खबर है कि राजस्थान के टोंक जिले के उनायरा गाँव में 6 लोगों ने 30 वर्षीय महिला को डायन करार देकर निर्वस्त्र किया और बिजली के खँभे से बाँध कर गर्म सलाखो से दाग ड़ाला। यहाँ घटना अगर चौंकाती है तो कई सारे सवाल भी खड़े करती है। विश्व के लगभग सभी देशों के आदिवासी इलाकों में ऐसी घटनाएँ होना इस सदी में भी जारी है। सुदूर जंगलों में बसे आदिवासी समाज में औरतों को लाँछित, अपमानित करने के लिये डायन, बिसाही जैसे शब्दों से नवाजा जाता है। पहले इसे महज आदिम परँपरा, अँधविश्वास या अज्ञान की संज्ञा दी गई थी। लेकिन हकीकत कुछ और है। गौरतलब है कि उनायरा गाँव की जिसमें औरत को प्रताड़ित किया गया, उस पर गाँव के छ: नौजवानों की पहले से नज़र थी।
13 अप्रेल को जब वह ढ्लती दोपहर में नलकूप से पानी लेने गई तो नौजवानो ने उसे छेड़ा, औरत के शोर मचाने पर वे चिल्लाने लगे....”अरे इस पर डायन आई है,यह तो गाँव के लिये खतरा बन गई है।“ उसके साथ उक्त शर्मनाक घटना को सरँजाम दिया। औरत ने साहस नही छोड़ा और बुरी तरह जली हालत में भी नज़दीक की पोलीस चौकी में एफ आई आर दर्ज़ कराई। बिहार के आदिवासी इलाके झारखँड़ में डायन बताकर आदिवासी स्त्रियों की हत्या का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। इस मामले में राजनैतिक, सामाजिक संगठ्नों की संवेदन हीन चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। डायन कहकर औरतों को नीचा दिखाना या प्रताड़ित करना .....इसके पीछे मँशा है उनकी संपत्ति हड़पना, बलात्कार यौन शोषण या फिर बदले की भावना। अगर दो पुरुषो मे किसी कारणवश मनमुटाव या झगड़ा हो गया तो एक दूसरे की बीवी को डायन सिद्ध कर वे बदला ले लेते है।
इसके अलावा अपने कार्यो मे असफलता जैसे बीमारी, नौकरी, तरक्की मे रुकावट, क्लेश आदि का दोषी डायन को बताकर मर्द हाथ झाड़ लेता है। जैसे किसी स्त्री पर देवी आती है वैसे ही डायन भी किसी निरपराध स्त्री पर आ गई है ऐसा ऐलान गाँव के ओझा ताँत्रिक कर देते हैं और लोग उसे पत्थर, लोहे की छड़ों से मार-मार कर उसकी जान ले लेते हैं। हालाँकि राँची में डायन प्रथा को बँद करने के लिये एक सेमिनार आयोजित किया गया था। चर्चित आई ए एस अफसर के बी सक्सेना की पहल पर हुए इस आयोजन मे बुद्धिजीविड़ों, मानवशास्त्रियों और पोलिस अधिकारियों ने एक स्वर से डायन हत्या के सामाजिक आर्थिक कारणो की पड़ताल कर ओझा ताँत्रिको को ही दोषी बताया और प्रशासन से कड़े कदम उठाने की माँग की पर यह मात्र कागज़ी दौड़ ही सिद्ध हुई।
यूँ आदिवासी समाज मे औरतों का खास दर्जा है। उन्हे सम्मान और इज़्ज़त से जीने का पूरा हक है। कुप्रथाएँ कहाँ नही होती? अगर उन्हें नज़र अँदाज़ करें तो तो आदिवासी समाज मे स्त्रियो को दहेज के लिये प्रताड़ित नही किया जाता। शादी और तलाक को लेकर भी उनके अपने अधिकार है। वे मर्दोँ के साथ खेती जंगल पशुपालन आदि कामो मे बराबरी का हिस्सा लेती हैं। कुछ मात्रसत्तात्मक समुदाय अभी भी हैं खासी, गारो और लक्षद्वीप की जन जातियो मे संपत्ति की स्वामी स्त्रियाँ ही होती हैं। इनका समाज महिला प्रधान समाज है और वँश माता के नाम पर ही चलता है। विवाह के बाद कन्या ससुराल नही जाती। पति उसके घर बिदा होकर आता है। जब मैं मेघालय भ्रमण के लिये गई थी तो खासी और गारो जनजाति को नज़दीक से देखने का मौका मिला था। शिलाँग मे मैंने अदभुत बात देखी, वहाँ के बाज़ारो में औरते ही दुकानदार होती है और औरते ही ग्राहक भी। इस बाज़ार को माइती बाज़ार यानी माँ का बाज़ार कहते हैं। होटल, रेस्टारेंट भी औरते ही चलाती है। ये बड़ी मिलनसार और हँसमुख होती हैं।
बिहार, मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में घोटुल(एक ऐसा आदिवासी क्लब जिसमें युवक युवती अपना मनपसंद साथी चुनते हैं और बुज़ुर्गो से अनुमति लेते हैं) की तर्ज़ पर एक प्रथा प्रचलित है दावा बूँदी,यानी तलाक। इस प्रथा के अनुसार दोनो पक्षो को अपना फैसला पंचोँ को बताना होता है। पंच पूर्व पति को विवाह में हुए खर्च का भुगतान करवा कर एक बैठक में किसी फलदार वृक्ष की टहनी को दोनो पक्षो से तुड़वा देते है और यह मान लिया जाता है कि अब इनके बीच तिनके के बराबर भी रिश्ता नही रहा । विश्व के अन्य देशों में भी आदिवासियों के अपने कानून हैं। पाकिस्तान के मुल्तान जिले के दूरदराज इलाके में मास्तोई जाति के आदिवासियों मे यदि कोई अपराध पुरुष से हो जाता है तो उसकी सजा उसे नही बल्कि उसके घर की किसी स्त्री को दी जाती है। न्याय की यह क्रूर परँपरा आज भी जारी है। आदिवासी कबीले में जानवरो की चोरी, कबाइली रंजिशो, हत्याओ और अवैध संबंधों के खिलाफ दंड़ का यही प्रावधान है।
निर्दोष औरत दंड़ देने के लिये मोहरे की तरह इस्तेमाल की जाये ये कहाँ का न्याय है? वैसे भी आदिवासी औरतो की जो स्थिति पहले थी अब वह नही रह गई है। उन्हें नीची नज़र से देखा जाता है। उन्हे संपत्ति पर कोई अधिकार प्राप्त नही है। धार्मिक मामलो मे उन्हें बाहर रखा जाता है। निर्णय लेने मे भी उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नही है, जैसी परिवार मे आदिवासी पुरुषो की है। आदिवासी आँदोलनो मे औरतो की काफी सक्रिय भूमिका रही है।लेकिन इसके बावजूद आदिवासी महिलाओ का कोई विशेष नेतृत्व नही रहा। कई जगहो पर आदिवासी महिलाओ ने बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ और संपत्ति मे अपने अधिकार के लिये आवाज उठाई है...........हालाँकि ऐसा करना उनकी जागरुकता का संकेत है लेकिन आखिर घटनाएँ तो हो ही रही हैं। इस नये दौर मे भी बलात्कार, निर्वस्त्र घुमाया जाना , संपत्ति से वँचित करना, डायन बताकर मार ड़ालना या प्रताड़ित करना, उनकी संपत्ति छीन लेना यह सब तो भुगतना पड़ ही रहा है आदिवासी औरतों को।
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