Thursday, December 8, 2016

मन्दिरों के दान के आय में भारी भरकम वृद्धि हुई है।

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू कह रहे हैं कि मन्दिरों के दान के आय में भारी भरकम वृद्धि हुई है। इस प्रसंग में उनका विचार है कि मन्दिरों के दान खाते में बढ़ोत्तरी इसलिए हो रही है क्योंकि देश में पाप बढ़ रहा है और लोग अपने पापों के प्रायश्चित के लिए मन्दिरों में दान कर रहे हैं। यह एक मुख्यमंत्री का बयान है और यह मान लेने में हर्ज नहीं है कि उन्होंने जो कहा उसके प्रमाण उनके पास होगें, वैसे हमारे देश में राजनेता कभी भी कुछ भी कहने के लिए आजाद हैं। लेकिन उनकी इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि देश के सर्वाधिक बड़े मन्दिरों में श्रद्धालु दान कर रहे हैं।
मन्दिरों में हो रही है आभूषणों की बरसात
देश के कई दर्जन मन्दिरों में सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात की बरसात हो रही है। लाखों टन सोना और अरबों रूपए के रत्न मन्दिरों के खजाने में पहले से जमा हैं। भक्तों के दान का सिलसिला अटूट चल रहा है। हर साल मन्दिरों में आए दान में वृद्धि हो रही है। मैहर के शारदा माता मन्दिर में इसी साल नवरात्रि के दौरान 39 लाख क चढ़ावा चढाया गया था। इसमें सेाना-चांदी और नकद राशि शामिल है। शिरडी में साईं बाबा की दान पेटी में पिछले साल 24 दिसम्बर से 1 जनवरी के नौ दिन में सौलह करोड़ सत्ततर लाख रूपए जमा हो गए। इतना ही नहीं 40 किलो सोना भी आया। दो साल पहले खबर आई थी कि साईं बाबा का सिहांसन और मुकुट, भक्तों की मेहरबानी से शुद्ध सोने और हीरे-जवाहरात का बनाया गया था।
पद्मनाभ मन्दिर में कितना सोना ?
केरल के पद्मनाभ मन्दिर में कितना सोना है, किसी को नहीं मालूम है और न इसका सही आंकलन हो सका है। दिसम्बर 2009 में कमोडिटी ऑनलाइन ने एक लेख में भारतीय रिजर्व बैंक के हवाले से लिखा था कि उस समय बैंक के पास कुल 557 टन सोने का सुरक्षित भंडार था। जबकि देश के मन्दिरों में इससे भी ज्यादा सोना उपलब्ध था।
अब यह बात किसी से छुपी नहीं रह गई है कि देश के कई मन्दिरों में भक्तों की आस्था का दोहन करने और उनको अपने ही मन्दिर में आने के लिए दुकानदारों की तरह प्रचार-प्रसार ही नहीं किया जाता बल्कि अपने ही मन्दिर को दूसरे मन्दिरों की तुलना में आकर्षक बनाने के लिए बहुत बड़ी रकम भी खर्च की जाती है। तिरूपति मन्दिर की देखभाल करने वाली संस्था तिरूमाला तिरूपति देव स्थानम सदियों पुरानी इस मन्दिर के स्वरूप से संतुष्ट नहीं थी। उसने भितिचित्रों और शिलालेखों के ऊपर सोने की परत चढ़ा कर उसे और अधिक वैभवशाली बनाने का काम शुरू किया। इसके अध्यक्ष ने तो सफाई भी दी कि यदि तिरूपति मन्दिर को सोने की चकाचैंध से नहीं सजाया गया तो यहां आने वाले तीर्थयात्री पड़ोसी राज्य तमिलनाडु के वेल्लोर में नए बने भारत के सबसे बड़े स्वर्ण मन्दिर श्रीपुरममहालक्ष्मी की ओर आकर्षित होने लगेंगे। तिरूपति मन्दिर में औसतन पांच किलो सोना हर रोज चढ़ावे में चढ़ता है। वेल्लूर के श्रीपुरम मन्दिर के बारे में बताया जाता है कि छह सौ करोड़ रुपए की लागत से बने इस मन्दिर में अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर से भी ज्यादा सोना लगाया गया है।
धर्मभीरूता भारतीय समाज के मूल में है। प्रतीकों का होना हमारे देश में उतना ही जरूरी और सहज है जितना जीने के लिए हवा-पानी। हमारे देश में आस्था के प्रतीक को भी बदलने की छूट है। फलां देवता मनोकामनाएं पूरी नहीं कर पाए तो आस्था नई शरण खोज लेती है। हमारे यहां सबसे आसान काम-धंधा धर्मस्थल का निर्माण करना ही है। रातों-रात धरती का सीना फाड़ कर प्रगट हो जाने वाले मन्दिर-मस्जिद, मजारों-दरगाहों के ऊपर दो-चार दिन के भीतर प्राचीन सिद्धपीठ और हर मुराद पूरी करने का दावा करने का बोर्ड लटक जाता है। भक्तों की धर्मभीरूता, पीर-पुजारियों के अलौकिक महिमा मडंन और इन सबसे ऊपर मीडिया महाराज की कृपा से नए-नए देवताओ के मन्दिर, दरगाहों के प्रगट होने में जबरदस्त उछांल आया है। शनि, साईं, भैरव के मन्दिर और घड़ी वाले, सिगरेट वाले, जूते वाले से लेकर मटके वाले पीर और न जाने कितने पीर-औलियाओं तक की मजारें जगह-जगह दिख रही हैं। कुछ साल पहले तक शनिदेव की छवि एक ऐसे देवता की थी जिनके न तो क्रोध की कोई सीमा थी और न कृपा का कोई पारावार था। आमतौर पर भक्त उनके कोप से बचने की कोशिस में रहते थे, लेकिन टीवी और नए-नए बाबाओं के प्रचार-प्रसार ने इनकी लोकप्रियता को आसमान में पंहुचा दिया।
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के शिंगणापुर में शनिदेव का सबसे विशाल मन्दिर है। एसी नील्सन के एक सर्वे के मुताबिक शनिदेव ने देवताओं की लोकप्रियता सूची के सभी पुराने समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है। एक आंकड़े के मुताबिक बीते पांच सालों के दौरान शिगंणापुर में आने वाले भक्तों की संख्या और चढ़ावे ने यहां से थेाड़ी दूर पर स्थित शिरडी के सांईबाबा की महिमा को भी फीका कर डाला है। मन्दिरों में इतनी भव्यता, इतनी विराटता, इतनी कला कि मन सत्य, सौन्दर्य और काव्य को छूने लगता है। अध्यात्म भीतर उतरने लगता है। धरती के गर्द-गुबार से दो इंच ऊपर उठ कर आप अध्यात्म की दुनिया में तैरने लगते है और तभी इन धर्मस्थलों की बाजारू लालच के असली चेहरे सामने आते हैं।
प्रवेश के लिए टिकट, दर्शन के लिए टिकट, गर्भगृह के समीप जाने के लिए टिकट और गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए टिकट, पूजा करने-कराने के लिए टिकट अनिवार्य है। आजादी के पूर्व मन्दिरों में सर्वण जातियों को छोड़ कर किसी को भी प्रवेश नहीं मिलता था। देवता के दर्शन दुर्लभ थे। ऐसे प्रसंग हमारे कई साहित्यकारों ने बड़े भावपूर्ण तरीके से लिखे भी हैं। गांधी, ज्योति बा फूले, अम्बेडकर, बिनोबा भावे तथा सैकड़ो महापुरुषों ने इन हालातों को बदलने के लिए बहुत काम किया और आजादी के बाद इनके मन्दिर प्रवेश के लिए कानून भी बना।
अब जातियों के आधार पर मन्दिरों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध नहीं है। लेकिन अब जाति की जगह गरीबी पर प्रतिबन्ध खुले आम चलन में है। जो टिट नहीं खरीद सकता उसके लिए मन्दिरो में प्रवेश निषेध है।
ऐसी मान्यता है कि धर्म-स्थल हर समाज के लिए ऑक्सीजन का काम करते हैं। वहां जा कर शान्ति और अलौकिक आनन्द का अनुभव होता हैं। लेकिन जब इन जगहों का व्यापारिक उपयोग होने लगे, इनको बाजार की गोद में बैठा दिया जाए और इनके साथ नपुसंक सूरदासी आस्था नत्थी हो जाए, तो जिन पवित्र उदेश्य से इनको बनाया गया है, वे अंतर्ध्यान हो जाते हैं।
टैक्स चुकाने पर लोगों का मन भले ही भारी हो जाता हो, लेकिन दुकानों की तरह संचालित धार्मिक स्थलों में काली हो या सफेद कमाई आंख बन्द करके दे दी जाती है। मन्दिरों को अब चलाना नहीं पड़ता, यह अपने आप चलने लगते हैं। आजकल लोगों के पास काली लक्ष्मी बहुत है और ऐसे लोगों की संख्या भी अधिक है जो अपने भविष्य को लेकर भयभीत रहते हैं। तनाव भरी जिन्दगी ढ़ोते-ढ़ोते इनको ऐसी जगह चाहिए जहां उनको शान्ति, पुण्य, मोक्ष का आश्वासन मिल सके। इसी मनोविज्ञान के अंतर्गत मन्दिर उद्योग चल रहा है।
हर धार्मिक स्थल के साथ कुछ मिथक और कुछ चमत्कार जोड़ दिए जाते हैं। अपने पैसों से दान देना गलत नहीं है। दान देने की हमारे यहां बहुत पुरानी परम्परा रही है। लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि दान की किसे जरूरत है और वह इस दान का कैसा इस्तेमाल करेगा। सुपात्र तथा जरूरतमन्द को दान देने का निर्देश धर्मग्रन्थों में अनेक बार किया गया है। हम अपने पड़ोस, मुहल्ले और कॉलोनी में देखते सुनते हैं कि कई लोग पैसों के अभाव में इलाज से वंचित हो जाते हैं। कई परिवार के बच्चे स्कूलों की मंहगी फीस, किताब-कापियां खरीद पाने में लाचार है। कई गरीब परिवार के बच्चे त्यौहारों में नए कपड़ें और थोड़ी सी मिठाई के लिए तरस कर रह जाते हैं। किसी गरीब के अंतिम संस्कार के लिए कफन और लकड़ी तक जुटाना चंद्रयात्रा की तरह दुरूह होता है। कई निराश्रित वृद्ध रोटी और आश्रय के लिए हलाकान है। पशु, पक्षी तथा मवेषी पानी-चारा और छावं के लिए भटकते हैं। हमारी धर्म चेतना इनके लिए बांझ रहती है। असल में आर्थिक उदारीकरण और बे-नकेल आवारा पूंजी बाजार के आज के इस दौर में जैसै-जैसे हमारे समाज में हेरा-फेरी से कमाई कर रहे नव-दौलतिए गिरोहों का उदय हुआ है, वैसे-वैसे धर्म को व्यापार में तब्दील करने का काम तेजी से बढ़ता जा रहा है। हमारे देश की जनता धर्मपरायण हैं। हर आदमी के कई देवता और उनके धर्मस्थल हैं। इसके भी चलते धर्मस्थलों का बाजारीकरण चलता ही रहेगा। कौन खोज करता है कि दान-पाप की कमाई का है या ईमानदारी से की गई मेहनत का।

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