दौसा सम्मेलन के उपरांत काण्डों में स्वामी जी को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । स्वामी आत्माराम जी ने इस महासम्मेलन की समाप्ति पटरी मंगलानन्द जी को जो महाराज ज्ञानस्परूप जी के परम शिष्यों में से एक थे एवं उस समय हैदराबाद (सिंध) में पढ़ा करते थे, को अपने उपचार के लिए रोका । उनके आदेशानुसार श्री मंगलानन्द जी वहां पर उनके साथ रूक गए । जयपुर से ज्येष्ठ मास में दिल्ली में पहुँचे । दिल्ली में महाराज ज्ञानस्परूप जी के शिष्यों ने इनकी बहुत सेवा की एवं इनका इलाज कराया । स्वामी जी का ईलाज आयुर्वेदिक औषधालय तिबिया कालेज में वहां के श्री चन्द्रशेखर शास्त्री नामक योग्य वैद्य द्वारा हुआ लेकिन अन्तत: इन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सका । विपरीत इसके इनके रोग में निरन्तर वृद्धि होती रही । तत्पश्चात् स्वामी आत्माराम जी को अपनी रुगणावस्था में भी जातिय सुधार कार्यों में भाग लेने की इच्छा बनी रहती थी । दिल्ली के स्वामी जी मंगलानन्द जी के साथ जयपुर अजमेर रूकते हुए 'ब्यावर' में पहुँचे । ब्यावर में स्वामी जी श्री सूर्यमल जी मौर्य एंव श्री रामचन्द्र जी पवार आदि महानुभावों के यहां विश्राम किया । वहाँ स्वामी जी की चिकित्सा होने लगी लेकिन कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई । कुछ समय ब्यावर में रूकने के पश्चात् हैदराबाद (सिंध) गये वहां स्वामी जी के आश्रम पर इनकी चिकित्सा होने लगी । वहाँ पर इनकी चिकित्सा एक प्रसिद्ध राजपूत वैद्य से कराई गई । उन्होंने इनका ईलाज किया एवं स्वामी जी को विश्वास दिलाया कि वे शीघ्र ही ठीक हो जायेगें लेकिन एकान्त में श्री मंगलानन्द जी को बताया कि इनका यह संग्रहणी रोग लाइलाज हो गया है । ओर के चार मास में इस नश्वर संसार को छोड़कर जायेंगे । इससे मंगलानन्द जी पर बज्रपात सा हुआ लेकिन फिर भी ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपने हृदय को धैर्य प्रदान किया एवं इस तथ्य को स्वामी जी से छिपाये रखा ।
इसके पश्चात् स्वामी आत्माराम जी पुन: हैदराबाद से जयपुर श्री मंगलानन्द जी के साथ पधारे । इस समय उनके हालात नाजुक दौर से गुजर रहे थे । जयपुर में स्वामी जी श्री लालाराम जलुथिरिया चांदलोल गेट के निवास स्थान पर रूके श्री लालाराम जी ने भी इनकी सेवा करने में भरसक प्रयत्न किया खतरनाक स्थिति में थे । मरणासन अवस्था में जब इन्हे ऐसा विश्वास हो गया कि वे अब इस संसार में केवल थोड़े समय के अतिथि है तो तब स्वामीजी ने अपने निकटतम साथी श्री कॅवरसेन मौर्य को याद किया श्री कॅवरसेन मौर्य पर उनका अत्यधिक प्रेम था एवं इन दौनों ने समाज कार्यो यथा प्रचार एवं काण्ड़ो में कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया था । स्वामी जी को श्री कॅवरसेन जी से अपने अधूरे कार्यो की पूर्ति की आशा थी । स्वामी जी द्वारा श्री कॅवरसेन जी को तार दिया गया । तार पाते श्री कॅवरसेन मौर्य जी ने दिल्ली से प्रस्थान किया एवं जयपुर में पहॅुच कर स्वीमा जी के दर्शन किये । स्वामी जी ने श्री कंवरसेन मौर्य जी को बताया कि वह सम्भवत: इस संसार के थोड़े ही दिनों के ही महमान है एवं सारा कार्य ही अधूरा है । इस प्रकार स्वामीजी समझते थे कि जिस 'लक्ष्य' को प्राप्त करने की प्रतिभा लेकर महाराज स्वामी ज्ञानस्वरुप जी के आशिर्वाद से उस क्षैत्र में पदार्पण किया उसमें सफलता नहीं मिल सकी । इस बात का उन्हे बहुत दू:ख था । वस्तुत: स्वामी आत्मारामजी 'लक्ष्य' अपने जीवन पर के लक्ष्य की प्राप्ति में पूर्ण रूपेण सफल रहे । लेकिन फिर भी उन्होंने वसीयत के रुप में अपने जीवन को तीन अन्तिम अभिलाषा व्यक्त की जिन्हे स्वामीजी अपने जीवन काल में ही पूरा करना चाहते थे लेकिन कर नहीं सके थे । इन्होंने श्री कंवरसेन जी को बताया कि सर्वप्रथम तो रैगर जाति का एक विस्तृत इतिहास लिखा जाना चाहिये, दूसरे जाति के समाचार पत्र का महत्व बताते हुए अभिलाषा प्रकट की कि रैगर जाति का अपना एक समाचार पत्र हो । तीसरे रैगर जाति के उच्च शिक्षा का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए रैगर छात्रावास का निर्माण होना चाहिए । श्री कंवरसेन मौर्य प्रचार मन्त्री अखिल भारतीय रैगर महासभा ने पूर्णतया स्वामी जी को विश्वास दिलाया एवं यथाशक्ति अधूरे कार्य को पूर्ण करने का आश्वासन दिया ।
परन्तु विधाता का विधान कुछ और ही था रैगर जाति का समय प्रयत्न, बहुत से लोगों की सेवा एवं प्रसिद्ध वैद्य डाक्टरों की औषधियॉ बेकार हो गई । वह दिन भी आया जब जाति का वह सितारा जिसने बहुत से लोगों के मन में ज्योति जगाई एवं इन्हें समाज सेवा के लिये प्रेरित किया था । 20 नवम्बर बुधवार प्रात: काल 1946 को उस 'त्याग' मूर्ति के जिसने अपना सारा जीवन अपने 'लक्ष्य' की पूर्ति में लगा दिया प्राण पखेरु अनन्त गगन की ओर उठ गए । रैगर जाति को प्रकाशित करने वाला वह सूर्य अस्त हो गया और हो गया उसके साथ ही रैगर जाति की सामाजिक क्रान्ति का स्वर्णिम अध्याय ।
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