Monday, October 31, 2016

कैसे एक भिखारी ने खड़ी की करोड़ों की कंपनी

यह एक ऐसे इंसान की कहानी है, जो अपनी मेहनत और लगन के बलबूते एक भिखारी से करोड़पति बन गया| जहाँ कभी वह घर-घर जाकर भीख माँगा करता था, आज न केवल उसकी कंपनी का टर्नओवर 30 करोड़ रुपए है बल्कि उसकी कंपनी की वजह से 150 अन्य घरों में भी चूल्हा जलता है|

Inspirational Success Story of Renuka Aradhya Entrepreneur

हम बात कर रहे हैं रेणुका अराध्य की, जिनकी उम्र अब 50 वर्ष की हो गयी है| उन की जिंदगी की शुरुआत हुई बेंगालुरू के निकट अनेकाल तालुक के गोपासन्द्र  गाँव से| उनके पिता एक छोटे से स्थानीय मंदिर के पुजारी थे, जो अपने परिवार की जीविका के लिए दान-पूण्य से मिले पैसों पर से चलाते थे| दान-पुण्य के पैसों से उनका घर नहीं चल पाता था इसलिए वे आस-पास गाँवों में जा-जाकर भिक्षा में अनाज माँग कर लाते| फिर उसी अनाज को बाज़ार में बेचकर जो पैसे मिलते उससे जैसे-तैसे अपने परिवार का पालन-पोषण करते|
रेणुका भी भिक्षा माँगने में अपने पिता की मदद करते| पर परिवार की हालात यहाँ तक खराब हो गई कि छठी कक्षा के बाद एक पुजारी होने के नाते रोज पूजा-पाठ करने के बाद भी उन्हें कई घरों में जाकर नौकर का भी काम करना पड़ता| जल्दी ही उनके पिता ने उन्हें चिकपेट के एक आश्रम में डाल दिया, जहाँ उन्हें वेद और संस्कृत की पढ़ाई करनी पड़ती थी और सिर्फ दो वक्त ही भोजन मिलता था – एक सुबह 8 बजे और एक रात को 8 बजे| इससे वो भूखे ही रह जाते और पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाते| पेट भरने के लिए वो पूजा, शादी और समाराहों में जाना चाहते थे, जिसके लिए उन्हें अपने सीनियर्स के व्यतिगत कामों को भी करना पड़ता| परिणामस्वरूप, वो दसवीं की परीक्षा में फ़ैल हो गए।
फिर उनके पिता के देहांत और बड़े भाई के घर छोड़ देने से, अपनी माँ और बहन की जिम्मेदारी उनके कन्धों पर आ गई| पर उन्होंने यह दिखा दिया कि मुसीबत की घडी में भी वे अपनी जिम्मेदारियों से मुह नहीं मोड़ते|
और इसी के साथ वे निकल पड़े आजीविका कमाने की एक बहुत लंबी लड़ाई पर| जिसमें उन्हें कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा,  अपनी निराशाओं से जूझना पड़ा और धक्के पर  धक्के खाने पड़े|
इस राह पर न जाने उन्हें कैसे-कैसे काम करने पड़े जैसे, प्लास्टिक बनाने के कारखाने में और श्याम सुन्दर ट्रेडिंग कंपनी में एक मजदूर की हैसियत से, सिर्फ 600 रु के लिए एक सिक्योरिटी गार्ड के रूप में, सिर्फ 15 रूपये प्रति पेड़ के लिए नारियल के पेड़ पर चढ़ने वाले एक माली के रूप में|
पर उनकी कुछ बेहतर कर गुजरने की ललक ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा और इसलिए उन्होंने कई बार कुछ खुद का करने का भी सोचा| एक बार उन्होंने घर-घर जाकर बैगों और सूटकेसों के कवर सिलने का काम शुरू किया, जिसमें उन्हें 30,000 रुपयों का घाटा हुआ|
उनके जीवन ने तब जाकर एक करवट ली जब उन्होंने सब कुछ छोड़कर एक ड्राइवर बनने का फैसला लिया| पर उनके पास ड्राइवरी सिखने के भी पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने कुछ उधार लेकर और अपने शादी को अंगूठी को गिरवी रखकर ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त किया|

इसके बाद उन्हें लगा की अब सब ठीक हो जाएगा, पर किस्मत ने उन्हें एक और झटका दिया जब गाड़ी में धक्का लगा देने की वजह से उन्हें अपनी पहली ड्राइवर की नौकरी से कुछ ही घंटों में हाथ धोना पड़ा|
पर एक सज्जन टैक्सी ऑपरेटर ने उन्हें एक मौक़ा दिया और बदले में रेणुका ने बिना पैसे के ही उनके लिए गाड़ी चलाई, ताकि वो खुद को साबित कर सके| वे दिन भर काम करते और रात-रात भर जागकर गाड़ी को चलाने का अभ्यास करते| उन्होंने ठान लिया कि,
चाहे जो हो जाए, मैं इस बार वापस सिक्योरिटी गार्ड का काम नहीं करूँगा और एक अच्छा ड्राइवर बन कर रहूँगा”
वो अपने यात्रियों का हमेशा ही ध्यान रखते, जिससे उन पर लोगों का विश्वास जमता गया और ड्राइवर के रूप में उनकी माँग बढ़ती ही गई| वे यात्रियों के अलावा हॉस्पिटल से लाशों को उनके घरों तक भी पहुँचाते थे| वे कहते हैं,
लाशों को घर तक पहुँचाने और उसके तुरंत बाद यात्रियों को तीर्थ ले जाने से मुझे एक बहुत बड़ी सीख मिली की जीवन और मौत एक बहुत लंबी यात्रा के दो छोर ही तो हैं और यदि आपको जीवन में सफल होना है तो किसी भी मौके को जाने न दें”

पहले तो वे 4 वर्षों तक एक ट्रेवल कंपनी में काम करते रहे उसके बाद वे उस ट्रेवल कमपनी को छोड़कर वे एक दूसरी ट्रेवल कंपनी में गए, जहाँ उन्हें विदेशी यात्रियों को घुमाने का मौक़ा मिला। विदेशी यात्रियों से उन्हें डॉलर में टिप मिलती थी| लगातार 4 वर्षों तक यूँ ही टिप अर्जित करते-करते और अपनी पत्नी के पीएफ की मदद से उन्होंने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर ‘सिटी सफारी’ नाम की एक कंपनी खोली| इसी कंपनी में आगे जाकर वे मैनेजर बने|
उनकी जगह कोई और होता तो शायद इतने पर ही संतुष्ट हो जाता, पर उन्हें अपनी सीमाओं को परखने को परखने की ठान रखी थी| इसलिए उन्होनें लोन पर एक ‘इंडिका” कार ली, जिसके सिर्फ डेढ़ वर्ष बाद एक और कार ली|
रेणुका और उनकी पत्नी, जब आराध्य ने अपनी पहली कार खरीदी
इन कारों की मदद से उन्होंने 2 वर्षों तक ‘स्पॉट सिटी टैक्सी’ में काम किया| पर उन्होंने सोचा
अभी मेरी मंजिल दूर है और मुझे खुद की एक ट्रेवल/ट्रांसपोर्ट कंपनी बनानी है”
कहते हैं न की किस्मत भी हिम्मतवालों का ही साथ देती है| ऐसा ही कुछ रेणुका साथ हुआ जब उन्हें यह पता चला कि ‘इंडियन सिटी टैक्सी’ नाम की एक कंपनी बिकने वाली है| सन 2006 में उन्होंने उस कंपनी को 6,50,000 रुपयों में खरीद ली, जिसके लिए उन्हें अपने सभी कारों को बेचना पड़ा| उन्हीं के शब्दों में,
मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा जोखिम लिया, पर वही जोखिम आज मुझे कहाँ से कहाँ लेकर आ गया”
 उन्होंने अपनी उस कंपनी का नाम बदलकर ‘प्रवासी कैब्स’ रख दिया| उनके बाद वे सफलता की और आगे बढ़ते गए| सबसे पहले  ‘अमेज़न इंडिया’ ने प्रमोशन के लिए रेणुका की कंपनी को चुना| उसके बाद रेणुका ने अपनी  कंपनी को आगे बढ़ाने में जी-जान लगा दिया| धीरे-धीरे उनके कई और नामी-गिरामी ग्राहक बन गए, जैसे वालमार्ट, अकामाई, जनरल मोटर्स, आदि|
इसके बाद उन्होंने कभी पीछे पलट कर नहीं देखा और सफलता की ओर उनके कदम बढ़ते ही गए| पर उन्होंने कभी भी सीखना बंद नहीं किया| उनकी कंपनी इतनी मजबूत हो गई कि जहाँ कई और टैक्सी कंपनियाँ ‘ओला’ और ‘उबेर’ के आने से बंद हो गई, उनकी कंपनी फिर भी सफलता की ओर आगे बढ़ रही है| आज उनकी कंपनी की 1000 से ज्यादा कारें चलती है|
आज वे तीन स्टार्टअप के डायरेक्टर हैं और तीन वर्षों में उनका 100 करोड़ के आँकड़े को छूने की उम्मीद है, जिसके बाद वो आईपीओ की ओर आगे बढ़ेंगे|
कौन सोच सकता था कि बचपन में घर-घर जाकर अनाज मांगने वाला लड़का जो 10वीं कक्षा में फ़ैल हो गया था और जिसके पास खुद का एक रूपया नहीं था वह आज 30 करोड़ की कंपनी का मालिक है|  

Sunday, October 30, 2016

नया साल

साल बीत गया दुख में,कोई खुशी नही पाई,      
नया साल सुखमय गुजरे,नववर्ष की बधाई!      
2016 बीत  रहाक्या खोया क्या पाया है,        
महंगाई,बलात्कार,का फैला देखो साया है!      
जीवन की उपलब्धियां,अभी भी है अवरुद्ध,   
सभ्यता  बढी है, पर जारी अभी भी है युद्ध!   
जिन्दगी का दामन फटा ,आँसू भी है नम
आदमी सुखी नहीं,छाया है दुनिया में गम! 
जो स्वप्न है सच  का, वरदान कब बनेगा
शैतान आदमी न जाने, इंसान कब बनगा!   
आने वाली पीढी ने है, हमसे उम्मीद लगाईं     

नया साल सुखमय गुजरे,नववर्ष की बधाई  

ब्लोगिंग का अपना मजा, बीत गये दो वर्ष
प्यार मिले जब आपका, मन में होता हर्ष,
मन में होता हर्षरोज  फालोवर  बढ़ते  
दें टिप्पणियाँ खूब ,पोस्ट  पाठकगण पढ़ते,  
खोलें  गूगल  टाक , परस्पर  करते टाकिंग   
मिला  नया संसार, शुरू की जबसे ब्लोगिंग,  

 जले घर की राख़ में अंगारे  न ढूढ़िए 
अमावस की रात में सितारे न ढूढ़िए -
प्रतीक्षा ही अच्छी है घावों को भरने की 
कभी उजड़े दयारों में, बहारें न ढूंढिए -
मंजिल के पाँव कब रुकते हैं राह में 
तैरने की कोशिश हो सिकारे  न ढूंढिए -
वास्ता है दरिया से लहरों से आशिक़ी 
छोड़ करके हाथ अब किनारे न ढूंढिए -
तम्बू मुकद्दर जब यही आशियाना है 
 लगाने को खूँटियाँ दीवारें न ढूंढिए -
तेरे घर का आईना तुम्हारा न होगा
भले तोड़ दोगे , बेचारा न होगा -
पलकों को आँसू भिगो कर चले  हैं
कभी लौट आना दुबारा न होगा -
बड़ी मुश्किलों  से मिलती जमी है
सागर से मांगो गुजारा  न होगा -
पूनम की रातों मे विपुल चाँद तेरा
अमावस में कोई सितारा न होगा -
लौटोगे जब भी हो मय - मेकदे से
दरिया तो होगी सिकारा  न होगा
फुट  गया  घड़ा  जो  संभाल  कर  रखा था
कौड़ियां  निकलीं रत्नों का भ्रम टूट निकला-
फूलों का गुलदस्ता  सलामत रहे कब तक
रखा सीसे के जार में फिर भी सूख निकला-

कितना था  पुराना मानदंड वो  झूठ निकला
बैठा है सिर पकड़ अपना बेटा कपूत निकला
तपा रहे थे गहन संस्कारों की आग में कबसे
प्यारी  बेटी  का    कदम  भी  अबूझ निकला -

सींचता  रहा सुबहो शाम हसरतें  पूरी  होंगीं 
प्लास्टिक जड़े पातों वाला  पेड़  ठूँठ निकला-
प्यासा मरा  चुल्लू  भर पानी न मिला माँगा 
पानी  के  नाम  सागर   भी  यमदूत निकला -


स्वागत और जन्मदिन गीत

जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें 
जन्मदिवस है आज आपका,करें बधाई को स्वीकार 
हमें मिठाई अभी चाहिये, ये तो अपना है अधिकार
जुग-जुग जीयें हमारे अग्रज, ईश्वर से करते मनुहार
सदा लुटाते रहें सभी पर,अपना निश्छल लाड़-दुलार ||    
पूछा उनसे  तो  बतलाया,उमर हुई अब तिरसठ साल   
किंतु अभी भी युवा हृदय से, देखो इनके रक्तिम गाल  
खेतों में  हैं फसल उगाते, कागज  पर लिखते  हैं गीत     
जन - सेवा भी  करते रहते, निभा रहे  जनता  से प्रीत ||
धीरज की  तो बात न पूछो, अपना नाम  करें साकार 
पल भर में अपना कर लेते, ऐसा इनका सद् व्यवहार 
यही कामना  हम करते हैं, आप सदा रहिये खुशहाल    
रहे सफलता कदम चूमती,तन मन धन से मालामाल ||
स्वागतम आपका कर रहा हर सुमन। 
आप आये यहाँ आपको शत नमन।। 

भक्त को मिल गये देव बिन जाप से, 
धन्य शिक्षा-सदन हो गया आपसे, 
आपके साथ आया सुगन्धित पवन। 
आप आये यहाँ आपको शत नमन।।

हमको सुर, तान, लय का नही ज्ञान है, 
गल्तियाँ हों क्षमा हम तो अज्ञान हैं, 
आपका आगमन, धन्य शुभ आगमन। 
आप आये यहाँ आपको शत नमन।। 

अपने आशीश से धन्य कर दो हमें, 
देश को दें दिशा ऐसा वर दो हमें, 
अपने कृत्यों से लायें, वतन में अमन। 
आप आये यहाँ आपको शत नमन।। 

दिल के तारों से गूँथे सुमन हार कुछ, 
मंजु-माला नही तुच्छ उपहार कुछ, 
आपको हैं समर्पित हमारे सुमन। 
आप आये यहाँ आपको शत नमन।। 

स्वागतम आपका कर रहा हर सुमन। 
आप आये यहाँ आपको शत नमन।। 
स्वागतम-स्वागतम, स्वागतम-स्वागतम!!

ममता का आधार न हो तो, प्यार अधूरा होता है।
निश्छल प्यार-दुलार बिना, परिवार अधूरा होता है।।

जिसके कारण चहक रही, घर में बच्चों की किलकारी,
नेह-नीर से सींच रही जो, नित्य-नियम से फुलवारी,
नारी के बिन तो सारा, घर-बार अधूरा होता है।।
निश्छल प्यार-दुलार बिना, परिवार अधूरा होता है।।

पत्नी-बहन और माता के, तुमने ही तो रूप धरे,
जगदम्बा बन कर तुमने, सबके खाली भण्डार भरे,
बिना धूप के सूरज का, आधार अधूरा होता है।
निश्छल प्यार-दुलार बिना, परिवार अधूरा होता है।।

जीवन में सुख देने वाला, तुम ही एक खिलौना हो,
खुली आँख से देखा जाने वाला, स्वप्न-सलोना हो.
बिना तुम्हारे कुदरत का, उपहार अधूरा होता है।
निश्छल प्यार-दुलार बिना, परिवार अधूरा होता है।।

Saturday, October 29, 2016

रेडियो प्लेबैक इंडिया: हमारे बुजुर्ग और हम, समाज को आईना दिखाते शब्द

रेडियो प्लेबैक इंडिया: हमारे बुजुर्ग और हम, समाज को आईना दिखाते शब्द: शब्दों की चाक पर - एपिसोड 11 शब्दों की चाक पर हमारे कवि मित्रों के लिए हर हफ्ते होती है एक नयी चुनौती, रचनात्मकता को संवारने  के लिए...

आई दीवाली, दीप सजे और धूम मची चहुं ओर है

आई दीवाली
आई दीवाली, दीप सजे और धूम मची चहुं ओर है
ढूंढो-ढूंढो इस प्रकाश में, मन में छिपा जो चोर है।
ब्रह्म वही मर्यादा में बंध, राम बना जग फिरता है
अहंकार के बंधन में बंध, रावण बना विचरता है।
रावण संग चले आसुर सब, काम-क्रोध-मद-लोभ रूप
अवसर देखके घात लगाते, छिप बैठे मन अन्‍धकूप।
सुरति रूप सीता को हरके, राम मना को भटकाया
विषय-वासना के सागर में, शुभगुण सेना को अटकाया।
माया की ऐसी चकाचौंध, सुग्रीव बुद्धि भी चकराई
हारे मन की सुध लेने, वैराग्‍य लखन आओ भाई।
जप-तप-संयम हनूमान, आकार बढ़ाते जाना है
तृष्‍णा रूपी सुरसा के मुख, अब हमने नहीं आना है।
अगन पेट की रावण का छल, कुम्‍भकर्ण का ये बल है
सूर्यदेव प्रत्‍यक्ष नारायण, सूर्य क्रिया ही सम्‍बल है।
मेघनाद इन्द्रिय को छल के, छिपकर पाप कराता है
वहीं विभीषण साधु-संग, इन्द्रियजित हमें बनाता है।
राम-नाम की सतत् श्रृंखला, भव-सागर से तारेगी
ईर्ष्‍या-द्वेष के झंझावात से, निश्चित हमें उबारेगी।
मुनि अगस्‍त्‍य के रूप गुरु, जब शब्‍द जहाज चढ़ायेंगे
इन्‍द्रदेव तब ब्रह्मचर्य रथ, सजा-सजा कर लायेंगे।
श्‍वासों के पथ चले शब्‍द रथ, अहंकार रावण हारे
गुरु चरणों में शरणागति, आसुर सेना सारी मारे।
राम है मन और सीता सुरति, हनुमान पुरुषारथ है
साधन सेना संयम शस्‍त्र, लखन कर्म नि:स्‍वारथ है।
मात-पिता की आज्ञा में रत, बन्‍धु-सखा से प्रेम गहन
सीता सुरति को अगनि तपाये, राम बने तब ऐसा मन।
अग्नि क्रिया की अग्नि भखे और खेचर रस का पान करे
सब पुर वासी दीप जगा, ऐसे साधक को माथ धरें।
न दुबर्लता न ही वासना, बन्‍धन न कोई और है
ऐसा साधक महायोग का, जीवन पथ पर सिरमौर है।

Wednesday, October 26, 2016

दलित लोग अब अपने "वोट' की ताकत को समझने लगे हैं।

भारतीय राजनीति का विचार करते समय कुछ तथ्यों को स्वीकृत कर आगे बढ़ना पड़ता है। इनमें से पहला तथ्य है- भारत में लोकतंत्र है और भविष्य में भी लोकतंत्र ही रहेगा। दूसरा तथ्य यह है कि भारत में हिंदुओं की बहुसंख्या है। तीसरा तथ्य- हिंदुओं की यह बहुसंख्या प्रजातंत्र को बल देती है, क्योंकि हिन्दू मानस प्रजातंत्र के अत्यंत अनुकूल है। और चौथा तथ्य यह है कि भारत में विविधता है। अनेक प्रकार के पंथ, जातियां तथा उपासना पद्धतियां इस देश में विद्यमान हैं।
हमारे समाज की उपरोक्त वास्तविकताओं का राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। चूंकि यह हिन्दूबहुल देश है, अत: किसी भी राजनीतिक दल के लिए हिन्दू मानसिकता की उपेक्षा करके राजनीति करना संभव नहीं है। अपने-अपने ढंग से प्रत्येक राजनीतिक दल हिन्दू समाज को अपने साथ रखने का प्रयास करता रहता है।
हिन्दू समाज का गठन सांप्रदायिक आधार पर नहीं हुआ है। एक अवतार (पैगम्बर या ई·श्वर का पुत्र), एक ग्रंथ और एक ही कर्मकांड- ये हिन्दुओं की मान्यता नहीं है। हिन्दू समाज अनेक ग्रंथों को माननेवाला, अनेक देवताओं को पूजनेवाला और कर्मकांड में भी विविधता वाला है। परमे·श्वर के अस्तित्व को माननेवाला और उसे न माननेवाला भी हिन्दू हो सकता है। ग्रंथ या अवतार की आड़ लेकर जिस तरह का सांप्रदायिक उन्माद मुसलमानों या ईसाइयों में भड़काया जा सकता है, उस तरह का उन्माद हिन्दुओं में निर्माण करना असंभव है।
वास्तव में हिन्दू समाज को अपनी विविधता प्यारी है। आज की परिभाषा में यदि कहें तो हिन्दू मानसिकता उसके स्वभाव के अनुसार "सेकुलर' है। वह उपासना पद्धति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं कर सकता, यह उसका स्वभाव ही नहीं है। भारत के सभी राजनीतिक दल सर्वधर्मसमादर, सर्वधर्मसमभाव की भाषा इसलिए बोलते हैं, क्योंकि यह हिन्दू समाज के स्वभाव की विशेषता है।
भारत में प्रजातंत्र होने के कारण, प्रजातंत्र के नियमानुसार जिसका बहुमत है, वही राज्य करता है। यहां हिन्दुओं का बहुमत है, इसलिए यहां हिन्दुओं का ही राज चलता आया है। जिस प्रकार हिन्दू समाज धर्म यानी उपासना पद्धति के आधार पर एक संघ नहीं है, उसी प्रकार उसका सामाजिक संगठन भी एक नहीं है। हिन्दू समाज हजारों जातियों में बंटा हुआ है। सवर्ण और गैर सवर्ण- ये दो प्रमुख भेद तो हैं ही, साथ ही सवर्ण श्रेणीबद्ध रचना भी है। आज की राजनैतिक परिभाषा में कहना हो तो हिन्दू समाज का विभाजन अगड़ी-पिछड़ी जातियों में हुआ है। पिछड़ी जातियों में दलित, वनवासी, घुमन्तू और अन्य पिछड़े वर्गों को गिना जाता है।
हिन्दू समाज की बहुसंख्या का वास्तविक अर्थ होता है- हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियों की बहुसंख्या। कुल जनसंख्या में 22 प्रतिशत तो दलित और वनवासियों की संख्या होती है। इसमें मंडल आयोग द्वारा निर्धारित की हुई सभी जातियों की संख्या यदि जोड़ दी जाए तो कुल पिछड़ों की जनसंख्या हो जाती है 85 प्रतिशत। लोकतंत्र के नियमानुसार बहुमत का राज होना चाहिए सो हिन्दुओं का राज है। हिन्दुओं में बहुसंख्या पिछड़े वर्गों की है, लेकिन पिछड़े वर्गों का राज नहीं है। भारतीय राजनीति की यह विडंबना है।
राजनीति की यह विसंगति दीर्घकाल तक नहीं टिक सकती। स्वतंत्रता के लगभग 55 वर्ष बाद हिन्दू समाज के पिछड़े वर्गों को अपनी राजनीतिक शक्ति का अनुभव होने लगा है। लोग अब अपने "वोट' की ताकत को समझने लगे हैं। जाति के आधार पर वोटों की शक्ति को एकजुट करना बहुत सरल है। प्रजातंत्र में वोट की शक्ति आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर बननी चाहिए। पर यह आसान काम नहीं है। ऐसा करने के लिए लोगों का निरंतर प्रशिक्षण होते रहना आवश्यक है। यह प्रशिक्षण मीडिया, सरकार और राजनीतिक दलों को करना चाहिए। इस क्षेत्र में हम काफी कमजोर पड़ रहे हैं। आसान रास्ता जाति का है। जाति के आधार पर वोट बैंक खड़ा करना आसान बात होती है। जाति के आधार पर ही सभी राजनीतिक दल राजनीति करते हैं। ऐसी राजनीति के कारण जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। इसीलिए जातिवाद की भावना बहुत बढ़ गयी है। जातिवाद की राजनीति के कारण ही विभिन्न जातियों में ईष्र्या तथा विद्वेष की भावना फैल रही है। बाबासाहब डा. भीमराव अंबेडकर कहा करते थे कि जाति समाज का विभाजन करती है। समाज के विभिन्न गुटों में घृणा का भाव पैदा करती है। इसीलिए जाति राष्ट्रविघातक है।
जब राजनीति का आधार जातिवाद बनता है तब देश की राजकीय इच्छाशक्ति का भी विभाजन हो जाता है। हर एक जाति या जातियों के गुट अपने जातिगत हितों का विचार करने लगते हैं। राष्ट्रीय प्रश्नों पर प्राय: वे उदासीन होते हैं। अपने देश के अन्दर राष्ट्रीय प्रश्नों पर आम सहमति का अभाव दिखाई देता है। देश की सुरक्षा से लेकर नदी जल बंटवारे तक किसी भी प्रश्न पर राजनीतिक सहमति नहीं बनती। प्रत्येक राष्ट्रीय प्रश्न पर सभी राजनीतिक दल अपने जातीय या क्षेत्रीय हितों की ही चिंता करते हैं।
जातिवादी राजनीति का एक पहलू और भी है। सामान्यत: विजातीय राजनीतिक नेतृत्व जातियां स्वीकार नहीं करती। राजनीतिक नेतृत्व अपनी ही जाति के लोगों के हाथों में रहे, ऐसी लोगों की भावना रहती है। पर, आश्चर्य की बात यह है कि यदि कोई विदेशी व्यक्ति या दूसरे मजहब का व्यक्ति नेतृत्व करता है तो विभिन्न जातियां उसे मान्यता देती हैं। जातिवादी राजनीति का यह एक खतरनाक पहलू है।
एक तरफ पिछड़ी जातियों में उभरती राजनीतिक आकांक्षाएं हैं तो दूसरी तरफ इन आकांक्षाओं को राष्ट्रशक्ति के रूप में एकजुट करने का अभाव। आज पिछड़े वर्ग के लोगों को समता, स्वतंत्रता और बंधुभाव की अपेक्षा है। आज सामान्य व्यक्ति भी देश के निर्माण में सहभागिता चाहता है। इस प्रकार की अपेक्षा स्वाभाविक है और देश के हित में भी है, क्योंकि देश का सामान्य व्यक्ति जब स्वयं प्रेरणा से राष्ट्रनिर्माण के कार्य में स्वयं को जोड़ना चाहता है, तभी देश का सर्वांगीण विकास संभव हो पाता है।
देश के अनेक राजनीतिक नेता समाज में चल रही उथल-पुथल को समझते हैं। लेकिन अपने स्वयं के तथा दल के स्वार्थों पर आंच न आए, इस कारण वे विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाते रहते हैं। इसी कारण राजकीय शक्ति का भी बिखराव नजर आता है। अन्य कुछ राजनीतिक नेताओं को समाज के भीतर क्या चल रहा है, इसका वास्तविक ज्ञान नहीं होता। प्राय: उच्चवर्गीय नेतृत्व समाज के पिछड़े वर्ग की आकांक्षाओं को समझने में असफल दिखाई देता है। इसलिए जिन राजनीतिक दलों में उच्चवर्गीय नेतृत्व हावी है, उनके राजनीतिक प्रभाव के धीरे-धीरे घटने की संभावना अधिक है। देश की राजनीति का यहां से आगे का रास्ता अगड़ों की राजनीति करने का नहीं बल्कि पिछड़ों की राजनीति करने का है।
भविष्य का सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, पिछड़े वर्गों में उभरती राजनीतिक आकांक्षाओं को एक सूत्र में बांधकर उसे किस प्रकार एक विराट राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा किया जाए। हमारी दृष्टि से यह कार्य हिन्दुत्व के आधार पर ही हो सकता है। डा. अम्बेडकर कहते थे कि हिन्दू समाज में सैकड़ों जातियां हैं। वे परस्पर विभक्त दिखती हैं, लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इनमें गहरे तक समाई हुई सांस्कृतिक एकता है। वर्तमान संदर्भ में इस एकता को पुष्ट करने की राजनीति होनी चाहिए। श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन ने इस गहरी सांस्कृतिक एकता के सत्य को पुन: उजागर किया। सारा हिन्दू समाज जाति-पांति को भुलाकर इस आंदोलन के साथ जुट गया। हिन्दू एकता का एक अभूतपूर्व दर्शन हमने भी किया और पूरी दुनिया को भी कराया। आज यह आंदोलन धीमा पड़ गया है। इस आंदोलन के सामाजिक सरोकारों की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था, उतना नहीं दिया गया।
पिछड़े वर्ग के हिन्दुओं को भी यह अनुभव होना चाहिए कि सामाजिक सम्मान, सहभागिता और सामाजिक न्याय हिन्दुत्ववादियों के द्वारा ही मिलेगा। राजनीति के धरातल पर इसका अर्थ होता है कि हिन्दुत्ववादी दल की आर्थिक और सामाजिक नीतियां पिछड़े वर्ग की आकांक्षा की पूर्ति करने वाली हों। नेतृत्व में पिछड़े वर्ग के सक्षम व्यक्तियों को अवसर देना चाहिए। निर्णय प्रक्रिया में उनकी सहभागिता होनी चाहिए। दिखावे के लिए दलित मोर्चा, पिछड़ा मोर्चा बनाने से लाभ नहीं होगा। ऐसे मोर्चों में काम करने वालों का जनाधार क्या है, उनकी सामाजिक मान्यता कितनी है, इसका भी विचार करना चाहिए। दलित और पिछड़ों का वोट बटोरने वाले दलालों को आज का पिछड़ा वर्ग स्वीकार नहीं करेगा।
इसी के साथ-साथ आत्मसम्मान और आत्मगौरव की भावना किन कारणों से बढ़ती है, इसका भी अध्ययन और अभ्यास करना चाहिए। कई बार किसी व्यक्ति विशेष के कारण समाज आत्मगौरव का अनुभव करता है। जैसे, संत रैदास के कारण भारत में बसा समस्त चर्मकार समाज अपने-आप को गौरवान्वित महसूस करता है। डा. अंबेडकर के कारण देशभर का दलित समाज आत्मगौरव का अनुभव करता है। देश के प्रत्येक राज्य में पिछड़ी जातियों में जन्मे संत, महापुरुष, क्रांतिकारियों के कारण समाज स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है। ये महापुरुष समाज की अस्मिता के प्रतीक हैं। ऐसे महापुरुषों का सम्मान यानी समाज का सम्मान, इस धारणा को बल मिला है। पर, देश में हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले और उस राजनीति को बल देने वाले, अस्मिता के इन प्रतीकों की ओर कितना ध्यान देते हैं? हिन्दू समाज में विभिन्न प्रकार के यज्ञों की भरमार है, नाम स्मरण चलता रहता है, विभिन्न यात्राएं निकाली जाती हैं, लेकिन हिन्दुत्ववादी दल, धर्मजागरण करने वाली संस्थाएं, संत रैदास, कबीर, तुकाराम, नारायण गुरु आदि का स्मरण बहुत कम करती हैं। डा. भीमराव अंबेडकर का भव्य स्मारक बनाने की कल्पना हिन्दुत्ववादी दल नहीं करते। इतिहास की नई खोज से कई तथ्य सामने आये हैं। देश में पहले क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के नहीं थे, बल्कि उमाजी नाईक, सय्या भील थे। ये दोनों पिछड़ी जाति के थे। इन क्रांतिकारियों को उनका ऐतिहासिक स्थान सम्मानपूर्वक दिलाना चाहिए। पर अभी तक का अनुभव यह है कि पिछड़ी जातियों में जन्मे महापुरुषों को सामाजिक मान्यता मिलने में बहुत समय लगता है। वैसे महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि उच्चवर्ण के नहीं थे, पर दोनों महापुरुषों के कारण समाज की पिछड़ी जातियों का उत्थान नहीं हुआ। सौभाग्य से अब ऐसा नहीं है। आधुनिक काल में जन्मे डा. अंबेडकर के कारण पिछड़ी जातियों के उत्थान का एक भगीरथ प्रयास प्रारंभ हुआ है। दुनिया के इतिहास पर नजर डालें तो ध्यान में आएगा कि बीसवीं शताब्दी में विभिन्न देशों में तथाकथित दलित, शोषित, पीड़ित, वर्गों ने कई स्थानों पर राज्य-क्रांति की है। रूस और चीन इसके दो बड़े उदाहरण हैं। भारत में भी यह वर्ग हर प्रकार का परिर्वतन करने की क्षमता रखता है। 1975 में स्व. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में इसकी एक झलक दिखाई दी थी।
स्वयं को हिन्दुत्ववादी न कहने वाले राजनीतिक दल लोक-मानस को अच्छी तरह समझते हैं। महात्मा फुले, शाहूजी महाराज, डा. अंबेडकर का क्या महत्व है, यह वे अच्छी तरह जानते हैं। आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष, लोकमान्य तिलक आदि व्यक्ति विशेष नहीं रह गए थे बल्कि वे आजादी की आकांक्षा के प्रतीक बन गए थे। अब आजादी मिल चुकी है। अब लड़ाई सामाजिक सम्मान की है। इसके प्रतीक डा. अंबेडकर, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, संत रैदास, नारायण गुरु आदि अनेक महापुरुष हैं। जिन राजनीतिक दलों का नेतृत्व सवर्णों के हाथों में है, वे इन महापुरुषों को कितना जानते हैं, कितना समझते हैं, यह एक गंभीर और महत्वपूर्ण प्रश्न है।
इन प्रतीकों के साथ-साथ पिछड़े वर्गों में स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और पराक्रम को उभारने वाले कार्यक्रम प्रारंभ करने की आवश्यकता है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कार्यक्रमों का एक अभियान चलना चाहिए। स्वामी विवेकानंद इन पिछड़े वर्गों के बारे में कहा करते थे कि यह निर्मिति करने वाला वर्ग है। चर्मकार, लुहार, बढ़ई, कुम्हार, बुनकर, ये सब किसी न किसी प्रकार का निर्माण करते हैं। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि ऐसे निर्मिति करने वाले वर्गों का अपने समाज में कोई सम्मान नहीं है। बाबूगिरी करने वाले ही सम्मानित होते हैं। हिन्दुत्ववादी दल और संगठनों को क्यों नहीं लगता कि अपने इन बन्धुओं की निर्मिति भी सम्मानित हो। उनके द्वारा बनाई गई वस्तुओं का उचित दाम मिले, उनका शोषण न हो। इनके बाल-बच्चे पढ़ें-लिखें, उनके लिए विद्यालय की सुविधा हो। यह सारा कार्य प्राथमिकता के आधार पर होता है तो पिछड़ों की शक्ति एक सूत्र में गुंथ जाएगी। राष्ट्रीय पुननिर्माण का कार्य तीव्रता से आगे बढ़ेगा। इस कार्य की अनदेखी की गई तो समाज में संघर्ष बढ़ेगा, बिखराव आएगा।
पिछली शताब्दी में भारत में जितने भी दृष्टा, महापुरुषों ने जन्म लिया, उन्होंने अपनी समाज की शक्ति का साक्षात्कार करते हुए समाज के दीन दु:खी व्यक्ति पर अपना ध्यान केंद्रित किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि शिव भाव से जीव की सेवा करनी चाहिए। अर्थात् नर में नारायण का रूप देखना चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि दरिद्रनारायण की सेवा करनी चाहिए। उनकी सर्वांगीण उन्नति के लिए सभी प्रकार के प्रयास करने चाहिए। महात्मा गांधी ने दरिद्रनारायण की सेवा को अपने जीवन में सर्वोच्च प्राथमिकता दी। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने समाज की अन्तिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के हित की राजनीति करने का आग्रह किया था। इनमें से किसी ने भी जातिवादी राजनीति का आग्रह नहीं किया। देश को बांटने वाली जातिवादी राजनीति एक तरफ है, और दूसरी ओर है देश को जोड़ने वाली हिन्दुत्व की विचारधारा। वर्तमान संदर्भ में हमें यह समझ लेना चाहिए कि हिन्दुत्व यानी मुस्लिम या ईसाईयत की विचारधारा का विरोध नहीं है। इसी तरह हिन्दुत्व पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा या यज्ञ-प्रवचन भी नहीं है। हिन्दुत्व की परिभाषा और कार्यक्रम यदि केवल यहीं तक सीमित रहेंगे तो हिन्दू समाज की शक्ति का जागरण नहीं होगा। बहुसंख्यक होते हुए भी राजनीति में हिन्दू समाज का प्रभाव नहीं दिखेगा। आज का युगधर्म सामाजिक हिन्दुत्व का है, सामाजिक हिन्दुत्व के प्रकटीकरण का है। एक संघर्ष की धारा हमारे समाज के भीतर चलती दिखाई दे रही है। जो समाज में प्रस्थापित है, उनके हितों की राजनीति करें या फिर आज तक अभावग्रस्त, पिछड़े वर्गों के हितों की नीति अपनाएं। समाज के सभी सत्ता-स्थानों पर बैठा हुआ प्रस्थापित वर्ग अपने हितों की रक्षा चाहता है। पिछड़ा वर्ग उसके द्वार खटखटा रहा है। एक अपरिहार्य संघर्ष की दिशा में हम बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में यदि बहुजन समाज का पक्ष लेकर हिन्दुत्व की विचारधारा खड़ी होती है तो देश का भविष्य उज्ज्वल बनेगा। जिन भगवान राम के कारण हिन्दुत्व की राजनीति का महाभारत इस देश के भीतर प्रारंभ हुआ था, उन प्रभु राम ने भी तो बहुजनों का ही संगठन खड़ा कर रावण को परास्त किया था। और उसी इक्ष्वाकु वंश के गौतम बुद्ध ने "बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' का नारा बुलन्द करके एक अद्भुत क्रांति की थी। यह तो अतीत की बातें हैं। भारत के भविष्य के पथ पर कौन चलेगा, हम उसकी राह पर आंख लगाए बैठे हैं। द (लेखक मुंबई से प्रकाशित हाने वाले साप्ताहिक "विवेक' के सम्पादक हैं)

समाज कभी एक नहीं हो सकता

इसे क्षत्रिय समाज की विडम्बना ही कहेंगे कि जिस क्षत्रिय समाज के नेताओं ने सदियों तक विश्व का नेतृत्व किया, इस पृथ्वी पर राज किया, क्षत्रिय राजाओं को उनके आदर्श पूर्ण और जनसरोकारों से परिपूर्ण शासन देने के बदले जनता ने उन्हें भगवान माना. आज भी देश की जनता क्षत्रिय राजा श्री राम के शासन और उनके जैसे नेतृत्व की आशा करती है. यदि कोई नेता सुशासन की बात करता है तो जनता उसमें भी श्री राम की छवि देखने की चेष्टा करती है. जो साफ करता है कि जनता क्षत्रियों के नेतृत्व में ही ज्यादा खुश थी. लेकिन अफसोस सदियों तक प्रजा को आदर्श नेतृत्व देने वाला समाज आज नेतृत्व के मामले में दोराहे पर खड़ा है. ऐसा नहीं है कि आज भी क्षत्रिय समाज में नेतृत्व प्रदान करने वाले सक्षम नेता पैदा नहीं हो रहे. आजादी के बाद देश की सत्ता पर काबिज पूंजीपति व बुद्धिजीवी षड्यंत्रकारियों द्वारा क्षत्रिय समाज को गर्त में डालने के कुत्सित प्रयासों के बावजूद भी क्षत्रिय समाज ने देश को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, दो दो प्रधानमंत्री, सेनापति, कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री, राजनैतिक पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष आदि कई नेतृत्व दिए है. आज भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा राजपूत जाति के मंत्री ही है, वहीं सत्ताधारी दल ने भी क्षत्रिय राजनाथ सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़कर क्षत्रिय नेतृत्व पर भरोसा जताया. यदि अब तक के प्रधानमंत्रियों के मंत्रिमंडल पर नजर डाली जाय तो मोदी सरकार का मंत्रिमंडल देश का ऐसा पहला मंत्रिमंडल होगा जो जातीय आधार पर ना होकर योग्यता के आधार पर गठित हुआ है. इस तरह योग्यता के आधार पर गठित मंत्रिमंडल में क्षत्रिय मंत्रियों की ज्यादा संख्या और राजनैतिक पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व में क्षत्रिय नेताओं की दमदार उपस्थिति साफ करती है कि क्षत्रिय समाज आज भी नेतृत्व देने में सक्षम है और औरों से आगे है. इतना सब कुछ होने के बावजूद भी समस्या यह है कि खुद क्षत्रिय समाज नेतृत्व के मामले में खुद निर्धन है, वर्तमान में ऐसा कोई नेता नहीं जो क्षत्रिय समाज को एक जगह एकत्र कर सके, ऐसा कोई क्षत्रिय नेता नहीं जिसकी एक पुकार पर क्षत्रिय समाज उसके पीछे पीछे चल पड़े जिस तरह खानवा के युद्ध मैदान में राणा सांगा के नेतृत्व में एकत्र हुआ था.

सिंह गर्जना टीम ने इस सम्बन्ध में कई क्षत्रिय विचारकों द्वारा लिखा साहित्य पढा, खासकर आयुवान सिंह जी शेखावत ने इस सम्बन्ध में अपनी पुस्तक राजपूत और भविष्य में खासा प्रकाश डाला है, कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, सामाजिक, राजनैतिक नेताओं से बात की तो कई बातें, कमियां, खासियतें सामने आई कि क्षत्रिय समाज आज भी नेतृत्व करने में सक्षम है फिर खुद क्षत्रिय समाज नेतृत्व के मामले में निधन क्यों ? 

एकता की कमी की बातें ..
कई लोगों ने विचार व्यक्त किया कि क्षत्रिय समाज कभी एक नहीं हो सकता. पर हम ऐसा नहीं मानते क्योंकि जब जब देश व समाज को जरुरत पड़ी क्षत्रिय समाज एक हुआ है, बाबर के साथ युद्ध में सभी क्षत्रिय राजाओं ने राणा सांगा के नेतृत्व में युद्ध लड़ा था. वर्तमान लोकतंत्र में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में क्षत्रिय समाज ने पूरी एकजुटता दिखाई थी. वी.पी.सिंह के बाद भी कई अवसरों पर देखा है समाज अपने राजनेताओं व सामाजिक नेताओं के आव्हान पर भारी संख्या में एकत्र हुआ है, चाहे दिल्ली हो, जयपुर का अमरूदों का बाग हो, क्षत्रिय समाज नेतृत्व की आस लिए हर बार लाखों की संख्या में जुटा है लेकिन हर बार इस तरह के आयोजनों के बाद समाज ने अपने आपको नेतृत्व के मामले में हमेशा ठगा हुआ महसूस किया है. हर वर्ष नए नए सामाजिक, राजनैतिक क्षत्रिय नेता पैदा होते है जो आदर्शों व आश्वासनों की गठरी में कई सामाजिक योजनाएं लेकर आते है. समाज उन्हें नोटिस भी करता है पर आने वाले नेता समाज की आशाओं के अनुरूप खरे नहीं उतरते. हर कोई समाज को अपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रयोग करने आता है और समाज व राजनीति में स्थापित होते ही समाज को भूल जाता है. ऐसे में समाज आने नेताओं के सही गलत होने की खोज में भटक कर रह जाता है और सही व्यक्ति को समर्थन नहीं मिलता. इस तरह अपने स्वार्थों के वशीभूत समाज के नाम पर नेतृत्व की भूख को शांत करने की चाहत रखने वाले अस्पष्ट विचारधारा और अपूर्ण कार्यप्रणाली की समझ रखने वाले ऐसे नेताओं के प्रथम प्रयास विफल हो जाते है तब वे समाज को पीछे नहीं चलने का दोष देकर किनारे हो लेते। वास्तव में क्षत्रिय समाज अन्य समुदायों की तरह कोई भेड़ बकरी नहीं है जो चाहे जिसके पीछे हो जाये। जो व्यक्ति अपने निश्चित सिद्धांतों को सामाजिक सिद्धांतों के रूप में रखकर उन्हें सामाजिक जीवन में ढालने की क्षमता रखता हो, समाज उसी के पीछे चलने को तत्पर रहता है। और इतिहास साक्षी है कि ऐसे ही नेता आगे बढे है, लेकिन ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते है.

वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारना 
क्षत्रिय शासन में राजा के बाद उसके वंशज का राज्याभिषेक होना प्रचलित होने के चलते क्षत्रिय समाज ने वंशानुगत नेतृत्व प्रथा स्वीकार कर ली. जिसके बहुत से दुष्परिणाम समाज को भुगतने पड़े. बल्कि हम तो कहेंगे कि समाज के पतन के कारणों में यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण रहा है कि क्षत्रिय समाज में आँख मूंद कर बिना योग्यता देखे परखे वंशानुगत नेतृत्व स्वीकार कर लिया गया. समाज उत्थान के लिए नेतृत्व की आवश्यकता और वंशानुगत नेतृत्व पर महान क्षत्रिय विचारक आयुवान सिंह शेखावत लिखते है कि “जब हम पतन और उत्थान के संधि स्थल पर खड़े होकर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने को पैर बढाते हैं तब हमें सहसा जिस प्रथम आवश्यकता की अनुभूति होती है, वह है योग्य नेतृत्व। योग्य नेतृत्व स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध और स्वयं निर्मित्त होता है। फिर भी सामाजिक वातावरण और देश-कालगत परिस्थितियां उसकी रूपरेखा को बनाने और नियंत्रित करने में बहुत बड़ा भाग लेती हैं। किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदि व्यक्तिवादी या रूढिवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नहीं रहता। जैसा की बताया जा चुका है, राजपूत जाति में नेतृत्व अब तक वंशानुगत, पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर चला आया है। वह समाज कितना अभागा है जहाँ गुणों और सिद्धांतों का अनुकरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घराने में जन्म लेने वाले अस्थि-मांस के क्षणभंगुर मानव का अन्धानुकरण किया जाता है। सैंकड़ों वर्षों से पालित और पोषित इस समाज के इन कुसंस्कारों को आज दूर करने की बड़ी आवश्यकता है ।“

वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारने के दुष्परिणाम मुगल व अंग्रेजकाल का इतिहास पढने पर हमारे सामने स्वतः दृष्टिगोचर हो जाते है. आजादी के समय को भी देखें तो आप पायेंगे कि समाज जिन राजाओं का आँख मूंदकर समर्थन करता आ रहा था. जो समाज सदियों से भारत भूमि के लिए सबसे ज्यादा बलिदान देता आया था वह देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में जन साधारण के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर साथ तक नहीं दे सका. और राजाओं की राज्यलिप्सा की पूर्ति में सहायक बन आज जनता की नजर में मुगलों, अंग्रेजों का पिट्ठू होने के आरोप झेल रहा है. इन वंशानुगत राजाओं की अयोग्यता का इससे बड़ा प्रमाण क्या कि सदियों से लाखों, करोड़ों राजपूतों व अपने पूर्वजों के बलिदान व संघर्ष से पाया राज्य बिना संघर्ष किये सिर्फ एक हस्ताक्षर कर इन्होंने खो दिया.

अफसोस इस बात का है कि आज भी हम इस रुढिवादी वंशानुगत नेतृत्व स्वीकारने की मानसिक दासता से बाहर नहीं निकले है, आज भी हम आम योग्य क्षत्रिय नेता को छोड़कर राजपरिवारों के पीछे भागते है. हमारी इस मानसिकता का फायदा राजनैतिक पार्टियाँ भी खूब उठाती है. जिस चुनाव क्षेत्र में हम बहुमत में होते है वहां पार्टियाँ किसी राजपरिवार के अयोग्य, संस्कारहीन, अय्याश, लम्पट सदस्य को टिकट देती है तो भी हम आँख मूंदकर उसकी जय जयकार करते हुए उसके पीछे हो लेते है. और चुनाव जीताने के बाद अपने आपको ठगा हुआ महसूस करते है क्योंकि राजमहलों में आम राजपूत का प्रवेश पहले भी बंद था और आज भी बंद है.

महत्वाकांक्षा 
जैसा कि ऊपर लिखा जा चूका है प्रति वर्ष समाज के सामने आदर्शों व सिद्धांतों की गठरी लिए अपनी नेतृत्व देने की भूख लिए कई अति महत्वाकांक्षी नेता आते है और थोड़े समय बाद ही वे समाजिक परिदृश्य से बाहर हो जाते है. दरअसल आज समाज सेवा व समाज का नेतृत्व मिलना राजनैतिक सफलता की पहली सीढी और शार्टकट रास्ता माना जाता है. अतरू राजनैतिक सफलता की कामना लेकर आने वाले नेता समाज को सीढी की तरह इस्तेमाल कर समाज की ताकत दिखा कर किसी राजनैतिक पार्टी में स्थापित हो जाते है और स्थापित होने के बाद समाज को भूल जाते है. अक्सर सोशियल साइट्स पर क्षत्रिय युवकों द्वारा प्रदर्शित चिंता पढने को मिलती है कि हमें एक होना चाहिए, लेकिन इन साइट्स पर भी इस एकता की चाह के बाद अनेकता के दर्शन आम बात है, हर कोई अपने नेतृत्व में एक समूह बनाना चाहता है भले उसके समूह में सिर्फ चार व्यक्ति ही हो. ठीक इसी तरह यदि सामाजिक संगठनों पर नजर डाले तो पायेंगे कि थोड़े दिन किसी संगठन से जुड़ते ही व्यक्ति सीधा उसका नेतृत्व पाना चाहता है. जिस व्यक्ति ने वर्षों मेहनत कर संगठन खड़ा किया उस पर नवागुंतक बिना कुछ किये कब्जा जमाने की फिराक में रहता है. कभी एक क्षत्रिय महासभा हुआ करती थी लेकिन आज राजधानी दिल्ली में देखें तो कई अखिल भारतीय, अंतराष्ट्रीय, ब्रह्माण्ड क्षत्रिय महासभाएं अस्तित्व में है. लेकिन जब इन कथित राष्ट्रीय संगठनों की राष्ट्रीय कार्यकारणी बैठकें देखें तब अखिल भारतीय होने का दम भरने वाली महासभा गली के संगठन जितनी संख्या भी नहीं जुटा सकती. कुकरमुत्तों की तरह उगे संगठनों को देखने पर यह साफ जाहिर होता है कि समाज को एक मजबूत नेतृत्व मिलने की राह में इस तरह की हर व्यक्ति की नेतृत्व देने की मानसिकता व महत्वाकांक्षा भी रोड़ा है. एक व्यक्ति समाज हित के नाम से किसी समाज विरोधी एक व्यक्ति की हत्या कर आता है, या किसी को थप्पड़ मार आता है और चाहता है कि अब इस कार्य के बदले ही उसे समाज अपना राष्ट्रीय नेतृत्व सौंप दें. तो कोई एक समाज का भावुक मुद्दा उठाकर इस तरह की कामना करता है.

पूंजी का असर 
समाज को वास्तविक नेतृत्व मिलने में धन भी एक बहुत रोड़ा है. अथाह पूंजी आज नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है. सामज के सामने ऐसे कई आदर्श, सिद्धांत, कर्मठ, योग्य, ईमानदार व्यक्ति नेतृत्व के लिए आते है लेकिन उनके पास पूंजी नहीं होती और वे बिना पूंजी के आगे नहीं बढ पाते. इसके ठीक विपरीत देखा गया कि सामाजिक कार्यक्रमों में मंच पर ऐसे व्यक्ति आसीन रहते है जिनकी पृष्ठभूमि अपराधिक होती है, जिन्होंने समाज के नियम विरुद्ध शादी ब्याह किये होते है, जिनके व्यवसायिक पेशे क्षत्रिय समाज की गरिमा के प्रतिकूल होते है, वे अपने धनबल के सहारे दिखाई पड़ते है. धनबल के सहारे ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति महिमामंडित होकर समाज का नेतृत्व करने आगे आ जाते है. लेकिन वे समाज का कभी हित नहीं सोचते सिर्फ अपने हित में सामाजिक भावनाओं का दोहन मात्र करते है. आज क्षत्रिय समाज के सामने ये आचरणहीन, गैर सामाजिक, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले धनी व्यक्ति सबसे बड़ी समस्या है. ऐसे व्यक्ति महिमामंडित होकर अन्य समुदायों में क्षत्रिय समाज की प्रतिष्ठा को भारी क्षति पहुंचा रहे है.

राजनेताओं का सामाजिक नहीं रह पाना 
समाज सेवा के नाम पर समाज का नेतृत्व करने वाले ज्यादातर नेताओं का अगला लक्ष्य राजनीति होता है. जो किसी भी क्षत्रिय के लिए होना भी चाहिए. लेकिन यही बात समाज के नेतृत्व के लिए बड़ी समस्या भी है क्योंकि राजनीति में स्थापित होने के बाद नेताओं की प्राथमिकता बदल जाती है. वे सामाजिक नहीं रह पाते और अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप आचरण करते है. कई बार देखा गया कि समाज के दम पर नेता बने राजनेता पार्टी विचारधारा के अनुरूप क्षत्रिय समाज विरोधी कार्य भी कर बैठते है. जबकि अन्य जातियों के नेता राजनैतिक पार्टियों में रहते रहने के बावजूद अपनी जातीय प्राथमिकता नहीं बदलते. 

अतः राजपूत समाज को चाहिये कि वह नेतृत्व के मामले में वंशानुगत, पद और आर्थिक संपन्नता व रूढिगत आधार पर चली आ रही व्यवस्था व मानसिकता से निकले और ऐसे व्यक्तियों को नेतृत्व सौंपे जिनकी विचारधारा में समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा, क्षात्र धर्म का पालन करते हुए सिद्धांतों पर चलने के गुण, समाज के प्रति पीड़ा, ध्येय व वचन पर दृढ़ता, अनुशासन, दया, उदारता, विनय, क्षमा के साथ सात्विक क्रोध, स्वाभिमान, संघर्षप्रियता, त्याग, निरंतर क्रियाशीलता आदि स्वाभाविक क्षत्रिय गुण मौजूद हो, ऐसे ही योग्य व्यक्ति समाज का वास्तविक नेतृत्व कर सही दिशा दे सकते है।

समाज को वास्तविक नेतृत्व मिलने के मामले में आयुवान सिंह जी शेखावत राजपूत और भविष्य में लिखते है “वास्तविक और योग्य नेतृत्व स्वयं विकसित और निर्मित होता है, वह बनाने तथा चुनने से नहीं बनता। मेरा तो दृढ विश्वास है कि जब तक समाज को स्वयं-विकसित और स्वयं-सिद्ध नेतृत्व नहीं मिलेगा तब तक उसे सच्चा नेतृत्व मिल ही नहीं सकता और जब तक वास्तविक नेतृत्व नहीं मिलता तब तक उन्नति के रूप में हमारा सोचना व्यर्थ ही होगा।”