर आस भरी नजरों से देखती रहती है कि वह किस ओर कदम बढ़ाता है। सरकार यानी लोकतांत्रिक देवता के कदम दो ही प्रकार के होते हैं-एक ढीला कदम और दूसरा कड़ा कदम।
जो कदम कभी उठाया नहीं जाता है वह हमेशा ही कठोर होता है और जो उठा लिया जाता है वह ढीला। अब यह समझने वाली बात है कि कठोर कदम को क्यों नहीं उठाया जाता है। भई वह कदम कठोर होगा तो स्वाभाविक ही है कि वजनी भी होगा और वजनी कदम को उठाने की बजाए ढीला यानी हल्का कदम उठाना ही बेहतर होता है। क्योंकि इसे उठाने में कोई जोखिम नहीं लेना पड़ता है।
जनता किसी भी मुद्दे के सामने आने पर सरकार से यह अपेक्षा रखती है कि सरकार कड़ा कदम उठाएगी। जनता और विपक्षी भी इसके लिए निवेदन करते हैं। तथाकथित ज्ञानी वर्ग भी सोशल मीडिया के माध्यम से सरकार को लताड़ता है कि कड़ा नहीं तो कम से कम ढीला कदम ही उठा लिया जाए। सरकार भी सबकी सुनते हुए इन सबसे आगे निकल जाती है। वह न केवल अपने दोनों कदम उठाकर उस मुद्दे तक पहुंचती है, बल्कि वह मुद्दे के बीच में कुण्डली मारकर बैठ जाती है। इससे विरोधी तो चुप हो ही जाते हैं, जनता को भी यह संतोष हो जाता है कि चलो सरकार ने कदम तो उठाया है।
चुनावी हार का दंश झेल चुके विपक्ष को तो जैसे अनर्गल प्रलाप से ही मतलब है। वह सरकार के बैठने को ही ढीला कदम और नौटंकी बतला देता है व सारा दोष सरकार पर ही मढ़ देता है। वह घटना में सरकार के शामिल होने की बात करता है और घटनाकारी व्यक्ति को सरकार के सहयोगी जैसी टोपी और हॉफ पैंट फोटोशॉप के द्बारा पहना देता है।
वे रोज ऐसी फोटो मीडिया के सामने लाकर सरकार को जनता के सामने नंगा करने का असफल प्रयास करते हैं।
सरकार ने घटना के सभी पहलुओं को उजागर करने व उनकी विवेचना करने के लिए एक सदस्यी आयोग का गठन किया। लोगों को सरकार के इतने महत्वपूर्ण कदम से भी एलर्जी है। देखिए न कितनी तत्परता से सरकार ने मुआवजा बांटने की घोषणा की, खुद जाकर पीड़ितों के बीच बैठी और सबसे महत्वपूर्ण बात जांच के लिए शीघ्र ही आयोग बिठा दिया। यह बात अलग है कि देश में अब तक बैठाए गए सभी आयोग बैठे ही रहे हैं, खड़े नहीं हो सके हैं। लोग इसमें भी बुरा मान जाते हैं कि आयोग क्यों बिठाया है जब वह खड़ा ही नहीं हो पाता तो भाई कोई उनको समझाओ न कि जिसे एक बार बिठा दिया उसे दोबारा खड़ा करने से सरकार की बेइज्जती न होगी। सो सरकार भी उसे खड़ा होने के लिए नहीं कहती है।
लोग बेमतलब ही सरकार से सीबीआई जांच की दिशा में कदम बढ़ाने को कहत्ो हैं। सीबीआई के जिम्मे पहले से ही ढेर सारे मामले हैं। जिनमें वह बारी-बारी से कदम बढ़ाती है। इतना बड़ा देश और बेचारी एक सीबीआई जिसकी मांग चारों ओर से हो रही है। एक जगह पहुंचकर वह मामले को ठीक से सुन भी नहीं पाती है कि दूसरा सीबीआई जांच के लिए दहाड़ मार-मार कर रोने लगता है। सीबीआई दौड़ी-दौड़ी वहां पहुंचती भर है कि तीसरा चिल्लाने लगता है। सीबीआई एक मामले से दूसरे, तीसरे, चौथ्ो... सौवें तक इसी तरह दौड़ती भर रह जाती है बेचारी जांच कुछ भी नहीं कर पाती है। सरकार ने इसी दूरदृष्टि का उपयोग करते हुए सीबीआई को सारे मामले से दूर ही रखा है।
ऐसे में भला सीबीआई जांच के आदेश न देने के इस महत्वपूर्ण कदम को ढीला कैसे माना जाएगा? सरकार ने सोच-समझकर ही सीबीआई जांच की बजाए एक सदस्यी आयोग का गठन करने का कदम उठाया है। जो अति महत्वपूर्ण भी है। भाई यह कदम पहली बात तो अकेला है। चूं-चपड़ और खटर-खटर से बिल्कुल मुक्त रहेगा और दूसरी बात यह कि इसे चूंकि अकेले चलना है तो दूसरे का इंतजार करने की झंझट से भी दूर है। विरोध करने वाले इसे सरकार का लंगड़ा कदम कह रहे हैं। शायद उनको मतिभ्रम हो गया है, इसीलिए वे ऐसी बातें कर रहे हैं। वे सरकार को जनहितैषी होने के बजाए जनविरोधी बतला रहे हैं।
हमारा चुनावी इतिहास गवाह है कि कोई भी सरकार बुरी या जनविरोधी नहीं होती है। सरकार पर बेकार ही स्वार्थपरक राजनीति करने और अपनों को बचाने के आरोप लगाए जाते हैं। हर सरकार जनता से अच्छे चुनावी वादे कर सत्ता में आती है और दोबारा चुनाव के समय अपना स्वर्णिम रिपोर्ट कार्ड भी तो जनता के सामने प्रस्तुत करती है। जब वह ऐसा करती है तो भला बुरी कैसे हो गई?
सरकार के कदमों की आलोचना करने वाले सरकार के कदम उठाते ही तिलमिला उठते हैं कि हमने ऐसा नहीं किया। सरकार ने हम पर ये आरोप जनता का ध्यान भटकाने के लिए लगाया है। जनता किस पर भरोसा करे? कौन सही है और कौन बुरा? ये सब शोध के विषय हैं। सबसे बेहतर तो यही है कि हम सरकार को अपना काम करने दें, विपक्ष को अपना और बेकार की बातों को छोड़कर खुद अपने कामों में लग जाएं। इनकी बातों में कान न दें। वास्तव में आरोप-प्रत्यारोप ही इनके सबसे कड़े कदम होते हैं।
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ज्यों ही अखबारों में यह खबर छपी कि शिच्छामित्रों को अ से ज्ञ तक कहना नहीं आता, वे एक से सौ तक गिनती नहीं बोल सकते, उन्हें पता नहीं कि उनके राज्य का मुख्यमंत्री कौन है तो यह हृदय विदारक खबर सुन अपने मुहल्ले के शिक्षा को पूरी ईमानदारी से ताजिंदगी समर्पित रहे शास्त्री जी को अचानक दिल का दौर पड़ा और वे वेतन भोगी से सीधे फैमिली पेंशन जोगी हो गए।
ज्यों ही वे यमराज के दरबार में पहुंचे तो वहां यमराज का चेहरा तमतमाया देख उनके पसीने छूट गए मानो हैडमास्टर साहब को देख लिया हो । यमराज का चेहरा डीईओ की तरह तमतमा रहा था।
ज्यों ही वे यमराज के दरबार में पहुंचे तो वहां यमराज का चेहरा तमतमाया देख उनके पसीने छूट गए मानो हैडमास्टर साहब को देख लिया हो । यमराज का चेहरा डीईओ की तरह तमतमा रहा था।
यमराज को पता नहीं कैसे पता चला था कि अपने शिच्छामित्रों ने सरकारी स्कूल के बच्चों का बेड़ा गर्क करके रख दिया है। वे और तो सब कुछ करते हैं, पर उनका जो काम है, बस उसे ही नहीं करते। वे और तो सब कुछ हैं, पर शिच्छामित्र नहीं हैं। शास्त्री जी को सामने देख वे औरों को डांटना छोड़ उन पर पिल पड़े, ‘ क्यों शास्त्री जी! मन तो करता है तुम लोगों का वेतन ही बंद कर दूं पर ..... ये मैं क्या सुन रहा हूं? यार! हद हो गई! शिच्छामित्र कहलाते हो, शिक्षा के नाम की पूरी कचैरी खाते हो और शिच्छा को ही चूना लगाते हो? यार, सच कहूं , तुम लोगों के अपना तो नाक है ही नहीं, पर तुम लोगों ने तो शिच्छा विभाग की नाक भी कटवा कर रख दी। बच्चों के मां बापों की तरह मेरा भी तुम लोगों से मन इतना खट्टा हो गया कि......’
यमराज का चेहरा गुस्से से लाल होता देख शास्त्री जी ने दोनों हाथ जोड़ यमराज से सानुनय कहा,‘ प्रभु! यात्रा में पैदल चलते - चलते थक गया हूं। बहुत प्यास लगी है। दो घूंट पानी दे दो तो ....यमराज ने पास खड़े वाटर कैरिअर को इशारा किया तो उसने चिढ़ते हुए गिलास में पानी भर शास्त्री जी को दिया। शास्त्री जी पानी पीने लगे तो यमराज ने गुस्से में ही कहा,‘ पर तुम्हें लाने के लिए तो हमने विशेष विमान भेजा था। मास्टर चाहे कैसा भी हो, पर समाज और मेरी नजरों में वह गुरू ही है। तुम उसमें नहीं आए क्या?’
‘नहीं हुजूर! मैं तो पैदल आ रहा हूं।’
‘तो उस विमान में कौन आया देवदूत?’ यमराज ने गुस्साए हुए देवदूत से पूछा तो देवदूत ने सिर झुकाकर कहा,‘ महाराज! हम इन्हें विमान में चढ़ाने ही वाले थे कि तभी अचानक एक अफसर पता नहीं कहां से आ धमके और पता नहीं कहां जाने के लिए जबरदस्ती विमान में सवार हो गए।’
‘तो उस विमान में कौन आया देवदूत?’ यमराज ने गुस्साए हुए देवदूत से पूछा तो देवदूत ने सिर झुकाकर कहा,‘ महाराज! हम इन्हें विमान में चढ़ाने ही वाले थे कि तभी अचानक एक अफसर पता नहीं कहां से आ धमके और पता नहीं कहां जाने के लिए जबरदस्ती विमान में सवार हो गए।’
‘ तो तुमने उन्हें बताया नहीं कि ये विमान उनके लिए नहीं, इनके लिए है और यमपुरी जा रहा है?’
‘कहा तो बहुत सर , पर वे नहीं माने। हम पर गुस्सा होते बोले ,‘ विमान चाहे काई भी हो, उसमें बैठने का पहला हक अफसर का होता है और दूसरा नेता का।’
‘ कहां है वह कंबख्त अफसर? उसके दर्शन तो कराओ?’
‘सर, उसे तो हमने नरक में आपके सम्मुख लाने पहले ही उतार दिया।’
‘गुड! तो अब कहो शास्त्री जी ये मैं क्या सुन रहा हूं आपकी बिरादरी के बारे में?’
यमराज की ओर से आए प्रश्न पर कुछ देर तक शास्त्री जी वैसे ही कुछ कहने के लिए हिम्मत बटोरते रहे मानो वे अपने महीने में एक बार स्कूल आने वाले अपने हैडमास्टर साहब के आगे कहने की हिम्मत बटोर रहे हों , ‘प्रभु! माना दीपक तले अंधेरा बढ़ता जा रहा है। मशालची बुझी मशाल लिए अंधेरे से लड़ने का स्वांग कर रहा है। पर प्रभु! इसमें गलती हमारी नहीं, व्यवस्था की है।’
‘कैसे?’ यमराज चैंके। सभा में यह सुन सन्नाटा!
‘ वह ऐसे प्रभु कि इन दिनों असली शिक्षक चुने ही कहां जा रहे हैं? कहीं नेता के पोस्टर लगाने वाले शिक्षक हो रहे हैं तो कहीं चुनाव में उनका प्रचार करने वाले। कहीं चयन बोर्ड का भतीजा शिक्षक हो रहा ह,ै तो कहीं बेटा। जब जंगल में लकड़ियां चुनने वाले चावल पकाने लगेंगे तो ऐसा ही होगा।’
‘सर, उसे तो हमने नरक में आपके सम्मुख लाने पहले ही उतार दिया।’
‘गुड! तो अब कहो शास्त्री जी ये मैं क्या सुन रहा हूं आपकी बिरादरी के बारे में?’
यमराज की ओर से आए प्रश्न पर कुछ देर तक शास्त्री जी वैसे ही कुछ कहने के लिए हिम्मत बटोरते रहे मानो वे अपने महीने में एक बार स्कूल आने वाले अपने हैडमास्टर साहब के आगे कहने की हिम्मत बटोर रहे हों , ‘प्रभु! माना दीपक तले अंधेरा बढ़ता जा रहा है। मशालची बुझी मशाल लिए अंधेरे से लड़ने का स्वांग कर रहा है। पर प्रभु! इसमें गलती हमारी नहीं, व्यवस्था की है।’
‘कैसे?’ यमराज चैंके। सभा में यह सुन सन्नाटा!
‘ वह ऐसे प्रभु कि इन दिनों असली शिक्षक चुने ही कहां जा रहे हैं? कहीं नेता के पोस्टर लगाने वाले शिक्षक हो रहे हैं तो कहीं चुनाव में उनका प्रचार करने वाले। कहीं चयन बोर्ड का भतीजा शिक्षक हो रहा ह,ै तो कहीं बेटा। जब जंगल में लकड़ियां चुनने वाले चावल पकाने लगेंगे तो ऐसा ही होगा।’
‘ भतीजे- बेटेे का क्या? कम से कम अपने प्रधानमंत्री का नाम तो पता होना चाहिए। अपने राष्ट्रपति का नाम पता होना चाहिए , वर्तमान नहीं तो भतपूर्व ही सही।’
‘सर, एक बात कहूं जो बुरा न मानो तो?’
‘कहो?’ यमराज का गुस्सा कुछ शांत होने लगा।
‘किसीको क्या लेना प्रधानमंत्री से, क्या लेना राष्ट्रपति से, उनके लिए तो वे ही उनके आजीवन प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने उन्हें मलाई मित्र बनाया। जब ज्ञान की उपासना वाले कुर्सियों की पूजा करने लग जाएं तो ऐसा ही होता है प्रभु। ’
‘ तो अब?’ अब यमराज असमंजस में।
‘प्रभु! गुस्सा कर क्यों अपना बीपी बढ़ा अपना दिमाग खराब करते हो मेरी तरह। आपको कुछ हो हवा गया तो... मेरे घरवालों को तो पेंशन लग गई आपके घरवालों को तो वह भी नहीं लगने वाले। अब वहां न गुरू सुधरने वाले, न चेले। अब न नीम गुणकारी रहे, न करेले। जय शिच्छामित्र!’ शास्त्री जी ने सहज कहा तो यमराज अपने सिंहासन से उठे और शास्त्री जी के सादर चरण छू लिए।
‘किसीको क्या लेना प्रधानमंत्री से, क्या लेना राष्ट्रपति से, उनके लिए तो वे ही उनके आजीवन प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने उन्हें मलाई मित्र बनाया। जब ज्ञान की उपासना वाले कुर्सियों की पूजा करने लग जाएं तो ऐसा ही होता है प्रभु। ’
‘ तो अब?’ अब यमराज असमंजस में।
‘प्रभु! गुस्सा कर क्यों अपना बीपी बढ़ा अपना दिमाग खराब करते हो मेरी तरह। आपको कुछ हो हवा गया तो... मेरे घरवालों को तो पेंशन लग गई आपके घरवालों को तो वह भी नहीं लगने वाले। अब वहां न गुरू सुधरने वाले, न चेले। अब न नीम गुणकारी रहे, न करेले। जय शिच्छामित्र!’ शास्त्री जी ने सहज कहा तो यमराज अपने सिंहासन से उठे और शास्त्री जी के सादर चरण छू लिए।
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देश में रसास्वादन करने की परम्परा सदियों पुरानी है। साहित्य, संगीत, कला जैसी विधाओं में रस लेने वाले रस मर्मज्ञ कहे जाते हैं जबकि सौंदर्य, मादकता और कुछ अन्य प्रकार के रस पान करने वाले रसिक। हालॉकि रसिकों की संख्या हमेषा ही ज्यादा रहती है। उधर, किसी जमाने में जितना रस बहा करता था, वो भी अब कम होता जा रहा है। राजषाही जमाने के रसिकों मे स्वयं को रस मर्मज्ञ दिखाने और कहाने का जुनून सा होता था। इसलिये उनके दरबारों में अंगरक्षकों से भी बड़ी कलाकारों की फौज होती थी। उस समय में रसों के जो तालाब-पोखर और बावड़ी खोदे गये, वो समय के साथ सूखते चले गये और अब तो इन विधाओं का वाटर टेबल बहुत ही नीचे जा चुका है, तकरीबन रसहीन होने की कगार पर। वहीं रसों की गुणवत्ता में भी बहुत फर्क आया है। जहां कहीं से साहित्यिक रस बरसने की उम्मीद बंधती है तो नीरस सी एसिड-रेन्स होकर रह जाती है।
बहुत मुष्किल से चुल्लू भर रस सामने दिख जाये तो उसकी पृष्ठ भूमि गन्ने की चरखी वाले के असीम परिश्रम से निकले उस रस की तरह होती है, जिसे वह अध-पके गन्ने के कई बार निकाले गये छूंछ को फिर-फिर ठूंस कर निकालता है। आज-कल लेखकों के बीच यह अक्सर हो रहा है कि छूंछ का ही बार-बार दोहन कर रस की निष्पत्ति की जा रही है। ऐसे नीरस माहौल में मधुर रस की उम्मीद कैसे की जाये, समझ नहीं पड़ता। फिर भी आइये प्रिय रस मर्मज्ञों और रसिक महानुभावों! आज हम साहित्य के नौ प्लस एक रसों के आधुनिक संदर्भ ढूंढे। या कहें कि आधुनिक घटना संदर्भों में साहित्य के स्थापित रस तलाष करें।
नीरस से लगती घटनाओं में रस का उदाहरण है-‘‘एक युवती, दिल्ली की सड़कों से अकेले निकलकर, रात ग्यारह बजे अपने घर जा पहुॅची।’’ बताइये इसमें कौन सा रस है। शायद आप सोच रहे होंगे कि कर दी न फिर एक नीरस सी बात। लेकिन, जरा गौर से देखिये, यह उदाहरण है-अद्भुत रस का। आज के हालातों में अगर दिल्ली जैसे महानगर की लड़की रात को अकेले सुरक्षित घर पहुॅच जाये, मैं तो इसे विस्मय की सीमा में ही बांध रहा हूॅ, तमाम लोगों को यह चमत्कार से कम नहीं लगेगा। इस रस के और भी ताजे उदाहरण हो सकते हैं-‘‘ नई बनी हुई सड़क एक महीने तक न तो खुद उखड़ी और न ही नालियां और केबल लाइन के लिये खोदी गई।’’ं........... इसी तर्ज पर अगला उदाहरण है-‘‘ शहर में आज हुई दुर्घटनाओं में एक भी इंजीनियरिंग, एमबीए या मेडीकल स्टूडेंट शामिल नहीं है।’’..
अब देखिये, हास्य रस का उदाहरण। उस वाले हास्य रस का नहीं जिसे आजकल टीवी पर पेला जा रहा है, जिसमें डायलाग मुंह से फूटने से पहले ही कामेडी शो के जज जोर-जोर से हंसने लगते हैं। मैं तो जन संदर्भ में हास्य की उत्पत्ति का नया स्त्रोत आपको बता रहा हूॅ।
समाचार है-‘‘सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती कीमतों को देखते हुए पैट्रोल की कीमत में 15 पैसे प्रति लीटर कम करने की घोषणा की। यह कटौती रात 12 बजे से लागू होगी।’’
अगला उदाहरण शान्त रस का है इसलिये बहुत शान्त मन से सुनियेगा- ‘‘भारतीय जवान का सिर काटकर ले गये पाकिस्तानी फौजी, लेकिन हम जवाबी कार्यवाही नहीं करेंगे।’’
करूण रस के लिये भी इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि-‘‘एक गरीब के लड़के ने इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीषन ले लिया।’’................ एक और मिसाल में भी दम है-‘‘एक सरकारी अधिकारी के यहां आयकर छापे में तीन हजार करोड़ की अवैध सम्पत्ति मिली।’’............. बेचारे धनी की गाढ़ी कमाई पर पानी फिर गया।
वात्सल्य रस के अच्छे उदाहरण भी मेरे पास हैं-‘‘आतंकवादियों से शान्ति वार्ता जारी रखी जायेगी।’’ इससे जुड़ा दूसरा उदाहरण है-‘‘कसाब की बिरयानी पर लाखों का खर्च।’’ और इसी तरह जब कोई विपक्षी पार्टी का नेता अपने युवा समर्थकों की हौसला अफ़जाई करता है-‘‘हमारी पार्टी सत्ता में आई तो आपके ऊपर चल रहे सभी मुकदमे वापस ले लिये जायेंगे।’’
करूण रस के लिये भी इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि-‘‘एक गरीब के लड़के ने इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीषन ले लिया।’’................ एक और मिसाल में भी दम है-‘‘एक सरकारी अधिकारी के यहां आयकर छापे में तीन हजार करोड़ की अवैध सम्पत्ति मिली।’’............. बेचारे धनी की गाढ़ी कमाई पर पानी फिर गया।
वात्सल्य रस के अच्छे उदाहरण भी मेरे पास हैं-‘‘आतंकवादियों से शान्ति वार्ता जारी रखी जायेगी।’’ इससे जुड़ा दूसरा उदाहरण है-‘‘कसाब की बिरयानी पर लाखों का खर्च।’’ और इसी तरह जब कोई विपक्षी पार्टी का नेता अपने युवा समर्थकों की हौसला अफ़जाई करता है-‘‘हमारी पार्टी सत्ता में आई तो आपके ऊपर चल रहे सभी मुकदमे वापस ले लिये जायेंगे।’’
इसी से जुड़ा हुआ है, भक्ति रस-‘‘वे जब चाहे प्रधानमंत्री बन सकते हैं।’’ और ‘‘मैं जानता हूॅ कि वे और उनके लोग चोर हैं, ब्लेक मैलर हैं, भ्रष्ट हैं किन्तु मैं उनके खिलाफ न तो कुछ बोलूंगा और उनसे समर्थन भी वापस नहीं लूंगा।’’
श्रृंगार रस का नज़ारा देखने के लिये विधान सभा में नीली फिल्म देखते पाये गये जन प्रतिनिधियों वाला समाचार काफी है। यह फिल्मी धुन के भजनों पर थिरकते बाबा और उनकी ढेर सारी बाबियों या चेलियों के रंगीन परिदृश्य से भी अधिक संगीन है।
वीर रस के कुछ अच्छे उदाहरण भी आपके पेशे नज़र हैं-‘‘ एक राष्ट्रीय स्तर के नेता ने गरीब किसान के घर खाना खाया।’’ हालॉकि अगर वे उसके घर का पानी भी पी लेते तो मेरी अपनी राय में यह महावीर रस होता। एक और उदाहरण है जो वीर रस नहीं तो कम से कम निडर रस की श्रेणी का हक तो रखता ही है। यह है ‘‘ डालर के मुकाबले, रूपया दो पैसे चढ़ा।’’
इसके बाद यदि वीभत्स रस की चर्चा न की जाये तो रस शास्त्र अधूरा ही रहेगा। एक बड़ा उदाहरण यह होगा कि ‘‘पवित्र नदी का जल आचमन करने के बाद उस जल की विष्लेषण रिपोर्ट देख ली।’’ वीभत्स रस का एक अन्य उदाहरण है-‘‘एक महन्त जी, किसी फिल्मी हिरोइन के साथ लीलारत पकड़ाये।’’ यहां अगर एक या दोनों ही पात्र अलग केटेगिरी के होते तो इस रस का स्वाद किसी और रूप में लिया जा सकता था। लेकिन महन्त और हिरोइन के रूप रंग की कल्पना की जाये तो यह श्रृंगार तो हो ही नहीं सकता।
रौद्र रस के अनेक उदाहरण भी आपको रोज ही मिलते हैं लेकिन इस रस की उत्पत्ति के दो मुख्य स्त्रोत आजकल बहुत सामान्य हैं-‘‘किसी षिक्षक ने शरारती बच्चे को उॅगली उठा दी।’’ बस अब परषुराम स्कूल में अवतरित होने ही वाले हैं। इसी तरह ‘‘किसी अधमरे का आपरेषन अस्पताल में हुआ और वह रोकते-रोकते भी खुदागंज को निकल पड़ा....’’ इसके आगे जो होने वाला है, उसकी रसानुभूति आप खुद कर सकते हैं।
खैर, ये तो रहे वो रस, जो नीरस में से हमने ढूंढ निकाले। पर कुछ ऐसी भी घटनाएं हैं जिनमें निकले रस को कौन से लेबल की बाटल में भरा जाये, मुझे खुद समझ नहीं पड़ रहा। जैसे कि खबर है-‘‘सनी लिऑन, एनर्जी ड्रिंक का विज्ञापन करेंगी।’’ अब आप ही बताइये, यह श्रृंगार रस है, वीर रस या हास्य रस ? ‘‘आंगन बाड़ी के बच्चों को परोसे जाने वाले दलिये में इल्लियां और कॉक्रोच निकलना या कोल्ड ड्रिंक्स की बोतल में छिपकली निकलना’’ यह श्रृंगार रस है या वीभत्स रस ? ‘‘एक बलात्कारी और हत्यारे का जेल में आत्म हत्या कर लेना’’, करूण रस है, रौद्र या शान्त रस ? ‘‘एक बददिमाग़ और अनचाहे मेहमान का गर्मजोषी से स्वागत किया जाना’’, यह रौद्र रस है, हास्य, शान्त या करूण रस ? ‘‘करोड़ों रूपये के घोटालों को छोटा बताना और गरीबों के सब्जी तथा फल खाने को मंहगाई बढ़ने के लिये दोषी बताना’’ यह वीर रस है, हास्य, करूण या रौद्र रस ? ‘‘सूखे तालाबों को भरने के लिये पेषाब का विकल्प बताना और बिजली की कमी को आबादी बढ़ने का खास कारण बताना’’ हास्य है, रौद्र, श्रृंगार या करूण अथवा वीभत्स रस ? मैं बहुत कन्फ्यूज़्ड हूं दोस्तों, बिना इस कन्फ्यूज़न से कोई रस निकाले, कृपया मेरी मदद करें।
इसके बाद यदि वीभत्स रस की चर्चा न की जाये तो रस शास्त्र अधूरा ही रहेगा। एक बड़ा उदाहरण यह होगा कि ‘‘पवित्र नदी का जल आचमन करने के बाद उस जल की विष्लेषण रिपोर्ट देख ली।’’ वीभत्स रस का एक अन्य उदाहरण है-‘‘एक महन्त जी, किसी फिल्मी हिरोइन के साथ लीलारत पकड़ाये।’’ यहां अगर एक या दोनों ही पात्र अलग केटेगिरी के होते तो इस रस का स्वाद किसी और रूप में लिया जा सकता था। लेकिन महन्त और हिरोइन के रूप रंग की कल्पना की जाये तो यह श्रृंगार तो हो ही नहीं सकता।
रौद्र रस के अनेक उदाहरण भी आपको रोज ही मिलते हैं लेकिन इस रस की उत्पत्ति के दो मुख्य स्त्रोत आजकल बहुत सामान्य हैं-‘‘किसी षिक्षक ने शरारती बच्चे को उॅगली उठा दी।’’ बस अब परषुराम स्कूल में अवतरित होने ही वाले हैं। इसी तरह ‘‘किसी अधमरे का आपरेषन अस्पताल में हुआ और वह रोकते-रोकते भी खुदागंज को निकल पड़ा....’’ इसके आगे जो होने वाला है, उसकी रसानुभूति आप खुद कर सकते हैं।
खैर, ये तो रहे वो रस, जो नीरस में से हमने ढूंढ निकाले। पर कुछ ऐसी भी घटनाएं हैं जिनमें निकले रस को कौन से लेबल की बाटल में भरा जाये, मुझे खुद समझ नहीं पड़ रहा। जैसे कि खबर है-‘‘सनी लिऑन, एनर्जी ड्रिंक का विज्ञापन करेंगी।’’ अब आप ही बताइये, यह श्रृंगार रस है, वीर रस या हास्य रस ? ‘‘आंगन बाड़ी के बच्चों को परोसे जाने वाले दलिये में इल्लियां और कॉक्रोच निकलना या कोल्ड ड्रिंक्स की बोतल में छिपकली निकलना’’ यह श्रृंगार रस है या वीभत्स रस ? ‘‘एक बलात्कारी और हत्यारे का जेल में आत्म हत्या कर लेना’’, करूण रस है, रौद्र या शान्त रस ? ‘‘एक बददिमाग़ और अनचाहे मेहमान का गर्मजोषी से स्वागत किया जाना’’, यह रौद्र रस है, हास्य, शान्त या करूण रस ? ‘‘करोड़ों रूपये के घोटालों को छोटा बताना और गरीबों के सब्जी तथा फल खाने को मंहगाई बढ़ने के लिये दोषी बताना’’ यह वीर रस है, हास्य, करूण या रौद्र रस ? ‘‘सूखे तालाबों को भरने के लिये पेषाब का विकल्प बताना और बिजली की कमी को आबादी बढ़ने का खास कारण बताना’’ हास्य है, रौद्र, श्रृंगार या करूण अथवा वीभत्स रस ? मैं बहुत कन्फ्यूज़्ड हूं दोस्तों, बिना इस कन्फ्यूज़न से कोई रस निकाले, कृपया मेरी मदद करें।