प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस नेकनियती के साथ महीनेभर पहले नोटबंदी लागू की थी उसका फायदा फिलहाल तो मिलता नजर नहीं आ रहा है... आम आदमी को अपना सफेद धन पाने के लिए जहां अभी भी कतार में खड़े होना पड़ रहा है, वहीं काले कुबेरों ने भ्रष्ट बैंक मैनेजरों के साथ सांठगांठ करने के अलावा सोने, प्रॉपर्टी से लेकर चालू, बचत और जन धन खातों सहित अन्य तरीकों से कालाधन ठिकाने लगाने में काफी हद तक सफलता पा ली है। 80 प्रतिशत से ज्यादा बंद हुए 500 और 1000 के नोट बैंकों में जमा हो चुके हैं। साढ़े 14 लाख मूल्य के नोट बंद किए गए थे और अभी तक 12 लाख करोड़ से ज्यादा बैंकों में आ चुके हैं। शेष बचे 21 दिनों में 1 लाख करोड़ से अधिक की राशि और जमा हो जाएगी।
अब सभी यह सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर कालाधन गया कहां? नोटबंदी का यह ऐतिहासिक निर्णय और अधिक कारगर हो सकता था, अगर इसमें कुछ सावधानी बरतने के साथ मैदानी तैयारियां कर ली जातीं। मसलन अभी नोटबंदी से सबसे ज्यादा त्रस्त समाज का निचला तबका हुआ है, जिसके पास न तो बैंक खाता है और न ही मोबाइल फोन और न ही उसे इतनी समझ है कि वह नेट बैंकिंग या पेटीएम को अपना सके। खोमचे, रेहड़ी या ठेले अथवा फुटपाथ पर छोटा-मोटा कारोबार कर 100-50 रुपए रोज कमाने वाले से कैशलेस हो जाने की कल्पना करना ही शेखचिल्ली जैसी बातें हैं। क्या चप्पल सुधारने वाला या पंक्चर पकाने वाले को अभी कैशलेस किया जा सकता है..? देश के वित्तमंत्री, अफसर और टीवी चैनलों पर ज्ञान बांटने वालों को सुनकर ऐसा लगता है मानों देश की असलियत इन्हें पता ही नहीं है...
प्रधानमंत्री खुद इतनी आसानी से कह देते हैं कि भिखारी भी अब पेटीएम इस्तेमाल करने लगा है... किसी दो-चार उदाहरणों को देने से 125 करोड़ की आबादी को उसी अनुरूप मान लेना सरासर नासमझी ही कही जा सकती है। मोदी जी को नोटबंदी से पहले उसकी पुख्ता तैयारी कर लेना थी और काले कुबेरों को भी 51 दिन देने की बजाय मात्र 10-15 दिन ही देना थे। पहले बाजार में 50, 100 और 500 रुपए के नोट पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करा देना थे, जिससे आम आदमी से लेकर वेतनभोगियों को दिक्कत नहीं आती और साग-भागी बेचने वाले से लेकर छोटे-मोटे कारोबारियों को भी हाथ पर हाथ धरेे नहीं बैठना पड़ता। यह भी समझ से परे है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सबसे बड़ा 2000 का नोट पहले बाजार में उतार दिया, जो आज तक किसी काम नहीं आ रहा है, सिवाय काले कुबेरों के। आम आदमी के पास तो यह नोट महज शो पीस ही बनकर रह गया, क्योंकि इसका छुट्टा किसी के पास नहीं मिलता। बजाय 2000 के नोट को पहले जारी करने के, 50, 100 और 500 का नोट जारी किया जाना था। इस गलती को अब सुधारा जा रहा है।
अगर बाजार में छोटे नोट पर्याप्त उपलब्ध करा दिए जाते तो आम आदमी की भीड़ भी बैंकों और एटीएम के सामने से जल्दी ही छट जाती और उनका काम-धंधा भी चलता रहता। इसके अलावा बैंक मैनेजरों पर कड़ी निगरानी रखना थी, जिन्होंने काले कुबेरों से मिलकर नोट रातों रात बदल डाले। यही कारण है कि आम जनता को तो ये नोट मिले नहीं और अभी नेताओं से लेकर अभिनेताओं और काले कुबेरों के पास से लाखों-करोड़ों के नए नोट बरामद हो रहे हैं। हालांकि दोषी बैंक मैनेजरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई है। अमीरों ने तो घर बैठे कई तरह की जुगाड़ निकालकर अपने बोरे भर-भरकर पड़े बड़े नोटों को पिछले दरवाजे से बदलवा लिया या सोने से लेकर प्रॉपर्टी अथवा शुरुआत में 20 से 25 प्रतिशत कमीशन देकर बचत या जन धन खातों में खपा डाला।
अब तो बाजार में पुराने नोट ब्याज पर भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में नोटों को बहाने, जलाने की खबरें भी बोगस है, जाली नोट अवश्य बहाए जा सकते हैं। जब आम आदमी से लेकर कालाधन रखने वालों के पास 30 दिसम्बर तक का समय है तो वह अभी से अपने नोट क्यों बहाएगा या जलाएगा..? बैंकों में 80 प्रतिशत से ज्यादा नोट जमा हो चुके हैं, ऐसे में जलाने और बहाने की बात ही समझ से परे है। हालांकि मोदी सरकार भी नोटबंदी की असफलता की हकीकत को समझ चुकी है, यही कारण है कि अब भ्रष्टाचार और कालेधन की बात नहीं कही जा रही है और कैशलेस से लेकर लेस कैश का हल्ला मचाया जा रहा है। आतंकवादियों को नोटबंदी से बड़े नुकसान की बातों का भी असर अधिक नजर नहीं आया। एक तरफ जहां आतंकी हमले जारी हैं, वहीं नए नोट भी इन आतंकियों के पास पहुंचने लगे और अब तो वे बैंकें भी लूटने लगे हैं।
प्रधानमंत्री खुद इतनी आसानी से कह देते हैं कि भिखारी भी अब पेटीएम इस्तेमाल करने लगा है... किसी दो-चार उदाहरणों को देने से 125 करोड़ की आबादी को उसी अनुरूप मान लेना सरासर नासमझी ही कही जा सकती है। मोदी जी को नोटबंदी से पहले उसकी पुख्ता तैयारी कर लेना थी और काले कुबेरों को भी 51 दिन देने की बजाय मात्र 10-15 दिन ही देना थे। पहले बाजार में 50, 100 और 500 रुपए के नोट पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करा देना थे, जिससे आम आदमी से लेकर वेतनभोगियों को दिक्कत नहीं आती और साग-भागी बेचने वाले से लेकर छोटे-मोटे कारोबारियों को भी हाथ पर हाथ धरेे नहीं बैठना पड़ता। यह भी समझ से परे है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सबसे बड़ा 2000 का नोट पहले बाजार में उतार दिया, जो आज तक किसी काम नहीं आ रहा है, सिवाय काले कुबेरों के। आम आदमी के पास तो यह नोट महज शो पीस ही बनकर रह गया, क्योंकि इसका छुट्टा किसी के पास नहीं मिलता। बजाय 2000 के नोट को पहले जारी करने के, 50, 100 और 500 का नोट जारी किया जाना था। इस गलती को अब सुधारा जा रहा है।
अगर बाजार में छोटे नोट पर्याप्त उपलब्ध करा दिए जाते तो आम आदमी की भीड़ भी बैंकों और एटीएम के सामने से जल्दी ही छट जाती और उनका काम-धंधा भी चलता रहता। इसके अलावा बैंक मैनेजरों पर कड़ी निगरानी रखना थी, जिन्होंने काले कुबेरों से मिलकर नोट रातों रात बदल डाले। यही कारण है कि आम जनता को तो ये नोट मिले नहीं और अभी नेताओं से लेकर अभिनेताओं और काले कुबेरों के पास से लाखों-करोड़ों के नए नोट बरामद हो रहे हैं। हालांकि दोषी बैंक मैनेजरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई है। अमीरों ने तो घर बैठे कई तरह की जुगाड़ निकालकर अपने बोरे भर-भरकर पड़े बड़े नोटों को पिछले दरवाजे से बदलवा लिया या सोने से लेकर प्रॉपर्टी अथवा शुरुआत में 20 से 25 प्रतिशत कमीशन देकर बचत या जन धन खातों में खपा डाला।
अब तो बाजार में पुराने नोट ब्याज पर भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में नोटों को बहाने, जलाने की खबरें भी बोगस है, जाली नोट अवश्य बहाए जा सकते हैं। जब आम आदमी से लेकर कालाधन रखने वालों के पास 30 दिसम्बर तक का समय है तो वह अभी से अपने नोट क्यों बहाएगा या जलाएगा..? बैंकों में 80 प्रतिशत से ज्यादा नोट जमा हो चुके हैं, ऐसे में जलाने और बहाने की बात ही समझ से परे है। हालांकि मोदी सरकार भी नोटबंदी की असफलता की हकीकत को समझ चुकी है, यही कारण है कि अब भ्रष्टाचार और कालेधन की बात नहीं कही जा रही है और कैशलेस से लेकर लेस कैश का हल्ला मचाया जा रहा है। आतंकवादियों को नोटबंदी से बड़े नुकसान की बातों का भी असर अधिक नजर नहीं आया। एक तरफ जहां आतंकी हमले जारी हैं, वहीं नए नोट भी इन आतंकियों के पास पहुंचने लगे और अब तो वे बैंकें भी लूटने लगे हैं।
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एच.एल.दुसाध
8 नवम्बर की रात 12 से उठी नोटबंदी की सुनामी के तीन के तीन सप्ताह गुजर चुके हैं और इसकी चपेट में आने से देश का शायद एक भी नागरिक बच नहीं पाया है.विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक़ इससे राष्ट्र का जीवन जिस तरह प्रभावित हुआ,वैसा भारत-चीन या भारत-पाक के मध्य हुई लड़ाइयों में भी नहीं देखा गया.भारी आर्थिक क्षति के साथ ही इसमें 80 से अधिक लोग शहीद भी हो चुके हैं.इससे हुई हानि पर अपना कर्तव्य स्थिर करने में विपक्षी दलों ने कोई कमी नहीं की.इस मुद्दे पर एकबद्ध विपक्ष सड़क से संसद तक आक्रामक तरीके से मुखर रहा.वह जनता तक यह बात भी पहुंचा दिया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के जरिये आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला अंजाम दिया है.वह अपनी पार्टी,मित्रों तथा कुछ खास–खास उद्योगपतियों का पैसा ठिकाने लगाने में व्यस्त रहने के कारण बिना पूरी तैयारी के नोटबंदी का फैसला ले लिए, जिस कारण ही जनता को इतनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है.
8 नवम्बर की रात 12 से उठी नोटबंदी की सुनामी के तीन के तीन सप्ताह गुजर चुके हैं और इसकी चपेट में आने से देश का शायद एक भी नागरिक बच नहीं पाया है.विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक़ इससे राष्ट्र का जीवन जिस तरह प्रभावित हुआ,वैसा भारत-चीन या भारत-पाक के मध्य हुई लड़ाइयों में भी नहीं देखा गया.भारी आर्थिक क्षति के साथ ही इसमें 80 से अधिक लोग शहीद भी हो चुके हैं.इससे हुई हानि पर अपना कर्तव्य स्थिर करने में विपक्षी दलों ने कोई कमी नहीं की.इस मुद्दे पर एकबद्ध विपक्ष सड़क से संसद तक आक्रामक तरीके से मुखर रहा.वह जनता तक यह बात भी पहुंचा दिया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के जरिये आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला अंजाम दिया है.वह अपनी पार्टी,मित्रों तथा कुछ खास–खास उद्योगपतियों का पैसा ठिकाने लगाने में व्यस्त रहने के कारण बिना पूरी तैयारी के नोटबंदी का फैसला ले लिए, जिस कारण ही जनता को इतनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है.
बहरहाल नोटबंदी से हुई दिक्कतों में अवाम का पूरा साथ देने और इस पर मोदी सरकार को बुरी तरह एक्सपोज करने के बाद विपक्ष को पूरा भरोसा हो चला था कि जनता मोदी से क्षुब्ध हो गयी है.इस विश्वास के कारण ही विपक्ष के बहुत से नेता मोदी सरकार को चुनाव में उतरने के लिए ललकारने लगे .किन्तु नोटबंदी के फैसले के दो सप्ताह बाद मोदी सरकार ने जो सर्वे कराया ,वह विपक्ष की उम्मीदों के विपरीत:कुछ हद तक चौकाने वाला रहा.सर्वे में पाया गया कि 92 प्रतिशत लोगों को भ्रष्टाचार से लड़ने का नोटबंदी का कदम पसंद आया है तथा उन्हें यह विशवास है कि इससे कालेधन,भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर लगाम लगेगी.विभिन्न सर्वेक्षणों के अतिरक्त सात राज्यों के लोकसभा व विधानसभा सीटों के उपचुनाव के बाद ही महाराष्ट्र और गुजरात में जो स्थानीय निकायों के उपचुनाव हुए, उनमें भी जनता को नोटबंदी के पक्ष खड़ा पाया गया .
किन्तु तमाम सर्वेक्षणों और उपचुनाव परिणामों से विपक्ष अप्रभावित नजर आया.उसे आज भी लग रहा है कि नोटबंदी के बाद जनता को जो तकलीफ उठानी पड़ी है उसकी कीमत मोदी को आने वाले चुनावों में अदा करनी पड़ेगी,इसलिए वह नोटबंदी के खिलाफ विरोध की नई-नई मंजिलें तय करते जा रहा है.लेकिन वह समझ नहीं पा रहा है कि ऐसा करने के क्रम में उसकी स्थिति उस तत्कालीन विपक्ष जैसी होती जा रही है जिसने 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे का विरोध किया था.
वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी ने जो नोटबंदी का फैसला लिया है भारत में उसकी तुलना सिर्फ इंदिरा गाँधी के 1969 के फैसले से ही हो सकती है.किन्तु 1969 और 2016 के साहसिक फैसलों में काफी साम्यता होने के बावजूद दो बड़े फर्क हैं.1969 में इंदिरा गाँधी ने अपनी छवि एक प्रगतिशील प्रधानमंत्री रूप स्थापित करने के लिए जो कठोर फैसले लिए उससे अवाम का जीवन आज जैसा नरक नहीं बना था,इसलिए उन्हें जनता के बीच रोने की नौबत नहीं आई थी. दूसरा बड़ा फर्क यह था कि बैंकों का राष्ट्रीकरण और प्रिवीपर्स का खात्मा सचमुच में भारी जोखिम भरा फैसला था .ऐसा करके इंदिरा गांधी ने राजे-महाराजे और धन्ना सेठों को सीधी चुनौती दी थी,जिसका राष्ट्र को चिरस्थाई लाभ मिला.इस लिहाज से नोटबंदी का फैसला कहीं से भी साहसिक और जोखिम भरा नहीं नजर आ रहा.इसमें जो भी तकलीफ हुई है साधारण और मध्यम वर्ग की जनता को हुई है,काले धन के लिए जो सचमुच में जिम्मेवार हैं,उन्हें कहीं से भी चुनौती मिली ही नहीं है.
नोटबंदी के फैसले को खुद मोदी द्वारा मना किये जाने के बावजूद उनके दल के साथ कुछ नोटबंदी समर्थक बुद्धिजीवि भी अतिउत्साह में इसे काले धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बताये जा है.किन्तु वास्तव में यह काले धन की आड़ में विपक्षी दलों पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है .इसके जरिये निर्ममता से विपक्षी दलों को आर्थिक रूप से पंगु बनाने का कार्य अंजाम दिया है.शायद नोटबंदी का मुख्य लक्ष्य विपक्ष को पंगु बनाना ही था क्योंकि प्रधानमंत्री इस बात से अनजान नहीं होंगे कि नकदी का योगदान कुल काले धन की मात्रा में ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक नहीं है,लिहाजा नोटबंदी के जरिये काले धन और भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं किया जा सकता.हां ,इसके जरिये यह सन्देश जरुर दिया जा सकता था कि भले ही वह विदेशों से काला धन लाने में पूरी तरह विफल रहे ,किन्तु काले धन के खिलाफ कठोर हैं.हालांकि जिस तरह मोदी सरकार काला धन रखने वालों को आयकर कानून संशोधन विधेयक -2016 के जरिये आधा देकर काला धन सफ़ेद करने का अवसर मुहैया कराई है,उससे उसकी काला धन विरोधी छवि को काफी आघात लगा है.शायद इसीलिए उनके समर्थक काले धन के खात्मे के बजाय कैश्लेश लेस इकॉनमी का गुणगान करने लगे हैं. किन्तु एक दिसंबर से देश के संगठित व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोग वेतन लेने के लिए भटकते रहने के बावजूद जिस तरह सोत्साह नोटबंदी का समर्थन करते दिख रहे हैं ,उससे तय है कि प्रधानमंत्री मोदी राजग के सहयोगियों तथा संघ के तीन दर्जन संगठनों और मीडिया के जरिये 2017 के चुनाव में नोटबंदी को विपक्ष के खिलाफ सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में सफल हो जायेंगे.
हाल ही में एक विद्वान ने लिखा है-'भारतीय राजनीति की एक विशेषता यह बनती जा रही है कि जब परिस्थितियां सत्ताधारी दल के प्रतिकूल जाने लगे तो एक विवादास्पद निर्णय लेकर विमर्श की पूरी धारा को एक ही दिशा में प्रवाहित कर दो.'सत्ता में आने के पूर्व विदेशों से कालाधन ला कर प्रत्येक के खाते में 15-15 लाख जमा कराने तथा हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने जैसे भारी भरकम वादों को पूरा करने में बुरी तरह व्यर्थ प्रधानमंत्री के लिए विमर्श को उस काले धन ,जो नकदी के रूप में कुल काले धन का सिर्फ 5-6 %प्रतिशत है एवं कई विद्वानों के मुताबिक जिस पर वर्तमान सरकार का एक्शन मक्खी पर तोप चलाने जैसा है,पर केन्द्रित करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था.उन्हें इस बात का भलीभांति इल्म था कालेधन का मुद्दा ऐसा है जिस पर अवाम का भावनात्मक दोहन बड़ी आसानी से किया जा सकता है.इस कारण ही जन लोकपाल के जरिये कभी काला धन और भ्रष्टाचार के खात्मे का सब्ज बाग़ दिखाकर अन्ना-केजरी जैसे साधारण लोग सुपर हीरो बन गये थे .शायद उनकी सुपर छवि को दृष्टिगत रखकर ही मोदी ने अपनी सारी विफलता को ढकने के लिए विमर्श की पूरी धारा को काले धन पर केन्द्रित कर दिया है और पूरा विपक्ष इसके भंवर में फँस गया है.
सारी स्थिति देखते हुए यह बात जोर गले से कही जा सकती है मोदी ने नोटबंदी के जरिये यूपी चुनाव के लिए काले धन की पिच तैयार कर दी है और इस पर खेलने पर विपक्ष की स्थिति कोहली सेना के सामने टॉस हारी विदेशी टीमों जैसी होना तय है.ऐसे में आर्थिक रूप से लुंज-पुंज हो चुका विपक्ष यदि भारी पॉलिटिकल माइलेज ले चुके मोदी को मात देना चाहता है तो उसे मौजूदा विमर्श के भंवर से निकलना होगा.इसके लिए खुद मंडल के दिनों की भाजपा से प्रेरणा लेने से श्रेयष्कर कुछ हो ही नहीं सकता.
स्मरण रहे 7 अगस्त,1990 को जब मंडल रिपोर्ट के जरिये पिछड़ों को आरक्षण मिला तथा वर्ण-व्यवस्था के वंचित(दलित,आदिवासी ,पिछड़े और उनसे धर्मान्तरित ) हिन्दू धर्म द्वारा खड़ी की गयी घृणा और शत्रुता की प्राचीर तोड़कर भ्रातृ भाव लिए एक दूसरे के निकट आने लगे,तब भाजपाइ अडवाणी ने यह कह कर राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया कि मंडल से समाज टूट रहा है.उसके बाद सारा विमर्श राम मंदिर पर केन्द्रित होने के साथ भाजपा के सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त हो गया .आज विपक्ष यदि एक बड़े तानाशाह के रूप में उभर रहे मोदी को मात देना चाहता है तो राम जन्मभूमि आन्दोलन से प्रेरणा लेते उसे विमर्श को सामाजिक न्याय की राजनीति पर केन्द्रित करने का सफल उपक्रम चलाना होगा.इसके लिए आर्थिक,राजनैतिक,न्यायिक,शैक्षिक,धार्मिक इत्यादि समस्त क्षेत्रों के अवसरों के बंटवारे में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का मुद्दा खड़ा करना शायद बेहतर होगा.
किन्तु तमाम सर्वेक्षणों और उपचुनाव परिणामों से विपक्ष अप्रभावित नजर आया.उसे आज भी लग रहा है कि नोटबंदी के बाद जनता को जो तकलीफ उठानी पड़ी है उसकी कीमत मोदी को आने वाले चुनावों में अदा करनी पड़ेगी,इसलिए वह नोटबंदी के खिलाफ विरोध की नई-नई मंजिलें तय करते जा रहा है.लेकिन वह समझ नहीं पा रहा है कि ऐसा करने के क्रम में उसकी स्थिति उस तत्कालीन विपक्ष जैसी होती जा रही है जिसने 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे का विरोध किया था.
वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी ने जो नोटबंदी का फैसला लिया है भारत में उसकी तुलना सिर्फ इंदिरा गाँधी के 1969 के फैसले से ही हो सकती है.किन्तु 1969 और 2016 के साहसिक फैसलों में काफी साम्यता होने के बावजूद दो बड़े फर्क हैं.1969 में इंदिरा गाँधी ने अपनी छवि एक प्रगतिशील प्रधानमंत्री रूप स्थापित करने के लिए जो कठोर फैसले लिए उससे अवाम का जीवन आज जैसा नरक नहीं बना था,इसलिए उन्हें जनता के बीच रोने की नौबत नहीं आई थी. दूसरा बड़ा फर्क यह था कि बैंकों का राष्ट्रीकरण और प्रिवीपर्स का खात्मा सचमुच में भारी जोखिम भरा फैसला था .ऐसा करके इंदिरा गांधी ने राजे-महाराजे और धन्ना सेठों को सीधी चुनौती दी थी,जिसका राष्ट्र को चिरस्थाई लाभ मिला.इस लिहाज से नोटबंदी का फैसला कहीं से भी साहसिक और जोखिम भरा नहीं नजर आ रहा.इसमें जो भी तकलीफ हुई है साधारण और मध्यम वर्ग की जनता को हुई है,काले धन के लिए जो सचमुच में जिम्मेवार हैं,उन्हें कहीं से भी चुनौती मिली ही नहीं है.
नोटबंदी के फैसले को खुद मोदी द्वारा मना किये जाने के बावजूद उनके दल के साथ कुछ नोटबंदी समर्थक बुद्धिजीवि भी अतिउत्साह में इसे काले धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बताये जा है.किन्तु वास्तव में यह काले धन की आड़ में विपक्षी दलों पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है .इसके जरिये निर्ममता से विपक्षी दलों को आर्थिक रूप से पंगु बनाने का कार्य अंजाम दिया है.शायद नोटबंदी का मुख्य लक्ष्य विपक्ष को पंगु बनाना ही था क्योंकि प्रधानमंत्री इस बात से अनजान नहीं होंगे कि नकदी का योगदान कुल काले धन की मात्रा में ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक नहीं है,लिहाजा नोटबंदी के जरिये काले धन और भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं किया जा सकता.हां ,इसके जरिये यह सन्देश जरुर दिया जा सकता था कि भले ही वह विदेशों से काला धन लाने में पूरी तरह विफल रहे ,किन्तु काले धन के खिलाफ कठोर हैं.हालांकि जिस तरह मोदी सरकार काला धन रखने वालों को आयकर कानून संशोधन विधेयक -2016 के जरिये आधा देकर काला धन सफ़ेद करने का अवसर मुहैया कराई है,उससे उसकी काला धन विरोधी छवि को काफी आघात लगा है.शायद इसीलिए उनके समर्थक काले धन के खात्मे के बजाय कैश्लेश लेस इकॉनमी का गुणगान करने लगे हैं. किन्तु एक दिसंबर से देश के संगठित व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोग वेतन लेने के लिए भटकते रहने के बावजूद जिस तरह सोत्साह नोटबंदी का समर्थन करते दिख रहे हैं ,उससे तय है कि प्रधानमंत्री मोदी राजग के सहयोगियों तथा संघ के तीन दर्जन संगठनों और मीडिया के जरिये 2017 के चुनाव में नोटबंदी को विपक्ष के खिलाफ सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में सफल हो जायेंगे.
हाल ही में एक विद्वान ने लिखा है-'भारतीय राजनीति की एक विशेषता यह बनती जा रही है कि जब परिस्थितियां सत्ताधारी दल के प्रतिकूल जाने लगे तो एक विवादास्पद निर्णय लेकर विमर्श की पूरी धारा को एक ही दिशा में प्रवाहित कर दो.'सत्ता में आने के पूर्व विदेशों से कालाधन ला कर प्रत्येक के खाते में 15-15 लाख जमा कराने तथा हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने जैसे भारी भरकम वादों को पूरा करने में बुरी तरह व्यर्थ प्रधानमंत्री के लिए विमर्श को उस काले धन ,जो नकदी के रूप में कुल काले धन का सिर्फ 5-6 %प्रतिशत है एवं कई विद्वानों के मुताबिक जिस पर वर्तमान सरकार का एक्शन मक्खी पर तोप चलाने जैसा है,पर केन्द्रित करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था.उन्हें इस बात का भलीभांति इल्म था कालेधन का मुद्दा ऐसा है जिस पर अवाम का भावनात्मक दोहन बड़ी आसानी से किया जा सकता है.इस कारण ही जन लोकपाल के जरिये कभी काला धन और भ्रष्टाचार के खात्मे का सब्ज बाग़ दिखाकर अन्ना-केजरी जैसे साधारण लोग सुपर हीरो बन गये थे .शायद उनकी सुपर छवि को दृष्टिगत रखकर ही मोदी ने अपनी सारी विफलता को ढकने के लिए विमर्श की पूरी धारा को काले धन पर केन्द्रित कर दिया है और पूरा विपक्ष इसके भंवर में फँस गया है.
सारी स्थिति देखते हुए यह बात जोर गले से कही जा सकती है मोदी ने नोटबंदी के जरिये यूपी चुनाव के लिए काले धन की पिच तैयार कर दी है और इस पर खेलने पर विपक्ष की स्थिति कोहली सेना के सामने टॉस हारी विदेशी टीमों जैसी होना तय है.ऐसे में आर्थिक रूप से लुंज-पुंज हो चुका विपक्ष यदि भारी पॉलिटिकल माइलेज ले चुके मोदी को मात देना चाहता है तो उसे मौजूदा विमर्श के भंवर से निकलना होगा.इसके लिए खुद मंडल के दिनों की भाजपा से प्रेरणा लेने से श्रेयष्कर कुछ हो ही नहीं सकता.
स्मरण रहे 7 अगस्त,1990 को जब मंडल रिपोर्ट के जरिये पिछड़ों को आरक्षण मिला तथा वर्ण-व्यवस्था के वंचित(दलित,आदिवासी ,पिछड़े और उनसे धर्मान्तरित ) हिन्दू धर्म द्वारा खड़ी की गयी घृणा और शत्रुता की प्राचीर तोड़कर भ्रातृ भाव लिए एक दूसरे के निकट आने लगे,तब भाजपाइ अडवाणी ने यह कह कर राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया कि मंडल से समाज टूट रहा है.उसके बाद सारा विमर्श राम मंदिर पर केन्द्रित होने के साथ भाजपा के सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त हो गया .आज विपक्ष यदि एक बड़े तानाशाह के रूप में उभर रहे मोदी को मात देना चाहता है तो राम जन्मभूमि आन्दोलन से प्रेरणा लेते उसे विमर्श को सामाजिक न्याय की राजनीति पर केन्द्रित करने का सफल उपक्रम चलाना होगा.इसके लिए आर्थिक,राजनैतिक,न्यायिक,शैक्षिक,धार्मिक इत्यादि समस्त क्षेत्रों के अवसरों के बंटवारे में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का मुद्दा खड़ा करना शायद बेहतर होगा.
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प्रधानमंत्री जी, ये सब लोग जो काम धंधे छोड़ कर लम्बी लम्बी लाइनों में लगे हैं, चुप चाप सब सह रहे हैं, वो इसलिए कर रहे हैं क्यूँकि उन्हें भारत के प्रधानमंत्री के नाम की संस्था पर विश्वास है। लेकिन आप क्या कर रहे हैं। आप उनके विश्वास से खेल रहे हैं । आप पूरे देश को लाइन में खड़ा कर के music कॉन्सर्ट में चुटकुले सुना रहे हैं, रैलियॉ कर रहे हैं। आप लगातार कह रहे हैं, आप के मंत्री कह रहे हैं कि कैश नहीं, कार्ड से पेमेंट करो। जाओ और कार्ड से ख़रीदारी करो । लेकिन कार्ड स्वीकार करने की सुविधा किसके पास है । पूरे देश में छः करोड़ छोटे दुकानदार हैं, रहड़ी वाले हैं, पटरी वाले हैं, घर घर जा कर दूध और सब्ज़ी बेचने वाले हैं। वो तो कार्ड नहीं ले सकते। आपने एक ही झटके में पूरे देश को मजबूर कर दिया है कि समान बड़ी बड़ी दुकानों से, शोरूम से, शॉपिंग माल से ही सब ख़रीदारी हो । माना अडानी, अम्बानी, रामदेव, बिग बाज़ार जैसे बड़े बड़े पूँजीपति आप के सगे हैं, आपका दिल उन्हीं के लिए धड़कता है, लेकिन ये अधिकार आप को किसने दिया कि ग़रीब दुकानदारों के पेट पर लात मार कर उनके ग्राहक अमीरों को सौंप दें । भारत का प्रधानमंत्री पूँजीपतियों का एजेंट नहीं हो सकता ।
भारत गाँवों में बसता है, शहरी बस्तियों में रहता है। व्यापार करता है । भारत का आम आदमी मेहनत से कमाता है और इज़्ज़त से जीना चाहता है। उसके पास तो काला धन नहीं था । उसके पास अपनी मेहनत का पैसा है । कैश में था क्यूँकि कैश में खर्च करना न तो ग़ैर क़ानूनी था, न ही मना था। लेकिन आप ने एक झटके में उन सबको बेईमान मान लिया । आज सब भाग भाग कर तीस प्रतिशत से पचास प्रतिशत रेट पर अपने पुराने नोट बदल रहे हैं। खुले आम बदल रहे हैं । हर आदमी की कमाई का तीस से पचास प्रतिशत पैसा काले धन में बदल रहा है । इस नए काले धन को अब सफ़ेद बनाने का रास्ता भी दे दिया है, लेकिन आप लोगों को समझा रहे हैं कि काला धन ख़त्म हो रहा है! ख़त्म नहीं हो रहा है , आपने आम आदमी को भ्रष्टाचार करने पर मजबूर कर दिया है । और इस पर कोई रोक भी आप नहीं लगा रहे हैं । आख़िर क्यूँ? क्या आप की मंशा सिर्फ़ हंगामा खड़ा करने की है, हालात बदलने की नहीं है?
और ये पैसा जमा कहाँ हो रहा है? जो बारह या तेरह लाख करोड़ रुपया बैंकों में जमा होगा, बैंक उस पर ब्याज कैसे देंगे? ज़ाहिर है कि बैंक रातों रात तो इस पैसे को निवेश नहीं कर देंगे । नए प्रोजेक्ट बनने में, पारित होने में सालों नहीं तो महीनों का वक़्त तो लगेगा। तब तक बैंक इस पैसे से कोई कमाई नहीं कर पाएँगे। क्या बैंकों की आर्थिक हालत और क्षमता बचत के इस भारी भरकम बोझ को सहने में समर्थ होगी? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि बैंकों को बचाने के लिए सरकार को आदेश देना पड़े कि इस बचत पर ब्याज नहीं मिलेगा? क्या सरकार देश को आश्वासन देगी कि चाहे जो हो, लोगों की इस जमा पूँजी पर ब्याज पर कोई ख़तरा नहीं है ?
प्रधानमंत्री जी ख़ुद कह रहे हैं कि इस पैसे से बैंक नए प्रोजेक्ट फ़ाइनैन्स कर सकेंगे । इस पर कोई मतभेद हो ही नहीं सकता । शक इस नीति पर नहीं है, नीयत पर है । क्या देश को बताया जाएगा कि इस नयी जमापूँजी से अडानी, अम्बानी के प्रोजेक्टों को कितना मिलेगा । पाँच सौ करोड़ होगा, हज़ार करोड़ होगा, दस हज़ार करोड़ होगा या एक लाख करोड़ होगा । देश को ये जानने का हक़ है कि आपके सगे साथी पूँजीपतियों को बैंक से मिलने वाले धन की अधिकतम सीमा क्या होगी, क्यूँकि ये पैसा देश के लोगों की पाई पाई से जुड़ कर जमा हुआ है । ये सरकार का पैसा नहीं है, आम जनता का पैसा है । अभी पिछले हफ़्ते ही आपने स्टेट बैंक औफ इंडिया से आपने अडानी की कम्पनी को साढ़े छः हज़ार रुपए से ज़्यादा का क़र्ज़ दिया है । जनता को ये बताना चाहिए कि जब ये पैसा बैंक उन्हें और दूसरे बड़े बड़े पूँजीपतियों को देंगे तो ये डूबेगा नहीं, तो ये NPA नहीं होगा या NPA बना कर माफ़ नहीं होगा । बैंक अगर डूबते हैं तो लोगों की पीढ़ियों की कमाई डूब जाती है। दुनिया ने आठ साल पहले देखा था कि कैसे अमरीका, यूरोप में लोग रातों रात ग़रीब हो गए थे, कैसे उनकी प्रॉपर्टी, उनकी ज़मीन जायदाद कौड़ियों के भाव रह गयी थी । इसलिए सरकार की ये ज़िम्मेदारी है कि देश को गारंटी दे कि जो पैसा उनसे लोगों से लिया है, नोटबंदी के नाम पर जमा किया है, वो सुरक्षित है, कि जब वो निवेश होगा तो डूबेगा नहीं, NPA नहीं होगा और मंदी की चपेट से बचा रहेगा ।
और मंदी का ख़तरा दिखायी दे रहा है । आज पूरे देश में आपने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं, कि तमाम ख़रीदारी ठप्प है । लोगों को बैंकों से जो रुपए मिल भी रहे हैं, लोग उन्हें ख़र्च नहीं रहे हैं, बचा कर रख रहे हैं। कोई भी ग़ैर ज़रूरी चीज़ें नहीं ख़रीद रहा है । बिक्री बंद है । समान बिके का नहीं तो नया समान बनेगा कैसे। और नया सामान बनेगा नहीं तो मज़दूरों की, कारीगरों की, ट्रांसपोर्टरों की, व्यवसायियों की ज़िंदगी रुक जाएगी। आज पूरे देश में उत्पादन चैन बंद होने का ख़तरा है । डेली वेज वाले मज़दूर और कारीगर ख़ाली बैठे हैं । होल्सेलर और रीटेलर किसी के पास काम नहीं है । और एक बार अगर उत्पादन चेन रुक जाती है, तो अर्थव्यवस्था पर उसका दूर तक असर आता है । आपके मंत्री कहते हैं कि ये मंदी सिर्फ़ तीन महीनों की है, अर्थशास्त्री कह रहे है कि ऐसी अव्यवस्था कभी देखने को ही नहीं मिली और असर सालों तक रह सकता है ।
यही नहीं, आज किसान ख़ाली बैठा है। उपज है तो बिक्री नहीं है। खेती तैयार है तो कटाई के लिए, ट्रान्स्पोर्ट के लिए पैसे नहीं हैं । ज़मीन बुवाई के लिए तैयार है तो बीज और खाद का कहाँ से ख़रीदें? सत्तर साल लगे इस देश को पूरी दुनिया में खेती में टाप पर पहुँचने में और आपने एक हो झटके में सब रोक दिया? क्या कोई रीसर्च की थी, क्या कोई आकलन किया था कि खेती पर और किसानों पर अभी क्या असर होगा और लम्बे समय में क्या असर होगा। अगर किया है तो वो रिपोर्ट देश के सामने रखें । इस देश में सूचना का अधिकार है । लोगों को बताइए कि आपने क्या नोटबंदी के असर का क्या आकलन किया था । और अगर नहीं किया था, तक क्या बिना सोचे समझे ही देश भर की किसानों को, मज़दूरों को, व्यापारियों को एक अनजाने रास्ते पर धकेल दिया है। ऐसे रास्ते पर, जो कहाँ ले जाए उसका आपको भी पता नहीं है, बस क़िस्मत के भरोसे चल दिए। आपके मन में ख़याल आया, आपको अच्छा लगा और पूरा देश उसमें झोंक दिया।
पूरे देश में अफ़रातफ़री मची है । नोट छपे नहीं हैं। छपे हैं तो बैंकों तक, Atm तक पहुँच नहीं रहे हैं। नोटों का साइज़ बदल दिया और ATM में उसकी व्यवस्था तक नहीं की । पूरे देश में पाँच सौ ग्रामीण ब्लाक मैं किसी बैंक की कोई ब्रांच ही नहीं है । पूरे देश में ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ़ दो हज़ार के क़रीब ATM हैं। जिन सहकारी बैंकों या फ़ाइनैन्स कम्पनियों की पहुँच गाँवों में है, उनपर आपने बैन लगा दिया है। उनमें लोगों का जो पैसा है, लोग ख़ुद ही नहीं निकल सकते। हर दिन कई कई बार वित्त मंत्रालय के निर्देश बदल बदल कर आ रहे हैं। कोई तैयारी नहीं है। कोई प्लान नहीं है। जब जिस घड़ी जो ख़याल किसी ऑफ़िसर के मन में आ रहा है, वही एक नया प्रयोग बन रहा है, लोगों के साथ, उनकी रोज़ी रोटी के साथ, उनके जीवन के साथ बदल बदल कर इक्स्पेरिमेंट हो रहे हैं। क्या देश ऐसे चलते हैं? क्या इसी को व्यवस्था कहते हैं? क्या ये अराजकता नहीं है? देश ने आपको देश चलाने के लिए प्रधानमंत्री चुना था, अराजकता फैलाने के लिए नहीं। लोगों के विश्वास की क़ीमत उनकी बर्बादी नहीं होनी चाहिए । देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ आप कार्यवाही करते हैं तो पूरा देश साथ देता है, लेकिन यहाँ तो दुश्मनों के साथ साथ हर देशवासी को आपने लाइनहाज़िर कर दिया है। हर वो मेहनतकश आदमी, ईमानदार आदमी, जिसने आपको सिर आँखों पर बैठाया था आज पूछ रहा है:
वो तो रक़ीब थे, माना मगर
हम क्यूँ लुटे, जो तेरे अज़ीज़ थे?
छोटे छोटे व्यवसायी भाग भाग कर Paytm में रेजिस्ट्रेशन कर रही है । Paytm जो निजी कम्पनी है, जिसमें चालीस प्रतिशत चीन की कम्पनी अलीबाबा की हिस्सेदारी है । Paytm जिसने नोटबंदी की घोषणा होते ही प्रधानमंत्री की तस्वीर की साथ विज्ञापन छापा था। उस Paytm के क़ब्ज़े में देश के व्यवसाय का कितना हिस्सा जाएगा । और अगर इस क़ब्ज़े के चलते भविष्य में Paytm अपनी सेवाओं के बदले कोई फ़ीस लेने लगे, एक से पाँच प्रतिशत चार्ज लगाने लगे, तो क्या उसे देना सभी लोगों की मज़बूरी नहीं हो जाएगी? चीन के निवेश वाली कम्पनी के हाथों देश की आर्थिक आज़ादी गिरवी रखने की ये कौन से योजना है ? चीन के सवाल पर देशभक्ति के टेस्ट की हुंकार भरने वाले इस पर ख़ामोश क्यूँ है?
आप कह रहे है कि cashless economy बनानी है । यही वक़्त की माँग है । इससे इंकार किसको है । पिछले दस पंद्रह साल में इस दिशा में कितना कुछ हुआ भी है। बैंक, सरकारी विभाग, प्राइवेट कम्पनीयॉ, स्कूल, शोरूम, टैक्स सिस्टम कितना कुछ ऑनलाइन हुआ है, होता जा रहा था। इतना बड़ा मुल्क है, तकनीक भी लगातार विकसित हो रही है, वक़्त लगता है। लेकिन आप एक झटके में करना चाहते हैं। करिए, ज़रूर करिए। लेकिन यह भी बताइए की कार्ड चलाने वाली मशीन POS मशीन कम से कम छः करोड़ दुकानदारों को चाहिए। कितना वक़्त लगेगा इसमें। कब तक छः करोड़ मशीन बन कर लोगों तक पहुँचेंगी । इतने कनेक्शन के लिए बैंकों की क्या तैयारी है। उनका इन्फ़्रस्ट्रक्चर क्या इस लोड के लिए बिलकुल रेडी है? देश को बताइए कि अगले पचास दिन में सब को आप ये दे पाएँगे? अगर नहीं तो बिना तैयारी के क्यूँ यह अराजकता फैलायी?
बताइए। योजना बताइए, तैयारी बताइए, बताइए कि इकॉनमी कहाँ पहुँचेगी कुछ महीनों में, लोगों का क्या हाल होगा आने वाले समय में। GDP में कितनी गिरावट सरकार को मंज़ूर होगी, आधा पर्सेंट , एक पर्सेंट, दो पर्सेंट या और ज़्यादा? बताइए कि आपके इस बिना तैयारी के फ़ैसले की कितनी क़ीमत आपको मंज़ूर होगी? कितने लोगों की मौत के बाद आप विचलित होंगे कि शायद कुछ ग़लत निर्णय हो गया? बताइए, क्यूँकि देश सिर्फ़ बातों से नहीं चलता। बातों से चुनाव जीते जा सकते हैं, बातों से लोगों को जोश दिलाया जा सकता है, बातों से उनके भड़काया भी जा सकता है, लेकिन देश योजना से चलता है। देश सिर्फ़ ख़याली विचार से नहीं, ठोस प्लानिंग से चलता है। देश का प्रशासन किसी मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की प्रयोगशाला नहीं है ! देश पर राज करना है तो गम्भीरता से करिए, पढ़े लिखे लोगों को साथ ले कर करिए, अपनी और अपनी मंडली की खामख़याली की क़ीमत देशवासियों पर थोप कर ये मत समझाइए कि बर्बादी का ये रास्ता एक सुनहरी डगर है । सुनिए कि लोग कहने लगे है:
हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ,और सितम क्या है।
और ये पैसा जमा कहाँ हो रहा है? जो बारह या तेरह लाख करोड़ रुपया बैंकों में जमा होगा, बैंक उस पर ब्याज कैसे देंगे? ज़ाहिर है कि बैंक रातों रात तो इस पैसे को निवेश नहीं कर देंगे । नए प्रोजेक्ट बनने में, पारित होने में सालों नहीं तो महीनों का वक़्त तो लगेगा। तब तक बैंक इस पैसे से कोई कमाई नहीं कर पाएँगे। क्या बैंकों की आर्थिक हालत और क्षमता बचत के इस भारी भरकम बोझ को सहने में समर्थ होगी? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि बैंकों को बचाने के लिए सरकार को आदेश देना पड़े कि इस बचत पर ब्याज नहीं मिलेगा? क्या सरकार देश को आश्वासन देगी कि चाहे जो हो, लोगों की इस जमा पूँजी पर ब्याज पर कोई ख़तरा नहीं है ?
प्रधानमंत्री जी ख़ुद कह रहे हैं कि इस पैसे से बैंक नए प्रोजेक्ट फ़ाइनैन्स कर सकेंगे । इस पर कोई मतभेद हो ही नहीं सकता । शक इस नीति पर नहीं है, नीयत पर है । क्या देश को बताया जाएगा कि इस नयी जमापूँजी से अडानी, अम्बानी के प्रोजेक्टों को कितना मिलेगा । पाँच सौ करोड़ होगा, हज़ार करोड़ होगा, दस हज़ार करोड़ होगा या एक लाख करोड़ होगा । देश को ये जानने का हक़ है कि आपके सगे साथी पूँजीपतियों को बैंक से मिलने वाले धन की अधिकतम सीमा क्या होगी, क्यूँकि ये पैसा देश के लोगों की पाई पाई से जुड़ कर जमा हुआ है । ये सरकार का पैसा नहीं है, आम जनता का पैसा है । अभी पिछले हफ़्ते ही आपने स्टेट बैंक औफ इंडिया से आपने अडानी की कम्पनी को साढ़े छः हज़ार रुपए से ज़्यादा का क़र्ज़ दिया है । जनता को ये बताना चाहिए कि जब ये पैसा बैंक उन्हें और दूसरे बड़े बड़े पूँजीपतियों को देंगे तो ये डूबेगा नहीं, तो ये NPA नहीं होगा या NPA बना कर माफ़ नहीं होगा । बैंक अगर डूबते हैं तो लोगों की पीढ़ियों की कमाई डूब जाती है। दुनिया ने आठ साल पहले देखा था कि कैसे अमरीका, यूरोप में लोग रातों रात ग़रीब हो गए थे, कैसे उनकी प्रॉपर्टी, उनकी ज़मीन जायदाद कौड़ियों के भाव रह गयी थी । इसलिए सरकार की ये ज़िम्मेदारी है कि देश को गारंटी दे कि जो पैसा उनसे लोगों से लिया है, नोटबंदी के नाम पर जमा किया है, वो सुरक्षित है, कि जब वो निवेश होगा तो डूबेगा नहीं, NPA नहीं होगा और मंदी की चपेट से बचा रहेगा ।
और मंदी का ख़तरा दिखायी दे रहा है । आज पूरे देश में आपने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं, कि तमाम ख़रीदारी ठप्प है । लोगों को बैंकों से जो रुपए मिल भी रहे हैं, लोग उन्हें ख़र्च नहीं रहे हैं, बचा कर रख रहे हैं। कोई भी ग़ैर ज़रूरी चीज़ें नहीं ख़रीद रहा है । बिक्री बंद है । समान बिके का नहीं तो नया समान बनेगा कैसे। और नया सामान बनेगा नहीं तो मज़दूरों की, कारीगरों की, ट्रांसपोर्टरों की, व्यवसायियों की ज़िंदगी रुक जाएगी। आज पूरे देश में उत्पादन चैन बंद होने का ख़तरा है । डेली वेज वाले मज़दूर और कारीगर ख़ाली बैठे हैं । होल्सेलर और रीटेलर किसी के पास काम नहीं है । और एक बार अगर उत्पादन चेन रुक जाती है, तो अर्थव्यवस्था पर उसका दूर तक असर आता है । आपके मंत्री कहते हैं कि ये मंदी सिर्फ़ तीन महीनों की है, अर्थशास्त्री कह रहे है कि ऐसी अव्यवस्था कभी देखने को ही नहीं मिली और असर सालों तक रह सकता है ।
यही नहीं, आज किसान ख़ाली बैठा है। उपज है तो बिक्री नहीं है। खेती तैयार है तो कटाई के लिए, ट्रान्स्पोर्ट के लिए पैसे नहीं हैं । ज़मीन बुवाई के लिए तैयार है तो बीज और खाद का कहाँ से ख़रीदें? सत्तर साल लगे इस देश को पूरी दुनिया में खेती में टाप पर पहुँचने में और आपने एक हो झटके में सब रोक दिया? क्या कोई रीसर्च की थी, क्या कोई आकलन किया था कि खेती पर और किसानों पर अभी क्या असर होगा और लम्बे समय में क्या असर होगा। अगर किया है तो वो रिपोर्ट देश के सामने रखें । इस देश में सूचना का अधिकार है । लोगों को बताइए कि आपने क्या नोटबंदी के असर का क्या आकलन किया था । और अगर नहीं किया था, तक क्या बिना सोचे समझे ही देश भर की किसानों को, मज़दूरों को, व्यापारियों को एक अनजाने रास्ते पर धकेल दिया है। ऐसे रास्ते पर, जो कहाँ ले जाए उसका आपको भी पता नहीं है, बस क़िस्मत के भरोसे चल दिए। आपके मन में ख़याल आया, आपको अच्छा लगा और पूरा देश उसमें झोंक दिया।
पूरे देश में अफ़रातफ़री मची है । नोट छपे नहीं हैं। छपे हैं तो बैंकों तक, Atm तक पहुँच नहीं रहे हैं। नोटों का साइज़ बदल दिया और ATM में उसकी व्यवस्था तक नहीं की । पूरे देश में पाँच सौ ग्रामीण ब्लाक मैं किसी बैंक की कोई ब्रांच ही नहीं है । पूरे देश में ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ़ दो हज़ार के क़रीब ATM हैं। जिन सहकारी बैंकों या फ़ाइनैन्स कम्पनियों की पहुँच गाँवों में है, उनपर आपने बैन लगा दिया है। उनमें लोगों का जो पैसा है, लोग ख़ुद ही नहीं निकल सकते। हर दिन कई कई बार वित्त मंत्रालय के निर्देश बदल बदल कर आ रहे हैं। कोई तैयारी नहीं है। कोई प्लान नहीं है। जब जिस घड़ी जो ख़याल किसी ऑफ़िसर के मन में आ रहा है, वही एक नया प्रयोग बन रहा है, लोगों के साथ, उनकी रोज़ी रोटी के साथ, उनके जीवन के साथ बदल बदल कर इक्स्पेरिमेंट हो रहे हैं। क्या देश ऐसे चलते हैं? क्या इसी को व्यवस्था कहते हैं? क्या ये अराजकता नहीं है? देश ने आपको देश चलाने के लिए प्रधानमंत्री चुना था, अराजकता फैलाने के लिए नहीं। लोगों के विश्वास की क़ीमत उनकी बर्बादी नहीं होनी चाहिए । देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ आप कार्यवाही करते हैं तो पूरा देश साथ देता है, लेकिन यहाँ तो दुश्मनों के साथ साथ हर देशवासी को आपने लाइनहाज़िर कर दिया है। हर वो मेहनतकश आदमी, ईमानदार आदमी, जिसने आपको सिर आँखों पर बैठाया था आज पूछ रहा है:
वो तो रक़ीब थे, माना मगर
हम क्यूँ लुटे, जो तेरे अज़ीज़ थे?
छोटे छोटे व्यवसायी भाग भाग कर Paytm में रेजिस्ट्रेशन कर रही है । Paytm जो निजी कम्पनी है, जिसमें चालीस प्रतिशत चीन की कम्पनी अलीबाबा की हिस्सेदारी है । Paytm जिसने नोटबंदी की घोषणा होते ही प्रधानमंत्री की तस्वीर की साथ विज्ञापन छापा था। उस Paytm के क़ब्ज़े में देश के व्यवसाय का कितना हिस्सा जाएगा । और अगर इस क़ब्ज़े के चलते भविष्य में Paytm अपनी सेवाओं के बदले कोई फ़ीस लेने लगे, एक से पाँच प्रतिशत चार्ज लगाने लगे, तो क्या उसे देना सभी लोगों की मज़बूरी नहीं हो जाएगी? चीन के निवेश वाली कम्पनी के हाथों देश की आर्थिक आज़ादी गिरवी रखने की ये कौन से योजना है ? चीन के सवाल पर देशभक्ति के टेस्ट की हुंकार भरने वाले इस पर ख़ामोश क्यूँ है?
आप कह रहे है कि cashless economy बनानी है । यही वक़्त की माँग है । इससे इंकार किसको है । पिछले दस पंद्रह साल में इस दिशा में कितना कुछ हुआ भी है। बैंक, सरकारी विभाग, प्राइवेट कम्पनीयॉ, स्कूल, शोरूम, टैक्स सिस्टम कितना कुछ ऑनलाइन हुआ है, होता जा रहा था। इतना बड़ा मुल्क है, तकनीक भी लगातार विकसित हो रही है, वक़्त लगता है। लेकिन आप एक झटके में करना चाहते हैं। करिए, ज़रूर करिए। लेकिन यह भी बताइए की कार्ड चलाने वाली मशीन POS मशीन कम से कम छः करोड़ दुकानदारों को चाहिए। कितना वक़्त लगेगा इसमें। कब तक छः करोड़ मशीन बन कर लोगों तक पहुँचेंगी । इतने कनेक्शन के लिए बैंकों की क्या तैयारी है। उनका इन्फ़्रस्ट्रक्चर क्या इस लोड के लिए बिलकुल रेडी है? देश को बताइए कि अगले पचास दिन में सब को आप ये दे पाएँगे? अगर नहीं तो बिना तैयारी के क्यूँ यह अराजकता फैलायी?
बताइए। योजना बताइए, तैयारी बताइए, बताइए कि इकॉनमी कहाँ पहुँचेगी कुछ महीनों में, लोगों का क्या हाल होगा आने वाले समय में। GDP में कितनी गिरावट सरकार को मंज़ूर होगी, आधा पर्सेंट , एक पर्सेंट, दो पर्सेंट या और ज़्यादा? बताइए कि आपके इस बिना तैयारी के फ़ैसले की कितनी क़ीमत आपको मंज़ूर होगी? कितने लोगों की मौत के बाद आप विचलित होंगे कि शायद कुछ ग़लत निर्णय हो गया? बताइए, क्यूँकि देश सिर्फ़ बातों से नहीं चलता। बातों से चुनाव जीते जा सकते हैं, बातों से लोगों को जोश दिलाया जा सकता है, बातों से उनके भड़काया भी जा सकता है, लेकिन देश योजना से चलता है। देश सिर्फ़ ख़याली विचार से नहीं, ठोस प्लानिंग से चलता है। देश का प्रशासन किसी मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की प्रयोगशाला नहीं है ! देश पर राज करना है तो गम्भीरता से करिए, पढ़े लिखे लोगों को साथ ले कर करिए, अपनी और अपनी मंडली की खामख़याली की क़ीमत देशवासियों पर थोप कर ये मत समझाइए कि बर्बादी का ये रास्ता एक सुनहरी डगर है । सुनिए कि लोग कहने लगे है:
हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ,और सितम क्या है।
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