जो समाज जितना ही
पिछड़ा हुआ, अतार्किक और
अन्धविश्वासी होता है, उसमें देव-पूजा,
डीह-पूजा, नायक-पूजा की प्रवृत्ति उतनी ही गहराई से जड़ें जमाये रहती
है। ‘जीवित’ और प्रश्नों से ऊपर उठे “देवताओं” के सृजन से कुछ
निहित स्वार्थों वाले व्यक्तियों का भी हित सधता है, प्रभावशाली सामाजिक वर्गों का भी और सत्ता का भी। शासक
तबक़ों द्वारा देव-निर्माण और पन्थ-निर्माण की संस्कृति से प्रभावित शासित भी
अक्सर सोचने लगते हैं कि उनका अपना नायक हो और अपना ‘पन्थ’ हो। इसके लिए
कभी-कभी किसी ऐसे पुराने धर्म को जीवित करके भी, जिसके साथ अतीत में उत्पीड़ितों का पक्षधर होने की
प्रतिष्ठा जुड़ी हो, उत्पीड़ित जन यह
भ्रम पाल लेते हैं कि उन्हें शासकों के धर्मानुदेशों से (अतः उनके प्रभुत्व से)
छुटकारा मिल जायेगा। जब यह भ्रम भंग भी हो जाता है और नायक/नेता द्वारा प्रस्तुत
वैकल्पिक मार्ग आगे नहीं बढ़ पाता, तब भी उक्त
महापुरुष-विशेष और उसके सिद्धान्तों की आलोचना वर्जित और प्रश्नेतर बनी रहती है और
उसे देवता बना दिया जाता है। इससे लाभ अन्ततः शोषणकारी व्यवस्था का ही होता है।
धीरे-धीरे, उत्पीड़ितों के बीच से जो
मुखर और उन्नत तत्त्व पैदा होते हैं, वे इसी व्यवस्था के भीतर दबाव और मोल-तोल की राजनीति करके फ़ायदे में रहना सीख
जाते हैं, “महापुरुष नेता” के वफ़ादार शिष्य बनकर मलाई चाटते हुए इस
व्यवस्था में सहयोजित कर लिये जाते हैं और अपने जैसे दूसरे उत्पीड़ित जनों की
दुनिया से दूर हो जाते हैं।
****************************
महापुरूषों का स्मरण करते समय उन्होंने यह उद्यम कैसे किया, शक्ति कैसे उत्पन्न होती है, इसका भी स्मरण करना आवश्यक है। हमारी परंपरा शिवत्व की है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् हमारी संस्कृति है। समुद्र मंथन से जो हलाहल निकला था, उसकी बाधा विश्व को न हो इसलिए जिन्होंने उसे प्राषण किया, वे नीलकंठ हमारे आराध्य दैवत हैं। उनके आदर्श को लेकर हमारी यात्रा जारी है।
महापुरूषों का स्मरण करते समय उन्होंने यह उद्यम कैसे किया, शक्ति कैसे उत्पन्न होती है, इसका भी स्मरण करना आवश्यक है। हमारी परंपरा शिवत्व की है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् हमारी संस्कृति है। समुद्र मंथन से जो हलाहल निकला था, उसकी बाधा विश्व को न हो इसलिए जिन्होंने उसे प्राषण किया, वे नीलकंठ हमारे आराध्य दैवत हैं। उनके आदर्श को लेकर हमारी यात्रा जारी है।
विश्व में जीवों
के विभिन्न प्रकार मिलते है. अस्तित्व की एक ही बात है. विभिन्नता से एकता
स्वीकारने के लिए समदृष्टी से देखने की आवश्यकता है. सत्य में भेद के लिए, विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है. सबको हमारे
जैसा देखना चाहिए. चरित्र से ही व्यक्तिगत और सामाजिक शक्ति बनती है. भेदों से
ग्रस्त समाज की प्रगति नहीं होती. सुगठित, एक दूसरे की चिंता करने वाला समाज हो, तभी समाज का हित साध्य होता है. संकल्पबद्ध समाज सत्य की नींव पर खड़ा होता है,
सभी लोग मेरे है, ऐसा कहने पर मनुष्य धर्म से खड़ा रहता है. धर्म यानि जोड़ने
वाला, उन्नति करने वाला,
मूल्यों का आचरण करना यानि धर्म, यह आचरण सत्यनिष्ठता से आता है.
राजनीतिक एकता आई
है, किंतु आर्थिक और सामाजिक
एकता के बिना वह टिक नहीं सकती. हम कई युद्ध दुश्मन के बल के कारण नहीं, बल्कि आपसी भेद के कारण हार गए. भेद भूलाकर एक
साथ खड़े न हो तो संविधान भी हमारी रक्षा नहीं कर सकता. व्यक्तिगत और सामाजिक
चरित्रनिष्ठ समाज बनना चाहिए. सामाजिक भेदभावों पर कानून में प्रावधान कर समरसता
नहीं हो सकती. समरसता आचरण का संस्कार करना पड़ता है, जिसके लिए समरसता का संस्कार करने की आवश्यकता है. तत्व
छोड़कर राजनीति, श्रम के बिना
संपत्ति, नीति छोड़कर व्यापार,
विवेक शून्य उपभोग, चारित्र्यहीन ज्ञान, मानवता के बिना विज्ञान और त्याग के बिना पूजा सामाजिक
अपराध है, ऐसा महात्मा गांधी कहते थे. इन अपराधों का निराकरण
करना ही संपूर्ण स्वराज्य, यह उनका विचार
था. इसलिए उनके विचारों की संपूर्ण स्वतंत्रता मिलना अभी भी बाकी है. इस तरह की
संपूर्ण स्वतंत्रता, समता और बंधुता
वाले समाज का निर्माण करना संघ का ध्येय है और इसके लिए संघ की स्थापना हुई है.
रैगर जाति के लिए आस्था यह रैगर समाज का स्वभाव
है. परंपरा से आई हुई यह आस्था है. इसके आधार पर संस्कृति बढ़ती है, पुरखों का गौरव
होता है. आज रैगर समाज को इसकी आवश्यकता है. रैगर समाज के मूल्यों
की प्रतिष्ठापना करने हेतु संगठन की आवश्यकता है. आदर्श चरित्र वाले समाज
निर्माण करना और समाज को परम वैभव प्राप्त करवाना, यह प्रत्येक रैगर का कार्य है.
किसी भी प्राकृतिक विपत्ति के समय आगे आने वाला सामाजिक कार्यकर्ता यह समाज की पहचान
है. अपने हित का विचार छोड़कर समाज के तौर पर निस्वार्थ सेवा करने वाला अर्थात् सामाजिक कार्यकर्ता. यह गर्व का नहीं, अपितु 75 वर्षों से समाज जो कर रहा है, उस प्रयोग का फल
है. नेता, सरकार पर देश नहीं बढ़ता, बल्कि चरित्रसंपन्न समाज पर वह टिका रहता है.
चरित्रसंपन्न व्यक्ति के कार्यकलापो से ही समाज का परिवर्तन होता है. रैगर समाज के सामाजिक संगठन अर्थात् वैभव प्रदर्शन नहीं है, बल्कि समाज परिवर्तन के लिए सही रास्ता
है. देश प्रतिष्ठित, सुरक्षित न हो तो
व्यक्तिगत सुख की कीमत नहीं है. सभी जिम्मेदारियां संभालकर समाज सेवा करने वाली
शक्ति अर्थात् संगठन का कार्य. समाजहित के इस कार्य में सब
सक्रिय हों.
************************************************
************************************************
आज भारतीय अन्य समाज जिस रैगर समाज को विकास
और तरक़्क़ी के कारण आदर और सम्मान के साथ देख रही है, वह भारत है. लोग कहते हैं कि हिंदुस्तान में सब कुछ मिलता है, जी हां हमारे पास सब कुछ है.
लेकिन हमें यह कहते हुए शर्म भी आती है और अफ़सोस भी होता है कि हमारे पास
ईमानदारी नहीं है.
मरने वाले तो ख़ैर
बेबस हैं, जीने वाले...कमाल करते हैं.
दरअसल मौत और ज़िंदगी
का रिश्ता सिर्फ सांसों से ही नहीं जुड़ा है....कई बार ज़िंदगी जीते जी मौत बन
जाती है और कई बार मौत मर कर भी ज़िंदा हो जाती है. इस अजीब सी पहेली की सबसे
ज़िंदा मिसाल
अरे जब हम अपने फायदे के लिए
जीते-जागते बोलते इंसान को इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते तो फिर मुर्दे को
इस्तेमाल करने में कैसा डर? वैसे भी मुर्दे बोलते कहां हैं?
गांधी का ये
वो देश है जो हमें सिखाता है कि मरने के बाद मुर्दे की बुराई नहीं करते. पर गंदी
सियासत और मौकापरस्त अफसरों को कौन समझाए कि उनकी इस हरकत से मौत नहीं बल्कि
ज़िंदगी शर्मसार हो रही है.
निगाहें कहां हैं...
निशाना किधर है... और घायल किसे होना है... बात सियासत की हो या रंगमंच की...
सबकुछ पहले से लिखा होता है... लेकिन कभी-कभी ऐसी अनहोनी हो जाती है जो सब किये
कराये पर पानी फेर देती है...
No comments:
Post a Comment