प्रसिद्ध आइरिश
लेखक, पत्रकार जॉर्ज बर्नार्ड
शॉ ने प्रजातंत्र की व्याख्या कुछ इसी तरह से की है. प्रजातंत्र मूर्खों का, मूर्खों के लिए,
मूर्खों द्वारा शासन.
आज हमारे देश और
समाज में जिस तरीके से संप्रग समाज और सरकार ने माहौल बना रखा है शायद इसी बात की
कल्पना कर ही प्रजातंत्र को ऐसे पारिभाषित की गयी है. प्रजातंत्र में प्रत्येक
व्यक्ति के वोट की कीमत आँकी जाती है और उसके गणना के हिसाब से ही सरकारें बना
करती है. वोट देने वालों में अधिकांश लोग राजनीति से बिल्कुल अनजान होते हैं,
उन्हें पता हीं नहीं होता कि हम कैसी सरकार और कैसे
सामाजिक नेता बना रहे हैं और ना ही वे जानने का प्रयास ही करते हैं. अधिकांश लोगों
के जेहन में तत्कालिक घटनाक्रम ही अंकित होता है और उसी आधार पर ही सरकार बनाने के
प्रयास किए जाते हैं, मतलब की इस मामले
में जनता की मेमोरी बहुत ही छोटी होती है. चुनाव के समय जो मुद्दा सबसे ज़्यादा चर्चित
होता है, जो जनता के विचार को
झकझोरता हो उसी मुद्दे को आधार बना कर ही जनता अपने वोट का निर्धारण करती है. ऐसे
में ही सर्वाधिक ग़लत निर्णय लिए जाते हैं इसलिए ये मूर्खों का शासन कहलाता हैं.
जनभावनाओं के
ज्वार पर बनने वाली सरकारें भी अच्छी तरह से जानती हैं कि जिस मुद्दे के आधार पर
हमारी सरकारें बनी हैं वो मुद्दा कुछ समय बाद ही जनता के दिमाग़ से निकल जाएगा और
फिर वे भी अपनी मनमानी पर उतर आते हैं और जनता बाद में ठगी सी महसूस करती रह जाती
है. उदाहरण के तौर पर वर्तमान की संप्रग सरकार और हम भोले-भाले जनता. इसलिए इसे
मूर्खों के लिए शासन कहा गया है.
हमारे देश के
संबिधान के तहत किसी सरकार की समय सीमा पाँच वर्ष अधिकतम तय की गयी है. सरकार जो
कि बन जाने के बाद पाँच वर्ष तक उसी भोली-भली जनता को भटकाने का प्रयास शुरू कर
देती है. जनता द्वारा चुने गये सांसद, विधायक, मंत्री आदि अपनी
मनमानी पर उतर आते हैं जिसका तरोताजा उदाहरण आप उत्तर प्रदेश में देख सकते हैं.
साथ ही संप्रग सरकार की मनमानी तो हम देख ही रहे हैं. इनकी मनमानी इस कदर
मूर्खतापूर्ण होती है जैसे ये कभी सरकार से हटेंगे ही नहीं. सरकारें बनाने वाली
पार्टी भूल जाती है कि पाँच सालों के बाद फिर से उन्हें उसी जनता दरबार में भीख
माँगने जाना होता है जहाँ अगले पाँच सालों का भविष्य निर्धारण होना होता है.
उन्हें इस बात का भान तब होता है जब अगले चुनाव का नतीजा उनके खिलाफ जाता है और
फिर जनता के सामने वे ठगे महसूस करते हैं, जैसा कि मायावती की सरकार अभी महसूस कर रही है इसलिए इसे मूर्खों द्वारा शासन
भी कहते हैं.
लेकिन इस परिभाषा
को दरकिनार कर इसे ग़लत भी साबित किया जा सकता है और उसके लिए ज़रूरत होती है एक इच्छाशक्ति
की. एक विशुद्ध समाज के निर्माण की इच्छाशक्ति, एक सफल व्यक्तित्व के निर्माण की इच्छाशक्ति, एक शांत एवं विकाशशील देश के निर्माण की इच्छाशक्ति
और एक अच्छे भविष्य के निर्माण की इच्छाशक्ति और उसके लिए सबसे आवश्यक तत्व है एक
जागरूक जनता जिसे पूर्णतः सजग होना ज़रूरी है. जिस दिन हम जागरूक होकर अपने-अपने
वोट का मूल्यांकन करना सीख जाएँगे, यकीन मानिए वह
दिन इस परिभाषा का आख़िरी दिन होगा, वह दिन हमारी सड़ी-गली सरकार का आख़िरी दिन होगा, भ्रष्टाचार का आख़िरी दिन होगा, भ्रष्टाचारियों का आख़िरी दिन होगा, एक कालिख रात का अंत होगा और एक नया सवेरा, नयी किरण का आगाज़ और एक नयी परिभाषा - प्रजातंत्र : प्रजा का तंत्र जहाँ प्रजा ही
राजा, प्रजा ही राज्य और प्रजा
ही तंत्र.
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वह दौर बीत चुका है,जब अखबार में छपा नजीर के तौर पर पेश होता था। चौराहों-चौपालों के बहस- मुबाहिसे में अख़बार केंद्र में होते थे। अब देखिये। छपे शब्द छोड़िये। बोलती तस्वीरें भी शुबहे की नजर से देखी जा रही हैं। तकनीक और सूचना क्रांति ने ख़बरों की दुनिया बदल दी है। सूचनाओं का प्रवाह बेहद तेज है। प्रिंट के लिए पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया को बड़ा खतरा माना गया। फिर सोशल मीडिया के विस्तार ने दोनों को चुनौती देनी शुरू कर दी।
अलग माध्यमों की एक-दूसरे को चुनौती के बीच जो उनसे भी बड़ी चुनौती पेश है वह एक माध्यम को दूसरे से नहीं बल्कि अपने भीतर से है। चुनौतियों के बारे में जब बात होती है तो उसके मुकाबले की भी बात होती है। इस मुकाबले के लिए ताकत की जरुरत होती है। मीडिया को ये ताकत कौन देता है ? यकीनन उसके पाठक-दर्शक। इनकी संख्या मायने रखती है लेकिन खबरों को प्रोडक्ट के तौर पर बेचे जाने और उसके लिए बाजार के हर हथकंडे के इस्तेमाल किये जाने के दौर में ये संख्या भी अंतिम रूप में निर्णायक नहीं हो सकती। असलियत में मीडिया की असली ताकत उस पर उसके पाठक-दर्शक के भरोसे पर टिकी है। इस भरोसे की पैमाइश कैसे हो? इसका कोई निश्चित फार्मूला और मानक मुमकिन नहीं। ये भरोसा जब कायम रहता है तब भी महसूस किया जाता है और जब टूटता है तब भी बिना शोर के सुना जा सकता है।
पाठकों-दर्शकों के भरोसे के इस क्षरण की आवाजें बाहर से कम भीतर से ज्यादा सुनी और सुनाई जाती हैं। रोगी को रोग का खुद अहसास हो, ये इलाज को आसान बनाता है।पर दिक्कत तब आती है जब रोग का पता होने पर तब भी उसके इलाज को लेकर गंभीर न हुआ जाए। क्या मीडिया उसी दौर से गुजर रहा है?
दुनिया तेजी से बदली है और रोज ही बदलाव हो रहे हैं। मीडिया उससे अछूता नहीं रह सकता। इस बदलाव की खूबियां भी हैं खामियां भी। पूंजी हर दौर की जरुरत थी । आज और भी बड़े आकार में इसकी जरुरत है। इस जरुरत ने इस मैदान में उन खिलाड़ियों को उतार दिया है, जिनके लिए मुनाफा पहली और आखिरी शर्त है। ये मुनाफा दूसरे धंधों के लिए या फिर राजनीतिक ताकत हासिल करने यानी किसी भी रूप में मिलना चाहिए। इसके लिए सत्य से समझौते से परहेज नहीं किया जाता। फिर यह समर्पण सच को छिपाने, अर्ध सत्य पेश करने से लेकर झूठ तक पर जा टिकता है। इसके लिए ख़बरें देना वाला तटस्थ प्रस्तोता की जगह पक्षकार बन जाता है। पाठक-दर्शक के लिये सच ढूंढने की चुनौती तब और मुश्किल हो जाती है, जब मुकाबले में विरोधी पक्षकार उन्ही तथ्यों को बदले रूप और विपरीत दिशा में पेश करता है। वक्त लगता है पर झूठ पकड़ा जाता है। नहीं भी पकड़ा जाता तो अविश्वास और संशय का दौर शुरू होता है।और फिर यह अविश्वास मीडिया की भरोसे की उस पूंजी को छीनना शुरू करता है, जो उसने सच बोल-लिख हासिल की थी।
फिलवक्त पाठकों-दर्शकों तक पहुँच रखने वाला मीडिया का बड़ा हिस्सा मुख्य रूप में दो हिस्सों में बंटा दिखता है। एक वह जो सत्ता से नत्थी है और अपने माध्यमों का जोर-शोर से उसकी हिमायत में इस्तेमाल करता है। सत्ता लाभ के लिए वह ख़बरों को किसी भी रूप में पेश कर सकता है।ऐसी ख़बरों को पढ़ते, देखते और सुनते नीयत भांपते देर नहीं लगती। दूसरा वह है जिसने सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध का परचम थाम रखा है। असहमति लोकतंत्र को प्राणवायु देती है। लेकिन अगर वह मीडिया का एजेंडा बन जाए और खबर देने वाला ही पार्टी बनकर पक्ष या विपक्ष बन जाए तो पाठक-दर्शक के साथ धोखा होता है।इस धोखे का समय अनंत नहीं हो सकता। पाठक-दर्शक उसे ठुकरा कर अपना हिसाब करते हैं।सत्ता का अपना चरित्र होता है।खुशामदी-चापलूस पर कृपावर्षा तो विरोधी पर निगाह टेढ़ी। सत्ता कोप की आशंका होते ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कवच की तलाश शुरू होती है।आमतौर पर सत्ता से लड़ने वालों को जन सहानुभूति मिलती है।कुछ वक्त पहले तक इसको आंकने के मंच सीमित थे। लेकिन सोशल मीडिया ने लोगों को सशक्त मंच देकर मुखर किया है।
पाठकों-दर्शकों के भरोसे के इस क्षरण की आवाजें बाहर से कम भीतर से ज्यादा सुनी और सुनाई जाती हैं। रोगी को रोग का खुद अहसास हो, ये इलाज को आसान बनाता है।पर दिक्कत तब आती है जब रोग का पता होने पर तब भी उसके इलाज को लेकर गंभीर न हुआ जाए। क्या मीडिया उसी दौर से गुजर रहा है?
दुनिया तेजी से बदली है और रोज ही बदलाव हो रहे हैं। मीडिया उससे अछूता नहीं रह सकता। इस बदलाव की खूबियां भी हैं खामियां भी। पूंजी हर दौर की जरुरत थी । आज और भी बड़े आकार में इसकी जरुरत है। इस जरुरत ने इस मैदान में उन खिलाड़ियों को उतार दिया है, जिनके लिए मुनाफा पहली और आखिरी शर्त है। ये मुनाफा दूसरे धंधों के लिए या फिर राजनीतिक ताकत हासिल करने यानी किसी भी रूप में मिलना चाहिए। इसके लिए सत्य से समझौते से परहेज नहीं किया जाता। फिर यह समर्पण सच को छिपाने, अर्ध सत्य पेश करने से लेकर झूठ तक पर जा टिकता है। इसके लिए ख़बरें देना वाला तटस्थ प्रस्तोता की जगह पक्षकार बन जाता है। पाठक-दर्शक के लिये सच ढूंढने की चुनौती तब और मुश्किल हो जाती है, जब मुकाबले में विरोधी पक्षकार उन्ही तथ्यों को बदले रूप और विपरीत दिशा में पेश करता है। वक्त लगता है पर झूठ पकड़ा जाता है। नहीं भी पकड़ा जाता तो अविश्वास और संशय का दौर शुरू होता है।और फिर यह अविश्वास मीडिया की भरोसे की उस पूंजी को छीनना शुरू करता है, जो उसने सच बोल-लिख हासिल की थी।
फिलवक्त पाठकों-दर्शकों तक पहुँच रखने वाला मीडिया का बड़ा हिस्सा मुख्य रूप में दो हिस्सों में बंटा दिखता है। एक वह जो सत्ता से नत्थी है और अपने माध्यमों का जोर-शोर से उसकी हिमायत में इस्तेमाल करता है। सत्ता लाभ के लिए वह ख़बरों को किसी भी रूप में पेश कर सकता है।ऐसी ख़बरों को पढ़ते, देखते और सुनते नीयत भांपते देर नहीं लगती। दूसरा वह है जिसने सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध का परचम थाम रखा है। असहमति लोकतंत्र को प्राणवायु देती है। लेकिन अगर वह मीडिया का एजेंडा बन जाए और खबर देने वाला ही पार्टी बनकर पक्ष या विपक्ष बन जाए तो पाठक-दर्शक के साथ धोखा होता है।इस धोखे का समय अनंत नहीं हो सकता। पाठक-दर्शक उसे ठुकरा कर अपना हिसाब करते हैं।सत्ता का अपना चरित्र होता है।खुशामदी-चापलूस पर कृपावर्षा तो विरोधी पर निगाह टेढ़ी। सत्ता कोप की आशंका होते ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कवच की तलाश शुरू होती है।आमतौर पर सत्ता से लड़ने वालों को जन सहानुभूति मिलती है।कुछ वक्त पहले तक इसको आंकने के मंच सीमित थे। लेकिन सोशल मीडिया ने लोगों को सशक्त मंच देकर मुखर किया है।
एन.डी.टी.वी पर एक दिन का प्रस्तावित प्रतिबन्ध जिसे बाद में सरकार ने वापस लिया, पर जैसी प्रतिक्रियाएं आई , वह कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं।उन्हें चाहिए तो मोदी समर्थकों का प्रलाप मानकर ख़ारिज कर दीजिये और अगर असहमति के जिस हक़ के लिए लड़ रहे हैं उसे लेकर ईमानदार हों तो भीतर झाँकने में भी हर्ज नहीं। मीडिया में एक हिस्सा वह भी है जो सत्ता और पाठकों दोनों को ख्याल में रखकर घालमेल से काम चलाता है। मीडिया की मजबूरियां भी हैं।सीमायें भी।पर ये वह माध्यम है जिससे उसके पाठकों-दर्शकों की उम्मीदें बहुत बड़ी है। उसे हर हाल में सच और पूरा सच देखना-सुनना और पढ़ना है। पाठक-दर्शक की परख बहुत तेज है।उसे पता है कि कौन सा चैनल क्या दिखायेगा? प्रिंट के स्थापित नामों का लिखा पढ़ने से पहले ही वह जान लेता है कि किस मुद्दे पर उनकी क्या लाइन होगी?पहले राजनीतिक दल अपने अख़बार निकालते थे।समर्थक ये सोच कर नहीं पढ़ते थे कि उसमे तो अपनी ही बात होगी।विरोधी उसे प्रतिद्वन्दी का झूठ मानकर ख़ारिज करते थे।ज्यादातर बंद हो गए।अब कृपापात्र और वित्त पोषितों का दौर है।दर्शक तेजी से रिमोट के जरिये आगे बढ़ता है।पाठक पढ़ता कम पन्ने तेजी से पलटता है।चाह लेता है तो सोशल मीडिया पर कभी संतुलित तो कभी असंतुलित हिसाब कर लेता है।अब खबर लेने वालों की भी खबर ली जा रही है।सहिष्णु बनने की सीख के बीच मीडिया भी क्यों न सहिष्णु रहे?
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