Saturday, October 15, 2016

युवा 3 लेख

आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर दिखाने का दमखम और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का साहस रखने वाला युवा कहा जाता है। युवा शब्द ही मन में उडान और उमंग पैदा करता है। उम्र का यही वह दौर है जब न केवल उस युवा के बल्कि उसके राष्ट्र का भविष्य तय किया जा सकता है। आज के भारत को युवा भारत कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में असम्भव को संभव में बदलने वाले युवाओं की संख्या  सर्वाधिक है। आंकड़ों के अनुसार भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्रं के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि युवा शक्ति वरदान है या चुनौती? महत्वपूर्ण इसलिए भी यदि युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग न किया जाए तो इनका जरा सा भी भटकाव राष्ट्र के भविष्य को अनिश्चित कर सकता है।
आज का एक सत्य यह भी है कि  युवा बहुत मनमानी करते हैं और किसी की सुनते नहीं। दिशाहीनता की इस स्थिति में युवाओं की ऊर्जाओं का नकारात्मक दिशाओं की ओर मार्गान्तरण व भटकाव होता जा रहा है। लक्ष्यहीनता के माहौल ने युवाओं को इतना दिग्भ्रमित करके रख दिया है कि उन्हें सूझ ही नहीं पड़ रही कि करना क्या है, हो क्या रहा है, और आखिर उनका होगा क्या? आज से दो-तीन दशक पूर्व तक साधन-सुविधाओं से दूर रहकर पढ़ाई करने वाले बच्चों में ‘सुखार्थिन कुतो विद्या, विद्यार्थिन कुतो सुखम्’ के भावों के साथ जीवन निर्माण की परंपरा बनी हुई थी। और ऐसे में जो पीढ़ियाँ हाल के वर्षों में नाम कमा पायी हैं, वैसा शायद अब संभव नहीं। अब हमारे युवाओं की शारीरिक स्थिति भी ऐसी नहीं रही है कि कुछ कदम ही पैदल चल सकें। धैर्य की कमी, आत्मकेन्द्रिता, नशा, लालच, हिंसा, कामुकता तो जैसे उनके स्वभाव का  अंग बनते जा रहे हैं। गत सप्ताह दिल्ली के एक निगम पार्षद के युवा हो रहे पुत्र की  मृत्यु ने झकझोड़ दिया।
जानकारी के अनुसार उस बालक की मित्र मंडली उन तमाम व्यसनों से घिरी थी जिसे अब बुरा नहीं, आधुनिकता का पर्याय माना जाता है। वह किशोर अभी स्कूली छात्र ही था कि नशे का आदी हो गया। पिता समाज की सेवा में व्यस्त रहे इसलिए पुत्र को पर्याप्त समय नहीं दे सके। परिणाम ऐसा भयंकर आया कि वे अपने इकलौते पुत्र से वंचित हो गए।  केवल उस एक बालक की बात नहीं, एक ताजा शोध के अनुसार अब युवा अधिक रूखे स्वभाव के हो गए हैं। वह किसी से घुलते-मिलते नहीं। इन्टरनेट के बढ़ते प्रयोग के इस युग में रोजमर्रा की जिंदगी में आमने-सामने के लोगों से रिश्ते जोड़ने की अहमियत कम हो गई है। मर्यादाहीनता के इस भयानक दौर में हम अनुशासन की सारी सीमाएँ लांघ कर इतने निरंकुश, स्वच्छन्द, स्वेच्छाचारी और उन्मुक्त हो चले हैं कि अब समाज को किसी लक्ष्मण रेखा में बाँधना शायद बहुत बड़ा मुश्किल हो गया है।
क्या यह सत्य नहीं कि आज की पीढ़ी जो कुछ सीख पायी है उसमें हमारा दोष भी सर्वाधिक है। इन परिवेशीय हालातों में अंकुरित और पल्लवित नई पीढ़ी को न संस्कारों की खाद मिल पायी, न स्वस्थ विकास के लिए जरूरी वातावरण। मिला सिर्फ प्रदूषित माहौल और नकारात्मक भावभूमि। आज का युवा अधिकतर मामलों में नकारात्मक मानसिकता के साथ जीने लगा है। उसे दूर-दूर तक कहीं कोई रोशनी की किरण नज़र नहीं आ रही।  वर्तमान स्थिति के लिए हमारे स्वार्थ और समझौते जिम्मेदार हैं जिनकी वजह से हमने सिद्धान्तों को छोड़ा, आदर्शों से किनारा कर लिया और नैतिक मूल्य तक दाँव पर लगा दिए। और वे भी किसलिए, सिर्फ और सिर्फ अपनी वाहवाही कराने या अपने नाम से माल बनाने। हालात भयावह होते जा रहे हैं, हमें इसका अंदाजा नहीं लग पा रहा है क्योंकि हमारी बुद्धि परायी झूठन खा-खाकर भ्रष्ट हो चुकी है।
आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को संस्कार और समय किसी की समझ नही दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढाने वाली साबित हुई है। अपनी चीजों को कमतर करके देखना और बाहरी सुखों की तलाश करना इस जमाने को और विकृत कर रहा है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज जमाने के ही मूल्य है। अविभक्त परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, अनाथ माता-पिता, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, नौकरों, दाईयों एवं ड्राईवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी हमें क्या संदेश दे रही है! यह बिखरते परिवारों का भी जमाना है। इस जमाने ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा है। बदलते समय ने लोगों को ऐसे खोखले प्रतिष्ठा में डूबो दिया है जहां अपनी मातृभाषा में बोलने पर मूर्ख और अंग्रेजी में बोलने पर समझदार समझा जाता है।
संचार क्रांति का दुरपयोग चरम पर है। मोबाइल हर युवा के हाथ में ही नहीं, बल्कि प्राईमरी स्कूल से ही बस्ते में पहुंच अबोध बच्चों की जिन्दगी का अहम हिस्सा बन रहा है। एस.एम.एस. और वीडियो का  शौक इतना बढ़ चुका है कि वे उसी में मस्त हैं और अपने भविष्य को लेकर बेखबर। ऐसे में पढ़ाई का क्या अर्थ रह जाता है। हमारे मन-मस्तिष्क पर इंटरनेट के  प्रभावों विषय पर निकोलस कार की चर्चित पुस्तक है द शैलोज. इसे पुलित्जर पुरस्कार के लिए नामित भी किया गया था. का मत है कि इंटरनेट हमें सनकी बनाता है, हमें तनावग्रस्त करता है, हमें इस ओर ले जाता है कि हम इस पर ही निर्भर हो जायें। चीन, ताइवान और कोरिया में इंटरनेट व्यसन को राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट के रूप में लिया है और  इससे निबटने की तैयारी भी शुरू कर दी है।
भौतिकवाद की अंधी दौड़ मे कहीं न कहीं युवा भी फंसता चला जा रहा है। पश्चिमीकरण के पहनावे और संस्कृति को अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं होती है। आज किशोर भी 14-15 वर्ष की आयु में ही ड्रग्स, और डिस्कों का आदी हो रहा है। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति ने हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों को जन्म दिया है। जिससे इस युवा शक्ति का कदम अधंकार की तरफ बढता हुआ दिख रहा है। युग तेजी से बदल रहा है, परंपराएं बदल रही है। मूल्यों के प्रति आस्था विघटित हो रही है। तब ऐसा लगता है कि सब कुछ बदल रहा है। इस बदलावपूर्ण स्थिति में बदलाहट- टकराहट टूटने से पूरी युवा पीढ़ी प्रभावित हो रही है। युवा पीढ़ी में आज धार्मिक क्रियाकलापों और सामाजिक कार्यों के प्रति उदासीनता दिखती है। ऐसे समय में युवाओं को चेतने की जरूरत है। दुःखद आश्चर्य तो यह है कि वर्तमान  भौतिकवादी वातावरण में चरित्र-निर्माण की चर्चा बिल्कुल गौण है। राष्ट्र की प्राथमिकता स्वस्थ, प्रतिभाशाली युवा होने चाहिए, न कि यौन-कुण्ठा से ग्रस्त लुंजपुंज विकारी समाज।  हम सभी अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट, सी.ए.और न जाने, क्या-क्या तो बनाना चाहते हैं, पर उन्हें चरित्रवान, संस्कारवान बनाना भूल चुकेे हैं। यदि इस ओर ध्यान दिया जाए, तो विकृत सोच वाली अन्य समस्याएं शेष ही न रहेंगी।
हमेशा जोश और जुनून से सराबोर रहने वाली युवा पीढ़ी ही किसी भी देश के भविष्य की सबसे बड़ी पूंजी होती है। आज युवाओं के सामने बहुत बड़ा प्रश्न यही है कि करें तो क्या करें। जमाने की ओर जिधर देखें वहाँ कुछ कदम चल चुकने के बाद आ धमकता है कोई बड़ा सा स्पीड़ ब्रेकर, और उल्टे पाँव फिर वहीं लौटने को विवश होना पड़ता है जहाँ से डग भरने की शुरूआत की थी। हमारे सामाजिक आर्थिक ढांचे की ऊर्जा स्थिरता मुख्यतः युवा पीढ़ी पर निर्भर है लेकिन इसे बढ़ता तनाव, बेरोजगारी या फिर आधुनिकता का चलन उसकी उम्मीदों और सपनों को मिटा रही है।
एक अध्ययन के अनुसार, जिन परिवारों का मुखिया आधुनिक बुराइयों (शराब, शबाब, झूठी शानबाजी) से दूर होता है, उनके बच्चे अपेक्षाकृत अधिक संयमी, मितव्ययी तथा अनुशासित होते हैं। ऐसे परिवेश में पले-बढ़े बच्चों की देश के उच्चशिक्षा संस्थानों में भी सर्वाधिक भागीदारी है जबकि छोटी आयु से ही आधुनिक साधनों तथा खुली छूट प्राप्त करने वालों की सफलता का अनुपात काफी नीचा है। क्या यह सत्य नहीं कि ‘पहले तो हम स्वयं-ही अपने बच्चों को जरूरत से ज़्यादा छूट देते हैं, पैसा देते हैं और भूल कर भी उनकी गतिविधियों पर नजर नहीं रखते। लेकिन बाद में, उन्हीं बच्चों को कोसते हैं कि वे बिगड़ गए। आखिर यह मानसिकता हमें कहाँ ले जा रही है? आज शहरों का हर युवा छोटे-से-छोटे काम के लिए वाहन ले जाता है। शारीरिक श्रम और चंद कदम भी पैदल चलना शान के खिलाफ समझा जाता है। आश्चर्य तो तब होता है जब हम घर से महज कुछ मीटर दूर पार्क में सैर करने के लिए भी कार पर जाते हैं। यह राष्ट्रीय संसाधनों के दुरुपयोग से ज्यादा-चारित्रिक तथा मानसिक पतन का मामला है, इसकी तरफ कितने लोगों का ध्यान हैं? दरअसल आज ’जैसे भी हो, पैसा कमाओे और उसे दिखावे-शानबाजी पर उड़ाआ’े का प्रचलन है। विज्ञापनों का बहुत बड़ा दोष है जो युवाओं को ऐसे कामों के लिए उत्तेजित करते हैं।
इसका अर्थ यह भी नहीं कि देश की सम्पूर्ण युवा पीढ़ी ही पथभ्रमित है। आज हमारे बहुत से युवा अनेक कीर्तिमान स्थापित करने की दिशा में भी अग्रसर है। वास्तव में युवा शक्ति बड़ी प्रबल शक्ति है। युवा शक्ति के बल पर ही देश, दुनिया और समाज आगे बढ़ सकता है, लेकिन इसके लिए उस शक्ति को नियंत्रित करना भी बहुत जरूरी है। अबतक हुए राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति की बात करें तो सभी क्रांतियों के पुरोधा युवा रहे हैं। युवा शक्ति सदैव देश को आगे बढ़ाने में सहायक बनती है। समाज के युवा दुर्व्यसन मुक्त होंगे, बुराईमुक्त होंगे तो हम बड़ी से बड़ी उपलब्धियां भी अर्जित कर सकेंगे।
इन दिनों स्वामी विवेकानंद की सार्द्धशती मनाई जा रही है। स्वामी विवेकानंद में मेधा, तर्कशीलता, युवाओं के लिए प्रासंगिक उपदेश जैसी अनेक ऐसी बातें हैं जिनसे युवा प्रेरणा लेते हैं। स्वामीजी को भी युवाओं से बहुत प्यार था। वे कहा करते थे विश्व मंच पर भारत की पुनर्प्रतिष्ठा में युवाओं की बहुत बड़ी भूमिका है। स्वामीजी का मत था, ‘मंदिर जाने से ज्यादा जरूरी है युवा फुटबॉल खेले। युवाओं के स्नायु पौलादी होनी चाहिए क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है।’ दुर्भाग्य से खेल-कूद, व्यायाम हमारे जीवन से दूर होते जा रहे हैं क्योंकि दिन भर मोबाइल, इंटरनेट, फेसबुक हमे व्यस्त रखते हैं। सवाल है कि कौनन चिंता कर रहा है देश की इस सबसे बहुमूल्य धरोहर की।
कवि मित्र अशोक वर्मा कहते हैं- ‘बच्चे, फूल, दीया, दिल, शीशा बेहद नाजुक होते हैं, इन्हें बचाकर रखिये हरदम, पथरीली आवाज़ों से। 
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आज का युवा वर्ग


डा० श्रीमती तारा सिंह

मनुज-समाज की यात्रा, क्षितिज की यात्रा से कम नहीं होती; जो कभी समाप्त नहीं होती । प्रत्येक आनेवाली पीढ़ी, अतीत और वर्तमान की कड़ी होती है , अगर हम इस बात को मान लें, तो युवावर्ग की भाषा को समझना आसान हो जायगा ; अन्यथा यह विकट है । आज के युवावर्ग ,अपनी विरासत से विचार –दर्शन बहुत कम ही पाते हैं, कारण माँ-बाप, दोनों का कामकाजी होना और एकल परिवार का होना । दोनों ही कारण ,बच्चों को एकांकी और चिड़चिड़ा बना दे रहा है । आखिर विचार-दर्शन उन्हें कौन करायेगा, जिसके बिना आज का युवावर्ग चौराहे पर खड़ा है,वे जायें तो किधर जायें । अपनी जीवन-गति का निर्माण करें, तो किस प्रकार करें ; कौन बतायेगा । ऐसे में तिराहों पर युवावर्ग का स्तम्भित होना स्वाभाविक है, लेकिन इस भटकाव को हम स्वाभाविक नहीं कह सकते ।



देश की आजादी के 66 साल बीत जाने के बावजूद देश की जितनी उन्नति होनी चाहिये थी, नहीं हो सकी । अन्यान्य कारणों के अलावा, न्वयुवकों का बेरोजगार होना तथा सही दिशा- निर्देश से वंचित रहना, मुख्य कारण है । उनमें धर्य नहीं है, वे चिंतित जीया करते हैं। अधिकतर जहाँ-तहाँ बैठकर गप्पेबाजी कर समय काटते हैं; वक्त की पाबंदी और अनुशासन का अभाव है । वे हमेशा तनाव की जिंदगी जीते हैं । धैर्य और सहनशीलता के घटते जाने का कारण, टेलीवीजन भी कम नहीं है; जो आज घर-घर की आवश्यकता के साथ-साथ बच्चों के जीवन विनाश का माध्यम बन गई है । बच्चे स्वीच आन करने के साथ ही, मार-धाड़, गोलियाँ बरसाना, खून करना, इससे भी बदतर है , गंदे-गंदे दृश्यों को दिखाना । ज्यादातर परिवार में सिर्फ़ माँ-बाप और बच्चे होते हैं । माँ-बाप का कामकाजी होने से बच्चों को रोकने-टोकने वाला नहीं होता है । वे दिन भर टी० वी० के आगे बैठकर, उन्हीं गंदे दृश्यों और मार-धाड़ देखते रहते हैं, जिससे उनकी मनोवृति अनुशासानहीन हो जाती है । नतीजा छोटी-छोटी बातों पर आक्रामक और हिंसक हो जाते हैं , जो उनके लिए हानिकारक तो है ही,परिवार के लिये भी बुरा होता है ।


सरकारी महकमें भी इन युवाओं को भटकाने का काम कम नहीं कर रहे हैं । पुलिस का असामाजिक तत्वों के प्रति नरम रवैया, पीड़ितों की उपेक्षा व रिश्वत्खोरी की लत की वजह से समाज में अपराध बढ़ते जा रहे हैं । पुलिस की लापरवाही व मनमाने व्यवहार से सुरक्षा का भरोसा समाप्त होता जा रहा है । पहले तो अपराधी पकड़े नहीं जाते, अगर कभी पकड़े गये, तो रिश्वत देकर छूट जाते हैं ।


बेगुनाहों को पकड़कर जेल भेज देना, उनके साथ मारपीट करना,कभी-कभी तो थाने में मारते-मारते मार देना है । इन सब कारणों से युवावर्ग अपने को असहाय महसूस करते हैं, जिससे गुस्सा और बदले की भावना उत्पन्न हो जाती है और वे संयम खो बैठते हैं ।



सरकार की ओर से धर्म व जाति के नाम पर आरक्षण ,तो आग में घी डालने का काम कर रहा है । नेता युवाओं का इस्तेमाल, प्रदर्शन,रैली व हड़ताल जैसे कामों के लिए करते हैं । इससे युवा क्या सीखेंगे ? इस तरह युवाओं की उर्जा गलत जगह प्रयोग कर, ये नेतागण,अपनी पार्टी के वोटों के लिए, इनकी जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं । इससे इनके स्वभाव से धैर्य व नैतिकता गायब होने लगा है । माँ-बाप के पास समय नहीं होता ; आया या पड़ोसी जैसा सिखाते हैं, बड़े होकर वे उस प्रवृति के हो जाते हैं । इनमें इनका कसूर नहीं, कसूर है---माँ-बाप,समाज और सरकार का,जो इन्हें अच्छी राह दिखा नहीं पा रहे हैं, बल्कि दिन व दिन इन्हें गहरी खाई की ओर धकेल रहे हैं । ये भूल रहे हैं,जब-तक युवा नहीं जागेगा, देश नहीं जागेगा ।


यौवन जिंदगी का सर्वाधिक मादक अवस्था होता है । इस अवस्था को भोग रहा युवक वर्ग ,केवल देश की शक्ति ही नहीं, बल्कि वहाँ की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक भी होता है । अगर हम यह मानते हैं कि, यह संसार एक उद्यान है, तो ये नौजवान इस उद्यान की सुगंध हैं । युवा वर्ग किसी भी काल या देश का आईना होता है जिसमें हमें उस युग का भूत, वर्तमान और भविष्य , साफ़ दिखाई पड़ता है । इनमें इतना जोश रहता है कि ये किसी भी चुनौती को स्वीकारने के लिये तैयार रहते हैं । चाहे वह कुर्बानी ही क्यों न हो, नवयुवक अतीत का गौरव और भविष्य का कर्णधार होता है और इसी में यौवन की सच्ची सार्थकता भी है ।


हमारे दूसरे वर्ग, बूढ़े- बुजुर्ग जिनके बनाये ढ़ाँचे पर यह समाज खड़ा रहता आया है; उनका कर्त्तव्य बनता है कि इन नव युवकों के प्रति अपने हृदय में स्नेह और आदर की भावना रखें, साथ ही बर्जना भी । ऐसा नहीं होने पर, अच्छे-बुरे की पहचान उन्हें कैसे होगी ? आग मत छूओ, जल जावोगे; नहीं बताने से वे कैसे जानेंगे कि आग से क्या होता है ? माता-पिता को या समाज के बड़े-बुजुर्गों को भी, नव वर्ग के बताये रास्ते अगर सुगम हों, तो उन्हें झटपट स्वीकार कर उन रास्तों पर चलने की कोशिश करनी चाहिये ।


ऐसे आज 21वीं सदी की युवा शक्ति की सोच में,और पिछले सदियों के युवकों की सोच में जमीं-आसमां का फ़र्क आया है । आज के नव युवक , वे ढ़ेर सारी सुख-सुविधाओं के बीच जीवन व्यतीत करने की होड़ में अपने सांस्कृतिक तथा पारिवारिक मूल्यों और आंतरिक शांति को दावँ पर लगा रहे हैं । सफ़लता पाने की अंधी दौड़, जीवन शैली को इस कदर अस्त-व्यस्त और विकृत कर दिया है कि आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण ,उनके जीवन को बर्वाद कर दे रहा है । उनकी सहनशीलता खत्म होती जा रही है । युवकों के संयमहीन व्यवहार के लिए हमारे आज के नेता भी दोषी हैं । आरक्षण तथा धर्म-जाति के नाम पर इनका इस्तेमाल कर, इनकी भावनाओं को अपने उग्र भाषणों से भड़काते हैं और युवाओं की ऊर्जा का गलत प्रयोग कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करते है ;जिसके फ़लस्वरूप आज युवा वर्ग भटक रहा है । धैर्य, नैतिकता, आदर्श जैसे शब्द उनसे दूर होते जा रहे हैं । पथभ्रष्ट और दिशाहीन युवक, एक स्वस्थ देश के लिए चिंता का विषय है । आज टेलीवीजन , जो घर-घर में पौ फ़टते ही अपराधी जगत का समाचार, लूट, व्यभिचार, चोरी का समाचार लेकर उपस्थित हो जाता है,या फ़िर गंदे अश्लील गानों को बजने छोड़ देता है । कोई अच्छा समाचार शायद ही देखने मिलता है । ये टेलीवीजन चैनल भी युवा वर्ग को भटकाने में अहम रोल निभा रहे हैं । दूसरी ओर इनकी इस दयनीय मनोवृति के लिये उनके माता-पिता व अभिभावक भी कम दोषी नहीं हैं । वे बच्चों की मानसिक क्षमता का आंकलन किये बिना उन्हें आई० ए० एस०, पी०सी० एस०, डाक्टर, वकील, ईंजीनियर आदि बनाने की चाह पाल बैठते हैं और जब बच्चों द्वारा उनकी यह चाहत पूरी नहीं होती है, तब उन्हें कोसने लगते हैं । जिससे बच्चों का मनोबल गिर जाता है । वे घर में तो चुपचाप होकर उनके गुस्से को बरदास्त कर लेते हैं; कोई वाद-विवाद में नहीं जाते हैं, यह सोचकर,कि माता-पिता को भविष्य के लिये और अधिक नाराज करना ठीक नहीं होगा । लेकिन ये युवक जब घर से बाहर निकलते हैं, तब बात-बात में अपने मित्रों, पास-पड़ोसी से झगड़ जाते हैं । इसलिये भलाई इसी में है कि बच्चों की मानसिक क्षमता के अनुसार ही माँ-बाप को अपनी अपेक्षा रखनी चाहिये । अन्यथा उनके व्यक्तित्व का संतुलित विकास नहीं हो पायेगा ; जो कि बच्चों के भविष्य के लिये बहुत हानिकर है ।



मेरा मानना है कि युवा वर्ग में इस प्रकार का चिंताजनक व्यवहार देश की भ्रष्ट, रिश्वतखोर व्यवस्था है । जहाँ ये अपने 
को असहाय महसूस करते हैं । उनके भीतर पनपती कुंठा, इस प्रकार उग्र रूप्धारण करती है । आज युवा वर्ग एम०ए०, इंजीनियरिंग आदि की पड़ाई करके भी बेरोजगार हैं । कारण आज शिक्षा और योग्यता से ज्यादा महत्व सिफ़ारिश का है । जिन बच्चों को माँ-बाप , अपना घर गिरवी रखकर, उधार-देना कर, मजदूरी कर पढ़ाते हैं ; यह सोचकर कि पढ़ाई खतम होने के बाद, बेटा कोई नौकरी में जायगा, तब इन सब को लौटा लूँगा । मगर जब वे पढ़-लिखकर भी बेरोजगार, दर-दर की ठोकरें खाते फ़िरते हैं, तब युवा वर्ग में आक्रोश जन्म लेता है । जो आये दिन हमें हिंसक प्रवृतियों के रूप में देखने मिलता है । जब तक समाज में ये ऊँच-नीच, नौकरशाही रहेगी , युवा वर्ग कुंठित और मजबूर जीयेंगे ।

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यौवन तन नहीं, मन की अवस्था है। हां! तन की भिन्न अवस्थाएं, मन की इस अवस्था को प्रभावित जरूर करती हैं। युवा मन बंद खिड़की-दरवाजे वाला मकान नहीं होता। लेकिन जो एक बार ठान लिया; वह करके ही दम लिया। जिसे एक बार मान लिया; उस पर अपना सर्वस्व लुटा दिया। युवा, न करने का बहाना नहीं खोजता। लेकिन उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध करने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता। युवा, ढूंढ-ढूंढकर चुनौतियों से टकराता है। वह पराक्रम दिखाने के मौके तलाशता रहता है। वह अपने लिए खुद चुनौतियां निर्मित कर सुख पाता है।
युवा, भूत नहीं होता। युवा, भविष्य और वर्तमान के बीच में झुला भी नहीं झूलता। वर्तमान के लिए भविष्य लुटता हो, तो लुटे। दुनिया उसे अव्यावहारिक, पागल, दीवाना या दुनियादारी से परे कहती हो, तो कहे। युवा, बंधनों और बने-बनाये रास्तों पर चलने की बाघ्यता भी नहीं मानता। वह नये रास्ते बनाता है। इन नये रास्तों को ही बदलाव कहते हैं। इसलिए युवा को बदलाव का वाहक कहा गया है। बदलाव, अवश्यसंभावी है। आप इन्हें स्वीकारें, न स्वीकारें.. ये तो होंगे ही। बदलाव के बगैर ना ही प्रकृति चल सकती है और ना ही समाज।
सामाजिक बदलाव, लीक से अलग होते हैं। लीक, समाज की पुरातन मान्यताओं की बिना पर बनी होती है। बदलाव, लीक पर सवाल खड़े करते हैं। कृष्ण, एकलव्य, प्रह्लाद, अष्ट्रावक्र, आदि शंकराचार्य से लेकर परशुराम, सावित्री, मीरा, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, स्वामी दयानंद, कबीर, रैदास, राजा राममोहन राय आदि कितने ही नाम हैं, जिन्होने अलग- अलग वय का होते हुए भी अपने - अपने समय में समाज की लीक पर सवाल उठाये।
समाज ने अपनी बनाई लीक पर खड़े किए सवालों को तत्काल कभी भी स्वीकार नहीं करता? अतः उसकी निगाह में युवा विद्रोही हो जाता है। समाज की बनाई लीक का टूटना हमेशा नकरात्मक नहीं होता। सकरात्मक बदलाव कालांतर में उसी समाज द्वारा सराहे जाते हैं। जीसस, मोहम्मद, सुकरात, अरस्तू, प्लेटो, टालस्टाय, सिकंदर, नेपोलियन, लेनिन, चाणक्य, गांधी से लेकर जेपी तक....सभी ने अपने समय के युवाओं के सामने चुनौतियां रखीं, पराक्रम कर दुख झेले... जहर पिया, लेकिन दूसरों को जीवंतता दी।
आज भी बनी-बनाई लीकें टूट रही है। आज भी सवाल खड़े ही किए जा रहे हैं। एकमात्र भिन्न बात आज यह है कि ये लीकें हमारी की जगह मैं और मेरा के लिए टूट रही हैं। हालांकि सोशल साइट्स पर जो शेयर किया जा रहा है, उससे लगता है कि जल्द ही निजता से ज्यादा, निजता से छुटकारा पाने की व्याकुलता वाला दौर आने वाला है। दुआ कीजिए। फिलहाल तो अभिभावकों की निगाह में प्राथमिकता पर आई संतानों की इस निजता और उससे छुटकारा पाने के नये तौर-तरीकों के साइड इफेक्ट इतने ज्यादा हैं कि समाजशास्त्रियों के चश्में में और कोई नंबर फिट बैठ ही नहीं रहा। बदलावों की सकरात्मकता दिखाई ही नहीं दे रही।
वे कह रहे हैं कि येनकेन प्रकारेण’, आज का आदर्श सिद्धांत है। मुझे क्या मतलब’, आज का आदर्श वाक्य है। निडरता है, लेकिन उसमें अनुशासन नहीं है। जिन्हे सामाजिक मूल्यकहा जाता है, नया जमाना उन्हे अपने पर बोझ मान रहा है। इजी मनीको सर्वश्रेष्ठ धनकी संज्ञा दी जा रही है और इजी वेको परमपथकी। एक उम्र नशा, नंगापन, मुक्त संबंध, कैरियर और पैकेज को ही स्टेटस सिंबल मानने लगी है।
समाजशास्त्री कह रहे हैं कि इस उम्र में निडरता है, लेकिन उससे पैदा होने वाला अनुशासन गायब है। एक उम्र के लोग विवाह पूर्व यौन संबंध गलत मानने से इंकार कर रहे हैं। वे अपना जीवन साथी तय करने में अपने अभिभावकों की सहमति जरूरी नहीं समझ रहे। दिल्ली पुलिस ने पिछले साल हुए ज्यादातर अपराधों का कारण प्रेम व अवैध संबंध बताया। समाजशास्त्री, इसे समाज का आइना बता रहे हैं। अफसोस है कि मीडिया भी समय-समय पर इसे ही भारत की कुलजमा तसवीर के रूप पेश करता ही रहा है।
भारतीय संदर्भ में बात करें, तो हम इन्हे नकरात्मक सामाजिक बदलाव कह सकते हैं। हालांकि ये सब उसकी देन नहीं है, जिसे उम्र की सीमा में बांधकर युवा कहते हैं। संतान की शारीरिक सुंदरता, कैरियर और पैकेज की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अभिवादकों की उम्र क्या है? भारत में भ्रष्ट आचार के मशहूर आरोपियों की सूची बनाइए। ’’देश और देश की जनता के हितों से मुझे क्या मतलब’’ कहने वाले सांसद कम उम्रदराज नहीं। जूनियर अपराधियों को शामिल करने वाले राजनैतिक दलों में मुखिया तो लगभग सभी सीनियर सिटीजनशिप के आसपास ही हैं। सामाजिक बदलाव को दिशा देने का दायित्व धर्मगुरुओं के अलावा विश्वविद्यालय-मीडिया जैसी संस्थानों की है। इनके अगुवा किस उम्र के हैं ? क्या वे अपने दायित्वों पर खरे हैं?
यदि आप सामूहिक सामुदायिक की जगह व्यक्तिगत का बोलबाला है; आर्थिक व निजी लक्ष्यों के आगे समग्र व सामुदायिक उत्थान के लक्ष्य का आकर्षण फीका पड़ गया है; तो इसका बड़ा कारण फंड लोलुप एन जी ओ कल्चरहै, जिसने सामाजिक स्वयंसेवक निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया को रोक कर नौकर और मालिक पैदा करने चालू कर दिए हैं। प्रेरित करने वाले ही अपनी की शुचिता से चूक गए हैं। चुनौती खड़े कर सकने लायक वर्तमान समय के पात्रों में भी प्रतिबद्धता दिखाई नहीं दे रही। तो फिर नकरात्मक बदलावों के लिए हम सिर्फ 15 से 45 की उम्र को दोषी कैसे ठहरा सकते हैं। यह न सिर्फ नाजायज है, बल्कि अन्याय भी है। ऐसा कर हम उनमें सकरात्मकता का आगाज करने के रास्ते और संकीर्ण करेंगे।
बावजूद इसके मुआफ कीजिए! भारत में वर्तमान सामाजिक बदलावों की कुलजमा तसवीर यह नहीं है। खलनायकों के पोस्टर वाली इस फिल्म में नायकों को छापा ही नहीं गया। यदि कुलजमा तसवीर यही होती, तो हमने दिल्ली के रामलीला मैदान में 8 से 80 वर्ष की वय के जिन युवाओं को अन्ना अनशन के पीछे हामी भरते देखा.... वह न होता। झारखण्ड की बंजर-टांड धरती पर सामूहिक बागवानी की जो मंजिल दिखाईं दे रही हैं, वह कभी होती ही नहीं। होते।
उत्तरांचल में मंदाकिनी की धारा के लिए जान-जोखिम में डालकर पहाड़ी- पहाड़ी हुंकार भरने वाली सुशीला भंडारी का कोई नामलेवा न होता। पटना के सुपर- 30 जैसे गारंटीपू्रफ प्रयास कोई करता ही नहीं। पता कीजिए! मनरेगा, सूचना का अधिकार, जनलोकपाल... सामाजिक बदलाव का सबब बने ये तमाम कदम युवा मनों की ही उपज पायेंगे। ये वाक्ये.. ऐसे कदम सामाजिक बदलाव की भारतीय फिल्म के नायक है।
आज भारत के मानव संसाधन की दुनिया में साख है। आज सिर्फ पांच घंटे सोकर काम करने वाले शहरी नौजवानों की खेप की खेप है। जनसंख्या दर और दहेज हत्या में कमी के आंकड़े हैं। देश के शिक्षा बोर्डों मे ज्यादा प्रतिशत पाने वालों में लड़कों से ज्यादा संख्या लड़कियों की दिखाई दे रही हैं। उडीसा के सुदूर गांव की आदिवासी लड़की भी महानगर में अकेले रहकर पढ़ने का हौसला जुटा रही है।
दिल्ली की झोपड़पट्टी में रहकर बमुश्किल रोटी का इंतजाम कर सकने वाली नन्ही बुआ के बेटे के मात्र 25 साल की उम्र जापान की कंपनी का महाप्रबधक बनने को अब कोई अजूबा नहीं कहता। निर्णय अब सिर्फ ऊंची कही जाने वाली जातियों के हाथ में नहीं है। कम से कम शहर व कस्बों में अब कोई अछूत नहीं है। जिसकी हैसियत है, उसकी जाति नजरअंदाज की जाती है। रिश्ते अब तीन-तेरह की श्रेणी या परिवार की हैसियत से ज्यादा, लड़का-लड़की की शि़क्षा और संभावनाओं पर तय होते हैं। खेतीहर मजदूर आज खेत मालिक की शर्तों पर काम करने को मजबूर नहीं है। बंधुआ मजदूरी का दाग मिट रहा है। ये सकरात्मक बदलाव हैं, जिन्हे युवा मन  ही अंजाम दे रहे हैं।
हमारे जैसे कार्यकर्ताओं को भी उम्मीद की किरण यदि कहीं नजर आती है, तो वे युवा ही है, जो अपना समय-श्रम-कौशल बहुत कुछ देने को तैयार रहते हैं और बदले में चाहते हैं, तो सिर्फ थोड़ी सी थपथपाहट, थोड़ी सी ईमानदारी, थोड़ी सा प्रोत्साहन, थोड़ी सी साफगोई।  काश! हम उन्हे ये दे पाते।

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