बैजनाथ मिश्र
बात 2008 की है। जर्मनी में दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधियों के साथ संवाद के दौरान एक पत्रकार ने दिलचस्प टिप्पणी की थी। आप भारत से हैं। सौभाग्यशाली हैं। आप इतनी बात कह पाते हैं। सरकार के गलत कार्यों का सीधे विरोध कर सकते हैं। उसकी नीतियों की आलोचना करते हैं और संसद की अक्षमता पर गंभीर टिप्पणियां कर देते हैं। इतनी आजादी हमें नहीं मिली है। अभिव्यक्ति की बंदिशें हम जानते हैं, इसके खतरे महसूस करते हैं और जानने के हक से महरूम होने की पीड़ा झेलते हुए जीते हैं। हम भारतीय वाकई खुशनसीब हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा मौलिक अधिकार है। सूचना का अधिकार अधिनियम हमें जानने का अधिकार प्रदान कर चुका है और मानव अधिकार घोषणा पत्र के जरिये भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। हमारा संविधान सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। भारतीय संविधान जहां विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है, वहीं भेदभाव पर रोक भी लगाता है। हमारा संविधान लोकसेवा में अवसर की समानता का अधिकार भी देता है। 1993 में भारत सरकार ने इन्हीं सब अधिकारों की रक्षा के लिए मानवाधिकार आयोग गठन किया।
संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और मानवाधिकार घोषणापत्र में स्वीकार किए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में परिलक्षित एकरूपता है। मानवाधिकार घोषणापत्र प्रत्येक व्यक्ति को बिना हस्तक्षेप के विचार रखने का अधिकार देता है। इसमें लिखित, प्रकाशित या अन्य किसी रूचिकर माध्यम के द्वारा सभी प्रकार की सूचनाएं जानने एवं उनके आदान-प्रदान की स्वतंत्रता का अधिकार सम्मिलित है।
लेकिन इन अधिकारों का उपयोग विशेष कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की अपेक्षा करता है। अतः बंदिशें लगाई गईं, किन्तु ये बंदिशें कानूनों की सीमा में हैं। यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते समय दूसरे के अधिकारों तथा सम्मान की रक्षा के 'कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में आयोजित राष्ट्रीय मानव संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं नैतिकता की रक्षा का दायित्चबोध भी होना चाहिए। हमारा संविधान भी सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है। नागरिक का अभिप्रेत अर्थ मानव ही है। अभिव्यक्ति एक व्यापक शब्द है। इसमें न केवल बोला हुआ या लिखा हुआ शब्द ही है। अभिव्यक्ति एक व्यापक शब्द है। इसमें न केवल बोला हुआ या लिखा हुआ शब्द ही सम्मिलित है, बल्कि सभी प्रकार के विचारों या भावनाओं का संचार भी शामिल है। जैसे चित्राकंन, नाट्य प्रदर्शन, चलचित्र और छपी हुई सामग्री। सर्वोच्च न्यायालय कई मामलों की सुनवाई करते हुए यह फैसला दे चुका है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में मुद्रण या प्रेस की स्वतंत्रता निहित है और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की तरह हमने भी प्रेस का उल्लेख अभिव्यक्ति के रूप में नहीं किया है।
संविधान के मूल स्वरूप में हमारी इस स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाली कुछ धाराएं अवमान लेख, अपवचन, मानहानि, न्यायालय की अवमानना, सदाचार तथा नैतिकता का उल्लंघन एवं राज्य की सुरक्षा तथा विद्रोह से संबंधित थीं। लेकिन 1951 में किये गए प्रथम संविधान संशोधन तथा 1963 में हुए 16वें संविधान संशोधन के जरिये बंदिशों का दायरा बढ़ा दिया गया। अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते समय भारत की सार्वभौमिकता तथा अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार तथा नैतिकता, न्यायालय का अपमान तथा किसी की मानहानि के प्रति सचेत रहना होगा। इतना ही नहीं, हमें यह ध्यान भी रखना होगा कि हमारी अभिव्यक्ति हिंसा को प्रोत्साहित न करे। इस प्रकार हमारे संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबंध लगाया है। ये प्रतिबंध किसी मामले में औचित्यपूर्ण हैं या नहीं, इसका निर्धारण भी न्यायालय द्वारा ही किया जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नैसर्गिक अधिकार माना है। यह एक ऐसा बुनियादी मानवाधिकार है जो अन्य सभी अधिकारों से महत्वपूर्ण है। न्यायालय की यह स्पष्ट घोषणा है कि संविधान प्रदत्त यह स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक संस्था या देश की जीवन रेखा है। इस अधिकार को दबाने, कुचलने या इसका गला घोंटने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र के लिए मौत की घंटी और निरंकुशता या तानाशाही लाने में सहायोगी होगा। मीडिया को जनता का सबसे प्रभावशाली चिंतक मानते हुए न्यायालय ने कहा है कि जानकार नागरिक जनतंत्र का सार हैं। सामाजिक कार्यकर्त्ता डॉ0 विनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को हमारी व्यवस्था का आधारभूत हिस्सा स्वीकार किया है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी है कि गांधी की किताब रखने या पढ़ने से कोई गांधी नहीं बन जाता और ना ही नक्सली साहित्य रखने मात्र से नक्सली मान लिया जायेगा। संविधान ने देश के नागरिकों को किसी भी विचार, विचारधारा को जानने या जानकारी प्राप्त करने तथा उसकी अभिव्यक्ति का हक दिया है। इस स्वतंत्रता का प्रयोजन यह है कि सरकारी और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के अधिकारी जानता के मस्तिष्क का अभिभावक नहीं बन सकते। इस अधिकार का मूल अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को जानकारी लेने-देने और अपना दृष्टिकोण प्रसारित-प्रचारित करने का अधिकार है।
इस संबंध में सबसे पहला मामला आया रोमेश थापर बनाम स्टेट ऑफ मद्रास का। इस मामले में सार्वजनिक सुरक्षा तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक आर्डर एक्ट 1949 का उपयोग करते हुए बम्बई से प्रकाशित अंग्रेजी साप्ताहिक 'क्रास रोड्स' पत्रिका के मद्रास राज्य में प्रवेश, प्रसार, बिक्री तथा वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा, तब इस प्रति बंध को असंवैधानिक करार दिया गया। न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समस्त लोकतांत्रिक संगठनों की नींव बताते हुये कहा कि स्वतंत्र राजनीतिक चर्चा के बिना जनता की राजनीतिक विषयों की शिक्षा, जो किसी जनप्रिय सरकार के उपयुक्त संचालन के लिए आवश्यक है, सम्पन्न नहीं हो सकती। उन्होंने कहा - इस बात में कोई संदेह नहीं कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विचारों को फैलाना/प्रचारित करना सम्मिलित है तथा स्वतंत्रता, वितरण की स्वतंत्रता द्वारा निरापद रहती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एक बुनियादी मानवाधिकार होने के बावजूद सरकारी अधिकारियों - कर्मचारियों को नागरिकों जैसी स्वतंत्रता हासिल नहीं है। हालांकि सूचना अधिकार अधिनियम के प्रभाव में आने के साथ ही पूरा परिवेश बदल गया है। आदर्श लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक इस हथियार ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम का लौह कपाट विदीर्ण कर दिया है। यह अधिनियम शासन-प्रशासन में पारदर्शिता तथा दायित्वबोध के उद्देश्य से लागू किया गया है।
इससे सरकारी दफ्तरों के दरवाजे आम नागरिकों के लिए खोल दिये गये हैं। चूंकि शासनतंत्र मूल रूप से जनता के लिए है, अतः उसके कार्यों को जनता से छिपाकर रखना मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है। अब माना जाने लगा है कि प्रत्येक शासकीय कर्मी को सामूहिक के साथ-साथ व्यक्तिगत रूप से भी उत्तरदायी माना जाए। अंदरखाने हो रही गड़बड़ियों की पक्की जानकारी विभागीय कर्मियों को ही होती है, क्योंकि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था में असली उत्तरदायित्व इन सरकारी सेवकों पर ही है। लेकिन विभिन्न सेवा नियमावलियां इन्हें पूरी शिद्दत से अपनी बात कहने से रोकती हैं। सूचना अधिकार अधिनियम लागू होने के शुरूआती दिनों में सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों को सूचनाएं प्राप्त करने में सेवा नियमावलियों के कारण कठिनाई हुई। कुछ सूचना आयोगों ने भी सरकारी कर्मचारियों को सूचनाएं दिलाने में कोताही बरती। लेकिन कुछ न्यायिक फैसलों ने यह स्थिति बदल दी। बावजूद इसके सरकारी कर्मचारी मुँह खोलने से कतराते हैं। सरकार भी यह तथ्य समझती है और वह इसीलिए व्हिसिलब्लोअर प्रोटेक्शन कानून बनाना चाहती है। दरअसल परिवर्तित परिवेश में सेवा आचरण संबंधी नियमावलियों पर पुनर्विचार आवश्यक है। यह समय की मांग भी है और जरूरत भी और एक पारदर्शी उत्तरदायी प्रशासन का बुनियादी उसूल भी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संविधान सम्मत प्रतिबंधों को सम्मान देते हुए कभी-कभार बोलने-लिखने में इन प्रतिबंधों का उल्लंघन या मानवाधिकारों का उल्लंघन हो जाता है। जो आदतन उद्दंड का उच्छृंखल हैं और किसी की नाक की परवाह किए बगैर हाथ-जुबान चलाते रहते हैं, उन्हें कसने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जो लोग न्याय में आस्था रखते हैं और मानवाधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिशों में बंध कर लिखना-बोलना चाहते हैं, वे भी फंस जाते हैं और इसका कारण है शब्द। प्रत्येक शब्द का अपने शब्दार्थ के साथ-साथ भावार्थ का लंबा इतिहास और विशेष संदर्भ होता है। कई शब्द समय के साथ अपना अर्थ बदल देते है। कभी उनका अर्थ संकुचित हो जाता है तो कभी अर्थ विस्तार। स्थान परिवर्तन के कारण भी शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। कभी अर्थ विपर्यय के कारण बवाल भी मच जाता है। पता नहीं कब किस शब्द से नस्लवाद की बू आने लगे, किस धर्म की भावना आहत हो जाय और किस जाति विशेष को ठेस पहुँच जाय। पटना में अन्ना हजारे के खिलाफ इस आधार पर मुकदमा कर दिया गया है कि उन्होंने संसद को बनिये की दुकान कह दिया था। कौन सा शब्द किसे अशोभनीय, अमानवीय तथा लिंग भेदी लग जाय, कहना मुश्किल है। शब्दों की यह दशा है तो कथनों का क्या कहना? समाज के तथाकथित आदर्शों, संवैधानिक संस्थाओं, उच्चपदस्थ महानुभावों, ताकतवर, धनवान तथा चर्चित लोगों के बारे में सच बोलना भी आमतौर पर खतरे से खाली नहीं होता है। स्वतंत्रता प्रायः सामर्थ्यवान, शक्तिशाली और समृद्ध के साथ रही है। कमजोर के साथ न थी, न है। भारतीय मनीषा का एक ध्येय वाक्य है 'सत्यम ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम।' यानी कड़वा सच मत बोलो। यह किसी को अच्छा नहीं लगेगा। यहां तक कि मानवाधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों को भी।
ऐसे में क्या बोलने की आजादी का भरपूर उपयोग किया जा सकता है? चूंकि मानवाधिकार का अर्थ होता है किसी भी इंसान को जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार प्रदान करना, इसलिए सूचना अधिकार अधिनियम में जिंदगी और आजादी से संबंधित सूचनाएं 48 घंटे में देने का प्रावधान है। लेकिन जिंदगी और आजादी शब्दों के परिभाषित नहीं होने के कारण सूचना आयोगों को आदेश देने और निर्णय लेने में परेशानी हो रही है। सूचना आयुक्त केवल न्यायिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी, न्यायमूर्ति या विधिवेत्ता ही नहीं होते हैं। वे सामाजिक, शैक्षणिक, प्रबंधन और मीडिया के क्षेत्र से भी होते हैं और उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण भी नहीं मिलता है। इसलिए जिंदगी और आजादी से संबंधित सूचनाओं के कानून निर्धारित समय सीमा में नहीं मिलने के कारण दायर अपील आवेदनों पर आमतौर पर निर्णय मुश्किल हो जाता है। सूचना आयुक्त इन दोनों शब्दों की व्याख्या अपने-अपने विवेक तथा अनुभव के आधार पर करते हैं। इस क्रम में बहुधा पीड़ित पक्ष या सूचना मांगने वाले को सूचनाएं नहीं मिल पाती हैं और जन सूचना पदाधिकारी दंडित नहीं हो पाते है। कभी-कभी तो मानव के इस अधिकार पर ही कुठाराघात हो जाता है और सूचना अधिकार अधिनियम अपने उद्देश्य की पूर्ति में विफल नजर आने लगता है। इसलिए सूचना आयोगों को जिंदगी और आजादी के बारे में स्पष्ट सुझाव परिभाषा के साथ दिये जाने चाहिए। भारत सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग सूचना अधिकार अधिनियम की विभिन्न धाराओं को स्पष्ट करते हुये अपना मंतव्य सूचना आयोगों को भेजता रहता है। लेकिन उसने जिंदगी और आजादी के बारे में कोई परिपत्र सूचना आयोगों को नहीं भेजा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस दिशा में अविलंब पहल करनी चाहिए।
सूचना का अधिकार वस्तुतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का ही एक विस्तार है और मानवाधिकार का पूरक या एक नया संस्करण है। इसलिए सूचना अधिकार अधिनियम में भी कुछ सूचनाएं नहीं देने का प्रावधान है। ये प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाई गई बंदिशों के ही समान हैं। कोई भी नागरिक किसी के बारे में नितांत निजी और व्यक्तिगत सूचनाएं नहीं मांग सकता है। उसे वैसी सूचनाएं भी नहीं दी जा सकती जिनके प्रकटन से किसी के जान-माल पर खतरे की आशंका हो। ये प्रावधान मानवाधिकार की एक बुनियादी शर्त निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के मामले में विधायकों व सांसदों के समान अधिकार प्रदान करता है। यानी जो सूचनाएं संसद तथा विधान मंडलों को दी जा सकती है, वे सभी सूचनाएं इस देश के नागरिक प्राप्त कर सकते हैं। दरअसल एक सफल तथा आदर्श लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि उसके नागरिक पूर्णतः संसूचित हों ताकि शासन-प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके और उसे उत्तरदायी बनाया जा सके। अगर नागरिकों के पास शासन-प्रशासन के बारे में सही और तथ्यात्मक सूचनाएं नहीं होगी तो वे अभिव्यक्त क्या करेंगे? तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सार्थकता ही प्राश्नेय बन जाएगी। इसलिए मानव के जानने के बुनियादी हक को सूचना अधिकार अधिनियम के रूप में लागू किया गया है।
सूचना अधिकार अधिनियम में मानवाधिकार को विशेष महत्व भी दिया गया है। आम धारणा यह है कि यह अधिनियम भ्रष्टाचार रोकने या कम करने के लिए लागू किया गया है। लेकिन यह अधिनियम मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति सचेष्ट है। इसका प्रमाण है अधिनियम की धारा 24 का परंतुक। इस धारा में कहा गया है कि खुफिया तथा सुरक्षा संगठनों से सूचनाएं नहीं मांगी जा सकती हैं। परंतु यदि मामला मानवाधिकारों के उल्लंघन या भ्रष्टाचार का हो तो उन संगठनों से भी सूचनाएं मांगी जा सकती हैं जो सूचना अधिकार अधिनियम की परिधि से बाहर हैं। अधिनियम में जिन संगठनों या संस्थाओं को बाहर रखा गया है उनमें इंटेलिजेंस ब्यूरो से लेकर बी एस एफ एवं स्पेशल ब्रांच तक शामिल हैं। लेकिन इनकी किसी भी इकाई या शाखा या उसके किसी अधिकारी-कर्मचारी पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगता है तो उनसे सूचनाएं मांगी जा सकती हैं। शर्त सिर्फ यह है कि ये सूचनाएं केंद्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोगों की स्वीकृति के बाद ही दी जाएंगी। इस उपबंध का कारण शायद यह है कि नागरिक संवेदनशील एजेंसियों, संगठनों और संस्थाओं पर मानवाधिकर उल्लंघन का आरोप लगा कर सूचना आवेदनों का अंबार न लगा दें। लेकिन इससे सूचना अधिकार अधिनियम में मानवाधिकारों की रक्षा का उद्देश्य विफल नहीं हो जाता, क्योंकि आयोगों की स्वीकृति के बाद आवेदन मिलने के 45 दिनों के अंदर ही सूचनाएं देनी होगी।
इस प्रकार हम पाते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जहां मानवाधिकारों को जानने-समझने तथा उनकी रक्षा के लिए बोलने-लिखने का अधिकार प्रदान करती है, वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक सामग्री, सूचनाएं या आधार प्रदान करता है। वस्तुतः ये तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं। तथ्य यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सरकारी विभागों में सेवा नियमावलियों के कारण बाधित है, मीडिया और सोशल नेटवर्किंग पर नई बंदिशें लगाने की कोशिश जारी है; मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं और सूचना अधिकार अधिनियम सरकारों तथा सरकारी अधिकारियों के कारण अपनी उद्देश्य प्राप्ति की दिशा में अभी मंथर गति से ही चल रहा है।
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार संचयिका से साभार.
http://www.rachanakar.org/2015/05/blog-post_30.html
बात 2008 की है। जर्मनी में दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधियों के साथ संवाद के दौरान एक पत्रकार ने दिलचस्प टिप्पणी की थी। आप भारत से हैं। सौभाग्यशाली हैं। आप इतनी बात कह पाते हैं। सरकार के गलत कार्यों का सीधे विरोध कर सकते हैं। उसकी नीतियों की आलोचना करते हैं और संसद की अक्षमता पर गंभीर टिप्पणियां कर देते हैं। इतनी आजादी हमें नहीं मिली है। अभिव्यक्ति की बंदिशें हम जानते हैं, इसके खतरे महसूस करते हैं और जानने के हक से महरूम होने की पीड़ा झेलते हुए जीते हैं। हम भारतीय वाकई खुशनसीब हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा मौलिक अधिकार है। सूचना का अधिकार अधिनियम हमें जानने का अधिकार प्रदान कर चुका है और मानव अधिकार घोषणा पत्र के जरिये भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। हमारा संविधान सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। भारतीय संविधान जहां विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है, वहीं भेदभाव पर रोक भी लगाता है। हमारा संविधान लोकसेवा में अवसर की समानता का अधिकार भी देता है। 1993 में भारत सरकार ने इन्हीं सब अधिकारों की रक्षा के लिए मानवाधिकार आयोग गठन किया।
संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और मानवाधिकार घोषणापत्र में स्वीकार किए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में परिलक्षित एकरूपता है। मानवाधिकार घोषणापत्र प्रत्येक व्यक्ति को बिना हस्तक्षेप के विचार रखने का अधिकार देता है। इसमें लिखित, प्रकाशित या अन्य किसी रूचिकर माध्यम के द्वारा सभी प्रकार की सूचनाएं जानने एवं उनके आदान-प्रदान की स्वतंत्रता का अधिकार सम्मिलित है।
लेकिन इन अधिकारों का उपयोग विशेष कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की अपेक्षा करता है। अतः बंदिशें लगाई गईं, किन्तु ये बंदिशें कानूनों की सीमा में हैं। यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते समय दूसरे के अधिकारों तथा सम्मान की रक्षा के 'कोलकाता (पश्चिम बंगाल) में आयोजित राष्ट्रीय मानव संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं नैतिकता की रक्षा का दायित्चबोध भी होना चाहिए। हमारा संविधान भी सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है। नागरिक का अभिप्रेत अर्थ मानव ही है। अभिव्यक्ति एक व्यापक शब्द है। इसमें न केवल बोला हुआ या लिखा हुआ शब्द ही है। अभिव्यक्ति एक व्यापक शब्द है। इसमें न केवल बोला हुआ या लिखा हुआ शब्द ही सम्मिलित है, बल्कि सभी प्रकार के विचारों या भावनाओं का संचार भी शामिल है। जैसे चित्राकंन, नाट्य प्रदर्शन, चलचित्र और छपी हुई सामग्री। सर्वोच्च न्यायालय कई मामलों की सुनवाई करते हुए यह फैसला दे चुका है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में मुद्रण या प्रेस की स्वतंत्रता निहित है और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की तरह हमने भी प्रेस का उल्लेख अभिव्यक्ति के रूप में नहीं किया है।
संविधान के मूल स्वरूप में हमारी इस स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाली कुछ धाराएं अवमान लेख, अपवचन, मानहानि, न्यायालय की अवमानना, सदाचार तथा नैतिकता का उल्लंघन एवं राज्य की सुरक्षा तथा विद्रोह से संबंधित थीं। लेकिन 1951 में किये गए प्रथम संविधान संशोधन तथा 1963 में हुए 16वें संविधान संशोधन के जरिये बंदिशों का दायरा बढ़ा दिया गया। अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते समय भारत की सार्वभौमिकता तथा अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार तथा नैतिकता, न्यायालय का अपमान तथा किसी की मानहानि के प्रति सचेत रहना होगा। इतना ही नहीं, हमें यह ध्यान भी रखना होगा कि हमारी अभिव्यक्ति हिंसा को प्रोत्साहित न करे। इस प्रकार हमारे संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबंध लगाया है। ये प्रतिबंध किसी मामले में औचित्यपूर्ण हैं या नहीं, इसका निर्धारण भी न्यायालय द्वारा ही किया जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नैसर्गिक अधिकार माना है। यह एक ऐसा बुनियादी मानवाधिकार है जो अन्य सभी अधिकारों से महत्वपूर्ण है। न्यायालय की यह स्पष्ट घोषणा है कि संविधान प्रदत्त यह स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक संस्था या देश की जीवन रेखा है। इस अधिकार को दबाने, कुचलने या इसका गला घोंटने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र के लिए मौत की घंटी और निरंकुशता या तानाशाही लाने में सहायोगी होगा। मीडिया को जनता का सबसे प्रभावशाली चिंतक मानते हुए न्यायालय ने कहा है कि जानकार नागरिक जनतंत्र का सार हैं। सामाजिक कार्यकर्त्ता डॉ0 विनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को हमारी व्यवस्था का आधारभूत हिस्सा स्वीकार किया है।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी है कि गांधी की किताब रखने या पढ़ने से कोई गांधी नहीं बन जाता और ना ही नक्सली साहित्य रखने मात्र से नक्सली मान लिया जायेगा। संविधान ने देश के नागरिकों को किसी भी विचार, विचारधारा को जानने या जानकारी प्राप्त करने तथा उसकी अभिव्यक्ति का हक दिया है। इस स्वतंत्रता का प्रयोजन यह है कि सरकारी और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के अधिकारी जानता के मस्तिष्क का अभिभावक नहीं बन सकते। इस अधिकार का मूल अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को जानकारी लेने-देने और अपना दृष्टिकोण प्रसारित-प्रचारित करने का अधिकार है।
इस संबंध में सबसे पहला मामला आया रोमेश थापर बनाम स्टेट ऑफ मद्रास का। इस मामले में सार्वजनिक सुरक्षा तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए मद्रास मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक आर्डर एक्ट 1949 का उपयोग करते हुए बम्बई से प्रकाशित अंग्रेजी साप्ताहिक 'क्रास रोड्स' पत्रिका के मद्रास राज्य में प्रवेश, प्रसार, बिक्री तथा वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा, तब इस प्रति बंध को असंवैधानिक करार दिया गया। न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री ने वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समस्त लोकतांत्रिक संगठनों की नींव बताते हुये कहा कि स्वतंत्र राजनीतिक चर्चा के बिना जनता की राजनीतिक विषयों की शिक्षा, जो किसी जनप्रिय सरकार के उपयुक्त संचालन के लिए आवश्यक है, सम्पन्न नहीं हो सकती। उन्होंने कहा - इस बात में कोई संदेह नहीं कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विचारों को फैलाना/प्रचारित करना सम्मिलित है तथा स्वतंत्रता, वितरण की स्वतंत्रता द्वारा निरापद रहती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एक बुनियादी मानवाधिकार होने के बावजूद सरकारी अधिकारियों - कर्मचारियों को नागरिकों जैसी स्वतंत्रता हासिल नहीं है। हालांकि सूचना अधिकार अधिनियम के प्रभाव में आने के साथ ही पूरा परिवेश बदल गया है। आदर्श लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक इस हथियार ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम का लौह कपाट विदीर्ण कर दिया है। यह अधिनियम शासन-प्रशासन में पारदर्शिता तथा दायित्वबोध के उद्देश्य से लागू किया गया है।
इससे सरकारी दफ्तरों के दरवाजे आम नागरिकों के लिए खोल दिये गये हैं। चूंकि शासनतंत्र मूल रूप से जनता के लिए है, अतः उसके कार्यों को जनता से छिपाकर रखना मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है। अब माना जाने लगा है कि प्रत्येक शासकीय कर्मी को सामूहिक के साथ-साथ व्यक्तिगत रूप से भी उत्तरदायी माना जाए। अंदरखाने हो रही गड़बड़ियों की पक्की जानकारी विभागीय कर्मियों को ही होती है, क्योंकि हमारी प्रशासनिक व्यवस्था में असली उत्तरदायित्व इन सरकारी सेवकों पर ही है। लेकिन विभिन्न सेवा नियमावलियां इन्हें पूरी शिद्दत से अपनी बात कहने से रोकती हैं। सूचना अधिकार अधिनियम लागू होने के शुरूआती दिनों में सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों को सूचनाएं प्राप्त करने में सेवा नियमावलियों के कारण कठिनाई हुई। कुछ सूचना आयोगों ने भी सरकारी कर्मचारियों को सूचनाएं दिलाने में कोताही बरती। लेकिन कुछ न्यायिक फैसलों ने यह स्थिति बदल दी। बावजूद इसके सरकारी कर्मचारी मुँह खोलने से कतराते हैं। सरकार भी यह तथ्य समझती है और वह इसीलिए व्हिसिलब्लोअर प्रोटेक्शन कानून बनाना चाहती है। दरअसल परिवर्तित परिवेश में सेवा आचरण संबंधी नियमावलियों पर पुनर्विचार आवश्यक है। यह समय की मांग भी है और जरूरत भी और एक पारदर्शी उत्तरदायी प्रशासन का बुनियादी उसूल भी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संविधान सम्मत प्रतिबंधों को सम्मान देते हुए कभी-कभार बोलने-लिखने में इन प्रतिबंधों का उल्लंघन या मानवाधिकारों का उल्लंघन हो जाता है। जो आदतन उद्दंड का उच्छृंखल हैं और किसी की नाक की परवाह किए बगैर हाथ-जुबान चलाते रहते हैं, उन्हें कसने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जो लोग न्याय में आस्था रखते हैं और मानवाधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिशों में बंध कर लिखना-बोलना चाहते हैं, वे भी फंस जाते हैं और इसका कारण है शब्द। प्रत्येक शब्द का अपने शब्दार्थ के साथ-साथ भावार्थ का लंबा इतिहास और विशेष संदर्भ होता है। कई शब्द समय के साथ अपना अर्थ बदल देते है। कभी उनका अर्थ संकुचित हो जाता है तो कभी अर्थ विस्तार। स्थान परिवर्तन के कारण भी शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। कभी अर्थ विपर्यय के कारण बवाल भी मच जाता है। पता नहीं कब किस शब्द से नस्लवाद की बू आने लगे, किस धर्म की भावना आहत हो जाय और किस जाति विशेष को ठेस पहुँच जाय। पटना में अन्ना हजारे के खिलाफ इस आधार पर मुकदमा कर दिया गया है कि उन्होंने संसद को बनिये की दुकान कह दिया था। कौन सा शब्द किसे अशोभनीय, अमानवीय तथा लिंग भेदी लग जाय, कहना मुश्किल है। शब्दों की यह दशा है तो कथनों का क्या कहना? समाज के तथाकथित आदर्शों, संवैधानिक संस्थाओं, उच्चपदस्थ महानुभावों, ताकतवर, धनवान तथा चर्चित लोगों के बारे में सच बोलना भी आमतौर पर खतरे से खाली नहीं होता है। स्वतंत्रता प्रायः सामर्थ्यवान, शक्तिशाली और समृद्ध के साथ रही है। कमजोर के साथ न थी, न है। भारतीय मनीषा का एक ध्येय वाक्य है 'सत्यम ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम।' यानी कड़वा सच मत बोलो। यह किसी को अच्छा नहीं लगेगा। यहां तक कि मानवाधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों को भी।
ऐसे में क्या बोलने की आजादी का भरपूर उपयोग किया जा सकता है? चूंकि मानवाधिकार का अर्थ होता है किसी भी इंसान को जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार प्रदान करना, इसलिए सूचना अधिकार अधिनियम में जिंदगी और आजादी से संबंधित सूचनाएं 48 घंटे में देने का प्रावधान है। लेकिन जिंदगी और आजादी शब्दों के परिभाषित नहीं होने के कारण सूचना आयोगों को आदेश देने और निर्णय लेने में परेशानी हो रही है। सूचना आयुक्त केवल न्यायिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी, न्यायमूर्ति या विधिवेत्ता ही नहीं होते हैं। वे सामाजिक, शैक्षणिक, प्रबंधन और मीडिया के क्षेत्र से भी होते हैं और उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण भी नहीं मिलता है। इसलिए जिंदगी और आजादी से संबंधित सूचनाओं के कानून निर्धारित समय सीमा में नहीं मिलने के कारण दायर अपील आवेदनों पर आमतौर पर निर्णय मुश्किल हो जाता है। सूचना आयुक्त इन दोनों शब्दों की व्याख्या अपने-अपने विवेक तथा अनुभव के आधार पर करते हैं। इस क्रम में बहुधा पीड़ित पक्ष या सूचना मांगने वाले को सूचनाएं नहीं मिल पाती हैं और जन सूचना पदाधिकारी दंडित नहीं हो पाते है। कभी-कभी तो मानव के इस अधिकार पर ही कुठाराघात हो जाता है और सूचना अधिकार अधिनियम अपने उद्देश्य की पूर्ति में विफल नजर आने लगता है। इसलिए सूचना आयोगों को जिंदगी और आजादी के बारे में स्पष्ट सुझाव परिभाषा के साथ दिये जाने चाहिए। भारत सरकार का कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग सूचना अधिकार अधिनियम की विभिन्न धाराओं को स्पष्ट करते हुये अपना मंतव्य सूचना आयोगों को भेजता रहता है। लेकिन उसने जिंदगी और आजादी के बारे में कोई परिपत्र सूचना आयोगों को नहीं भेजा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस दिशा में अविलंब पहल करनी चाहिए।
सूचना का अधिकार वस्तुतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का ही एक विस्तार है और मानवाधिकार का पूरक या एक नया संस्करण है। इसलिए सूचना अधिकार अधिनियम में भी कुछ सूचनाएं नहीं देने का प्रावधान है। ये प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाई गई बंदिशों के ही समान हैं। कोई भी नागरिक किसी के बारे में नितांत निजी और व्यक्तिगत सूचनाएं नहीं मांग सकता है। उसे वैसी सूचनाएं भी नहीं दी जा सकती जिनके प्रकटन से किसी के जान-माल पर खतरे की आशंका हो। ये प्रावधान मानवाधिकार की एक बुनियादी शर्त निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के मामले में विधायकों व सांसदों के समान अधिकार प्रदान करता है। यानी जो सूचनाएं संसद तथा विधान मंडलों को दी जा सकती है, वे सभी सूचनाएं इस देश के नागरिक प्राप्त कर सकते हैं। दरअसल एक सफल तथा आदर्श लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि उसके नागरिक पूर्णतः संसूचित हों ताकि शासन-प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके और उसे उत्तरदायी बनाया जा सके। अगर नागरिकों के पास शासन-प्रशासन के बारे में सही और तथ्यात्मक सूचनाएं नहीं होगी तो वे अभिव्यक्त क्या करेंगे? तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सार्थकता ही प्राश्नेय बन जाएगी। इसलिए मानव के जानने के बुनियादी हक को सूचना अधिकार अधिनियम के रूप में लागू किया गया है।
सूचना अधिकार अधिनियम में मानवाधिकार को विशेष महत्व भी दिया गया है। आम धारणा यह है कि यह अधिनियम भ्रष्टाचार रोकने या कम करने के लिए लागू किया गया है। लेकिन यह अधिनियम मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति सचेष्ट है। इसका प्रमाण है अधिनियम की धारा 24 का परंतुक। इस धारा में कहा गया है कि खुफिया तथा सुरक्षा संगठनों से सूचनाएं नहीं मांगी जा सकती हैं। परंतु यदि मामला मानवाधिकारों के उल्लंघन या भ्रष्टाचार का हो तो उन संगठनों से भी सूचनाएं मांगी जा सकती हैं जो सूचना अधिकार अधिनियम की परिधि से बाहर हैं। अधिनियम में जिन संगठनों या संस्थाओं को बाहर रखा गया है उनमें इंटेलिजेंस ब्यूरो से लेकर बी एस एफ एवं स्पेशल ब्रांच तक शामिल हैं। लेकिन इनकी किसी भी इकाई या शाखा या उसके किसी अधिकारी-कर्मचारी पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगता है तो उनसे सूचनाएं मांगी जा सकती हैं। शर्त सिर्फ यह है कि ये सूचनाएं केंद्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोगों की स्वीकृति के बाद ही दी जाएंगी। इस उपबंध का कारण शायद यह है कि नागरिक संवेदनशील एजेंसियों, संगठनों और संस्थाओं पर मानवाधिकर उल्लंघन का आरोप लगा कर सूचना आवेदनों का अंबार न लगा दें। लेकिन इससे सूचना अधिकार अधिनियम में मानवाधिकारों की रक्षा का उद्देश्य विफल नहीं हो जाता, क्योंकि आयोगों की स्वीकृति के बाद आवेदन मिलने के 45 दिनों के अंदर ही सूचनाएं देनी होगी।
इस प्रकार हम पाते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जहां मानवाधिकारों को जानने-समझने तथा उनकी रक्षा के लिए बोलने-लिखने का अधिकार प्रदान करती है, वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक सामग्री, सूचनाएं या आधार प्रदान करता है। वस्तुतः ये तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं। तथ्य यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सरकारी विभागों में सेवा नियमावलियों के कारण बाधित है, मीडिया और सोशल नेटवर्किंग पर नई बंदिशें लगाने की कोशिश जारी है; मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं और सूचना अधिकार अधिनियम सरकारों तथा सरकारी अधिकारियों के कारण अपनी उद्देश्य प्राप्ति की दिशा में अभी मंथर गति से ही चल रहा है।
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, मानवाधिकार संचयिका से साभार.
http://www.rachanakar.org/2015/05/blog-post_30.html
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