समूची दुनिया में इस समय सूचना तकनीक की क्रांति का दौर है। नित्य नये प्रकार की खोज और नये तकनीक के उत्पाद सामने आ रहे हैं। दरअसल सोशल मीडिया सूचना तकनीक और इंटरनेट की संतान है। इसके अंर्तगत वेब, ट्विटर, फेसबुक, हेसटेग, इंस्टाग्राम जैसे ही कितने नये नये प्रकार के प्रचार तंत्र के उपक्रम सामने आये हैं और कुछ ही क्षणों में कोई भी सूचना समूची दुनिया को जा सकती है।
जब ये तकनीक सामने आई थी उसके पहले प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया का ही वर्चस्व था। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर मालिकाना हक बड़े बड़े उद्योगपतियों का है और मीडिया उन्हे अपने जरूरी मुद्दों को प्रचारित करने, सरकारी तंत्र से संवाद रखने तथा गाहे बगाहे सरकारों के हाथ मरोड़कर अपने लिये अनुकूल नीतियॉं बनवाने या फैसला कराने के लिये होता था। हालांकि प्रिंट मीडिया के दौर में मीडियाकर्मियों, संपादकों और संवाददाताओं को अध्ययन कार्य भी करना होता था और आमजन से संवाद बनाना मजबूरी थी क्योंकि उन्हे समाचार या टिप्पणी लिखने के लिये विस्तृत जानकारियॉं और अध्ययन जरूरी था। इलेक्ट्रानिक मीडिया के दौर में एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि घटनाओं को दर्शक जिसे तकनीकी भाषा में मीडिया का उपभोक्ता कहा जाता है, चीजों को यथावत देखने लगा तथा समय का अंतर बहुत घट गया। जिन समाचारों को जानने के लिये पाठकों को आमतौर पर 24 घंटे या कहीं कहीं 12 घंटे इंतजार करना होता था, अब उनको समुचित सूचनायें सचित्र 12 सेकंड में भी दुनिया के किसी भी हिस्से में देखे जाने की सुविधा हो गई परन्तु यह सूचनायें केवल सूचनायें ही रही जिनके बारे में कोई विस्तृत जानकारी नही मिलती थी और क्रमशः टी. वी. चैनलों की लगातार वृद्धि से समाचारों को देखने की जल्दी तथा चैनल खाली न रहे उस समय को भरने की लाचारी के चलते नये प्रकार के परिणाम आये हैं। जहॉं एक तरफ अलग अलग प्रकार के विषयों के चैनल शुरू हुये जिनमे व्यक्ति अपनी रूचि के अनुसार उन्हे देख सकता है। मसलन धर्मगुरूओं के चैनल, बाबाओं के चैनल, फिल्मों के चैनल, सीरियलों के चैनल, खेल के चैनल, कुश्ती के चैनल आदि आदि और इन विषयवार चैनलों ने जहॉं व्यक्ति को अपनी अपनी रूचि के अनुसार, जिसके निर्माण में उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, संस्कार, शिक्षा आदि का योगदान रहता है, को उपलब्ध कराया। वही दूसरी तरफ एक प्रकार की जड़ता का भाव भी पैदा कर दिया तथा 18वी व 19वी सदी में जिन विषयों पर तर्क और बहस होते थे, वे बंद हो गये। अब भाग्यवाद, कर्मकाण्ड, अंधविश्वास जैसे विषय दर्शकों को बगैर किसी तर्क वितर्क के देखने को उपलब्ध है। निर्मल बाबा से लेकर किसी भी बाबा तक के ऐसे चैनल जिनका समय उन्होने पैसे में खरीदा हुआ है, दिन रात चला रहे हैं और एक गैर परिवर्तनशील या परिवर्तन विरोधी दिमाग की आंतरिक अवस्थाओं को मजबूत कर रहे हैं। जाहिर है कि ये सारे चैनल जिस पैसे से चलाये जाते हैं वो पैसा कहीं न कही उद्योग जगत, व्यापार जगत और अन्य प्रकार के नैतिक अनैतिक धंधे वालों की ओर से आता है। राजनीति और पूंजी के बीच जिस प्रकार का अलिखित समझौता है लगभग उसी प्रकार का अलिखित समझौता धर्म और पूंजी के बीच भी है और इसलिये राजनीति और धर्म दोनो समाज या आदमी के बजाय पूंजी की रक्षा का कवच बन गये है।
इंटरनेट की खोज के बाद इस मीडिया का विकल्प सोशल मीडिया के रूप में सामने आया और जिसमे एक प्रकार की अभिव्यक्ति की असीम आजादी सामने आई। इसके माध्यम से पूंजी स्थापित मीडिया का एकाधिकार कम होने या टूटने की संभावनाये तो बनी थी तथा आमजन के हाथ मे सीधे संवाद की ताकत आई। आरंभिक दौर में यह उम्मीद जगी थी कि सोशल मीडिया इस प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया का विकल्प बनेगा तथा जनोन्मुखी और समाज को तार्किक या वैज्ञानिक समाज बनाने का विकल्प बनेगा परन्तु धीरे धीरे सोशल मीडिया निम्न बीमारियों से ग्रस्त हो गया। मैं यह नही कह रहा हूं कि सोशल मीडिया का कोई इस्तेमाल नही है या भूमिका नही है। सोशल मीडिया आज भी बदलाव का माध्यम बन सकता है। बेहतर समाज बनाने का सहयोगी बन सकता है। राजनीति और सरकारों के लिये उपयोगी अस्त्र हो सकता है तथा शासन और प्रशासन को क्रियाशील और संवेदनशील बनाने के लिये जनमत का दबाव तैयार कर सकता है। गाहे बगाहे कभी कभी ऐंसा होता भी है परन्तु विकृतियों की छाया इतनी फैल रही है कि ऐंसे अवसर अपवाद स्वरूप ही होते हैं। इन बीमारियों के बारे में जानना जरूरी है :-
1. हमारी युवा पीढ़ी इस सोशल मीडिया से स्वकेन्द्रित बन रही है तथा सोशल मीडिया डाकिया बन रहा है जो जन्मदिन, शादी की वर्षगांठ, त्यौहार की पूजा, किसी यात्रा के दृश्य से भरा रहता है। सेल्फी भी सोशल मीडिया के लिये एक नई बीमारी आई है जिसमे नौजवान जोखिम वाले दुस्साहसी तरीकों से अपने फोटो लेकर पोस्ट करता है ( भेजता है)।इसकी संख्या इतनी बढ़ती जा रही है कि अब इन नये मित्रों को मित्र बनाना भी एक प्रकार की वक्त की बर्बादी का जोखिम हो गया है। यह कहा जा सकता है कि आप ऐसे लोगो को मित्र क्यो बनाते हो ? परन्तु सोशल मीडिया के माध्यम से नई पीढ़ी के साथ संवाद के लिये अब अन्य माध्यम शेष नही बच रहे हैं। कालेजो, विश्वविद्यालय में भी अब अपवाद छोड़ दे तो विमर्श के माध्यम नही बचे है या तो कैरियर के लिये केवल किताब की पढ़ाई का एक हिस्सा बन रहा है और या फिर जातियों, गुटों के समूह खड़े हो रहे है।
2. सोशल मीडिया ने विचार और संवेदनाओ को मारना शुरू कर दिया है तथा अब पसंद करने वालों के अपने अपने गिरोह जैंसे बन गये है जो या तो दलीय, जातीय आदि कारणों से है या फिर ’’ एक दूजे के लिये ’’ के सिद्धांत पर है। यह ’’ पसंद गिरोह ’’ सारा दिन सक्रिय रहते है और चंद क्षणों में ही उनका पंसद पोस्ट हो जाता है। संवेदनशीलताओं को इतना मार दिया गया है कि मृत्यु की सूचना पर भी लोग लाईक करते हैं। हमारे समाजवादी साथी श्री राम इकबाल जो बिहार के थे और डॉ. लोहिया के अनुयायी और उनके साथ के आंदोलनकारी थे। डॉ. लोहिया ने इनके नैतिक मूल्यों के कारण उन्हे ’’ पीरो का गॉंधी ’’ कहा था। पीरो, आरा जिले का और भोजपुर क्षेत्र का एक हिस्सा है। मेरे इस समाचार डालने पर लगभग 100 से अधिक लोगों ने लाईक किया। किसी व्यक्ति के निधन पर शोक तो हो सकता है परन्तु मृत्यु की सूचना को लाईक कैंसे किया जाये ? गूगल बादशाह ने लोगों के सामने प्रतिक्रिया के विकल्प सीमित कर दिये है या तो आप लाईक करें या कमेंट लिखे या शेयर करें। कमेंट लिखने में वक्त भी लगता है और संबंध और भावनायें भी जरूरी होती है। शेयर इससे कुछ आगे की क्रिया है जिसमे व्यक्ति अपने आप को सहमत और सहभागी पाता है। और उससे आगे बढ़ता है परन्तु लाईक तो उंगली का खेल है चाहे दिमाग लगाकर किया गया हो या मषीनी तौर पर।
3. सोशल मीडिया में भी लाईक करने या फालो करने के लिये आजकल कई प्रकार के व्यावसायिक गिरोह बन गये है जो लाईक करने के पैसे लेते है तथा कई बार जिन लोगो के फोन नंबर का इस्तेमाल करते हैं उन्हे भी आर्थिक सहयोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करते है। अभी कुछ दिनो पहले दिल्ली में एक महोदय ने जो अपनी प्रचार चेतना और वाचालता की आवारगी के लिये कुख्यात है के पोस्ट पर दिल्ली शहर से कुछ ही क्षणों में 40 लाख लाईक हो गये। दिल्ली की आबादी सरकारी तौर पर 1 करोड़ 30 लाख है और बच्चों को निकाल दिया जाये तो 50 - 60 लाख लोग वालिग होंगे। अब इनमे से 40 लाख लोगो ने मुश्किल से 5 - 7 मिनट के अन्दर उन्हे पसंद कर लिया क्या यह संभव है ? कुछ जानकारों के द्वारा इसकी खोज बीन करने पर ज्ञात हुआ कि किसी दुबई बेस कम्पनी के माध्यम से ये लाईक रैकट चलते हैं।
4. ट्विटर या यू-ट्यूब भी संवाद के तेज माध्यम है। इसका एक पक्ष यह भी है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री जैंसे लोग जो पहले कई कई माह में एक बार बोलते थे अब दिन में पांच बार उत्तर प्रति उत्तर कर लेते है। अब पत्रकार वार्ताओं के लिये प्रतीक्षा नही करनी होती परन्तु आमतौर पर ये ट्विटर संवाद सत्य और विचार पर आधारित कम होते है बल्कि वकीलों के समान अपने अपने पक्षकार के पक्ष में किये जाने वाले स्वउद्देश्य तर्क वितर्क या कुतर्क होते हैं।
5. सोशल मीडिया की आजादी का दुरूपयोग भी हो रहा है। कुछ लोग अपने दिमागी विकृति और गंदगियो को भेजते है। सोशल मीडिया झूठ फैलाने का भी बड़ा माध्यम बन गया है क्योंकि इस पर लिखने वाले की कोई जबाबदारी नही है। साईबर क्राईम का कानून बना है परन्तु उसका प्रयोग कभी कभार सत्ताधारी या ताकतवर लोग अपने पक्ष में करते है। आज सोशल मीडिया राष्ट्रनायकों को दो प्रकार से प्रभावित कर रहा है या तो उन्हे झूठ बदनाम करने के प्रयोग में या फिर उन्हे गुमनामी में छोड़ने के रूप में। गॉंधी के खिलाफ सोशल मीडिया पर एक सुनियोजित अभियान पिछले कई वर्षों से चल रहा है और जो नई पीढ़ी गूगल को ही या इंटरनेट को ही अंतिम सत्य मानती है वह इससे प्रभावित भी हो रही है।
6. सोशल मीडिया में षड़यंत्रों, अपराधों के द्वार भी खुले है तथा एक जानकार तबका किसी भी व्यक्ति के पट पर कुछ भी लिख सकता है। चूंकि अपार सूचनायें निरंतर चलती रहती है अतः एक बार दृष्टि ओझल होने के बाद ऐसी सूचनाओं को पकड़ना या उनका खण्डन करना भी मुश्किल हो जाता है।
सोशल मीडिया की सार्थकता अब व्यक्ति के स्वतः के प्रयोग पर टिक गई है । यह एक हथियार तो है जो असीमित है आजाद है, विश्वव्यापी है और अत्यअल्प क्षणों की यात्रा वाला भी है। इसका इस्तेमाल करने वाले लोग ही इसकी सार्थकता को सिद्ध कर सकते है। उनकी आजादी पर किसी वाह्य नियंत्रण के बजाय उन्हे खुद समाज के हित में ऐसे नियंत्रण के बारे में सोचना होगा। इंटरनेट और इसके अन्य उत्पाद बड़े पैमाने पर युवा पीढ़ी को इसका नशेड़ी बना रहे हैं।
आज बच्चे और युवा जागने से लेकर सोने तक इंटरनेट पर फेसबुक चेटिंग आदि में व्यस्त रहते है। इसके परिणाम स्वरूप उनका व्यायाम खेलना कूदना और अध्ययन तथा सामाजिक जीवन लगभग समाप्त हो रहा है। अब बच्चों को नाना, नानी या दादा,दादी के सानिध्य और कहानियों के बजाय इंटरनेट की गोद ज्यादा प्रिय है। वे इससे असंवेदनषील, असामाजिक मनोविकार के रोगी और तन के रोगी बन रहे हैं। अतः समाज को ही इस चिंता व बीमारी का हल खोजना होगा। कुछ सुझाव मैं देना चाहूंगा :-
1. शादी विवाह जन्मदिन पूजा पाठ और जश्नों की सूचनाये सबके बजाय केवल उनके निजी संवाद समूह याने व्हाट्स ग्रुप पर ही डाले।
2. इंटरनेट के अध्ययन या कार्यात्मक उपयोग के अलावा अन्य प्रकार के उपयोग के लिये दिनभर में अधिकतम एक घंटा निश्चित करे कि इससे ज्यादा इसका उपयोग नही करेंगे। इंटरनेट की गति नई पीढ़ी को इतना बेताब बना रही है कि धैर्य खत्म हो रहा है। मैंने देखा है कि कई बार युवक अगर उनके नेट मित्र का तत्काल उत्तर या प्रतिक्रिया न मिले तो बेचैन हो जाते है तथा लिखित गाली गलौज भी शुरू कर देते है।
3. किसी भी सूचना को मानने के पहले उसकी पुष्टि करें।
4. फेसबुक पर क्रांतिकारियों की एक जमात तैयार हुई है जो घरों में बैठकर शब्दक्रांति और शब्द शहादत करती रहती है। यह व्यक्ति को अकर्मण्य और कर्मरहित बना रही है। फेसबुक सूचना और संवाद का माध्यम है परन्तु अपने आप में कर्म नही है। इस बीमारी से भी लोगो को बचना होगा।
5. वैचारिक संवाद जरूर करें तर्क करें और इसका उद्देश्य विमर्श हो, विघटन या संघर्ष नही।
6. समाज में होने वाली ऐंसी घटनायें जो अच्छा संदेश देती है बेहतरी की हों और जोड़ने वाली हो इन्हे ही प्रेषित या पुनः प्रेषित करे। गाली गलौज या गुटबाजी को नही। भले ही इंटरनेट की पहुंच वैश्विक हुई हो परन्त दिमागी संकीर्णता ने इसके दायरे सिकोड़ दिये है। अभी व्हाट्सऐप पर दो समूह बने है एक, आरक्षण बचाओ मंच और दूसरा आरक्षण मुक्त भारत। इनमे परस्पर कोई संवाद नही है बल्कि केवल कट्टरता, गाली गलौज और जातिवाद है। क्या एक शिष्ट विमर्श दोनो समूह का नही हो सकता है ? हम एक देश के है, एक दुनिया के है परन्तु दिमागी संकीर्णताओं ने इस इंटरनेट को भी जाति, धार्मिक या दलीय समूहों तक सिकोड़ दिया है। याने दिमागी कट्टरता ने इंटरनेट की व्यापकता को हरा दिया है। इंटरनेट की पहुंच असीमित है तो उसके लिये एक ऐंसे मस्तिष्क की आवश्यकता भी है जो सिकुड़ा न हो बल्कि असीम हो। लोहिया के शब्दों में बात समाप्त करूंगा कि ’’हे भारत माता, हमें शिव के समान विशालता दें ’’ ।
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