Monday, December 12, 2016

समाज

समाज में एकता की भावनाएं रखेंगे तो समाज स्वस्थ और प्रगतिशील होगा
 
ऋग्वेद मंत्रों (10.191.2,3) में कहा गया है कि हे मनुष्यों, तुम सब के विचार एक जैसे हो, मन एक समान हो। मिलकर चलो, परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे मन एक होकर ज्ञान प्राप्त करे। अगर परस्पर विरोधी दिशाओं में चलोगे तो समाज को हानि होगी। जब हमारे संकल्प समान होंगे, हृदय परस्पर मिले हुए होंगे, हम सभी को मित्र की दृष्टि से देखेंगे तो समाज सुगठित रहेगा। जब हम सबके विचार, समिति, मन और चित्त समान उद्देश्य वाले होंगे तो हम परस्पर मिलकर रह सकंेगे। जब हम कदम से कदम मिलाकर चलते हैं तो सफलता मिलती है। समाज में मनुष्य एक दूसरे से प्रेमपूर्वक और शालीनता पूर्ण व्यवहार करें।
वेद उपदेश देते हैं कि हमें अपने देश और देशवासियों की कीर्ति के लिए मिलकर काम करना चाहिए। इतना ही नहीं, हमें दूसरी धार्मिक निष्ठाओं व आकांक्षाओं का पूर्ण आदर करना चाहिए।

हम अपनी मातृभूमि के ऋणी हैं क्योंकि इसने बहुत ही दयालुतापूर्ण, आकर्षक और उपयोगी द्रव्य साधन प्रदान किए हैं और इसलिए हमें इनकी ऐसे आराधना चाहिए जैसे हम ईश्वर की उपासना करते हैं। जब हम दूसरों में अपना प्रतिबिम्ब और अपने में दूसरों का प्रतिबिम्ब देखेंगे तो शान्ति बने रहेगी और उसे कोई भी भंग नही कर सकेगा। वेदों में विचारों की सार्वभौमिक अनुरूपता की बात की गई है।
तुलसीदास जी भी कहते हैं -
जहाँ सुमति तँह सम्पत् नाना,
जहां कुमति तंह विपद् निधाना।।
परस्पर मिलकर विचार करो। विचारों से वाणी शुद्ध बनेगी और वाणी से कार्याे में एकता आएगी। जब हम सब मिलकर विचार करने में समर्थ होते हैं तो अपने हित और दूसरों के कल्याण के समन्वय का ज्ञान होने लगता है। इस संसार में हर प्रकार के लोग हैं और सब को यह जीवन यात्रा करनी है। विद्वानों, देवों का स्वाभाव रहा है कि साथ चलें, साथ संवाद करें और मिलकर विचार करें क्योंकि ऐसे स्वाभाव वाले लोग दूसरों के हित में अपना हित समझते हैं। समाज में रहने का यह एक मूल मंत्र है और केवल आत्महित न देखकर परहित भी देखना होगा। सृष्टि की यही स्थिति है सह-अस्तित्व का विधान्। केवल विवेकहीन अपने हित और स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हैं।
‘‘सर्व आशा मम मित्रं भवन्तु’’ (अथर्वेद 19.15.6) हम सब आपस में मित्र हों। जिस तरह भी मैं देखूं हर एक को मैं अपना मित्र समझूं। यह मंत्र मनुष्य समाज को यह प्रेरणा देता है कि हम मन और मस्तिष्क से एक साथ हों ताकि एकता बनी रहें। जब तक हम समाज में एकता की भावनाएं रखेंगे हमारा समाज स्वस्थ और प्रगतिशील होगा। धैर्य, आत्म, संयम, प्रेम, आनन्द, सन्तोष इन सब के प्रबंधित, संयमित करने की आवश्यकता है और ऐसा करना अकेले रहकर संभव नहीं है अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों के सहयोग के बिना नहीं कर सकते। कोई भी समाज समृद्ध नहीं हो सकता अगर इसके सदस्य स्वार्थी या ऐसे दोष वाले होंगे जो सहनशीलता की सीमा से बाहर हों। ऐसे समाज को केवल परिवर्तन की आंधी ही बदल सकती है। वेदों के उपदेश का सार है भाईचारा, दूसरों को हानि न पहुंचाना, दया, करूणा, सत्यनिष्ठा, साधुता। सभी दिशाओं में व हर समय भाईचारा और शांति बनी रहे।
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ह्मभट्ट समाज एकीकरण अभियान

स्वजातियों का स्वातियों से बढ़े भाई चारा,यही पैगाम हमारा, यही पैगामहमारा

प्रत्येक स्वजातीय बंधू हमारे जन्मजात सदस्य है .

सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता .
                                                                                   प. श्री राम शर्मा आचार्य

नाव  यदि खंड-खंड हो जाए  लकड़ी  पानी में तैर तो सकती है 
लेकिन किसी को सुरक्षित किनारे नहीं लगा सकती॰ 
 ठीक इसी तरह जो समाज खंड-खंड  में बंट गया , वह समाज तो कहलाता है लेकिन उसका कोई भविष्य नहीं होता ॰
 जब कोई समाज एक सूत्रता के बंधन मे बंधजाता है तो यह बंधन ही उसके लिए रक्षाबंधन हो जाता है ॰ 
बिखरे फूल सुंदर हो सकते है पर सौन्दर्य की उपयोगिता तो माला बनकर ही है ॰


साथियो! समाज को नित नए संसथाओं की नहीं, एक नए धागे की आवश्यकता है ,
जो समाज में बिखरे हुए मोतियों की माला बना सके इन बिखरे हुए मोतियों को 
एक माला में पिरोना नितांत आवश्यक हो गया है . अतः अपनी-अपनी नैतिक जिम्मेदारी 
समझते हुए यह चुनौतीपूर्ण कार्य को आगे बढ़ाने के लिए समाज के लोगों को
अखंड और सहज बनना पड़ेगा.


अशांत समाज की शांति के लिए व्यक्तिगत वैचारिक क्रांति की
 जरूरत है ,सम्पूर्ण क्रांति .  क्रांति आजादी और रोटी की नहीं,
संस्कार की लड़ाई .  क्रांति का अर्थ संघर्ष को मानवता
का आधार देकर रचनात्मक बनाना .
संस्कार की मुहर जीवन के सिक्के को बहुमूल्य बना देती है ,मुहर रहित सिक्का चलन से बाहर हो जाता है.
                               


ब्रह्मभट्ट समाज एकीकरण अभियान

शीश नवाऊँ, माँ माँगू ,स्वप्न करो साकार ,पाऊँ तुम्हारा प्यार मैं मैया ,पाऊँ तुम्हारा  प्यार
दुखियों के दुःख-दर्द बटाऊँ ,अपनों से अपनापन पाऊँ , भेंट तुम्हे इस कमलपुष्प से ,गुंथे हुए सब हार.
पाऊँ तुम्हारा प्यार मैं मैया ,पाऊँ तुम्हारा  प्यार. 


अभियान के उद्देश्य

  * समाज के चारित्रिक मानसिक ,बौद्धिक विकास कार्य करना तदानुरूप आदर्श समाज के निर्माण हेतु मानव सेवा के लिए कार्य करना .
 प्रेम बंधुता एवं भाईचारा की भावना जागृत करना .
  * समाज के शिक्षा एवं आदर्श विवाह हेतु प्रयास करना .
*  समाज के कम आयु की बिधवा एवं परित्यक्ता युवतियों को पुनः विवाह के लिए प्रोत्साहित  करना.
*  समाज को एकता के सुत्र में पिरोने और गौरवशाली इतिहास से सीख लेते हुए प्रगति के पथ पर अग्रसर होने का संकल्प  लेना .
*   गौरवमयी इतिहास और संस्कारों को याद रखने के लिए प्रेरित करना.
*  आज के बच्चों में पाश्चात्य संस्कृति भरने के बजाय उनमे विरासत में मिली सामाजिक एकता को बरकरार रखने का जज्बा भरना
 .


आदर्श समाज
समाज व्यक्ति गढ़ने की टकसाल है.
 समाज की टकसाल से प्रतिभावान पैदा होते हैं. ये प्रतिभावान प्रदीप्त दीपक के सामान होते हैं
 तथा जहाँ भी होते हैं ,प्रकाश बिखेरते हैं. सामाजिक संरचना के आधार पर व्यक्तित्व का
 निर्माण होता है और श्रेष्ठ व्यक्ति समाज को उन्नत एवं समृद्ध बनाते है .सामाजिक 

मुल्य एवं आदर्श इन्हीं व्यक्तित्वसंपन्न महान व्यक्तियों के माध्यम से सुरक्षित रहते हैं.

 वर्त्तमान समाज रूग्ण एवं जर्जर हो चुका है. 
 आज विडम्बना ही है कि जिस व्यवस्था से समाज को बल मिलता था ,जिसके आलोक से समाज आलोकित
 होता था आज वही समाज खँडहर में तबदील हो गया है.   आज समाज अनेक वर्गों में विभाजित हो गया है.
 विभाजन की यह दरार इतनी चौड़ी होती जा रही है ,जिसमे जन एवं समाज धँसते चले जा रहे हैं. 
 मुल्यनीतिआदर्श एवं परम्पराएं बीते दिनों की बातें बन गई है. 

इसके लिए समाज एवं व्यक्ति दोनों ही बराबर के भागीदार है.
संवेदनशीलता ही इस विभाजन को रोक सकती है.
आज हमारे समाज की सबसे ज्वलंत समस्याएं है तलाक, 
बुजुर्गो का उपेक्षा , अपनों से दूरियां , युवा पीढ़ी का गुमराह होना. 
                                                              प्रेम सबकुछ सहलेता है पर उपेक्षा नहीं सह सकता.                                                                          
आज के इस बदलाव के बयार को समय रहते रोका नहीं गया तो यह आंधी बन कर के पुरे गाँव (समाज ) को जला देगी 
." घर को लगा दी आग घर के चिराग ने " यह कहकर दूसरों के ऊपर तरस खाने की जगह समाज के
 लोगों को आगे बढ़कर इस धर्मयुद्ध में भागीदारी करना पड़ेगा अन्यथा आने वाला समय हमें माफ नहीं करेगा .
फैलने से पहले ही चिनगारी को बुझा देना उचित है .

वस्तुतः पुरानी और नई पीढ़ियों का संघर्ष नूतन और पुरातन का संघर्ष है,जो थोड़ी बहुत मात्रा में सदैव रहता है,
किन्तु वर्तमान युग में अचानक भारी परिवर्तन हो जाने के कारण टकराव की परिस्थितियाँ अधिक स्पष्ट 
और प्रभावशाली  बन गई है ,जिसमें संघर्ष को और अधिक बल मिला है .युवा जीने की क्षमता तो
 रखता है,लेकिन अनुभव नहीं रखताबुजुर्ग अनुभव रखता है ,लेकिन जीने  की क्षमता खो 
गई होती है ,ऊर्जा खो गई होती है .जरुरत है कि दोनों मिल जाएँ .जंगल में आग
 लगी है ,अगर अंधे और लंगड़े नहीं मिले तो खतरा भारी है .


न भौतिकवादी अकेला बच सकता है ,न अध्यात्मवादी अकेला बच सकता है.अतः समन्वय में ही सारी मनुष्यता का बचाव है॰विजय बहुर्मुखी होता है , पराजय अंतर्मुखी . अतः हमें सशर्त आत्म -मंथन की जरूरत है.

साथियो!  हमारे समाज में आर्थिक सम्पन्नता बढ़ी है लेकिन नैतिक पतन भी हुआ है . 
आर्थिक सम्पन्नता की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी है, संस्कार रूपी अनमोल विरासत को खोकर .
समाज एवं व्यक्ति दोनों का चिंतन और चरित्र एक हो.
धन का मान घटाया जाय और मनुष्य का मूल्यांकन उसके उच्च-चरित्र
 त्याग ,बलिदान के आधार पर किया जाये . 

धन के कारण सम्मान मिलने से लोग अधिक अमीर बनने और किसी भी उपाय से पैसा कमाने को प्रेरित होते हैं .
केवल सत्त्प्रवृत्तियॉं सराही जायेंउन्हीं की चर्चा की जाये और उन्हीं को ही सम्मानित किया जाय .
समाज में नए मूल्यों की स्थापना विचारवान एवं संवेदनशील व्यक्ति ही कर सकते है,
जिससे समाज पुनः जीवित  विकसित हो सकता है.
आज ऐसे व्यक्तियो का आवाहन किया जा रहा है ,जो समाज को नई दिशा दे सकें.
सामाजिक परम्पराओं एवं मान्यताओं को औचित्यपूर्ण ढंग से पुनर्जीवित करने में अपनी 

अकिंचन ही सही ,किन्तु सार्थक भूमिका निभा सके.
सामाजिक मुल्यों की स्थापना के लिए समर्थ मार्गदर्शकों की भी जरुरत है ,जो अपनी प्रतिभा 
एवं क्षमता से अपरिमित असंख्य इंसानों को झकझोर कर जगा सकें.
                                                तभी तमाम समस्याओं से घिरा जर्जर समाज फिर से पुनर्जीवित हो सकेगा.                                                                                                                                स्वस्थ और मधुर जीवन का पहला और आखिरी मंत्र हैसकारात्मक सोच.
यह एक ऐसा मंत्र है जिससे न केवल व्यक्ति की ,वरन समग्र समाज की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है.
समाज सेवा एक व्रत है ,संकल्प है तपस्या है यह एक कठिन कार्य है 
विरले ही इस राह के राही बनते हैं क्योंकि बड़ी जोखिम भरी यात्रा होती है उस सेवा ब्रती की .
लोग व्यंगवाणो से छलनी कर डालते हैं उसकी छाती को.
मुट्ठी भर संकल्पवान लोग ,जिनकी अपनी लक्ष्य में दृढ आस्था है ,इतिहास की धारा को बदल सकते है.
स्वस्थ भविष्य एक स्वस्थ समाज से बनता है और एक स्वस्थ समाज एक स्वस्थ
 इच्छा-शक्ति सेजिसमे हम सब को भागीदार होना ही होगा हमे बढना ही होगा एक दुसरे का हाथ 
पकड़ केबिना किसी भेदभाव केएक सुनहरे भविष्य की ओर .
कोई भी मानव चार आयामों में रहकर पूरा हो सकता है और वे हैं- स्वयं के साथपरिवार के साथ

समाज के साथसंपूर्ण प्रकृति के साथ .समाज और संपूर्ण प्रकृति के आयाम में पहुंच कर काम कर रहे लोग 
अक्सर स्वयं के और अपने परिवार के आयाम में कमजोर पाए जाते हैं।
स्वयं और परिवार के प्रति लापरवाही एक तरफ शरीर के लिए घातक होती है तो दूसरी तरफ

तमाम उपलब्धियों के बाद भी वे स्वयं को अकेले खड़ा पाते हैं जो अंततः असंतुष्टि का कारण बनता है। 
इसीलिए बहुत से समाजसेवी घातक बीमारियों सेकम उम्र मेंअसमय ही मृत्यु के शिकार पाए जाते हैं।
आज हम निर्माण और ध्वंश के बीच खड़े है .यह आप पर निर्भर है क़ि आप अपने जीवन 

की घड़ियों का सृजन करते हैं या ध्वंस करते है .उम्मीद अभी भी कायम है .उम्मीद बहुत खूबसूरत चीज है ,
इसके दामन को कभी नहीं छोड़ना चाहिए.
 स्वामी विवेकानंद ने कहा था ,"किसी के जिंदगी से सबकुछ चला जाने के बाद भी उम्मीद रह जाती है और 

यही उम्मीद आगे जाकर उसे खोया हुवा सबकुछ वापिस भी दिला सकती है .”

“उठो, जागो ,स्वयं जागकर औरों को जगाओ .अपने जन्म को सार्थक बनाओ 
तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष की प्राप्ति न हो जाये  "



आदर्श परिवार
साथियो!   आदर्श समाज कि संरचना का प्रमुख संसाधन है एक आदर्श परिवार परिवार निर्माण -एक जीवन साधना है .
परिवार निर्माण से ही व्यक्ति और समाज का निर्माण सम्भव है . सुख और प्रगति का आधार आदर्श परिवार होता है .
 सदभाव कि स्थिति में संयुक्त परिवार का लाभ है और दुर्भाव पनपने कि स्थिति में उसका बिखर जाना ही श्रेयस्कर है .
शारीर की भूख रोटी ,कपड़ा,और मकान,अन्न ,जल,एवं हवा तक ही सिमित है ,पर आत्मा की भूख स्नेह ,सम्मान,और

 सहयोग की परिस्थितियाँ मिलने पर ही बुझती है 
अगली पीढ़ी को यदि  सदगुणी ,सुसंस्कारी बना दिया गया हैतो निश्चिंत रहना चाहिए कि वे हर परिस्थिति में सुखी रह सकेंगे .
छोटे बच्चों को कर्त्तव्य और दायित्यों कि भाषा समझाने से पहले तो यह आवश्यक है कि बड़े लोग स्वयं 

कर्तव्यपरायण तथा परिवार के प्रति उत्तरदायी  बनें .
पारिवारिक सदस्यों में जब तक समर्पण ,त्याग,उत्सर्ग का भाव बना रहता है,

तब तक उसकी सुदृढ़ एकता पर आँच नहीं आने पाती .गृहस्थाश्रम समाज को सुनागरिक देने की खान है.
परिवार को संपन्न ही नहीं सुसंस्कृत भी बनाएँ
धन निर्वाह की एक सर्वविदित आवश्यकता है ,पर वह उतनी बड़ी नहीं है ,जिसके उन्माद में प्रगति

 की अन्यान्य आवश्यकताओं को पूरी तरह भुला दिया जाए .
समग्र विकास ही वास्तविक विकास माना जाता है 

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माता और पिता इन दो स्तंभों पर भारतीय संस्कृति मजबूती से स्थिर है. माता-पिता भारतीय संस्कृति के दो ध्रुव हैं. 
माता-पिता की छाया में ही जीवन सँवरता है. माता-पिताजो निःस्वार्थ भावना की मूर्ति हैंवे संतान को

ममतात्यागपरोपकारस्नेहजीवन जीने की कला सिखाते हैं.

माँ
घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गयीं ,ढाल बनकर सामने माँ की दुआएँ आ गयींऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमां कहते हैं ,इस जहाँ में जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते हैं
माँ यह शब्द ही जीवन को तारने में समर्थ है . माँ घर की मांगल्य  होती है. 
माँ के रूप उसके स्वरूप को देवत्व प्राप्त है, कहा भी गया है कि भगवान सभी जगह नहीं पहुँच सकता 
 सीलिए उसने माँ को बनाया.  
हर एक प्राणी कि प्रथम गुरु माँ होती है. 
‘‘जब तुम बोल भी नहीं पाते थे तो मैं तुम्हारी हर बात को समझ लेती थी और अब
 जब तुम बोल लेते हो तो कहते हो कि माँ तुम कुछ समझती ही नहीं."
किसी भी माँ के द्वारा कहे ये शब्द वाकई कितने सार्थकता सिद्ध करते दिखते हैं. 
माँ शब्द ही इस जगत का सबसे सुंदर शब्द है. इसमें क्या नहीं है? वात्सल्य, माया, अपनापन, स्नेह, 
आकाश के समान विशाल मन, सागर समान अंतःकरण, इन सबका संगम ही है माँ. न जाने कितने कवियों, 
साहित्यकारों ने माँ के लिए न जाने कितना लिखा होगा. लेकिन माँ के मन की विशालता,
 अंतःकरण की करुणा मापना आसान नहीं है.
“ तीनों जग का मालिक माँ के बिना भिखारी “
बाप
माँ घर की मांगल्य  होती है तो बाप घर का आस्तित्व होता है .
इस घर के आस्तित्व को सचमुच हमने कभी समझने की कोशिश किया क्या 

संत महात्माओं ने भी माँ के ही गुणगान ज्यादा गाये हैं बाप के बारे में कोई नहीं बोलता ,कोई नहीं लिखता.
कहीं .थोडा -बहुत किसी ने रेखांकित किया भी है तो गर्म मिजाज ,निष्ठुर ,व्यसनी,निर्दयी ही बताया है.
समाज में एक-दो प्रतिशत हो सकते है,लेकिन अच्छे बापों का क्या ? माँ के पास आसुओं का धार (पाट)  होता है तो
 बाप के पास संयम का घाट होता है.माँ रो कर ख़ाली हो जाती है लेकिन सांत्वना बाप को ही देना पड़ता है .
ज्योति की अपेक्षा दीपक ज्यादा गर्म होता है लेकिन श्रेय हमेशा ज्योति को ही मिलता रहता है .


रोज के भोजन की व्यवस्था करनेवाली माँ हमें याद रहती है लेकिन उस भोजन के लिए जद्दोजहद करने 

वाले बाप को हम कितनी आसानी से भूल जाते है.माँ खुलकर सबके सामने रो लेती है, समस्याओं 
को झेलते हुए मन ही मन सिसकने वाला बाप होता है.माँ रो लेती है बाप को रोना नहीं आता ,स्वयं
 का बाप मरने के बाद भी उसको रोने नहीं आता क्योंकि छोटे भाइयों को सम्भालने की 
जिम्मेदारी रहती है.माँ के जाने पर भी वो रो नहीं सकता क्योंकि बहनों का आधार उसे
 बनना रहता है.पत्नी बीच में ही छोड़ गई तो भी बच्चों के लिए अश्रु-धाराओं को रोकना पड़ता है.
देवकी यशोदा का गुणगान अवश्य करें लेकिन तुरंत जन्मे बच्चे को सिरपर रख कर जाने वाले 

वासुदेव को भी नहीं भूलना चाहिए. राम ये शिष्टता के पुल अवश्य होगे लेकिन पुत्र वियोग
में तड़प-तड़प कर मृत्यु को वरण किया वो पिता दशरथ थे.
छोटी-छोटी मुसीबतों के लिए माँ चलती है ,मुसीबतों का पहाड़ टूटने पर बाप ही याद आता है.पटता है .
किसी भी मांगलिक कार्य के लिए घर के सारे सदस्य जाते है लेकिन मौत के प्रसंग में बाप को ही जाना 

पड़ता है.कोई भी बाप अपने धनवान बेटी के पास ज्यादा नहीं जाता लेकिन गरीब बेटी के घर खड़े-खड़े 
ही सही लेकिन चक्कर मारने वाला बाप ही होता है. जवान लड़का या लड़की घर में देर से आने पर
 जागने वाला बाप ही होता है .बच्चों क़ी नोकरी के लिए साहब के सामने गिड़गिड़ाने वाला बाप ही होता है.
लड़कियों कि शादी के लिए दर-दर चप्पल घिसता है वो बाप ही होता है. पिता के चप्पलों में ठुकी 

हुई कील देखने पर उनका महत्व समझ में आता है. फटी हुई गंजी,उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी उनकी 
कसदारी को बताता है. 
घर के लिए स्वयं कि व्यथा को प्राथमिकता  देने वाला बाप सचमुच में महान होता है .
बाप का महत्व उन बच्चों को समझता है जिसके सर से बचपन में ही बाप का  साया हट जाती है ,

और छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए उसे तरसना पड़ता है .                          
                                                                                                         


                   
समाज में नारी शक्ति का  योगदान

भारतीय समाज में नारी शक्ति का स्थान सृष्टि के आरम्भ से ही सर्वोच्च रहा है।  सेवा, सहनशीलता, ममता, प्रेम,
त्याग ये उसके आभूषण हैं. वह परिवर्तन को बखूबी जानती है, परिवर्तन को सहजता से स्वीकार भी करती है
और स्वयं को परिवर्तन के ढांचे में ढालकर अपनी सहनशीलता तथा मन की उदारता का परिचय देते हुए
 नए परिवार में पदार्पण करते हुए उस परिवार की सेवा नि:स्वार्थ भाव से करती है और
 उस घर परिवार को स्वर्ग बना देती है।
कल तक घर की चार दीवारी में रहने वाली नारी अब घर के बाहर कदम रखकर समाज की
उन्नति में अपना योगदान दे रही है।   आज हर महिला समाज की संस्था या संगठन से जुडी है
 तथा संस्था के उद्देश्यपूर्ति के लिए सक्रियता से अपना दायित्व निभा रही है । फलस्वरूप संगठन
 मजबूत होता है। समाज का विकास होता है।  काम के प्रति गंभीरता और समर्पण ये नारी के गुण विशेष है।
नारी मे सृजन की शक्ति है,सहनशीलता व धीरज का बल है, त्याग करने का अदम्य साहस है व क्षमा करने का बड़प्पन है. 
अतः वह आशक्त, कमजोर व बेचारी कभी भी नहीं हो सकती. समाज व परिवार उसकी शक्ति के मोल को समझे ,
उसकी ऊर्जा का सही उपयोग करें व उसकी अभिव्यक्ति का आदर करें.
 काम छोटा हो चाहे बडा उसे प्रमाणिकता से निभाना वे अपना धर्म समझती है  और उसे नि:स्वार्थ  भाव से निर्वाह करती है।
  कल आने वाली पीढी बनाने का महत्वपूर्ण दायित्व महिलाएं निभा रही है ।
किसी भी समाज का भविष्य उसकी नई पीढ़ी पर निर्भर करता है। जिस युग की नई पीढ़ी जितनी अधिक शालीन ,
सूसन्स्कृत  और शिक्षित होती है , उसके विकास की संभावनायेँ उतनी ही प्रबल रहती हैं.
उसके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम है बच्चों
 का संस्कार –निर्माण . . ऐसे में हर समझदार माता - पिता का यह दायित्व है कि वे
अपने बच्चों की परवरिश में संस्कार – निर्माण की बात को न भूलें .
महिलाओं में अद्भुत ताकत छिपी हुई है, उसे जगाना होगा, अपना घर द्वार
संभालते हुये इस शक्ति को समाजसेवा के कार्यों में लगाना होगा। 




 समाज में बुजुर्गों का तिरस्कार  

पेड़ोंपत्थरों से लेकर जानवरों तक को पूजने वाला भारत अपने बुजुर्गों का ही ख्याल नहीं रख पा रहा है 
कभी मां बाप को भगवान मानने वाले भारत के बेटे अब उन्हें बोझ मानने लगे हैं .
बुजुर्ग अपने ही घर के भीतर असुरक्षित हैं. "अगर मां-बाप बच्चों को बोझ लगने लगे है
तो इसके लिए कुछ हद तक मां-बाप खुद भी जिम्मेदार हैंक्योंकि उन्हीं की परवरिश में बच्चा
परंपराओं से जुड़ता या दूर होता है."बच्चों में शुरू से ही संस्कार के बीज बोने पडेंगे.
हमारी नई पीढ़ी को बचपन से ही बुजुर्गो के प्रति संवेदनशील बनाए जाने की जरूरत है
.बुजुर्गो का सम्मान करने और सेवा करने की हमारी समाज की एक  समृद्ध परंपरा  रही है ! 
पर अब समय  बदल रहा है !अब   बुजुगों की दुर्दशा हो रही है !जिस  देश मे श्रवण कुमार अपने
अंधे माँ बाप को कावड़ मे बिठाकर तीर्थयात्रा करवाते थे उसी भारत की संसद को माता पिता
की देखभाल करने के लिए कानून बनाना पड़ रहा है हम लोग ये क्यों नहीं सोचते की हम भी
एक दिन उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचेंगे जहाँ पर आज  हमारे माता पिता  खड़े  है !
बुजुर्ग सामाजिक आपत्ति नहीं बल्कि वे समाज के अनमोल धरोहर हैं। भारतीय सनातन धर्म के,
सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था के नींव हैं । आज इस भागदौड की दुनिया में घर के पति-पत्नी
दोनों नौकरी करते हैंतब बुजुर्ग घर में रहने से बच्चों की देखभाल करते हैं। बुजुर्ग बच्चों में
अच्छे संस्कार एवं संस्कृति भरते हैं। आज की आधुनिकता और बाजारवाद के दौर में
बुजुर्गों के प्रति सबमे अलगाव की भावना पैदा हुई है। 
  आज हम  अपने माता-पिता को वृध्दाश्रम की राह दिखा रहे हैंकल हमारी  संतान भी ठीक ऐसा
ही करेगीसंभव है इससे भी आगे बढ़कर कुछ करे। इसलिए हमें  आज संभलना है।
यदि हम  आज को संभाल लेते हैंतो कल अपने  आप ही संभल जाएगा । घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति
का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित 
रहना।



बुढ़ापा एक जैविक परिवर्तन है , जिसे रोका नहीं जा सकता . हर उम्र की तरह ही यह भी अपनी खूबियों और खामियों के साथ आता है. 
बचपन और जवानी के मुक़ाबले उम्र का यह अकेला पड़ाव है, जो जीवन भर साथ निभाता है.जरूरत दरअसल उस सोंच से मुक्ति
 पाने की है,जो बुढ़ापे को सूर्यास्त मान लेती है. भारत में ही नहीं पूरी दुनियाँ में यह भी माना जाता है कि अर्थपूर्ण जीवन
 तो 50 वर्ष कि उम्र के बाद ही शुरू होता है. इसके पहले तो इंसान खुद और अपने परिवार को बनाने में लगा रहता है.
 बुढ़ापा यानि एक ऐसी उम्र ,जिसके पास हमें और हमारी नई पीढ़ियों को देने के लिए जरूरी मूल्य
 पूरी समझदारी और पवित्रता के साथ होते है.


युवा पीढ़ी का समाज मे योगदान 

किसी भी समाज की सामाजिक  आर्थिक बदलाव में युवाओं की प्रमुख भूमिका होती है .
आत्मकेंद्रित मान लिए जानेवाले युवा अपने समाज को लेकर भी चिंतित हैयुवाओं में
वैचारिक दृष्टि से एक  बड़े बदलाव की जरूरत है. इतिहास गवाह है सदैव युवा वर्ग
ने मानवीय मूल्यों को अपनाया है। अन्याय शोषण और उत्पीडऩ के खण्डहरों पर युवा
 हाथों से ही आजादी का गौरव मिला है  युवा वर्ग अपने जातीय संगठन में अनेक
प्रकार से योगदान कर सकता है ।उसे अपने जाति समाज संगठन का आदर 
करना चाहिए और अपने जीवन में उसे झलकाना भी चाहिए ।
 अपने जातीय संगठन में एकता की भावना से ओतप्रोत हो
कार्यक्रमों में भाग लेना चाहिए ।
 युवा समाज चाहे तो अपने मेघात्यागपरोपकार के बल पर अपने समाज को 
उन्नति के शिखर पर ले जा सकता है और वही युवा समाज भटक जाये तो देश को गर्त में भी धकेल सकता है I
  जिस दिन से युवा पीढ़ी के बारे में संगठन व समाज का चिन्तन बढ़ेगा  उसी  दिन से  सामाजिक संगठन का
 भविष्य सुरक्षित एवं सुनहरा होने लगेगा. आज का युग चुनौतियों का युग हैइसमें सिर्फ संगठन का
 ही दायित्व नहीं बल्कि संस्कृति को जीवित रखने के लिये दायित्व बुजुर्गो के साथ युवा वर्ग का भी बनता है ।
 सभी  को अपने-अपने कर्तब्यों  से परिचित रह कर  पालन करना चाहिए 

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