बड़ी अजीब विडम्बना है कि समाज में लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और समाज में व्याप्त विषमताओं को दूर करने के लिए एक प्रहरी के रूप में पत्रकार अपना सर्वस्व न्यौछावर कर जीवन पर्यन्त संघर्ष करता रहता है। मगर उसके बाद भी उसे उसके संघर्ष के बदले केवल गुमनामी और जिल्लत की जिंदगी के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता है। एक पत्रकार एक सैनिक की भांति समाज में अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करता, मगर जो सम्मान एक सैनिक को मिलता है, वह एक पत्रकार को न तो समाज देता है और न ही सरकार देता है। इतना ही नहीं उसे एक सैनिक की पारिश्रमिकी का चैथाई हिस्सा भी पारिश्रमिकी के रूप में नहीं मिलता है। फिर भी वह अपने उत्तरदायित्वों का भली-भांति निर्वहन करता है। मगर इतनी कम पारिश्रमिकी पर भी समाज में सरकार की दलाली कर रहे कुछ मीडिया संस्थान और कुछ तथाकथित दलाल पत्रकार जो जनहित को ताक पर रखते हुए स्वंय की स्वार्थ सिद्ध के लिए गिद्ध की भांति नजर गड़ाये हुए है। मगर लोगों के अधिकारों की रक्षा करने वाला यह चैथा स्तम्भ स्वयं ही अपने अधिकारों की रक्षा करने में असहाय महसूस कर रहा है।
जो व्यक्ति अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं नहीं लड़ सकता है, वह भला दूसरें के अधिकारों की लड़ाई क्या खाक लड़ेगा ? ऐसे में हमें ‘‘हम सुधरेगें, जग सुधरेगा’’ की कहावत के तर्ज पर खुद को बदलते हुए सबसे पहले अपने अधिकारों के प्रति लड़ने के लिए तत्पर होना होगा तभी हम समाज में व्पाप्त बुराईयों के प्रति और लोगों के अधिकारों के प्रति मजबूती से लड़ पायेंगे।
जो व्यक्ति अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं नहीं लड़ सकता है, वह भला दूसरें के अधिकारों की लड़ाई क्या खाक लड़ेगा ? ऐसे में हमें ‘‘हम सुधरेगें, जग सुधरेगा’’ की कहावत के तर्ज पर खुद को बदलते हुए सबसे पहले अपने अधिकारों के प्रति लड़ने के लिए तत्पर होना होगा तभी हम समाज में व्पाप्त बुराईयों के प्रति और लोगों के अधिकारों के प्रति मजबूती से लड़ पायेंगे।
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