Tuesday, December 20, 2016

आलोचना और प्रशंसा

प्रशंसा अच्छी लगती है। प्रशंसा यथार्थ में कुछ नहीं होती। केवल शब्द संयोजन ही होती है। लेकिन प्रशंसा के साधारण शब्द भी मनोहर संगीत प्रतीत होते हैं और निन्दा के एक दो शब्द भी सुख छीन लेते हैं। मैं राजनैतिक कार्यकर्ता हूं। यहां दिन भर प्रशंसा या निंदा का बतरस चलता है। इस क्षेत्र में स्वयं भी अपनी प्रशंसा करनी होती है। शील, संकोच धरे रह जाते हैं। चुनाव में आम जनता के बीच अपना प्रशस्तिगान स्वयं करना पड़ता हैं समर्थक ताली पीटते हैं। जोश होश में नहीं रहने देता।
आत्म प्रशंसा में कहे गए शब्द भी हमारे व्यक्तित्व से चिपक जाते हैं और हम स्वयं को महान समझने लगते हैं। समर्थक प्रशंसक होते हैं। प्रशंसक ही सच्चे समर्थक कहे जाते हैं। तमाम शुभचिन्तक गल्तियों की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हैं। वे ही सच्चे समर्थक होते हैं लेकिन उन्हें कोई भाव नहीं देता। राजनैतिक क्षेत्र में विपक्षी की कठोर निन्दा भी एक बड़ा गुण है। जो जितना बड़ा आक्रामक निन्दक वही उतना ही बड़ा वीर पराक्रमी।
भारतीय चिन्तन में प्रशंसा और निन्दा दोनों ही बुरे हैं। दोनो बांधते हैं। दोनो उन्मुक्त ज्ञान प्राप्ति में बाधक हैं। हम निन्दक के प्रति शत्रुभाव रखने लगते हैं। शत्रुभाव शत्रुता निर्वहन के लिए उकसाता है। इसी तरह प्रशंसक के प्रति मित्रभाव बढ़ता है। पक्षपातपूर्ण मित्रभाव भी अन्याय की ओर प्रेरित करता है। मनुष्य एकाकी जन्म लेता है। वह समाज का भाग बनता है। सामाजिक संचालन के अपने नियम व आचार शास्त्र होते हैं। समाज देशकाल के अनुसार इनमें संशोधन भी करता है। समाज व्यवस्था से असंतुष्ट लोग तमाम नियमों, परम्पराओं को चुनौती देते हैं। कई बार वे सफल भी होते हैं। उनके हस्तक्षेप से रूढि़यां छूटती हैं। नवाचार का विकास होता है।
समाज संचालन की दृष्टि से बहुत कुछ करणीय होता है। बहुत कुछ बार-बार करणीय। किए जाने योग्य कर्म ही कर्तव्य कहे जाते हैं। उनके बड़े भाग का अनुकरण होता है। वे अनुकरणीय हो जाते हैं। अनुकरणीय प्रशंसनीय होता है। समाज स्वाभाविक ही इसकी प्रशस्ति करता है। बोधयुक्त महानुभाव प्रशंसा में तटस्थ रहते हैं। वे अप्रिय सत्य भी बोलते हैं। निन्दा पाते हैं। वे निन्दा के प्रति भी तटस्थ रहते हैं। कर्तव्य, करणीय और अनुकरणीय के प्रति निष्ठा ही भारतीय चिन्तन का सार है। निन्दा और यश में तटस्थ भाव को भरतभूमि में प्रशंसनीय कहा गया है। लेकिन निन्दा में भी तटस्थता कष्ट साध्य है। प्रशंसा में प्रसन्नता छिपाई जा सकती है लेकिन निन्दा की बेचैनी और कसमसाहट के प्रति सामान्य रहना बहुत कठिन है। तटस्थता आसान नहीं। प्रशंसित व्यक्ति को सुख मिलता है और निन्दित को दुख।
प्रशंसा करने वाले को भी सुख मिलता ही होगा। लेकिन निन्दा का रस निश्चित ही गाढ़ा है। निन्दा करने वाले अपनी बात को सही बताते हैं। वे स्वयं के सत्य वक्ता होने का दावा करते हैं। परपीड़ा में रस लेते हैं। वे अपनी बात के समर्थन में तर्क के साथ कुतर्क भी देते हैं। निन्दा करना सामान्यतया सद्गुण नहीं है। लेकिन गलत की निन्दा से समाज अपना दृष्टिकोण देता है। अनेक कर्म निन्दित भी हैं। उनकी निन्दा न करना और चुप रहना भी निन्दनीय है। निन्दा का भी सदुपयोग है। इससे निन्दित कर्मो को हतोत्साहित किया जा सकता है। सामान्यजन प्रायः शक्तिशाली अपराधी की निन्दा नहीं करते। शक्तिशाली का भय उन्हें मौनव्रत में ले जाता है।
अत्याचार के विरूद्ध न बोलने और मौन रहने वाले लोग समाज की अन्तर्निहित ऊर्जा कमजोर करते हैं। अत्याचारी के निन्दक समाज को शक्ति देते हैं। गलत की निन्दा वस्तुतः सामाजिक अपयश बढ़ाती है। निन्दित व्यक्ति और कर्म के प्रति बहिष्कार और दण्ड की संभावनाएं बढ़ाती है। जान पड़ता है कि निन्दा की शुरूवात सामाजिक हितसंवर्द्धन के लिए ही हुई थी। स्वस्थ लोकमत निर्माण ही मूल उद्देश्य था। अध्यात्मिक चेतना के विकास के साथ निन्दा प्रशंसा के प्रति तटस्थ भाव को श्रेष्ठता मिली। तटस्थ मन असंभव है। ऋग्वेद के अनुसार दक्ष या स्वयं प्रशिक्षित किए गए मन से ही चित्त प्रशान्त होता है। पतंजलि योग सूत्रों में इस विषय का विस्तार से विवेचन है लेकिन सामान्य उपाय भी मन को प्रशान्त दशा की ओर ले जाते हैं। इसकी शुरूआत प्रशंसा के अवसरों से की जा सकती है। हमारे किसी काम की प्रशंसा हो सकती है। मान लें कि इसी आलेख की प्रशंसा। क्या हम सोच सकते हैं कि प्रशंसित कार्य में हमारे द्वारा पढ़ी गई पुस्तकों का योग ज्यादा है?
पूर्वजों अग्रजों का मार्गदर्शन ही इस प्रशंसा का सही अधिकारी है। क्या संपादकीय टीम की अनुकम्पा को श्रेय नहीं जाता? वे परिश्रम न करते, गल्तियों न सुधारते क्या तो भी यह कार्य सुंदर ही होता? यही बात कविता, कला, सृजन के अन्य क्षेत्र सहित सभी कार्यो पर लागू होती है? अंतिम बात और भी है। प्रशंसा करने वाले व्यक्ति भी गहराई से मीन मेख निकालते तो भी क्या प्रशंसा संभव थी? प्रशंसा वस्तुतः हमारी उपलब्धि है ही नहीं। सभी कार्यो में अनंत सृष्टि ही हिस्सा लेती है। कोई भी कार्य व्यक्तिगत कर्म का परिणाम नहीं होता। प्रशंसित कार्य में मिली प्रशंसा के प्रति ऐसी दृष्टि अपनाने से तटस्थ भाव की प्राप्ति संभव है। प्रशंसा के प्रति तटस्थ भाव के विकास के साथ निन्दा के प्रति भी ऐसा ही भाव साथ-साथ बढ़ता है। निन्दा और प्रशंसा में उत्तेजना के तल मन की तटस्थता का अपना उपयोग है। प्रशांत चित्त के अपने आनंद हैं।

निन्दा और स्तुति के प्रति तटस्थता अच्छी बात है लेकिन समाज में व्याप्त तमाम उपद्रवों के प्रति तटस्थ रहना उचित नहीं कहा जा सकता। गीता का संदेश अनूठा है। गीता दर्शन में योग साधना है। योग साधना से बने तटस्थ मन में मेरा और तेराके पक्षपात नहीं होते। जय-पराजय, लाभ-हानि, यश-अपयश और निन्दा-स्तुति में समभाव वाला मन श्रेष्ठ उपकरण बनता है। तब निन्दा-स्तुति से मुक्त और दक्ष मन से सामाजिक बुराईयों के प्रति संघर्ष और युद्ध भी आनंददायी हो जाते हैं। तटस्थ मन ही भारतीय चिन्तन का लक्ष्य नहीं है। सुंदर समाज, सुन्दर राजव्यवस्था और सुन्दर जीवन ही लक्ष्य हैं। ऐसी आनंदमगन जीवनशैली के निर्माण और गतिशीलता में तटस्थ मन का उपयोग है।

तटस्थ मन से की गई निन्दा भी बुरी नहीं होती और स्तुति या प्रशंसा भी चापलूसी नहीं होती। निन्दा और स्तुति दोनों ही उपयोगी अस्त्र हैं। निन्दा का उपयोग बुराई रोकने में है और प्रशंसा का उपयोग सामाजिक स्वास्थ्य का मूल रस लोकमंगल है। लोकमंगल की मूल साधना स्वस्थ लोकमत का निर्माण है। सत्य, शिव और सुन्दर के प्रति लोकमत बनाते रहना वास्तविक सामाजिक कार्य है। प्रभावी लोकमत व्यक्ति को गलत से रोकता है और सही के लिए प्रेरित करता है। सत्य, शिव और सुंदर प्राप्त किए जाने योग्य हैं ही। इसलिए सत्य, शिव और सुन्दर की प्रशंसा सबका कत्र्तव्य भी है। इसी तरह असत्य, अशिव और अभद्र की निन्दा का लोकमत बनाना जरूरी है। प्रशंसा या निन्दा स्वाभाविक सत्कर्म है। लोमंगल की स्थापना के लिए की गई प्रशंसा या निन्दा स्तुति योग्य है। जैसे बुद्धि का निजी हित में किया गया प्रयोग चतुराई है और लोकहित में किया गया प्रयोग विवेक है वैसे ही निन्दा या स्तुति का निजी हित में प्रयोग निन्दनीय है और लोकहित में किया गया प्रयोग सदासर्वदा मंगल भवन है और अमंगलहारी है।
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इंग्लैंड के राजा कैन्यूट के दरबार में ऐसे लोगों का जमघट लगने लगा था जो उसकी प्रशंसा के पुल बांध कर उससे ओहदा व धन पाना चाहते थे। एक दिन एक दरबारी ने राजा से कहा-'आपकी कीर्ति पूरे संसार में फैल चुकी है। आप तो धरती पर साक्षात ईश्वर हैं। आपका आदेश तो समुद्र भी नहीं टाल सकता।' एक संत को जब यह पता चला तो उन्होंने राजा को सावधान करते हुए कहा-'इन लोगों से बच कर रहो। तुम्हें ईश्वर बता कर ये तुम्हारा अहंकार बढ़ा रहे हैं। इनकी जिह्वा पर लगाम कसो।'
कैन्यूट ने अगले ही दिन उसे ईश्वर बताने वाले उस दरबारी को बुलाया और उसे समुद्र तट पर घुमाने के लिए अपने साथ ले गया। तट पर पहुंच कर राजा ने उस दरबारी से कहा-'मैं ईश्वर होने के नाते तुम्हें आदेश देता हूं कि तुम समुद्र की लहरों में कूद पड़ो। यदि तुम डूबने लगोगे तो मैं समुद्र को आदेश दूंगा। उसकी लहरें तुम्हें तट पर छोड़ देंगी।' राजा के ये शब्द सुनते ही मृत्यु के भय से वह दरबारी पसीने-पसीने हो गया। राजा ने कहा-'तुम चापलूसों की चाल मैं अच्छी तरह जानता हूं। मुझे ईश्वर बता कर लाभ उठाना चाहते हो? आज से मेरे पास आने का दुस्साहस न करना वरना सारा जीवन जेल में गुजारना पड़ेगा।'
सम्राट कैन्यूट ने तो उसी दिन चापलूसों से मुक्ति पा ली, लेकिन हमारी राजनीति और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग आज तक उनसे मुक्त नहीं हो पाए हैं। स्वामी विवेकानंद ने ठीक कहा है कि अगर कोई बार-बार सुंदर व बहुत अच्छा कहे, तो सावधान हो जाएं नहीं तो चापलूस आपका नुकसान कर डालेगा। चापलूसों से मुझे हमेशा डर लगता है।
अनावश्यक प्रशंसा से व्यक्ति में मिथ्याभिमान भी उत्पन्न होता है और वह प्रशंसा चापलूसी के स्तर की बन जाती है। प्रशंसा और चापलूसी में वही अंतर है जो अमृत और विष में। प्रशंसा से व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलता है और वह उत्कर्ष की ओर बढ़ने लगता है जबकि चापलूसी व्यक्ति में मिथ्याभिमान जगा देती है। वह उसे पतन के गर्त में धकेल देती है।
महान लेखक टॉल्सटॉय ने कहा है कि चापलूस व्यक्ति आपकी चापलूसी इसीलिए करता है क्योंकि वह खुद को अयोग्य समझता है। लेकिन आप उसके मुंह से अपनी प्रशंसा सुन कर फूले नहीं समाते। यही इंसान की कमजोरी है और चापलूस व्यक्ति इसी का फायदा उठाता है।
कमियां और विशेषताएं सभी में होती हैं। सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोग भी पूर्णतः निर्दोष या समस्त विशेषताओं से युक्त नहीं होते। उनके लिए आवश्यक है कि उन्हें प्रशंसा से प्रोत्साहन तो मिले पर उनमें उसके कारण अहंकार न जागे। क्योंकि प्रशंसा व्यक्ति को अभीष्ट दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

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