लोकसभा ठप है। चल नहीं रही है। हंगामा हो रहा है। सरकार सदन चलाना चाहती है। लेकिन विपक्ष अड़ा हुआ है। सरकार के आगे खड़ा हुआ है। जनता के लिए भिड़ा हुआ है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तरीके से चल रहे हैं। कहावतें भले ही सौ दिन में अढाई कोस चलने की हो। लेकिन पंद्रह दिन से ज्यादा वक्त हो गया हैं। सदन कुछ घंटे भी नहीं चला है। देश कतार में खड़ा है। और राहुल गांधी नए अवतार में।
मामला नोटबंदी का है। सदन ठप है। प्रधानमंत्री ने विपक्ष को अलोकतांत्रिक बताया है। तो, राहुल गांधी बांहें चढ़ाकर सरकार से भिड़ रहे हैं। विपक्ष खुश हैं कि वह संसद नहीं चलने देने में सफल है। और हर सरकार तो सिर्फ सरकारों जैसी ही हुआ करती है। मगर वरिष्ठजन दुखी हैं। महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी कह रहे थे कि लोकतंत्र में इस तरह से सदन का न चलना घातक है। उन्होंने संसद में कामकाज नहीं होने पर नाराजगी जताई। वे गए तो थे रक्षा संपदा पर भाषण देने। लेकिन संसदीय शिथिलता से संतप्त राष्ट्रपति बिफर पड़े। विपक्ष को फटकारा। बोले, सांसद सदन में बोलने आते हैं। धरना देने नहीं।
संसद धरना देने की जगह नहीं है। यही करना है तो कहीं और कीजिए। प्रणब मुखर्जी अनेक बार सांसद रहे हैं। सो, आहत थे। इतने आहत कि विपक्ष को यहां तक साफ साफ कह दिया कि आप लोग बहुमत की आवाज को दबा रहे हैं। लोकतंत्र को चोट पहुंचा रहे हैं। सिर्फ अल्पमत ही सदन के बीचों बीच आता है। नारेबाजी करता है। कार्यवाही रोकता है। और ऐसे हालात पैदा करता है कि अध्यक्ष के पास सदन स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। विपक्ष का यह रवैया यह पूरी तरह अस्वीकार्य है। राष्ट्रपति ने बात तो ठीक ही कही। लेकिन विपक्ष यह नहीं करेगा, तो राहुल गांधी की राजनीति कैसे निखरेगी। दो साल में जैसे तैसे तो नोटबंदी का मामला हाथ में आया है। जिस पर सरकार को जमकर घेरा जा सके। सारा विपक्ष एक हो सके। वरना, तो सारे आपसे में ही उलझे पड़े हैं। सो, संसद ठप नहीं करे, तो क्या करे।
अपने राष्ट्रपति कोई इतने भोले नहीं है कि उन्हें यह सब पता नहीं है। वे सब जानते हैं कि उन्हें राष्ट्रपति बनानेवाली सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी के पास यही तो एकमात्र यही तो अवसर है, जिसके जरिए वे अपनी राजनीति चमका सकते हैं। जानते हैं कि पहली बार सारे विपक्ष ने राहुल गांधी को नेता के रूप में आगे किया है। लेकिन महामहिम होने की भी अपनी अलग किस्म की मर्यादाएं हुआ करती हैं। सो, बोलना पड़ता है। सब समझते हुए भी लोकतंत्र की दुहाई देने की मजबूरी को जीना पड़ता है। खैर, राष्ट्रपति तो राष्ट्रपति। मगर, अटलजी की सरकार के लौहपुरुष अपने लालकृष्ण आडवाणी भी बिफर पड़े। वे भी नाराज।
हालांकि, नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद से वैसे भी वे कहां खुश थे। पर, दो साल से पूरी तरह चुप थे। मगर नोटबंदी ने उन्हें भी सक्रिय कर दिया। लोकसभा न चलने देने पर आडवाणी को बहाना मिल गया। ऐसे भड़के कि तेवर देखने लाय़क थे। राष्ट्रपति ने तो विपक्ष को लताड़ा। राहुल गांधी मोदी को ललकार रहे हैं। लेकिन बूढ़ा शेर भी दहाड़ा। आडवाणी अपनों पर ही भड़क उठे। बोले, न स्पीकर सदन चला पा रही हैं और न ही संसदीय कार्यमंत्री। उन्होंने गुस्से में कहा कि लोकसभा को रोज रोज स्थगित करने के बजाय क्यों न अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया जाए। आडवाणी 89 को हो गए हैं। बहुत ज्यादा बुजुर्ग हो गए है। अपनी सलाह है कि चुप ही रहिए। नई सरकार ने वैसे भी उनकी राजनीतिक नैया ठिकाने लगी दी हैं और पार्टी में भी पूरी तरह से दरकिनार जैसे ही हैं। सिर्फ श्रद्धामूर्ति की तरह पार्टी कार्यक्रमों में मंच पर बिराजने का सम्मान बचा है। अपना मानना है कि चुप नहीं रहे तो वह सम्मान भी जाता रहेगा। राजनीति कुल मिलाकर सिर्फ ताकत का खेल है। और किसी भी खेल में वैसे भी कौन किसका सम्मान करता है!
संसद धरना देने की जगह नहीं है। यही करना है तो कहीं और कीजिए। प्रणब मुखर्जी अनेक बार सांसद रहे हैं। सो, आहत थे। इतने आहत कि विपक्ष को यहां तक साफ साफ कह दिया कि आप लोग बहुमत की आवाज को दबा रहे हैं। लोकतंत्र को चोट पहुंचा रहे हैं। सिर्फ अल्पमत ही सदन के बीचों बीच आता है। नारेबाजी करता है। कार्यवाही रोकता है। और ऐसे हालात पैदा करता है कि अध्यक्ष के पास सदन स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। विपक्ष का यह रवैया यह पूरी तरह अस्वीकार्य है। राष्ट्रपति ने बात तो ठीक ही कही। लेकिन विपक्ष यह नहीं करेगा, तो राहुल गांधी की राजनीति कैसे निखरेगी। दो साल में जैसे तैसे तो नोटबंदी का मामला हाथ में आया है। जिस पर सरकार को जमकर घेरा जा सके। सारा विपक्ष एक हो सके। वरना, तो सारे आपसे में ही उलझे पड़े हैं। सो, संसद ठप नहीं करे, तो क्या करे।
अपने राष्ट्रपति कोई इतने भोले नहीं है कि उन्हें यह सब पता नहीं है। वे सब जानते हैं कि उन्हें राष्ट्रपति बनानेवाली सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी के पास यही तो एकमात्र यही तो अवसर है, जिसके जरिए वे अपनी राजनीति चमका सकते हैं। जानते हैं कि पहली बार सारे विपक्ष ने राहुल गांधी को नेता के रूप में आगे किया है। लेकिन महामहिम होने की भी अपनी अलग किस्म की मर्यादाएं हुआ करती हैं। सो, बोलना पड़ता है। सब समझते हुए भी लोकतंत्र की दुहाई देने की मजबूरी को जीना पड़ता है। खैर, राष्ट्रपति तो राष्ट्रपति। मगर, अटलजी की सरकार के लौहपुरुष अपने लालकृष्ण आडवाणी भी बिफर पड़े। वे भी नाराज।
हालांकि, नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद से वैसे भी वे कहां खुश थे। पर, दो साल से पूरी तरह चुप थे। मगर नोटबंदी ने उन्हें भी सक्रिय कर दिया। लोकसभा न चलने देने पर आडवाणी को बहाना मिल गया। ऐसे भड़के कि तेवर देखने लाय़क थे। राष्ट्रपति ने तो विपक्ष को लताड़ा। राहुल गांधी मोदी को ललकार रहे हैं। लेकिन बूढ़ा शेर भी दहाड़ा। आडवाणी अपनों पर ही भड़क उठे। बोले, न स्पीकर सदन चला पा रही हैं और न ही संसदीय कार्यमंत्री। उन्होंने गुस्से में कहा कि लोकसभा को रोज रोज स्थगित करने के बजाय क्यों न अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया जाए। आडवाणी 89 को हो गए हैं। बहुत ज्यादा बुजुर्ग हो गए है। अपनी सलाह है कि चुप ही रहिए। नई सरकार ने वैसे भी उनकी राजनीतिक नैया ठिकाने लगी दी हैं और पार्टी में भी पूरी तरह से दरकिनार जैसे ही हैं। सिर्फ श्रद्धामूर्ति की तरह पार्टी कार्यक्रमों में मंच पर बिराजने का सम्मान बचा है। अपना मानना है कि चुप नहीं रहे तो वह सम्मान भी जाता रहेगा। राजनीति कुल मिलाकर सिर्फ ताकत का खेल है। और किसी भी खेल में वैसे भी कौन किसका सम्मान करता है!
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नोट बन्दी भविष्य मे अच्छी साबित हो सकती है। पुराने नोट , नकली नोटों पर पांबदी भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकती है। देश के मेहनतकश अधिकांश लोग इस निर्णय की प्रंशसा कर रहे है। यहा तक कि सभी राजनैतिक पार्टियों अध्यक्षों ने इस कदम को देश हित मे बताया था। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद लोगों को नोट बदलने मे परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे मे लोगों, खासतौर से समाजसेवियों को चाहिये कि वे लोगों की मदद करे। बैंकों मे जाकर देश की तस्वीर बदलने वाली व्यवस्था को लाईन मे लगे लोगों को चाय, पानी आदि देकर मदद करने बजाय कुछ लोग भारत बंद करने का एलान कर रहे है। नोट बंदी के पहले दिन से जहा लगभग भारत बंद जैसे हालात शुरू के दिनों मे रहे।
कुछ दिनों बाद जैसे - तैसे हालात समान्य होने लगे है। ऐसे मे फिर समस्या का समाधान के बजाये कुछ चुनिंदा लोग भारत बंद का एलान कर रहे है। जो फिर आमजनमानस के लिये समस्या बनेगा। अभी लोग नोटों को लेकर परेशान है, देश बंद से सभी चीजों के लिये परेशान होगे। पूर्व मे किये गये बंद से कभी समस्या का समाधान निकला होता, तो मैं भी इस बंद का समर्थन करता और लोगों को इसके समर्थन करने की बात कहता। लेकिन मीडिया से हूं, मुझे तो खबर मिल जायेगी। उनका क्या होगा जो आम है। क्योंकि खास और ज्यादा खास की लड़ाई मे पिसना तो जनता का तय ही है। बंद करने वालों कुछ अच्छा सोचों।
हां एक बात और कहंूगा कि जब आप की सरकार थी, तब उन्होंने बहुत शोर मचाया था, सरकार और उनके लोगों द्वारा किये गये कृत्यों से दुनियाभर मे हमने शमिन्र्दगी झेली। हमारे देश का नाम विदेशी मजाक के तौर पर लेते थे, अब सरकार बदली कुछ कृत्य ऐसे हुये कि देश-विदेश मे रहने वाले हर एक भारतीय अब गर्व महसूस कर रहा है। विपक्ष का काम सरकार को आईना दिखाना होता है। देशवासियों के लिये समस्या बनना या बनाना नहीं। भारत बंद करने वालों कुछ अच्छा सोचो।
हां एक बात और कहंूगा कि जब आप की सरकार थी, तब उन्होंने बहुत शोर मचाया था, सरकार और उनके लोगों द्वारा किये गये कृत्यों से दुनियाभर मे हमने शमिन्र्दगी झेली। हमारे देश का नाम विदेशी मजाक के तौर पर लेते थे, अब सरकार बदली कुछ कृत्य ऐसे हुये कि देश-विदेश मे रहने वाले हर एक भारतीय अब गर्व महसूस कर रहा है। विपक्ष का काम सरकार को आईना दिखाना होता है। देशवासियों के लिये समस्या बनना या बनाना नहीं। भारत बंद करने वालों कुछ अच्छा सोचो।
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एच.एल.दुसाध
पहले लोग 26 नवम्बर को अनाधिकारिक तौर पर संविधान दिवस के रूप में मनाया करते थे किन्तु नवम्बर, 2015 में मोदी सरकार द्वारा संविधान दिवस घोषणा किये जाने के बाद अब इसे सरकारी तौर पर मनाने की शुरुआत हो चुकी है.ऐसे में उम्मीद करनी चाहिए कि और कहीं भले ही न हो,संसद में इस दिन भारी गहमागहमी रहेगी.बहरहाल जब भी संविधान पर बात छिड़ती है,लोगों के जेहन में सबसे पहले बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर की वह चेतावनी कौंध जाती है जो उन्होंने 25 नवम्बर 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से दिया था.उस दिन उन्होंने कहा था - ’26 जनवरी, 1950 को हम राजनीतिक रूप से समान और आर्थिक और सामाजिक रूप से असमान होंगे.जितना शीघ्र हो सके हमें यह भेदभाव और पृथकता दूर कर लेनी होगी.यदि ऐसा नहीं किया गया तो जो लोग इस भेदभाव के शिकार हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे,जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.’हमें यह स्वीकारने में कोई द्विधा नहीं होनी चाहिए कि स्वाधीन भारत के शासकों ने डॉ.आंबेडकर की उस ऐतिहासिक चेतावनी की प्रायः पूरी तरह अनेदखी कर दिया जिसके फलस्वरूप आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी,जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है,का भीषणतम साम्राज्य आज भारत में कायम है.
पहले लोग 26 नवम्बर को अनाधिकारिक तौर पर संविधान दिवस के रूप में मनाया करते थे किन्तु नवम्बर, 2015 में मोदी सरकार द्वारा संविधान दिवस घोषणा किये जाने के बाद अब इसे सरकारी तौर पर मनाने की शुरुआत हो चुकी है.ऐसे में उम्मीद करनी चाहिए कि और कहीं भले ही न हो,संसद में इस दिन भारी गहमागहमी रहेगी.बहरहाल जब भी संविधान पर बात छिड़ती है,लोगों के जेहन में सबसे पहले बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर की वह चेतावनी कौंध जाती है जो उन्होंने 25 नवम्बर 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से दिया था.उस दिन उन्होंने कहा था - ’26 जनवरी, 1950 को हम राजनीतिक रूप से समान और आर्थिक और सामाजिक रूप से असमान होंगे.जितना शीघ्र हो सके हमें यह भेदभाव और पृथकता दूर कर लेनी होगी.यदि ऐसा नहीं किया गया तो जो लोग इस भेदभाव के शिकार हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे,जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है.’हमें यह स्वीकारने में कोई द्विधा नहीं होनी चाहिए कि स्वाधीन भारत के शासकों ने डॉ.आंबेडकर की उस ऐतिहासिक चेतावनी की प्रायः पूरी तरह अनेदखी कर दिया जिसके फलस्वरूप आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी,जोकि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है,का भीषणतम साम्राज्य आज भारत में कायम है.
यह सवाल किसी को भी परेशान कर सकता है कि भयावह आर्थिक और सामाजिक विषमता के फलस्वरूप लोकतंत्र के विस्फोटित होने की सम्भावना देखते हुए भी आजाद भारत के शासकों ने इसके खात्मे के लिए प्रभावी कदम आखिर क्यों नहीं उठाया ? इस सवाल का बेहतर जवाब शायद खुद बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर ही दे गए हैं . उन्होंने कहा था,’संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो , अगर इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे तो यह बुरा साबित होगा.अगर संविधान बुरा है,पर उसका इस्तेमाल करने वाले अच्छे होंगे तो बुरा संविधान भी अच्छा साबित होगा.’ जिस बेरहमी से अबतक आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की समस्या की उपेक्षा हुई है , हमें अब मान लेना चाहिए कि हमारे संविधान का इस्तेमाल करनेवाले लोग अच्छे लोगों में शुमार करने लायक नहीं रहे. अगर ऐसा नहीं होता तो वे आर्थिक और सामाजिक विषमता से देश को उबारने के लिए संविधान में उपलब्ध प्रावधानों का सम्यक इस्तेमाल करते,जो नहीं हुआ.
आखिर क्यों नहीं आजाद भारत के शासक अच्छे लोग साबित हो सके,यह सवाल भी लोगों को परेशान कर सकता है.इसका जवाब यह है-‘चूंकि सारी दुनिया में ही आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही होती रही है और इसके खात्मे का उत्तम उपाय सिर्फ लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा है, इसलिए आजाद भारत के शासक,जो हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न वर्ग से रहे,समग्र –वर्ग की चेतना से दरिद्र होने के कारण इसके खात्मे की दिशा में आगे नहीं बढ़े.क्योंकि आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए उन्हें विविधतामय भारत के विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराना पड़ता और ऐसा करने पर उनका वर्गीय-हित विघ्नित होता.अतः वे स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर डॉ.आंबेडकर की अतिमूल्यवान चेतावनी की इच्छाकृत रूप से अनदेखी कर गए और विषमता के खात्मे लायक ठोस नीतियां बनाने की बजाय गरीबी हटाओ,लोकतंत्र बचाओ,राम मंदिर बनाओ,भ्रष्टाचार मिटाओ इत्यादि जैसे लोक लुभावन नारों के सहारे सत्ता दखल करते रहे .बहरहाल यहां लाख टके का सवाल पैदा होता है,जब संविधान के सदुपयोग के लिहाज से आजाद भारत के तमाम शासक अच्छे लोगों में उत्तीर्ण होने में विफल रहे तो वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी को किस श्रेणी में रखा जाय?क्योंकि वे आंबेडकर-प्रेम तथा संविधान के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने के मामले में औरों से बहुत आगे निकल चुके हैं.
लोग भूले नहीं होंगे कि मोदी राज में ही डॉ.आंबेडकर को भाजपा के पितृ संगठन ‘संघ’ की ओर से ‘भारतीय पुनरुत्थान के पांचवे चरण के अगुआ’ के रूप में आदरांजलि दी गयी.मोदी राज में ही इस वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह में मुंबई के दादर स्थित इंदु मिल को आंबेडकर स्मारक बनाने की दलितों की वर्षो पुरानी मांग को स्वीकृति मिली.बात यही तक सीमित नहीं रही,इंदु मिल में स्मारक बनाने के लिए 425 करोड़ का फंड भी इसी दौरान मुहैया कराया गया .लन्दन के जिस तीन मंजिला मकान में बाबासाहेब आंबेडकर ने दो साल रहकर शिक्षा ग्रहण की थी,उसे चार मिलियन पाउंड में ख़रीदने का बड़ा काम मोदी राज में ही हुआ.इनके अतिरिक्त भी आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष में भाजपा ने ढेरों ऐसे काम किये जिसके समक्ष आंबेडकर-प्रेम की प्रतियोगिता में उतरे बाकी दल बौने बन गए.इनमें एक अन्यतम महत्वपूर्ण कार्य था 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करना एवं इसमें निहित बातों को जन-जन तक पहुचाने की प्रधानमंत्री की अपील.इसके लिए उन्होंने जिस तरह संसद के शीतकालीन सत्र के शुरुआती दो दिन संविधान पर चर्चा के बहाने डॉ.आंबेडकर को श्रद्धांजलि देते हुए यह कह डाला -‘ अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता,तो कोई बताये कि मेरे दलित,पीड़ित,शोषित समाज की हालत क्या होती?परमात्मा ने उसे वह सब दिया है ,जो मुझे और आपको दिया है,लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है.उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है-‘,उससे अंततः दलितों में एक नई उम्मीद जगी थी.उन्हें लगा था कि देश सेवा के लिए घर-संसार के परित्याग का उच्च उद्घोष करने वाले प्रधान सेवक मोदी संविधान में उपलब्ध प्रावधानों का अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में बेहतर इस्तेमाल करते हुए अच्छे लोगों में शुमार होने का सफल उपक्रम चलाएंगे .किन्तु उन्होंने ढाई साल के अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे लगे कि भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे की शुरुआत हो चुकी है; संविधान की प्रस्तावना में अंकित सामाजिक आर्थिक ,राजनीतिक न्याय के साथ स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व के लक्ष्यों को हासिल करने का मार्ग प्रशस्त हो चुका है.विपरीत इसके हालात और गुरुतर हुए हैं.
यही नहीं गत संविधान दिवस के अवसर पर उन्होंने जिस शिद्दत से संविधान की सैन्क्टीटी ,संविधान की शक्ति और संविधान में निहित बातों से जन-जन को परिचित करने के लिए रिलीजियस भाव से सेमीनार,डिबेट,कम्पटीशन इत्यादि निरंतर आयोजित कराने का आह्वान किया था,उस दिशा में निजी क्षेत्र द्वारा तो कोई प्रयास हुआ ही नहीं,खुद उनकी सरकार भी पूरी तरह निष्क्रिय रही.वैसे जब उन्होंने तामझाम से संविधान दिवस की घोषणा की थी तभी बहुत से बुद्धिजीवियों ने उसे हल्के रूप में लिया था.उनका कहना था कि मोदी सरकार में कुछ ऐसी तारीखों को, जिन्हें पहले से ही भारतीय जनता विशेष तौर पर याद रखती आई है,नए दिवसों को रूपांतरित करने का कार्य पहले भी हुआ है.गांधी जयंती ‘स्वच्छता दिवस’में तब्दील हो गयी.’शिक्षक दिवस’मोदी जी द्वारा विद्यार्थियों को देने वाले उपदेश के रूप में बदल गया.बाल-दिवस पर बच्चों के लिए कुछ सरकारी आयोजन होते रहे हैं,लेकिन उनके लिए भारत की खोज करने वाले नेहरु जी को याद नहीं किया जाता.सरदार पटेल की जयंती ‘एकता दिवस’ बन गयी है. इन तमाम दिवसों के बीच संविधान दिवस भी जुड़ गया है.संविधान दिवस की घोषणा के प्रति बुद्धिजीवियों की चुभती टिप्पणियों को देखते हुए भी दलितों को उम्मीद थी कि वे संविधान के प्रति अतिरिक्त प्रतिबद्धता दर्शा कर उन्हें भ्रान्त प्रमाणित कर देंगे.किन्तु वैसा कुछ हुआ नहीं.इस मामले में उनकी प्रतिबद्धता सौ दिन में विदेशों से काला धन लाकर प्रत्येक के खाते में 15 लाख जमा कराने की घोषणा की तरह ही शिगूफा साबित होती नजर आ रही है.कुल मिला कर उनका आधा कार्यकाल उन्हें संविधान का सम्यक इस्तेमाल करने वाले अच्छे लोगों में शुमार करने लायक नहीं दिखता.किन्तु अभी ढाई साल उनके हाथ में हैं.इस दरम्यान जिस तरह काले धन के खिलाफ कथित सर्जिकल स्ट्राइक करके अपनी छवि में सुधार किया है,हो सकता है वैसा कुछ संविधान के मोर्चे पर कर डालें.
आखिर क्यों नहीं आजाद भारत के शासक अच्छे लोग साबित हो सके,यह सवाल भी लोगों को परेशान कर सकता है.इसका जवाब यह है-‘चूंकि सारी दुनिया में ही आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) के लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से ही होती रही है और इसके खात्मे का उत्तम उपाय सिर्फ लोगों के विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा है, इसलिए आजाद भारत के शासक,जो हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न वर्ग से रहे,समग्र –वर्ग की चेतना से दरिद्र होने के कारण इसके खात्मे की दिशा में आगे नहीं बढ़े.क्योंकि आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए उन्हें विविधतामय भारत के विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराना पड़ता और ऐसा करने पर उनका वर्गीय-हित विघ्नित होता.अतः वे स्व-वर्णीय हित के हाथों विवश होकर डॉ.आंबेडकर की अतिमूल्यवान चेतावनी की इच्छाकृत रूप से अनदेखी कर गए और विषमता के खात्मे लायक ठोस नीतियां बनाने की बजाय गरीबी हटाओ,लोकतंत्र बचाओ,राम मंदिर बनाओ,भ्रष्टाचार मिटाओ इत्यादि जैसे लोक लुभावन नारों के सहारे सत्ता दखल करते रहे .बहरहाल यहां लाख टके का सवाल पैदा होता है,जब संविधान के सदुपयोग के लिहाज से आजाद भारत के तमाम शासक अच्छे लोगों में उत्तीर्ण होने में विफल रहे तो वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी को किस श्रेणी में रखा जाय?क्योंकि वे आंबेडकर-प्रेम तथा संविधान के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने के मामले में औरों से बहुत आगे निकल चुके हैं.
लोग भूले नहीं होंगे कि मोदी राज में ही डॉ.आंबेडकर को भाजपा के पितृ संगठन ‘संघ’ की ओर से ‘भारतीय पुनरुत्थान के पांचवे चरण के अगुआ’ के रूप में आदरांजलि दी गयी.मोदी राज में ही इस वर्ष अप्रैल के पहले सप्ताह में मुंबई के दादर स्थित इंदु मिल को आंबेडकर स्मारक बनाने की दलितों की वर्षो पुरानी मांग को स्वीकृति मिली.बात यही तक सीमित नहीं रही,इंदु मिल में स्मारक बनाने के लिए 425 करोड़ का फंड भी इसी दौरान मुहैया कराया गया .लन्दन के जिस तीन मंजिला मकान में बाबासाहेब आंबेडकर ने दो साल रहकर शिक्षा ग्रहण की थी,उसे चार मिलियन पाउंड में ख़रीदने का बड़ा काम मोदी राज में ही हुआ.इनके अतिरिक्त भी आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष में भाजपा ने ढेरों ऐसे काम किये जिसके समक्ष आंबेडकर-प्रेम की प्रतियोगिता में उतरे बाकी दल बौने बन गए.इनमें एक अन्यतम महत्वपूर्ण कार्य था 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस’ घोषित करना एवं इसमें निहित बातों को जन-जन तक पहुचाने की प्रधानमंत्री की अपील.इसके लिए उन्होंने जिस तरह संसद के शीतकालीन सत्र के शुरुआती दो दिन संविधान पर चर्चा के बहाने डॉ.आंबेडकर को श्रद्धांजलि देते हुए यह कह डाला -‘ अगर बाबा साहब आंबेडकर ने इस आरक्षण की व्यवस्था को बल नहीं दिया होता,तो कोई बताये कि मेरे दलित,पीड़ित,शोषित समाज की हालत क्या होती?परमात्मा ने उसे वह सब दिया है ,जो मुझे और आपको दिया है,लेकिन उसे अवसर नहीं मिला और उसके कारण उसकी दुर्दशा है.उन्हें अवसर देना हमारा दायित्व बनता है-‘,उससे अंततः दलितों में एक नई उम्मीद जगी थी.उन्हें लगा था कि देश सेवा के लिए घर-संसार के परित्याग का उच्च उद्घोष करने वाले प्रधान सेवक मोदी संविधान में उपलब्ध प्रावधानों का अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में बेहतर इस्तेमाल करते हुए अच्छे लोगों में शुमार होने का सफल उपक्रम चलाएंगे .किन्तु उन्होंने ढाई साल के अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे लगे कि भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे की शुरुआत हो चुकी है; संविधान की प्रस्तावना में अंकित सामाजिक आर्थिक ,राजनीतिक न्याय के साथ स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व के लक्ष्यों को हासिल करने का मार्ग प्रशस्त हो चुका है.विपरीत इसके हालात और गुरुतर हुए हैं.
यही नहीं गत संविधान दिवस के अवसर पर उन्होंने जिस शिद्दत से संविधान की सैन्क्टीटी ,संविधान की शक्ति और संविधान में निहित बातों से जन-जन को परिचित करने के लिए रिलीजियस भाव से सेमीनार,डिबेट,कम्पटीशन इत्यादि निरंतर आयोजित कराने का आह्वान किया था,उस दिशा में निजी क्षेत्र द्वारा तो कोई प्रयास हुआ ही नहीं,खुद उनकी सरकार भी पूरी तरह निष्क्रिय रही.वैसे जब उन्होंने तामझाम से संविधान दिवस की घोषणा की थी तभी बहुत से बुद्धिजीवियों ने उसे हल्के रूप में लिया था.उनका कहना था कि मोदी सरकार में कुछ ऐसी तारीखों को, जिन्हें पहले से ही भारतीय जनता विशेष तौर पर याद रखती आई है,नए दिवसों को रूपांतरित करने का कार्य पहले भी हुआ है.गांधी जयंती ‘स्वच्छता दिवस’में तब्दील हो गयी.’शिक्षक दिवस’मोदी जी द्वारा विद्यार्थियों को देने वाले उपदेश के रूप में बदल गया.बाल-दिवस पर बच्चों के लिए कुछ सरकारी आयोजन होते रहे हैं,लेकिन उनके लिए भारत की खोज करने वाले नेहरु जी को याद नहीं किया जाता.सरदार पटेल की जयंती ‘एकता दिवस’ बन गयी है. इन तमाम दिवसों के बीच संविधान दिवस भी जुड़ गया है.संविधान दिवस की घोषणा के प्रति बुद्धिजीवियों की चुभती टिप्पणियों को देखते हुए भी दलितों को उम्मीद थी कि वे संविधान के प्रति अतिरिक्त प्रतिबद्धता दर्शा कर उन्हें भ्रान्त प्रमाणित कर देंगे.किन्तु वैसा कुछ हुआ नहीं.इस मामले में उनकी प्रतिबद्धता सौ दिन में विदेशों से काला धन लाकर प्रत्येक के खाते में 15 लाख जमा कराने की घोषणा की तरह ही शिगूफा साबित होती नजर आ रही है.कुल मिला कर उनका आधा कार्यकाल उन्हें संविधान का सम्यक इस्तेमाल करने वाले अच्छे लोगों में शुमार करने लायक नहीं दिखता.किन्तु अभी ढाई साल उनके हाथ में हैं.इस दरम्यान जिस तरह काले धन के खिलाफ कथित सर्जिकल स्ट्राइक करके अपनी छवि में सुधार किया है,हो सकता है वैसा कुछ संविधान के मोर्चे पर कर डालें.
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