आज से तीन दशक पूर्व तक राजनीतिक / सामाजिक कार्यक्षेत्र के समाजसेवी जो गंभीरता भरे भाषण देते थे, उसमें उन्हें शब्दों का मायाजाल नहीं पिरोना पड़ता था। उनकी ईमानदार छवि अपने आप ही उनके वक्तव्य को गंभीर बना देती थी और जो श्रोता होते थे, वे भी गंभीर ही होते थे, दर असल उस जमाने में भाषण कम और ठोस कमा ज्यादा होते थे। आयोजक अपने आपको प्रचारित करने या अपनी छवि बनाने हेतु ना तो कार्यक्रम आयोजित करते थे ना ही वक्ता निरुद्देश्य भाषण देते थे, तब इतने ढेर सारे माल्यार्पण, अलग—अलग स्वागत भी नहीं होते थे। तब श्रोता भी गंभीरता से ही (भले ही संख्या कम हो) कार्यक्रमों में जाते थे, आज के समान नहीं, चलो छुट्टी का दिन है, घण्टे डेढ़ घण्टे टाइम भी पास हो जायेगा, पश्चात् वात्सल्य भोज का आयोजन तो है ही। भाषण कई प्रकार के होते हैं। साहित्य, शोध या किसी गंभीर विषय पर हो रहा आयोजन अगर है, तो इसमें प्राय: आयोजक / संयोजक वक्ता एवं श्रोता भाषण देने और गंभीरता से सुनने की कला में सिद्ध हस्त होते हैं, फिर भी कभी कभी ऐसे आयोजन के मुख्य अतिथि या अध्यक्षता कर रहे महानुभाव वे होते हैं, जिन्हें उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा, प्रमुखत: आयोजन में दिये गये सहयोग के कारण ही यह सम्मान दिया जाता है। चाहें या ना चाहें, अंत में उन्हें कुछ बोलना तो पड़ता ही है, और वे प्राय: बड़ी सहजता और सरलता से ऐसा स्वीकारते हुए कि भाई मुझे लंबा चौड़ा बोलना नहीं आता, धन्यवाद कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अपना भाषण समाप्त कर देते हैं। ऐसा ही करना भी चाहिए। और यह अच्छा भी लगता है। परन्तु कभी कभी ऐसे प्रमुख अतिथि भाषण देने के क्षेत्र में भी सिद्धहस्त होते हैं और पूर्व वक्ताओं से भी बेहतर बोल जाते हैं। हो सकता है पाठकगण भी इससे मिलती जुलती परिस्थितियों का सामना करें, या आपकी भी इच्छा है कि आप भी आकर माइक पर कुछ न कुछ बोलें, भाषण दें तो आप भी ऐसा कर सकते हैं, अगर आप निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान दें, उन्हें समझें। अगर आपको लगता है कि आपको भी बोलना पड़ेगा तो बेहतर होगा कि आप समय निकालकर कार्यक्रम के दो चार दिन पहले विषय पर थोड़ा बहुत होमवर्क करके कार्यक्रम में जायें। अगर आपको होमवर्क या तैयारी करने का समय नहीं मिला हो तो प्रयास करें कि आपके बोलने का क्रम दो चार वक्ताओं के पश्चात् आये। अपना क्रम आने के पूर्व समय में स्टेज पर बैठे बैठे ही कार्यक्रम संयोजक एवं पूर्व वक्ताओं के भाषण को ध्यान से सुनें। उनके भाषणों से यह समझने का प्रयास करें कि आखिर यह आयोजन किस उद्देश्य से किया गया है और सारभूत रूप से इस आयोजन से आयोजनकर्ता क्या परिणाम चाहते हैं। सुनते सुनते हुए ही आपको ऐसा लगने लगेगा कि इस संदर्भ में ऐसा ऐसा भी और बोला जा सकता था, या ऐसे ऐसे और भी सुझाव दिये जा सकते थे या पूर्व वक्ताओं द्वारा दिये गये सुझावों का इन कारणों से आप औचित्य नहीं समझते हैं। ऐसी स्थिति में हमेशा ध्यान रखिये कि पूर्व वक्ताओं द्वारा दिये गये वक्तव्य को ही शब्द बदलकर विषय/सुझावों को दोहराइये नहीं। जब तक बेहद मजबूरी / अनिवार्यता ना हो, पूर्व वक्ताओं द्वारा कही गई बात का विरोध भी मत करिये। आपके भाषण का नंबर आने के पूर्व जो समय मिलता है, उस मध्य में सामने बैठे श्रोतावर्ग का आकलन कर लीजिए कि वह किस स्तर का है। अगर घरेलू / पारिवारिक बाल बच्चों सहित श्रोता बैठे हों तो उनके सामने बड़े—बड़े सारर्गिभत भाषण देने का प्रयास मत करिये। अगर आपका क्रम पाँचवे छठे नंबर पर है तथा कार्यक्रम प्रात: का होकर पश्चात् भोजन भी है तो घड़ी पर ध्यान दीजिए। अगर लंच का समय होने आ गया हो तो थोड़ा बहुत बोलकर ही अपना वक्तव्य समाप्त करिये। मैं बहुधा ऐसी परिस्थितियों में फंस जाता हूँ। दिगम्बर जैन सोशल ग्रुप फेडरेशन के राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष होने के नाते वर्ष में कई बार अलग अलग शहरों में होने वाले कार्यक्रमों में मुझे प्राय: बतौर विशिष्ट अतिथ/मुख्य अतिथि या कार्यक्रम की अध्यक्षता करने हेतु बुलाया जाता है। कार्यक्रम अगर प्रात: का है तो हमेशा तय समय से आधा पौन घण्टा लेट ही प्रारंभ होता है। परिचय, मंच आगमन, मंगलाचरण, दीप प्रज्ज्वलन, चित्र अनावरण, स्वागत, माल्यार्पण आदि अनिवार्य आवश्यकता होती ही हैं, इसमें समय तो लगता ही है। बतौर अध्यक्ष या मुख्य अतिथि का संबोधन अंत में ही होता है। तब तक अगर लंच का समय हो गया हो तो श्रोतावर्ग अपना धैर्य खो चुका होता है। आयोजकों के आग्रह के बावजूद भी श्रोता बेमुलाहजे भोजन व्यवस्था की ओर प्रस्थान करने लगते हैं। मैं तो चूँकि इन परिस्थितियों का अभ्यस्त हो चुका हूँ, अत: सहजता से संक्षिप्त उद्बोधन से ही भाषण समाप्त कर देता हूँ। परन्तु कभी कभी मैंने देखा है कि ऐसे प्रमुख अतिथि या अध्यक्षता करते हुए महानुभाव जिन्हें कभी कभार ही अवसर मिलता है, और दस पन्द्रह दिन पूर्व से ही वे अपने वक्तव्य की तैयारी कर रहे होते हैं, तथा वह तैयारी प्राय: लंबी ही होती है, अपनी पूरी बात कहने के लोभ पर नियंत्रण नहीं रख पाते और भले ही कम श्रोता हों फिर भी अपना वक्तव्य पूरा किये बगैर भाषण समाप्त नहीं करते। कोई रिपोर्ट देना हो, प्रतिवेदन प्रस्तुत करना हो, तब तो लिखा हुआ वक्तव्य फिर भी धक जाता है, परन्तु लिखे भाषण को पढ़ने का श्रोताओं पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। बेहतर प्रयास यही होना चाहिए कि जिस संदर्भ में आपको भाषण देना है, उस संदर्भ में आपको जो भी ज्ञान हो, अनुभव हो, चिंतन हो, उसे अपनी सहज बोलचाल की भाषा में संक्षिप्त में श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत करें। येन केन प्रकारेण उसे कठिन साहित्यिक शब्दों से सजाने का प्रयास नहीं करें। भाषण में सिलसिलेवार अपनी बात कहने हेतु अगर आप अभ्यस्त नहीं है तो कोई बुराई नहीं है कि आप एक पर्ची पर पॉइण्ट बनाकर उसे डायस पर सामने रख लें और उसके क्रमानुसार अपनी बात कहें। कभी कभी ऐसा होता है कि जो बात आप कहना चाह रहे थे, सोच रहे थे, दिमाग में आप जो पॉइण्ट बना कर लाये थे, उस पर तो पूर्व वक्ता पहले ही अपनी बात कह गये हैं। अब ऐसे में अगर आप पूर्व वक्ताओं द्वारा कही जा चुकी बता को ही पुन: दोहरायेंगे तो श्रोताओं पर उसका इतना प्रभाव नहीं पड़ेगा। ऐसी स्थिति में विषय से संर्दिभत उन हिस्सो को तलाशें, जिस पर पूर्व वक्ता बोलने से चूक गये हैं, या समय के अभाव में बोल नहीं पाये हैं। अपने पूर्व वक्ताओं के महत्वपूर्ण बिन्दुओं को अतिसंक्षिप्त में उनका नाम लेकर उसे कोट करते हुए तथा सहमति व्यक्त करते हुए जो दो चार बातें उनसे छूट गई थीं, तथा जिन्हें अलग से कहना आवश्यक है, उसे कहते हुए अपना वक्तव्य समाप्त कर दीजिए। इन सबके बावजूद अगर आप पूर्व से ही अनुमान लगा चुके हों कि आपका नंबर आने तक पूर्व वक्ता सबकुछ बोलकर जा चुके होंगे तो ऐसी स्थिति में अग्रलिखित रणनीति से भाषण की शुरुआत करना चाहिए। आप अपने भाषण प्रारंभ करने की शुरुआत को थोड़ा लंबा कर दीजिए। जैसे मंच पर बैठे पदाधिकारी, मुख्य अतिथि, अध्यक्षता कर रहे महानुभाव, आयोजक पदाधिकारियों, का सम्मान पूर्वक नाम लेते हुए अगर मंच पर कोई मंत्री, मेयर, राजनीतिक नेता बैठा हो, तो उसका नाम लेकर उनकी प्रशंसा में कुछ न कुछ कहिए। यह तलाशिये कि आयोजक / ग्रुप / संस्था ने क्या क्या कार्य किये हुए हैं। उन्हें पुन: स्मृत करते हुए उनके द्वारा किये जा चुके कार्यों की प्रशंसा करते हुए पूर्व पदाधिकारियों के साथ वर्तमान पदाधिकारियों की तथा आज के आयोजन एवं उसके उद्देश्यों की प्रशंसा कीजिए। फिर मूल वक्तव्य शुरु कीजिए। पूर्व वक्ताओं द्वारा दिये जा चुके उद्बोधन विषय संबोधन से ऐसे सहमति व्यक्त करते हुए कि मैं भी यह सब कुछ कहना चाहता था, अगर आपके पास कोई अतिरिक्त सुझाव, उदाहरण या कथन का महत्वपूर्ण पक्ष शेष रह गया हो तो उसे और बोल कर उपसंहार करने की भूमिका बनाते हुए प्रत्येक संस्था / ग्रुप आदि में एक विरोधी पक्ष या भूतपूर्व हो चुका पक्ष भी होता है जो प्राय: श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में बैठा होता है। संभव हो तो प्रत्येक से मुस्कुराते हुए उनसे आँख मिलाकर उनका भी नाम लीजिए। कोई भी संदर्भ / कारण तलाश कर उनकी मौजूदगी पूर्व वर्षों में उनके द्वारा किये जा चुके कार्य की भी प्रशंसा करके उनकी उपस्थिति को भी वजन दीजिए। मंच और सदन में बैठे भूतपर्वू एवं वर्तमान विशिष्टजनों की उपस्थिति एवं उपलब्धियाँ को महत्व दीजिए। प्रशंसा एक ऐसी चाहत है, जो कोई संस्था हो / आयोजनकर्ता हो / पदाधिकारी हो या व्यक्तिविशेष हो, इसकी किसी अन्य के द्वारा किये जाने की अपेक्षा हर कोई करता है। यहाँ तक मैंने अपने विगत पन्द्रह वर्षों में हुए अनुभवों से जो कुछ थोड़ा बहुत सीखा है उसका वर्णन उन सामान्य वक्ताओं के संदर्भ में किया है, जिन्हें कभी कभार ही भाषण देने की परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। यहाँ तक मैंने यह बताने का प्रयास किया है कि उन वक्ताओं को भाषण देने की परिस्थितियों में क्या क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए, जो ना चाहते हुए भी भाषण देने की परिस्थितियों में आ जाते हैं। जो वक्ता ज्ञान एवं चिंतन अध्ययन के क्षेत्र में करीब करीब आपस में समानान्तर श्रेणी के ही होते हैं, फिर भी अपने अनुभवों से उनमें से कोई एक चतुर वक्ता अन्य वक्ताओं की तुलना में कहीं ज्यादा तालियाँ बठोर ले जा सकता है और यह तब होता है जबकि वक्ता अपने भाषण में अग्रलिखित चतुराई या यूँ कहें सावधानी बरत रहा है। एसा वक्ता—स्टेज पर बैठे—बैठे ही यह आंकलन कर लेता है कि सामने बैठा श्रोतावर्ग औसत किस बौद्धिक स्तर का है। आप बहुत महान तत्वज्ञानी, प्रकाण्ड विद्वान हों, परन्तु अगर श्रोतावर्ग का स्तर उतना ऊँचा नहीं है तो आपके द्वारा दिया गया सारर्गिभत भाषण भी उसके ऊपर से निकल जायेगा और कहीं आपने अपना भाषण ज्यादा लंबा खींच दिया तो हो सकता है, वह उबासी लेने की मुद्रा में आ जाये। इसलिये भाषण हमेशा ऐसा देना चाहिए, जिसे श्रोतावर्ग आसानी से समझ ले। ऐसा वक्ता—यह सावधानी भी रखता है कि भले ही उसके पास बोलने अपने पक्ष को विवेचित करने हेतु विस्तृत विवरणी हो, परन्तु वह सभी विवरणी श्रोताओं के समक्ष एक ही बार में परोसने का लालच नहीं करता, अत: वह चुन चुन कर वही बात कहता है जो सबसे ज्यादा प्रभाव पैदा करे और समय सीमा में भाषण समाप्त हो जावे। वह भूमिका बनाने में समय बर्बाद नहीं करता। ऐसा वक्ता—यह भी आंकलन करता है कि जो संदर्भ या विषय है उस हेतु श्रोतावर्ग आपसे क्या सुनना चाहता है। कौन सी ऐसी बात है, पक्ष है, जिससे वह स्वयं भी सहमत है और वह वैसा ही सुनने की आपसे अपेक्षा भी कर रहा होता है। आप अपने शब्दों में उसकी ही भावनाओं को व्यक्त कर दीजिए, फिर देखिये, कैसी तालियों की गड़गड़ाहट होती है। आपका अपना ऐसा कोई सुझाव या योजना हो, तो अपना सुझाव देते देते श्रोतावर्ग से भी उसके लिये समर्थन सहमति लाइव व्यक्त करवाइये। ऐसा करने के लिये सभा की अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए वजनदार महानुभावों की तरफ उनसे आँख से आँख मिलाकर जैसे आप उन्हीं से वार्तालाप कर रहे हों, जैसे वे सदन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हों, उनकी सहमति पूरे सदन की सहमति समझी जायेगी, उनसे मुस्कुराते हुए मूक समर्थन मांगिये। संभव हो तो दो चार महानुभावों का नाम लेकर भी जैसे मैंने ठीक कहा ना। ऐसा कहते हुए कि अगर सदन भी मेरी बात से, सुझाव से अगर सहमत है तो तालियों की गड़गड़ाहट के साथ सदन अपनी भी सहमति व्यक्ति करे। ऐसी अपेक्षा करिये। तालियाँ बजाना / और बजवाना हमारी आदत में आ चुका है। क्योंकि ऐसा करने में पैसे तो लगते नहीं, ह्यूमन साइकोलॉजी की इसे, मानवीय आदत कहें या कमजोरी कहें, उसका उपयोग अपने पक्ष के समर्थन में लीजिए। परन्तु इस तालियों की गड़गड़ाहट की भूख के चलते कभी भी कोई ऐसी योजना / प्रस्ताव / सुझाव पर सभा से समर्थन मत लीजिए जो श्रोताओं को तो अच्छा लगे, परन्तु संस्था, आयोजक ग्रुप, पदाधिकारियों के लिये उसे अमली जामा पहनाने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ हों। अत्यधिक खर्चीली समय खाऊ योजना हो या वह मूल एजेण्डे से बाहर की कोई चीज हो। उस दिन तात्कालिक तोर पर तो आप तालियाँ बटोर ले जायेंगे, परन्तु ध्यान रहे, वह संस्था / ग्रुप आयोजक समूह दुबारा उनके कार्यक्रमों में आपको कभी आमंत्रित नहीं करेंगे। ऐसा वक्ता—इस सच को समझ रहा होता है कि भाषण में वास्तविक प्रभाव तो उसके ज्ञान, चिंतन, अध्ययन का ही पड़ेगा। परन्तु यह गुण तो उसके प्रतिस्पर्धी अन्य दो चार वक्ताओं में भी समकक्ष स्वरूप में हो सकते हैं। अत: अपने भाषण में अतिरिक्त प्रभाव पैदा करने हेतु उसकी अपनी भाषण देने की शैली का भी महत्वपूर्ण रोल रहने वाला है। अत: वह सब्जेक्ट, विषय वस्तु एवं श्रोतागणों को उससे सम्बद्ध करने हेतु अपने हाव भाव, बोलने के उतार चढ़ाव, विराम तथा बॉडी लैंग्वेज आदि से भी अतिरिक्त प्रभाव पैदा कर सकता है। (पी. एम. नरेन्द्र मोदी इस टेक्टिस का बहुत चतुराई से अपने भाषणों में प्रयोग करते हैं)। भाषण एक ऐसी कला है जिस पर और भी बहुत सी छोटी मोटी टिप्स दी जा सकती है। परन्तु क्योंकि लेख लंबा हो गया है, पृष्ठों की मर्यादा है, इसलिये मैं इसका यहीं उपसंहार कर रहा हूँ।
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