भूमंडलीकरण के दौर में औधोगिक पूँजीवादी समाज का निर्माण हुआ। यह समाज परम्परागत समाज से भिन्न है। भूमंडलीय परिदृश्य में उत्पादन एवं उपभोग दोनों की मात्रा विशाल हो गई। अतः नये औद्योगिक समाज ‘मास सोसाइटी’ या ‘झूंड समाज’ में बदल गई। इस समाज का कोई भी आकार निश्चित नहीं है और न इस पर व्यवस्था का पूरा नियंत्रण ही है। इस समाज के लोग अपने पारम्परिक परिवेश से अलग होकर केवल भीड़ का एक हिस्सा भर बनकर रह गये हैं। जहाँ पारंपरिक समाज धर्मों, रीति-रिवाजों द्वारा नियंत्रित व्यवस्था थी, वहीं नया समाज नियंत्रणहीन, उन्मुक्त एवं आकारहीन है। इस समाज के लोगों द्वारा स्थापित विचारधाराएँ एवं मूल्य पारंपरिक मूल्यों से अलग विकसित हुआ है। फलस्वरूप समाज में नये एवं पुराने मूल्यों के बीच द्वन्द्व एवं संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। नंद भारद्वाज का कहना लाजमी है- “जीवन और जगत के बारे में हमारा अर्जित किया हुआ ज्ञान, सामाजिक आचरण और जीवन - मूल्य आज समय के कठघरे में निःशब्द खड़े है।“
इस आधुनिक समाज के एवज में माँ – बाप का जीवन भी इतना व्यस्त हो चुका है कि वहाँ बच्चों से उत्पन्न व्यवधान भी उनमें चिड़चिड़ापन को बढ़ावा दे रहा है। संयुक्त परिवार तो बहुत पहले टूट चुका है। आज के एकल परिवार में किसी बुजुर्ग का न होना भी पारिवारिक अनुशासन के क्षय होने का कारण है। ऐसे परिवार में या तो बच्चा घर पर अकेला रह जाता है या माँ - बाप द्वारा अधिक दंड की क्रूरता झेलनी पड़ती है। बच्चे की जिन्दगी घर की चार दीवारी एवं खिलौने तक सीमित हो जाती है। माँ – बाप अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते है जिससे बच्चें में अपराध बोध की भावना पनपने लगती है। इस झूंड समाज में जहाँ एक ओर बच्चे की मानसिकता से खिलवाड़ होता है, वहीं बुढ़े - बुजुर्गों की स्थिति दयनीय बन जाती है। उन्हें पुराना फर्नीचर समझ कर घर के कोने में ढ़केल दिया जाता है। वर्तमान समाज में वे चुँकि फिट नहीं बैठते है, अतः उन्हें घर का कुड़ा समझ कर फेंक दिया जाता है। व्यवसायिक मूल्य हम पर इतना हावी हो गया है कि हम समस्त सामाजिक मूल्यों को दर किनार करते चले जा रहे हैं। यहीं कारण है कि आज के औद्योगिक समाज में बुढ़े एवं बुजुर्गों के लिए कष्टहीन मौत (यूथोनेसिया) के प्रावधान की मांग उठने लगी है। इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा लिखते है – “इसमें बचपन में वर्जना और प्रताड़ना है, जवानी में स्पर्धा और असुरक्षा का तनाव और बुढ़ापे में अर्थहीनता का अवसाद। इस तरह आधुनिक सभ्यता हासिल करने का अभियान हमें एक ऐसे मुकाम पर ला रहा है जहाँ हम संसार को जीत कर जीवन को हार रहे हैं।''
नये समाज का निर्माण अमरिकी संस्कृति के प्रभाव के कारण हुआ है। अतः नया समाज नस्लवाद, जातिवाद और हिंसा का समाज है l नये समाज में जी रहे मानव में मानवता का नाश हो रहा है। हमारी भावनाएँ वस्तुगत बन गई है, फलस्वरूप रिश्तों में बदलाव आने लगा है। चुँकि नया समाज भूमंडलीकरण की देन है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के मूल में लाभ ही सब कुछ है। अतः इस लाभ को पाने के लिए हम सामाजिक सरोकार की तिलांजलि देकर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते है, भले ही वह सीमा नृशंशता की सीमा क्यों न हो? भूमंडलीकरण का विरोध इसमें छीपे मानव संहारक तत्वों के कारण ही हुआ है। आज का सामाजिक संघर्ष स्थानीय न होकर वैश्विक बन गया है। श्याम चरण दुबे की चिन्ता जायज है – “समकालीन भारतीय समाज तीव्र संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। परिवर्तन की आँधियाँ कई दिशाओं से आ रही है- एक ओर आधुनिकीकरण की अनिवार्यता है, दूसरी और परम्परा का आग्रह है। पश्चिम की आर्थिक और तकनीकी सहायता अपने साथ वहाँ की जीवन शैली और मूल्य ला रही है, जिन्हे अपनी जड़ से कटे भारतीय आधुनिकता समझ कर बिना तर्क के अपना रहे हैं। इस अंधानुकरण ने एक नई चिंता को जन्म दिया है- अपनी अस्मिता और पहचान खोकर एक आकृति – विहीन भीड़ की गुमनामी में खो जाने की।“
भूमंडलीकरण वंचित वर्गों एवं पिछड़े देशों के लिए वरदान न होकर अभिशाप बनकर आया है। इसीलिए भारत के अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने ठीक ही कहा है – “भूमंडलीकरण के आलोचनात्मक मूल्यांकन को इस बात से परहेज नहीं होना चाहिए कि इतने आलोचक केवल हठकारिता या अपनी विरोधी प्रवृति के वजह से ही इसकी आलोचना नहीं करते। इस पर विचार करना आवश्यक है कि क्यों उन्हें इस बात को मानने में कठिनाई होती है कि यह दुनिया के वंचित लोगों के लिए वरदान है।“ अतः भूमंडलीकरण आज हमारे लिए अपरिहार्य प्रक्रिया है, जिससे हम चाहे भी तो नहीं बच सकते हैं। शायद इसीलिए अमेरिकी प्रेसीडेंट क्लिंटन और उनके सेक्रेटरी ने यह स्वीकारा था कि भूमंडलीकरण हमारे जीवन का अति आवश्यक तत्व है, हम लहरों को समुन्द्र के किनारे से टकराने से रोक सकते है, परन्तु हम भूमंडलीकरण को और अधिक समय तक नहीं रोक सकते।
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