Saturday, October 22, 2016

लेख


मै समाज हुं-छीपा अशोक कुमार सोलंकी-मन की बात

मै समाज हुं।
मै ही तुम्हारा गुजरा हुआ कल और अगर मेरे साथ चलोगे तो तुम्हारा आने वाला भविष्य हुं। मुझसे ही तुम्हारी पहचान और तुमसे ही मेरा गौरव है।
सदियो से हमने साथ चलते हुए कई बदलाव देखे है।कुछ ने मेरा नाम ऊँचा किया और कुछ ने मेरा चेहरा मलिन किया मगर मैंने हमेशा तुम्हारे हर बदलाव को खामोशी से स्वीकार किया है।

जब मै आज तक तुम्हारी सुनते आया हु तो आज कुछ मेरी भी सुनो।

इतना बड़ा कुनबा होकर भी जब अनेक नाम दिए जाते है तो मै व्यथित होता हु, जब तुम सभी मेरे ही अंग हो तो नाम की तलवार से मुझे टुकड़े टुकड़े करने पर क्यों तुले हो,मुझे एक और मजबूत रखना है तो मेरी पहचान भी एक रखो।
बरसो पहले मेरे लोगो ने भले ही तार्किक आधार पर कुछ प्रथाए शुरू की होगी जो मुझे आज के समय में तकलीफ देती है जैसे मृत्युभोज,दहेज़। मेरे सम्मान को बढ़ने के लिए इन्हें मझसे उखाड़ फेंको।मुझे ख़ुशी है की मेरे लिए कई लोग इस के लिए दृढ़संकल्प है और धीरे धीरे इनका खात्मा हो रहा है।मै अपनी सुशिक्षित पीढ़ी से आग्रह करूँगा कि वे इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाए क्यों की शिक्षा ही रूढ़ियों के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है।
मै देख रहा हु कि हमारी बच्चियो को भी दुय्यम समझा जाता है ,कही उन्हें जन्म लेने से रोका जाता है तो कही उन्हें शिक्षा से रोका जाता है। मगर जरा सोचो उनके बिना ना तुम्हारा अस्तित्व है ना मेरा,वे ही माँ,बेटी ,बहन और पत्नी भी है।उनको अपने बराबर अधिकार दोगे तो तुम्हारे साथ मेरा भी विकास निश्चित है।

जब मै आज तक तुम्हारी सुनते आया हु तो आज कुछ मेरी भी सुनो।

मेरे नाम से हजारो संगठन और संस्थाए बनाई है तुमने। मगर मेरे भले के लिए उनमे कितना काम करते हो ये भी बताते चलो।सभी के सभी क्षेत्रवाद से ग्रसित है,राष्ट्रिय स्तर पर शायद ही कोई अपनी पहचान रखता होगा।सभी अपने परगने पट्टियों में उलझे हैं, मेरे लिए एक सोच रखने वाले कम ही मिलेंगे।मगर दोष उनको भी क्यों दू, इनकी भी अपनी सीमाएं है।हर क्षेत्र की अलग समस्याए,अलग जरूरते,अलग रिवाज और उनके अलग समाधान है,इनके बहार वे चाहे तो भी नहीं निकल पाते।मेरी यही कामना है की इन सीमाओ का उल्लंघन कर राष्ट्रिय स्तर पर मुझे एक पहचान दिलाने का काम भी अपने हाथ में लें।
मै यह भी देख रहा हु कि तुम लोगो में अपना नाम करने की और प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति बढ़ रही है उस से तुम मुझे पीछे छोड़ कर अपने आपको ही बड़ा बना रहे हो यह भूल कर कि तुम्हारी पहचान और बड़प्पन मेरे बिना कोई मायने नहीं रखता।

सार्वजानिक मंच पर हो या सामाजिक कार्यक्रमों में अपने आप को सम्मानित किये जाने को तुम भले ही मेरा सबसे बड़ा रहनुमा समझ रहे हो मगर सच तो यह है कि उसी कार्यक्रम ,उसी मंच के सबसे पीछे खड़े तुम्हारे सामने आशान्वित नजरो से देखते हुए,तुम्हारे लिए तालिया बजाते उस सर्वसाधारण बंधु की अपेक्षाओं को ही अपना लक्ष्य बना लोगे उस दिन मै समझूँगा तुमने उसका नहीं मेरा भी विकास कर लिया।
तुम्हे हमेशा मुझसे शिकायत रही है कि मैने तुम्हारे लिए क्या किया ,मैंने तुम्हे क्या दिया।
मेरा जवाब इतना ही है कि जरा इतना भी सोचना कि तुमने मेरे लिए क्या किया ,मुझे क्या दिया ।इसी से तुम्हे भी पता चल जाएगा कि अगर तुमने मेरे लिए कुछ किया है तो मैने भी अपने साथ तुम्हे भी गौरव और प्रतिष्ठा दी है और अगर तुमने मुझे उपेक्षित किया है तो मेरी नजरो में भी तुम उपेक्षित ही रहे हो।।
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मैं कभी कभी सोचता हूँ कि हमें कुछ भी नही लिखना चाहिये क्योकिं कई बार कई लोग एक साथ हम पर टूट पड़ते है लेकिन फिर भी जब कोई क्रिया होती है तो प्रतिक्रिया भी होती है और जब समाज की बात आती है तब लिखे बिना रहा नही जाता है क्योकि मैं भी इसी समाज का सदस्य हूँ मेरा उद्देश्य कभी भी किसी को लक्ष्य करना नही है लेकिन यह भी सही है कि किसी की चापलुसी करना, पिछलगु बनना भी मेरे स्वभाव मे नही है ।
मैं परमपिता परमेश्वर को सामने रखकर यह कहता हूँ कि मैं मेरी बुद्धी और विवेक से हमेशा समाज के हित मे यथाशक्ति सही करने का प्रयास करता हूँ मेरे स्वभाव और कार्यप्रणाली को लोग किस तरिके से समझते है यह उनकी सोच है और सब अपनी अपनी सोच के अनुसार सोच भी सकते है सब स्वतन्त्र है कोई किसी पर अपनी बात मनवाने का दबाव भी नही डाल सकते और न ही कोई भी व्यक्ति सभी को खुश या प्रसन्न रख सकता है और सभी अपने मत से सहमत हो यह असम्भव है क्योकिं सभी के विचार अलग- अलग होते है और जो व्यक्ति लिखते, बोलते और काम करते समय यह सोचता है कि मेरे से फलाना नाराज हो जायेगा, फलाना मेरा रिस्तेदार है आदि आदि बातो का लिहाज करने वाला व्यक्ति सही नही बोल सकता है, सही नही लिख नही सकता है और न ही सही काम कर सकता है क्योकि वह सत्य को छिपा कर रिस्तो पर ध्यान देता है लेकिन साथियो हमे सत्य कहने और सही का समर्थन करने मे कभी भी किसी का लिहाज नही करना चाहिये चाहे कोई नाराज क्यो न हो ?? नमक की आवश्यकता जरुर होती है लेकिन उसके स्वाद को हम मीठा नही कह सकते है ।
जब एक ही विषय पर विरोधाभास होतो दोनो सही नही हो सकते है ईसलिये हमे यह तय करना होगा कि वास्तविक सही और सत्य क्या है ??
असल बात यह है कि हमे हमेशा विरोध के लिये विरोध नही करना चाहिये हमे विरोध या सहयोग करने से पहले व्यक्ति नही विषय के बारे मे सोचना होगा अपना विरोधी भी समाजहीत का मुद्दा और विषय सामने रखता है तो हमे समर्थन करना चाहिये तब व्यक्ति विशेष पर ध्यान देकर विरोध करना अपने विवेक और आत्मा की आवाज का दुरुपयोग है जब समाज के हित ही बात है उसमे ऐसा क्यो की उसको नही पुछा, उसको आगे नही रखा ?? ऐसा नही होना चाहिये मैं यही कहूंगा “जो जीता वही सिकन्दर” अर्थात् जो समाज हित की बात करे वही हमारे लिये सिकन्दर फिर अध्यक्ष हो या अन्य कोई हमे उनका पुरा सहयोग और समर्थन करना चाहिये , कुछ लोग अपने समाज की एकता और सामाजिक बुराइयो के उन्मूलन के लिए प्रयास कर रहे है लेकिन हम लोग उनका विरोध सिर्फ और सिर्फ ईसलिये करते है कि यह काम फलाना व्यक्ति कर रहा है साथियो हमारी ईसी प्रवृति ने आजादी के 70 वर्ष बाद भी उसी स्थान पर रखा है हम सभी को पता है की विभिन्न क्षेत्रो मे संख्याबल होते हुए भी पिछड़े हुए है क्योकि हम हमेशा अपनो से ही लड़ने के मुड मे रहते है दुसरो से नही । लेकिन अपनो से ही भीड़ने मे हमेशा तैयार रहते है।
लेकिन बड़ी विडम्बना है कि ऐैसे ज्वलन्त विषयो पर सोचने और समझने का यह समाज प्रयास ही नही करता है न ही ऐसी बाते रखने वालो का सहयोग और समर्थन करता है साथियो वास्तव मे आप लड़ना ही चाहते होतो उनसे लडो जो समाज के बिखराव की कोशिश करते है ,सुधारो का विरोध करते है,व्यर्थ की और अनावश्यक कुरीतियों का समर्थन करते है, ईतिहास मे अपनी जाति को गलत तरिके से प्रस्तुत करके नीचा दिखाने का प्रयास और बदनामी कर रहे है जैसे मुद्दो पर संगठीत होकर लड़ना होगा अपनो से ही क्यो लड़ते हो ???
समाज मे मृत्युभोज और बाल विवाह को रोकना, शिक्षित समाज बनाने के लिये प्रोत्साहित करना, समाज को नशामुक्त करना आदि आदि समाज सुधार के लिये धरातल पर काम करना होगा और फैसले लेने होगें ।हमे संकुचित न होकर समाज के समावेशी विकास और दीर्घकालीन लाभ के विषयो पर सोचना है जिसका लाभ समाज मे व्यापक रुप से अत्यधिक लोगो को मिले ।
अत: समस्त समाज बंधु समाजहीत के लिये इस संघर्ष मे साथ दें ।
यदि हम इन मुद्दो पर सुधार कर सकते है तभी आने वाली पीढीयां हमें याद करेगी ।
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मृत्युभोज-एक अभिशाप कई बार ऐसा लगता है, अज्ञानता वरदान है।
इग्रोरेन्स इज ब्लिस।
लेकिन जाने अनजाने में कई चीज़ें ज्ञान के प्रकाश में आ जाती हैं और पीड़ा देती हैं। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति है -मृत्युभोज। मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गयी, समझ से परे है। जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर वियोग प्रकट करते हैं, परन्तु यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं।

किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें,खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें।बाकी सभी जाति समूह मृत्युभोज करते हैं। इस भोज के अलग-अलग तरीके  हैं। कहीं पर यह एक ही दिन में किया जाता है। कहीं तीसरे दिन से शुरू होकर बारहवें-तेहरवें दिन तक चलता है। हमने यहां तक देखा है कि कई लोग श्मशान घाट से ही सीधे भोजन करने चल पड़ते हैं और जमकर मिठाई खाते हैं। हमने तो ऐसे लोगों को सुझाव भी दिया था कि क्यों न वे श्मशान घाट पर ही टेंट लगाकर जीम लें। कहीं-कहीं मोहल्ले के लोग, मित्र और रिश्तेदार भोज में शामिल होते हैं, कहीं गांव, तो कहीं पूरा क्षेत्र। तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। आस-पास के कई गाँवों से ट्रेक्टर-ट्रोलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोज पर टूट पड़ती है। क़स्बों में विभिन्न जातियों की ‘न्यात’एक साथ इस भोज पर जमा होती है।मूल परम्परा क्या थी ?

लेकिन जब हमने 80-90 वर्ष के बुज़ुर्गों से इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। उन्होंने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे और ब्राह्मणों एवं घर-परिवार के लोगों का खाना बनता था। शोक तोड़ दिया जाता था। बस।

घर-परिवार और पंडित-पुरोहित-फ़क़ीरों के लिए भोजन बन जाये, ताकि शोक को औपचारिक रूप से तोड़ा जा सके। इस भारतीय परम्परा का अपना मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। इस प्रकार की प्रक्रियाओं में उलझने और आने-जाने वालों के कारण परिवार को परिजन के बिछुड़ने का दर्द भूलने में मदद हो जाती है।

मृत्युभोज का तमाशा
लेकिन इधर तो परिजन के बिछुड़ने के साथ एक और दर्द जुड़ जाता है। मृत्युभोज के लिए 50 हजार से 2 लाख रुपये तक का साधारण इन्तज़ाम करने का दर्द। ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचे। क्या गजब पैमाने बनाये हैं, हमने इज्जत के? अपने धर्म को खराब करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना। कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है। इसका खर्च मृत्युभोज के भोजन के बराबर ही पड़ता है। बड़े-बड़े नेता और अफसर इस अफीम का आनन्द लेकर कानून का खुला मजाक उड़ाते अकसर देखे भी जाते हैं। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के, पहनने लायक नहीं। बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस प्रदेश में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी, उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बच्चे कैसे पढ़ेंगे?
अजीब लगता है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग मिठाईयाँ उड़ा रहे होते हैं। हम आदिवासियों को क्या कहेंगे, जब हमारा तथाकथित सभ्य समाज भी ऐसी घिनौनी हरकतें करता है। लोग शर्म नहीं करते, जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं। और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं।  कुतर्कों का जाल
अब आइये कुछ कुतर्कों से जूझें। क्योंकि जब भी मृत्युभोज रोकने का प्रयास होगा, तो ये सामने लाये जायेंगे। कमाल तो यह है कि ये कुतर्क पूरे राजस्थान के क़स्बों-गाँवों में समान रूप से सुधारकों के सामने फेंके जाते हैं। ये कुतर्क शास्त्री महिलाओं और बुज़ुर्गों का अपना खास निशाना बनाते हैं। कभी शराब बन्दी की बात को बीच में लाकर इस मुद्दे से ध्यान हटाने की भी कोशिश करते हैं। पहले शराब बंद करो, फिर मृत्युभोज बंद करेंगे, का अड़ंगा राजस्थान के प्रत्येक भाग में समान रूप से लगाया जाता है। कल को कह देंगे कि मोबाइल बंद करो! अब शराब और मोबाइल का मृत्युभोज से क्या कनेक्शन है, क्या लेना-देना है? फिर भी स्वार्थी लोगों की क्षमता तो देखिये कि वे अपनी बात को कितनी सावधानी से फैलाने में कामयाब हो जाते हैं। और सही बात कहने वाले चिल्लाते रहते हैं, परन्तु उनकी बात का प्रचार गति आसानी से नहीं पकड़ता।
1. माँ-बाप जीवन भर हमारे लिए कमाकर गये हैं, तो उनके लिए हम कुछ नहीं करें क्या??
इस पहले कुतर्क से हमें भावुक करने की कोशिश होती है। हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है, तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते। वे खोंसते रहते हैं, हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं। अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्युभोज या दिखावा करते हैं,जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे। खैर! चलिए, अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है, तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंदो की मदद कर दें, अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें, पेड़ लगा दें। बहुत कार्य हैं करने के। परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से उनकी आत्मा को क्या आराम मिलेगा? जीवन भर जो ठीक से खाना नहीं खा पाये, उनके घर में इस तरह की दावत उड़ेगी, तो उनकी आत्मा पर क्या बीतेगी? या फिर अपने क्रियाकर्म के लिए अपनी औलादों को कर्ज लेते, खेत बेचते देखेंगे, तो कैसी शान्ति अनुभव करेंगे?जो जमीन जीवन में बचाई, उनके मरने पर बिक गयी, तो क्या आत्मा ठण्डी हो जायेगी?
2. क्या घर आये मेहमानों को भूखा ही भेज दें?
पहली बात को शोक प्रकट करने आने वाले रिश्तेदार और मित्र, मेहमान नहीं होते हैं। उनको भी सोचना चाहिये कि शोक संतृप्त परिवार को और दुखी क्यों करें? अब तो साधन भी बहुत हैं। सुबह से शाम तक वापिस अपने घर पहुँचा जा सकता है। इस घिसे-पिटे तर्क को किनारे रख दें। मेहमाननवाजी आडे दिन भी की जा सकती है, मौत पर मनुहार की जरूरत नहीं है। बेहतर यही होगा कि हम जब शोक प्रकट करने जायें, तो खुद ही भोजन या अन्य मनुहार को नकार दें। समस्या ही खत्म हो जायेगी।
3. हम किसी के यहाँ भोजन कर आये हैं, तो उन्हें भी बुलाना होगा!
इस मुर्ग़ी पहले या अंडे की पहेली को यहीं छोड़ दें। यह कभी नहीं सुलझेगी। अब आप बुला लो, फिर वे बुलायेंगे। फिर कुछ और लोग जोड़ दो। इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है, और न करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना वाकई में निंदनीय है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों पर मिठाईयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए।

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